हिंदी के व्यंजन ध्वनियां | हिन्दी की स्वर ध्वनियां | भारोपीय परिवार की विशेषता
हिंदी के व्यंजन ध्वनियां
हमारे मुंह में दो उच्चारण अवयव हैं-जीभ तथा निचला ओट। अधिकांश ध्वनियों के उच्चारण में ये दोनों अवयव ऊपर-नीचे या आगे-पीछे आ-जाकर फेफड़ों से आने वाली वायु के रास्ते में अवरोध पैदा करते हैं। जैसे प, फ, ब, भ के उच्चारण में निचला ओठ ऊपर उठता है और ऊपर के ओठ को स्पर्श कर वाय का मार्ग अवरुदध करता है। क्या निचले ओठ को ऊपरी ओठ के निकट लाकर बिना स्पर्श कराए आप प, फ, ब, भ ध्वनियों का उच्चारण कर सकते हैं? इसी तरह से त- वर्ग की ध्वनियों के उच्चारण में जीभ की नोंक ऊपरी दांतों के निकट आकर स्पर्श करती है तब त, थ, द, ध, न ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं। इसी तरह से मुख के विभिन्न स्थानों से विभिन्न ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं।
हिन्दी की स्वर ध्वनियां
हिंदी के स्वरों की स्थिति इस प्रकार है-
(क) परंपरा से प्राप्त स्वर – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ
(ख) आगत स्वर – ऑ
‘ऋ’ संस्कृत में एक स्वर थ, हिंदी में उच्चारण के स्तर पर यह समाप्त हो चुका है। हिन्दी की व्यंजन ध्वनियां।
हिंदी के व्यंजनों का वर्गीकरण इन दोनों ही आधारों पर इस प्रकार किया जा सकता है-
1. स्थान के आधार पर | |
कंठ्य (गले से) | क ख ग घ ङ. ह |
तालव्य (तालु से) | च छ ज झ ञ य श |
मूर्धन्य (तालु के मूर्धा भाग से) | ट ठ ड ढ ण ड़ ढ़ ष |
दन्त्य (ऊपरी दाँतों के निकट से) | त थ द ध न |
वर्क्स (दंतमूल से) | स ज र ल |
ओष्ठ्य (दोनों ओठों से) | प फ ब भ म |
दंतोष्ठ्य (निचले ओठ तथा ऊपरी दाँतों से) वफ | वह फ |
भारोपीय परिवार की विशेषता
ध्वनि व्यवस्था- इस परिवार में स्वरों की संख्या ग्यारह है। स्वर लगभग वही है जो आज भी हिन्दी में प्रचलित है-
अति ह्रस्व- अ
ह्रस्व स्वर- अ, इ, उ, ए, ओं,
दीर्घ स्वर- आ, ई, ऊ, ए, ओ
अर्ध स्वर- य, व्
ऋ, लृ दो ध्वनियाँ ऐसी हैं जिन्हें कुछ विद्वान शुद्ध स्वर ध्वनियाँ मानते हैं। इनके ह्रस्व और दीर्घ दोनों रूप थे। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने इन्हें अर्धव्यंजन माना है। इनमें व्यंजनत्व की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। यदि इनमें व्यंजन तत्त्व न होता तो अगले विकास में इनका व्यंजन रूपान्तर सम्भव न हो पाता।
व्यंजन ध्वनियों में क वर्गीय ध्वनियों का प्रसार अधिक है। उच्चारण स्थान की दृष्टि से इनकी विविध स्थितियाँ हैं-
- पुरः कंठ्य- क, ख, ग, घ, ङ्
- पश्चकंठ्य- क, ख, ग, घ, ङ
- कंठोष्ठ्य- क्व, ख्, ग्व,
- दन्त्य या वर्त्स्य त वर्ग- त्, थ, द, ध, न्
- दन्त्य या वर्त्स्य- स्, न्, त्, (थ्), द्, (५)
- ओष्ठ्- प वर्ग प, फ, ब, भ, म्
- कम्पित- र्।
- पार्श्विक- ल्
व्याकरणिक विशेषताएँ- 1. मूल भारोपीय भाषा में तीन लिंग थे-पुल्लिग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग।
- वचन तथा पुरुष भी तीन थे—(एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) (प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष।)
- शब्द निर्माण धातुओं से किया जाता था। प्रत्ययों और उपसर्गों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी।
- क्रिया के रूप में काल भेद था। वर्तमान, भूत, भविष्य के आधार पर कई रूप बनाए जाते थे।
- संज्ञा के रूप सात विभक्तियों में चलते थे।
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