इतिहास

भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव | भारतीय समाज और चिन्तन पर इस्लाम का प्रभाव | मध्यकालीन भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव

भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव | भारतीय समाज और चिन्तन पर इस्लाम का प्रभाव | मध्यकालीन भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव

भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव

प्रथम बार इस्लाम धर्मी, सातवीं सदी के अन्त में, मालाबार के समुद्र-तट पर आकर बसे थे। इसके पश्चात् इन मुसलमानों का व्यापार वृद्धि करता गया और वह समृद्धिशाली होते गये। यहाँ इनको अपने धर्म को स्वतन्त्रतापूर्वक पालन करने की स्वतन्त्रता थी और ये उसका प्रसार भी कर सकते थे। नवीं शताब्दी के अन्त होने के पूर्व ही ये लोग पश्चिमी तट पर फैल गये और बराबर हिन्दुओं के सम्पर्क में आते रहे। दक्षिण के अनेक राजाओं ने इन्हें प्रत्येक प्रकार की सुविधायें प्रदान की। वल्लभी राजाओं ने तो इनके लिये मस्जिदें तक बनवाई और इनको सरकारी पद तक प्रदान किये। दसवीं सदी में मुसलमान भारत के उत्तरी तट पर फैल गये और वहाँ पर भी इनका व्यापार उन्नत हुआ और उनके नेता, मन्त्री, जल सेनाध्यक्ष, राजदूत जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रक्खे गये और जनसाधारण कृषक बन गये। इन्होंने मस्जिदों का निर्माण कराया, मजार बनवाये और शांति के साथ अपने धर्म का प्रसार किया। इनके कब्रिस्तान धर्म प्रचारकों के केन्द्रों का काम देने लगै परन्तु यह सब कार्य शांतिपूर्ण ढंग से ही चला।

दूसरी ओर मुहम्मद बिन कासिम ने सन् 72 1 में सिन्ध तथा मुल्तान को जीत लिया। परन्तु ये राजनैतिक विजय स्थाई सिद्ध न हो सकी और जल्दी ही मुसलमानों के हाथ से सत्ता निकल गई। राजनैतिक दृष्टि से अरबों की यह विजय व्यर्थ थी परन्तु इसके कुछ सांस्कृतिक प्रभाव अवश्य हुये। अरबों ने भारत से दर्शन, ज्योतिष, गणित, चिकित्सा, विज्ञान, रसायनशास्त्र इत्यादि के अनेक सिद्धांत सीखे और फिर उन सिद्धांतों को यूरोप को दिया। इसके द्वारा भारतीय ज्ञान यूरोपीय प्रदेशों में गया। अब तक हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृतियाँ विशेष रूप से एक-दूसरे के सम्पर्क में न आई थीं। अब तक तो एक-दूसरे की झांकी मात्र ही पड़ी थी। दोनों संस्कृतियों का वास्तविक सम्पर्क उस समय आरम्भ हुआ जब मुस्लिम विजेताओं ने भारत में अपना शासन स्थापित कर राजनैतिक सत्ता को हड़प कर लिया और अनेक मुस्लिम शासकों ने इस्लाम धर्म के प्रसार में पूर्ण शक्ति से योग दिया। महमूद गजनवी ने भारत पर अनेक आक्रमण किये परन्तु उसने भारत में कोई राज्य स्थापित नहीं किया। फिर भी वह एक महत्वपूर्ण अग्रदूत सिद्ध हुआ जिसके द्वारा भारत की दुर्बलता स्पष्ट हो गई और उसके पश्चात् मुस्लिम आक्रमणों का तांता बंध गया और सन् 1192 ई० में तराइन के द्वितीय युद्ध में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज को पराजित कर मुहम्मद गोरी ने भारत में कुतुबुद्दीन को अपना वायसराय नियुक्त कर दिया। कुतुबुद्दीन ने ही सन् 1206 में गुलाम वंश की स्थापना कर भारत में प्रथम बार मुस्लिम राज्य का सूत्रपात किया। इस प्रकार भारत की राजनैतिक सत्ता मुस्लिम शासकों के हाथ में चली गई और अब हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृतियों का प्रत्यक्ष रूप से सम्पर्क आरम्भ हुआ।

