इतिहास

मुगल चित्रकला | राजपूत चित्रकला | मुगल चित्रकला के प्रमुख लक्षण | मुगल चित्रकला और राजपूत चित्रकला की तुलना

मुगल चित्रकला | राजपूत चित्रकला | मुगल चित्रकला के प्रमुख लक्षण | मुगल चित्रकला और राजपूत चित्रकला की तुलना

मुगल चित्रकला और राजपूत चित्रकला

मुगल चित्रकला डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने लिखा है कि “मुगलों की चित्रकला का उद्भव पर्शिया (ईरान) में हुआ था। पर पर्शिया के स्रोत से जो चित्रकला भारत प्रविष्ट हुई, वह विशुद्ध पर्शियन (ईरानी) नहीं थी।” उसमें बौद्ध, चीनी, बैक्ट्रियन, मंगोल तथा ईरानी तत्वों का मिश्रण था। यही चीनी-ईरानी चित्रकला बाबर के साथ भारत आई। यहाँ भारतीय चित्रकला से उसका मिश्रण हुआ और उसके फलस्वरूप मुगल चित्रकला विकसित हुई। पहले मुगल चित्रकला में विदेशी प्रभाव की अधिकता थी, परन्तु क्रमशः उसमें विदेशी तत्व कम होते गये और भारतीय तत्व प्रधान हो गये । इस सम्बन्ध में कलामर्मज्ञ पर्सी ब्राउन का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि “चीनी तथा जापानी चित्रकला की विशेषताएं हैं उनकी रेखाएं; ईरानी चित्रकला की विशषताएँ हैं उसकी रेखाएं और रंग; और भारतीय चित्रकला की विशेषताएँ है उसके रंग। मुगल चित्रकारों ने इन तीनों विशेषताओं को मिला कर एक ऐसी शैली की रचना की, जिसका परिणाम एक ओर तो विशुद्ध मुस्लिम शैली हुई और दूसरी ओर हिन्दू चित्रकला की नवीन शैली। इनमें से पहली का विकास मुगल शैली के रूप में हुआ और दूसरी का राजपूत शैली के रूप में । इससे मुगल तथा राजपूत चित्रकला के स्वरूप तथा उनके एक-दूसरे से अन्तर पर काफी प्रकाश पड़ता है।

यों इस्लाम में चित्रकला का निषेध है, और तुर्क-अफगान युग के सुल्तानों ने चित्रकला को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया, परन्तु औरंगजेब के सिवाय सभी मुगल बादशाह चित्रकला के उत्साही आश्रयदाता थे। उनमें भी अकबर और जहाँगीर विशेष रूप से चित्रकला के प्रेमी थे।

मुगल चित्रकला की विशेषताएं-

(1) मुगल चित्रकारों ने विविध विषयों के चित्र बनायें जैसे कि आखेट के दृश्य, प्राकृतिक दृश्य तथा व्यक्तियों के चित्र । परन्तु इनमें प्रधानता राजदरबार के दृश्यों और उमरावों के चित्रों की ही थी। इसलिए इनमें यथार्थता पर अधिक ध्यान दिया जाता था।

(2) मुगल चित्रकला में जनजीवन का चित्रण नहीं हुआ । बादशाह या जो धनी लोग धन देकर चित्र ले सकते थे, उनके और उनकी रूचि के ही चित्र बनाये जाते थे। जनजीवन के चित्र इस श्रेणी में नहीं आते थे।

(3) मुगल चित्रों में व्यक्तियों के अंग प्रत्यंगों का चित्रण तो खुब सुन्दर हुआ है, परन्तु उनमें भावों की अभिव्यंजना नहीं के बराबर है। इसलिए वे बनावटी और निर्जीव होते हैं।

(4) मुगल चित्रकारों ने चटकीले और शोख रंगों का इतने सुन्दर ढंग से प्रयोग किया है कि चित्र मणि-माणिक्यों से जटित प्रतीत होते हैं।

(5) शाहजहाँ और औरंगजेब ने चित्रकला की उपेक्षा की। इसका परिणाम यह हुआ कि चित्रकारों को ऐसे चित्र बनाने पड़े जिन्हें जनसाधारण खरीद सकें। अठारहवीं शताब्दी में चित्रों का व्यवसाय ही शुरू हो गया।

(6) मुगलकालीन चित्र मुख्य रूप से पुस्तकों के लिए चित्रों और व्यक्तियों के चित्रों के रूप में बनाये गये हैं।

(7) मुगलकालीन चित्र पूर्णता धर्म निरपेक्ष है। वे यथार्थवादी और रोमांटिक हैं। इनमें आध्यात्मिक तत्व का अभाव है।

(8) मुगल चित्रकला में बुखारा, समरकन्द, चीन और ईरान के तत्वों का समावेश है। उसमें कुछ यूरोपीय प्रभाव भी है राजपूत कला का भी कुछ तत्व इसने प्रहण किया है, जैसे छत पर फैली हुई चाँदनी ।

