विश्व शक्ति के रूप में जापान का विकास | जापान का मंचूरिया पर आक्रमण और उसका विश्व शक्ति के रूप में उभरना
विश्व शक्ति के रूप में जापान का विकास
मंचूरिया चीन का प्रदेश था। 1930 में उसका क्षेत्रफल लगभग 3,80,000 वर्ग मील था और उसकी जनसंख्या लग्भग 3 करोड़ थी। न केवल यहाँ की भूमि उपजाऊ थी वरन् खनिज दृष्टिकोण से भी यह क्षेत्र मालदार था। मंचूरिया का गवर्नर (चियांग हुसे बलियांग) चीन का सबसे धनवान व्यक्ति था, उसकी सहानुभूति नानकिंग के अधिकारियों के प्रति थी। मंचूरिया के प्रश्न में बहुत से देशों की रूचि थी। सोवियत यूनियन और जापान दोनों वहाँ पर अपना विशेष अधिकार मानते थे। रूसियों की इस क्षेत्र में रूचि न केवल इसलिए थी कि रूसी सरकार आधी पूर्वी चीनी रेलवे की स्वामी थी वरन् इसलिए भी कि रूसियों का बाहरी मंगोलिया पर अधिकार था जो ठीक मंचूरिया के पश्चिम में था।
जापान का दक्षिणी मंचूरिया को रेल पर अधिकार था। यह अधिकार उसको रूस से रूस जापान युद्ध के बाद प्राप्त हुआ था। इसी सन्धि के अनुसार जापान को मंचूरिया में रेल की रक्षा के लिए 15,000 सिपाही रखने का अधिकार प्राप्त हुआ था। यह रेल लाइन 600 मील लम्बी थी। इसका अन्त जापान द्वारा नियन्त्रित बन्दरगाह डटेने बन्दरगाह पर होता था। इसके द्वारा मंचूरिया का आधे से अधिक विदेशी व्यापार होता था। जापान ने रेलवे लाइन के दोनों ओर नगर बसा लिए थे और क्षेत्र के विकास पर 1932 के प्रारम्भ में उसने लगभग 10 लाख डालर खर्च किये थे। इसीलिए जापान इस क्षेत्र पर अपना नियन्त्रण रखना चाहता था। इसके साथ ही अपनी बढ़ती जनसंख्या के लिए भी उसे नये क्षेत्र की आवश्यकता थी और अपनी पूंजी लगाने के लिए भी नये प्रदेश की आवश्यकता थी। भौगोलिक दृष्टि से भी मंचूरिया जापान के निकट था।
जापान ने मंचूरिया में 1931 में उस पर अधिकार करने के लिए कार्यवाही प्रारम्भु कर दी। यह समय इसलिए ठीक था क्योंकि चीन में फूट थी। क्यूमिनटांग दल के दायें और बायें पक्ष आपस में लड़ रहे थे। चीनी लोग भीख और गरीबी से पीड़ित थे। साम्यवादी प्रचार जोरों पर था। जापान के आक्रमण से स्थिति और भी खराब हो गई
जापान को अन्य शक्तियों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन-
इस समय अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति भी जापान के अनुकूल थी, क्योंकि यूरोप के देशों में बेरोजगारी, आर्थिक संकट छाया हुआ था और ये देश अपनी विभिन्न समस्याओं से संघर्ष में ही लगे हुए थे। कुछ शक्तियों ने जापान का मंचूरिया पर आधिपत्य वैध ठहराया। ब्रिटेन जैसे देशों ने जापान का कोई विरोध नहीं किया।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जापान की सेना संसार में एक शक्तिशाली सैनिक इकाई मानी जाती थी। अब सेना को उद्योगपतियों और साहूकारों से भी सहायता मिल रही थी क्योंकि उनकी पूंजी मंचूरिया में लगी हुई थी।
1930 से 1932 तक जापान की सेना सिविल अधिकारियों के हाथों से जापान का प्रशासन निकालकर स्वयं अपने नियन्त्रण में लेने में सफल हो गई। जनवरी 1931 तक मंचूरिया पर जापान ने पूर्ण अधिकार कर लिया।
चीनियों का विरोध और राष्ट्र संघ-
चीन ने मंचूरिया के प्रश्न पर राष्ट्र संघ में जापान की शिकायत की । जापानी प्रतिनिधि ने कहा कि जापान ने वहाँ केवल पुलिस कार्यवाही की है क्योंकि चीनी सिपाहियों को दक्षिणी मंचूरिया की रेलवे लाइन को उड़ाते देखा गया था। राष्ट्र संघ जापान के विरुद्ध कोई कदम उठाने में असमर्थ रहा बावजूद इसके कि जापान ने संघ के प्रतिज्ञा-पत्र की धारा 3 (10) का उल्लंघन किया था। इसके अलावा नौ शक्तियों की सन्धि (Nine Power Treaty) में भी सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले सदस्यों ने चीन की प्रभुसत्ता, स्वतन्त्रता प्रादेशिक अखण्डता आदि का वचन दिया था और चीन में प्रभावशाली व स्थायी सरकार निर्माण करने में सहयोग देने का भी वचन दिया गया था। ब्रियाँ-केलौंग समझौते में भी यह निर्णय हुआ था कि सभी संघर्षों को जो उनके बीच होंगे, शान्तिपूर्ण साधनों से हल किया जोयगा।
जापान का राष्ट्र संघ की सदस्यता से त्यागपत्र-
जापान को मंचूरिया पर आक्रामक कार्यवाही से अमेरिका ही नाराज था। अमेरिका के कठोर रूख के कारण राष्ट्र संघ ने लिंटन कमीशन नियुक्त किया जिसने 1932 में अपनी रिपोर्ट दी। यद्यपि इस रिपोर्ट में जापान को स्पष्ट रूप से आक्रमणकारी नहीं बताया फिर भी सिफारिश की गई कि दोनों (चीन और जापान) में प्रत्यक्ष वार्ता होनी चाहिए और चीन तथा जापान में सन्धि की बात कही गई। फरवरी 1933 में राष्ट्र संघ ने लिंटन रिपोर्ट पर वाद-विवाद किया। जापान ने अपने विरूद्ध प्रतिक्रिया के फलस्वरूप राष्ट्र संघ की सदस्यता छोड़ने के लिए नोटिस दे दिया।
राष्ट्र संघ सदस्य जापान के विरुद्ध कोई ठोस कार्यवाही करने के लिए तैयार नहीं थे। ब्रिटेन के विदेशमंत्री सर जॉन साइमन ने स्पष्ट कह दिया कि मंचूरिया के प्रश्न को लेकर उनका देश जापान से युद्ध नहीं करेगा। अन्य देशों ने भी जापान का विरोध नहीं किया।
मंचूरिया पर जापान के आधिपत्य ने जापान को विश्व शक्ति के रूप में प्रकट किया। राष्ट्र संघ अपने उदेश्य में असफल हो गया। इस घटना से अन्य राष्ट्रों ने भी राष्ट्र को चिन्ता छोड़ दी । कालान्तर में इसी का परिणाम 1939 में दूसरे विश्व युद्ध के रूप में प्रकट हुआ।
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