आरम्भ में दोनों संस्कृतियों में संघर्ष रहा परन्तु ऐसा संघर्ष स्थायी नहीं हो सकता था। दोनों में समन्वय होना आवश्यक था। यह समन्वय हुआ परन्तु इस समन्वय के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत है। दोनों संस्कृतियों के परस्पर प्रभाव की समस्या एक विवाद का विषय है। कुछ विद्वान कहते हैं कि हिन्दू संस्कृति ने ही अपेक्षाकृत मुस्लिम संस्कृति को प्रभावित किया है और अपनी गहरी छाप मुस्लिम संस्कृति पर लगाई है। हैवेल (Havell) जैसे विद्वान ने कहा है कि अपनी राजनैतिक कमजोरी के होते हुए भी भारत की संस्कृति इतनी महान् थी कि उस पर विजय प्राप्त करना सरल काम न था। मुसलमानों ने भारत में हिन्दू राजाओं का मान मर्दन किया, उनकी राजधानियों को लूटा और नष्ट-भ्रष्ट किया और उन पर अपना आधिपत्य स्थापित कर मुस्लिम विजय की पताका फहराई। पर यह राजनैतिक विजय थी और राजनैतिक ही रही। हिन्दुओं के मस्तिष्क तथा अन्तरात्मा पर मुस्लिम सेनायें विजय न पा सकी और हिन्दू संस्कृति अडिंग बनी रही। ब्राह्मणों ने जो लौह आवरण हिन्दू धर्म के चारों ओर डाल दिया वह अभेद्य सिद्ध हुआ और मुस्लिम संस्कृति उसके भीतर न घुस सकी।

इस मत के विपरीत दूसरा मत यह है कि हिन्दू संस्कृति बहुत सीमा तक मुस्लिम रीति- रिवाज, आचार-विचार और प्रथाओं आदि से प्रभावित हुई है। इस मत का प्रतिपादन डाक्टर ताराचन्द (Dr. Tara Chand) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Influence of Islam on Hindu Cuiture’ में किया है। उनका कहना है मुस्लिम प्रभाव के कारण हिन्दू धर्म, कला, साहित्य तथा विज्ञान में ही परिर्वतन नहीं आया, अपितु हिन्दू संस्कृति की भावना तथा हिन्दू मस्तिष्क की सामग्री ही परिवर्तित हो गई। इस मत को मानने का कोई महत्वपूर्ण आधार नहीं। हिन्दू संस्कृति एक विशाल सागर है। छोटे-छोटे नदी-नालों के गिरने से उस पर क्या प्रभाव पड़ सकता था।

डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक में लिखा है, “विदेशी व विधर्मी लोगों का आक्रमण भारत के लिए कोई नई बात नहीं थी। अरबों और तुर्कों से पहले भी अनेक विदेशी जातियों ने विजेता के रूप में भारत में प्रवेश किया था। यवन, शक, युइशि, पार्थियन, कुषाण, हूण आदि कितनी ही जातियों ने भारत के अनेक प्रदेशों को विजय कर वहाँ अपने राज्य स्थापित किए थे। राजनीतिक दृष्टि से चाहे यह जातियाँ विजयी रही हों, पर धर्म, सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में ये भारतीयों द्वारा परास्त हुई थीं। अनेक यवन राजाओं ने भारत के सम्पर्क में आकर बौद्ध, शैव व वैष्णव धर्मों को अपना लिया था। शक, यूइशि, हूण आदि भारत में आकर पूर्ण रूप से भारतीय बन गये। बहुत पुराने.समय से भारत में ‘व्रात्यस्तोम’ यज्ञ की परिपाटी थी, जिससे इन सब व्रात्य जातियों को आर्यों ने अपने धर्म व समाज में सम्मिलित कर लिया। यह सत्य है कि इन विदेशी जातियों के विश्वासों, रीति-रिवाजों और पूजा की शैली ने भारत के धर्म को भी प्रभावित किया, परन्तु भारत में बस जाने के बाद ये जातियाँ भारत के लिए विदेशी नहीं रहीं। इन्होंने यहाँ की भाषा, धर्म, साहित्य व संस्कृति को पूरी तरह से अपना लिया। भारत के इतिहास में वह पहला अवसर था जबकि अरब और तुर्क भारत में प्रविष्ट होने के बाद भी इस देश के समाज का अंग नहीं बन सके।” उसी के घातक परिणाम पाकिस्तान के रूप में प्रकट हुए हैं।

दोनों संस्कृतियों का समन्वय एक विवादग्रस्त समस्या रही है। परन्तु इन भिन्न-भिन्न मतों के अतिरिक्त एक मध्य मत भी है और वह मत ही अति प्रशावशाली तथा युक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। इस मत के अनुसार दोनों संस्कृतियों ने ही एक-दूसरी को अपनी-अपनी विशेषताओं द्वारा प्रभावित किया है। एक धर्म का दूसरे धर्म पर प्रभाव पड़ा है। राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा, मनोविज्ञान, ज्योतिष, गणित इत्यादि अनेक क्षेत्रों में यह आपसी प्रभाव आज भी दृष्टिगोचर होता है।