(9) मुगल चित्रकला का सम्बन्ध केवल राजदरवारों से था, जनजीवन से नहीं, इसलिए राजाश्रय समाप्त होते ही मुगल चित्रकला भी तेजी से समाप्त हो गई।

(10) मुगलकालीन चित्रो का एतिहासिक महत्व है।

राजपूत चित्रकला-

मुगलों के साथ आई चीनी-ईरानी चित्रकला और भारतीय चित्रकला के मिश्रण से एक ओर मुगल शैली विकसित हुई और दूसरी ओर राजपूत शैली। राजपूत शैली के प्रमुख केन्द्र जयपुर, अजमेर, उदयपुर, मालवा, जोधपुर, बीकानेर, नाथद्वारा आदि थे। पहाड़ी शैली का विकास राजपूत शैली से ही हुआ था। श्री एम० एल० विद्यार्थी ने लिखा है कि “पन्द्रहवीं शताब्दी में दो बातों ने उत्तर भारत में चित्रकला मे क्रान्ति कर दी : ये थी भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप लोक भाषाओं के साहित्य का विकास और कागज के प्रयोग का आरम्भ।” इस काल में राम और कृष्ण की कथाओं का चित्रण किया गया। मुगलों द्वारा चित्रकला को संरक्षण देने से भी राजपूत शैली को प्रोत्साहन मिला। सन् 1600 से पहले के बहुत थोड़े राजपूत शैली के चित्र उपलब्ध हैं, जिनमें गीत गोविन्द, चौर पंचाशिका और कुछ एक कृष्ण-लीलाओं के चित्रण हैं। सन् 1600 के बाद इस शैली के चित्र प्रचुर संख्या में मिलते हैं। यह कला 17 वीं शताब्दी के अन्त में उन्नति के चरम शिखर पर थी।

राजपूत चित्रकला के विषय रागमालाएँ (राग-रागनियों का मूर्त रूप में चित्रण), ऋतु चित्रण (विभिन्न ऋतुओं का मूर्त रूप में चित्रण), नायिका भेद, कृष्ण-लीलाएँ, राजदरवारों के चित्र, आखेट, उत्सवों आदि के चित्र थे।

राजपूत चित्रकला की विशेषताएँ-

(1) चित्रों में ओज और शक्ति है। (2) भावाभिव्यक्ति स्पष्ट और सरल है। (3) चित्रों के विषय परम्परागत हैं। (4) रंग शोख और चस्कीले हैं। (5) सजावट खूब है । (6) यथार्थ चित्रण की अपेक्षा भावों की अभिव्यंजना पर अधिक ध्यान दिया गया है। (7) आत्मिक तत्व की प्रधानता है। (8) उनमें काव्यों में विर्णित नायक नायिकाओं और रसों तथा भावों का चित्रण है। (9) भावाभिव्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न मुद्राओं का सहारा लिया गया है। (10) जनजीवन का भी सुन्दर चित्रण किया गया है।

राजपूत कला और मुगल कला की तुलना-

इन दोनों कलाओं में कुछ समानताएँ हैं और कुछ अन्तर भी हैं। समानताएँ निम्नलिखित हैं : दोनों कलाएं सगी बहने हैं। दोनों कलाएँ एक विकसित हुई । दोनों में कलाकारों को राजाश्रय प्राप्त था। दोनों में उत्कृष्ट कोटि के कलाकारों ने काम किया । दोनों में चटकोले और शोख रंगों का प्रयोग हुआ है।

फिर भी दोनों में कुछ ऐसे अन्तर है, जिनके कारण ये दोनों शैलियों एक दूसरी से बिल्कुल अलग है। मुगल शैली और राजपूत शैली में मुगा भतार निम्नलिखित हैं: मुगल शैली धर्म निरपेक्ष है, परन्तु राजपूत शैली में पालकता का अंश बहुत है। कृष्ण की लीलाओं । को उसमें प्रधान स्थान दिया गया है। (2) मुगल शैली में जनजीवन की उपेक्षा की गई।।है, परन्तु राजपूत शैली में जनजीवन के विभिन्न दृश्यों का सजीन अंकन किया गया है। पनघट, खलिहान, गांव और बाले, तथा उस काल के लोकजीवन के वास्तविक दृश्य इन दिनों में दिखाई पड़ते हैं। (3) राजपूत शैली में भावों को अभिनयंजना पर आधा जोर दिया गया है। इसलिए इस शैलो के चिा राजीव लगते हैं, जबकि मुगल चितपणार्थ होने पर पी भानहीन होने के कारण निर्जीव जान पड़ते हैं।

मुगल चित्रकला और राजपूत चित्रकला में यही मुख्य अन्तर है।

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Pankaja Singh

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