संक्षेपण का अर्थ एवं परिभाषा | संक्षेपण की विशेषताएँ | संक्षेपण के कुछ आवश्यक निर्देश | संक्षेपण का प्रारूप
तेनसिंह का साहस देखकर उनके फ्रांसीसी साहब चकित रह गये। अन्त तक वे बहुत थक गये। यहाँ तक कि उनके पैर की दो उँगलियाँ मामूली ढंग से जम गयी थीं। कहा जाता है कि उनकी वीरता देखकर भावुक फ्रेंच साहब इतने जोश में आये कि वे तेनसिंह को हार पहनाना चाहते थे, पर वहाँ पुष्प नहीं थे, इसलिए खाने के लिए जो सासेज (समोसे) रखे थे, उनकी माला पहना दी। उक्त अभियान में दो साहब मारे गये, पर उसी साल जाड़ों में जिस अभियान में तेनसिंह ने भाग लिया, वे उसमें स्वयं मृत्यु के जबड़ों में जाकर लौट आये। वे कब्र के दक्षिण में दक्षिण में जार्ज फ्रेई के साथ कोक्तंग शिखर पर चढ़ रहे थे, जो 19,900 फुट ऊंचा है। 1951 ई० के 29 अक्टूबर को जार्ज फ्रेई के साथ जहाँ से वे जा रहे थे, वह बहुत ढाल वाली जगह थी। कुछ बर्फ जमी थी, पर बहुत पतली। ऊपर एक और पहाड़ी थी, जिस पर ढलान और अधिक थी। फ्रेई आगे-आगे था। तेनसिंह दस कदम पीछे थे। और एक दूसरा शेरपा औदग्वा उनसे भी दस कदम पीछे था। एकाक फ्रेई का पैर फिसला और वे तेनसिंह की ओर चले। तेनसिंह ने इन्हें बचाने की चेष्टा की, पर स्वयं उनके पैर लड़खड़ा गये। (शब्द 200)
संक्षेपण का अर्थ एवं परिभाषा-
किसी विस्तृत विवरण, सविस्तार व्याख्या, वक्तत्व, पत्र व्यवहार या लेख के तथ्यों और निर्देशों के ऐसे संयोजन को ‘संक्षेपण’ कहते हैं, जिसमें अप्रासंगिक, असम्बद्ध, पुनरावृत्त, अनावश्यक बातों का त्याग और सभी अनिवार्य, उपयोगी तथा मूल तथ्यों का प्रवाहपूर्ण संक्षिप्त संकलन हो।
इस परिभाषा के अनुसार, संक्षेपण एक स्वतः पूर्ण रचना है। उसे पढ़ लेने के बाद मूल सन्दर्भ को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सामान्यतः संक्षेपण में लम्बे-चौड़े विवरण, पत्राचार आदि की सारी बातों को अत्यन्त संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूप में रखा जाता है। इसमें हम कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विचारों, भावों और तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः संक्षेपण किसी बड़े ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण, बड़ी मूर्ति का लघु अंकन और बड़े चित्र का छोटा चित्रण है। इसमें मूल की कोई भी आवश्यक बात छूटने नहीं पाती। अनावश्यक बातें छाँटकर निकाल दी जाती है और मूल बातें रख ली जाती है। यह काम सरल नहीं। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है।
संक्षेपण की विशेषताएँ-
भाषा की सरलता- संक्षेपण के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसकी भाषा सरल और परिष्कृत हो। क्लिष्ट और समासबहुल भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। भाषा को किसी भी हालत में अलंकृत नहीं होना चाहिए। जो कुछ लिखा जाय, वह साफ-साफ हो; उसमें किसी तरह का चमत्कार या घुमाव-फिराव लाने की कोशिश न की जाय। इसलिए संक्षेपण की भाषा सुस्पष्ट और आडम्बरहीन होनी चाहिए। तभी उसमें सरलता आ सकेगी।
शुद्धता- संक्षेपण में भाव और भाषा की शुद्धता होनी चाहिए। शुद्धता से हमारा मतलब यह है कि संक्षेपण में वे ही तथ्य तथा विषय लिखे जायें, जो मूल सन्दर्भ में हो। कोई भी बात अशुद्ध, अस्पष्ट या ऐसी न हो, जिसके अलग-अलग अर्थ लगाये जा सकें। इसमें मूल के आशय को विकृत या परिवर्तित करने का अधिकार नहीं होता और न अपनी ओर से किसी तरह की टीका-टिप्पणी होनी चाहिए। भाषा व्याकरणोचित होनी चाहिए, टेलिग्राफिक नहीं।
प्रवाह और क्रमबद्धता- संक्षेपण में भाव और भाषा का प्रवाह एक आवश्यक गुण है। भाव क्रमबद्ध हों और भाषा प्रवाहपूर्ण। क्रम और प्रवाह के सन्तुलन से ही संक्षेपण का स्वरूप निखरता है। वाक्य सुसम्बद्ध और गठित हों। प्रवाह बनाये रखने के लिए वाक्यरचना में ‘जहाँ- तहाँ ‘अतः’ ‘अतएव’, ‘तथापि’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। एक भाव दूसरे भाव से सम्बद्ध हो। उनमें तार्किक क्रमबद्धता (logical sequence) रहनी चाहिए। सारांश यह कि संक्षेपण में तीन गुणों का होना बहुत जरूरी है—(1) संक्षिप्तता (Brevity), (2) स्पष्टता (Clearness) और (3) क्रमबद्धता (Coherence)।
संक्षेपण के कुछ आवश्यक निर्देश-
- संक्षेपण में मूल सन्दर्भ के उदाहरण, दृष्टान्त, उद्धरण और तुलनात्मक विचारों का समावेश नहीं होना चाहिए।
- सामान्यतः इसे भूतकाल और परोक्ष कथन में लिखा जाना चाहिए।
- अन्यपुरुष का प्रयोग होना चाहिए।
- भाषा सरल होनी चाहिए, मुहावरे और आलंकारिक नहीं।
- मूल तथ्य से असम्बद्ध और अनावश्यक बातों को छाँटकर निकाल देना चाहिए।
- आरम्भ अथवा प्रथम वाक्य ऐसा हो, जो मूल विषय को स्पष्ट कर दे। लेकिन इसका अपवाद भी हो सकता है।
- यह निर्दिष्ट शब्द-संख्या में लिखा जाना चाहिए। यदि कोई निर्देश न हो, तो इसे कम-से- कम मूल की एक-तिहाई होना आवश्यक है।
- समास, प्रत्यय और कृदन्त द्वारा वाक्यांश या वाक्य एक शब्द या पद के रूप में संक्षिप्त किये जायें।
संक्षेपण का प्रारूप-
तेनसिंह साहसी और वीर थे। फ्रांसीसी साहब जार्ज फ्रेई उन पर मुग्ध थे। उन्होंने (फ्रेई ने) आवेश में उनके गले में सासेज की माला पहना दी। 29 अक्टूबर, 1951 ई० को तेनसिंह फ्रेई और शेरपा औदग्वा के साथ 19,900 फुट ऊँचे पहाड़ कोतंक्ता के शिखर पर चढ़ ही रहे थे कि फ्रेई का पैर अचानक फिसल गया। तेनसिंह ने उन्हें बचाने की कोशिश की, लेकिन वे स्वयं लड़खड़ा गये।
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