समन्वय के प्रेरक तत्व

आमने-सामने शत्रुतापूर्ण नेत्रों को एक-दूसरे को देखते रहना दोनों संस्कृतियों के लिए सम्भव न था। समन्वय का सिलसिला शुरू हुआ और वह काफी दूर तक बढ़ा भी। निम्न तत्वों ने समन्वय की धारा को आगे बढ़ाया-

(1) राज-काज चलाने, शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने में हिन्दुओं का योग। राजनीतिक जीत के बावजूद आर्थिक संघ प्रथा पर पूर्णतया कब्जा करना असम्भव था। मुसलमान सब कुछ करने की कोशिश के बाद भी शासक और शासित सबको एकदम तो मुसलमान नहीं बना सकते थे और अमन-चैन के लिए विजित ‘प्रजा’ का भी योग जरूरी हो जाता है। राज्य-शक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है पर उसका स्थान तो नहीं ले सकती।

(2) फिर समझदार मुसलमान शासकों ने अनुभव किया कि प्रतिदिन की शत्रुता उनके अपने हित में भी नहीं हो सकती। जीते हुए राज्य को भी बढ़ाना, समृद्ध बनाना है तो शान्ति की स्थापना जरूरी हो जाती है।

(3) फिर एक प्रबल केन्द्रीय शासन के अभाव में, मुसलमानों के शासन भी एक नहीं अनेक बने और आपस में लड़ते-भिड़ते रहे। इस लड़ाई में दूसरे पक्ष अर्थात् हिन्दुओं का सहयोग कुछ अर्थ रखने लगा और उसकी आवश्यकता बढ़ने लगी।

(4) फिर इस्लाम ने जो नये उपासक हिन्दुओं से पाए, वे अपनी प्रथा परम्परायें, आदतें भी लेते गए जिनसे दूसरों को भी मेल बैठाना पड़ा।

(5) फिर दोनों तरफ के बुद्धिमानों ने आपस में एक-दूसरे को समझने का प्रयल आरम्भ किया और एक-दूसरे के पवित्र ग्रन्थ पढ़े-सुने जाने लगे।

(6) और धीरे-धीरे कुछ धर्मान्धों को छोड़कर बाकी मुसलमान शासकों ने धर्म सहिष्णुता का पाठ सीखा। कुछ ने तो हिन्दू आचरणों को प्रोत्साहित करना भी शुरू किया और इस प्रकार कालान्तर में एक-दूसरे के समीप मित्र-भाव से भी ये दो संस्कृतियों, दो जीवन दर्शन, दो समाज आते गए।

राजनैतिक क्षेत्र

मुस्लिम विजेताओं ने भारत की आपसी फूट से लाभ उठाकर इस महान् देश की राजनैतिक सत्ता पर अधिकार कर लिया। स्वाभाविक ही था कि मुसलमान राजा यहाँ के प्रभावशाली हिन्दू तत्व को अपना घोर शत्रु समझते। इसी कारण इन लोगों का प्रत्येक रूप से दमन किया गया। जजिया जैसा धार्मिक कर लगाकर हिन्दुओं की धार्मिक भावना को ही चोट नहीं पहुँचाई अपितु उनकी आर्थिक स्थिति को भी दयनीय बनाने का प्रयास किया। उनको उच्च पदों से वंचित कर उनको शासन में भाग न लेने के लिए विवश किया गया, उनका घोर अपमान किया गया, उनको अविश्वास का पात्र घोषित किया गया। बलबन ने तो स्पष्टतया हिन्दुओं को अविश्वसनीय घोषित कर दिया। उसने समस्त उच्च पदों से हिन्दुओं को पृथक कर दिया। इसी प्रकार अलाउद्दीन खिलजी ने गंगा-यमुना के बीच में रहने वाले हिन्दुओं पर अतिरिक्त कर लगाए। उनकी स्थिति दासों जैसी बना दी। उनको घोड़े पर सवार होने, सुन्दर वस्त्र धारण करने, शस्त्र रखने इत्यादि की मनाही कर दी, उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए और उन्हें यातनायें पहुँचाई। इन सबका यह  प्रभाव हुआ कि बहुत से हिन्दू घबराकर मुस्लिम धर्म में परिवर्तित हो गए। हिन्दू धर्म की प्रतिभा प्रायः नष्ट होने लगी और राजनैतिक वातावरण पूर्ण रूप से उनके विपरीत हो गया।

यह सब कुछ होते हुए भी हिन्दुओं का राजनैतिक क्षेत्र में जो भी प्रभाव था, समूलतया नष्ट न किया जा सका और जिस सीमा तक कट्टर शासक बढ़े उससे आगे बढ़ना उनके लिए सम्भव ही न था अन्यथा मुस्लिम उग्रता और भी आगे बढ़ने का प्रयल अवश्य करती। उच्च पदों पर तो मुसलमान अधिकारी रख दिए गए परन्तु निम्न श्रेणियों के पदों पर हिन्दू ही आरूढ़ रहे। पटवारी, आय-व्यय लेखक इत्यादि छोटे पदों पर हिन्दू ही रहते रहे । प्रातप्रति, न्यायाधीश जैसे उच्च पद मुसलमानों के लिए ही थे। परन्तु न्याय करते समय मुस्लिम न्यायाधीश के साथ हिन्द पण्डित भी बैठते थे। इसलिए नौकरशाही में हिन्दू प्रभाव बना ही रहा और राजनैतिक क्षेत्र में धीरे-धीरे सहयोग की भावना दृष्टिगोचर होने लगी। शेरशाह तथा अकबर जैसे सम्राटों ने तथ्य को पहचाना और हिन्दुओं का सहयोग प्राप्त किया।

चन्देरी के मेदनीराय और उनके अन्य साथी मालवा में उच्च पद पर नियुक्त किए गए थे। बंगाल में हुसेनशाह ने कई हिन्दुओं को उच्च पदाधिकारी बनाया था। बीजापुर तथा गोलकुण्डा के बादशाहों ने अनेक हिन्दुओं को अपने यहाँ रक्षा और कुछ ऐसे विश्वासपात्र हिन्दू भी थे जो उनके यहाँ उच्च पदों पर रहते थे। इस प्रकार धीरे-धीरे राजनैतिक क्षेत्र की सद्भावना फैल रही थी और दोनों संस्कृतियों में समन्वय हो रहा था। दूसरी ओर राजपूत नरेश भी मुसलमानों के प्रति उदारतापूर्वक व्यवहार करने लगे थे। मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह ने अपने हराए हुए शत्रु मालवा नरेश महमूद द्वितीय को उसका राज्य वापिस कर दिया था। राजा हमीर ने अलाउद्दीन के एक विद्रोही मुस्लिम सरदार को अपने यहाँ शरण दी थी। उसने सुल्तान की कोई भी परवाह न की। राणा सांगा के यहाँ अनेक मुस्लिम सिपाही तथा सरदार थे जिनका प्रयोग बाबर के विरुद्ध लड़ने में किया गया था। विजयनगर साम्राज्य, जिसका उद्देश्य ही मुस्लिम संस्कृति के उग्र तथा बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना था, वह अपने यहाँ अनेक मुसलमानों को उदारतापूर्वक आश्रय देता था। बहमनी सुल्तानों ने अनेक हिन्दू अपने यहाँ रखे थे। इस प्रकार यह साफ प्रकट है कि राजनैतिक क्षेत्र में सद्भावना बराबर बढ़ रही थी।

सामाजिक प्रभाव

हिन्दुओं में मुसलमानों के सम्पर्क के कारण अनेक नवीन प्रथायें उत्पन्न हुई और उनका जीवन बदला हुआ-सा प्रतीत होने लगा। हिन्दू स्त्रियों में पर्दे का विस्तृत रूप से प्रचलन हो गया। एक घर से दूसरे घर भी बह चारों ओर से ढकी हुई पालिकाओं में जाने लगीं। वह एकान्तवास में रहने के लिए विवश की गईं। उनकी शिक्षा इत्यादि की सुविधायें भी अपर्याप्त हो गईं और समाज में उनका स्तर नीचे ही गिरता चला गया। वह पुरुषों के ऊपर आश्रित रहने के लिए विवश कर दी गई। मुस्लिम स्त्रियाँ भी अपनी हिन्दू बहनों से इस दशा में अच्छी न थीं। फिरोज तुगलक ने तो उन पर इतनी कड़ी पाबन्दी लगाई थी कि वह दरवेशों की कब्रों पर भी न जाएं। हिन्दुओं में बाल-विवाह जोर पकड़ गया क्योंकि प्रायः मुसलमान हिन्दू स्त्रियों का शक्तिपूर्ण ढंग से अपहरण कर लिया करते थे। स्त्रियों से यह आशा की जाती थी कि वह अपना सतीत्व बनाए रखें। इसी कारण सती प्रथा जोर पकड़ रही थी। परन्तु ऐसा बताया जाता है कि सती होने के लिए देहली के सुल्तान की अनुमति लेनी आवश्यक थी। उसके अनुमति-पत्र के बिना सती कराना राज्य की दृष्टि में एक प्रकार का अपराध समझा जाता था। इन कारणों से कन्या का जन्म दुखदायी समझा जाता था।

मुसलमानों के सम्पर्क के कारण दास प्रथा का विस्तार हुआ। हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से दास रखने लगे। सुल्तानों के यहाँ तो दासों की संख्या हानी अधिक हो गई थी कि इनका विभाग ही अलग बन गया। अलाउद्दीन के पास पचास हजार दास थे और इनकी संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ती ही गई। यहाँ तक कि फिरोज तुगलक के सा यह सख्या एक लाख अस्सी हजार हो गई थी। इन सुल्तानों द्वारा अनेक दास चीन, फारस इत्यादि देशों से मंगाए जाते थे। दासों के विभाग के व्यय का पूरा बोझ राज्य के ऊपर होता था और खजाने पर यह व्यर्थ का भार था। अन्त में इस विभाग ने सुल्तानों के अभाव को कम करने में काफी भाग लिया। जुआ खेलना तथा शराब पीना एक साधारण प्रथा बन गई। मुस्लिम दरबार की नकल राजाओं तथा सामन्तों ने भी की। उनके दरबारों में भी श्रेणियाँ बन गई और श्रेणियों के अनुसार ही सामन्त लोग बैठने लगे। इस प्रकार दोनों सभ्यताओं में आदान-प्रदान की भावना फैलने लगी और दोनों जातियाँ धीरे- धीरे एक दूसरे के समीप आने लगीं।

अब तक का हिन्दू समाज एक ठोस इकाई धा। बैद्ध धर्म ने इस समाज का विभाजन नहीं किया था और न जातियों में कठोरता ही थी। परन्तु मुसलमानों ने समाज का विभाजन कर दिया। एक ही देश में स्पष्ट रूप में दो समाज दिखाई पड़ने लगे। प्रत्येक स्तर पर ये दोनों समाज एक-दूसरे से भिन्न बने रहे।

इस्लाम धर्म के प्रचार ने हिन्दुओं को सतर्क कर दिया और उन्होंने अपनी धर्म रक्षा करने के लिए ऐसे नियम प्रतिपादित किए कि धर्म के साथ-साथ जाति परिवर्तन भी कठोर होता गया। किसी भी जाति में न तो कोई सुगमता से प्रवेश ही कर सकता था और न उसको छोड़ ही सकता था। सारा वातावरण अनुदार होता चला गया। हिन्दू समाज को सुदृढ़ बनाने के विचार से सनातनी विद्वानों ने स्मृति ग्रन्थों में अनेक नवीन नियम जोड़ दिये। हिन्दुओं ने इस कठोरता का पूर्णरूपेण पालन किया और इसका फल यह हुआ कि यदि एक ओर हिन्दू संस्कृति की रक्षा हुई तो दूसरी ओर हिन्दुओं के मस्तिष्क में संकुचित भावनाओं का आविर्भाव हुआ। हिन्दू धर्म में उस प्रवाह का अन्त हो गया जिसके कारण उसने मुसलमानों से पूर्व अनेक जातियों का अपने में समावेश कर लिया था। अब हिन्दू धर्म प्रगतिशील न रहकर संकुचित बन गया और उसका द्वार भिन्न-भिन्न धर्म वालों के लिये बन्द हो गया।

यह स्पष्ट है कि सामाजिक क्षेत्र में हिन्दू संस्कृति मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित हुए बिना न रह सकी और उसने अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के प्रभावों को ग्रहण कर लिया।

हिन्दू संस्कृति ने भी मुस्लिम संस्कृति पर गहरे प्रभाव डाले। इसके अनेक कारण थे। प्रथम तो हिन्दू संस्कृति राजनैतिक क्षेत्र में परास्त होने के पश्चात् भी प्रभावशाली बनी रही और यह अनेक प्रकार से मुस्लिम संस्कृति से उच्च रही। आर्थिक क्षेत्र में विवश होकर मुसलमानों को हिन्दुओं की ओर ताकना पड़ा। उन्होंने भूमि तो अपने मुस्लिम सामन्तों को दे दी, परन्तु कृषक तो हिन्दू ही बने रहे। इसी प्रकार व्यापार भी हिन्दुओं के हाथ में रहा। इसलिए जो थोड़े बहुत मुसलमान कृषक तथा व्यापारी बने, वे बहुसंख्यक हिन्दू कृषकों तथा व्यापारियों से अधिक सम्पर्क के कारण प्रभावित बिना न रह सके।

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Pankaja Singh

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