इतिहास

जापान के शीघ्र उत्थान का वर्णन | रूस-जापान युद्ध के कारण | रूस-जापान युद्ध के परिणाम

जापान के शीघ्र उत्थान का वर्णन | रूस-जापान युद्ध के कारण | रूस-जापान युद्ध के परिणाम

जापान के शीघ्र उत्थान का वर्णन

पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी भावना उन्हें यूरोप से एशिया की ओर आकर्षित करने लगी और उनकी लिप्सा के प्रथम शिकार चीन (China) व् जापान (Japan) बने, क्योंकि 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक दोनों देश सामन्तवादी दृष्टिकोण के तथा आधुनिकता में पिछड़े हुए थे। अफीम-युद्धों (Opium-wars) के समय ब्रिटेन चीन में बलात् प्रविष्ट हो गया तथा अन्य देश भी इससे लाभ उठाकर चीन में अनाधिकृत रूप से प्रविष्ट होने लगे। वे सभी शक्तिया चीन व जापान के साथ व्यापारिक सम्बन्ध जोड़ना चाहती थी। 1861 ई०से 1895 ई. तक चीन की राजनीति में भी विदेशी प्रविष्ट होने लगे। उन्होंने उसके कुछ भागों पर अधिकार भी कर लिया था। जब चीन में विदेशी शक्तियाँ महत्वपूर्ण होती जा रही थी। तभी उनके दूसरे शिकार जापान ने आश्चर्यजनक प्रगति कर सम्पूर्ण विश्व के समक्ष अल्पावधि में उत्कर्ष का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।

(1) जापान की 1867 ई० से पूर्व की स्थिति-

जापान भी चीन की भाँति पिछड़ा हुआ और अविकसित तथा छोटे-बड़े द्वीपों का समूह था, जिस पर स्पेन (Spain), हालैण्ड (Holland) और पुर्तगाल (Portugal) के पादरियों, धर्म-प्रचारकों और व्यापारियों को दृष्टि पड़ी। किन्तु जापान की सरकार अपने देश में किसी भी विदेशी का प्रवेश पसन्द नहीं करती थी। अतः 1637 ई० में दो राजाज्ञाओं द्वारा विदेशियों के आगमन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसके पश्चात् 19वीं शताब्दी में डच (Dutch) व रूसी (Russians) व्यापारियों ने जापान में प्रवेश करने का प्रयत्न किया। अब जापान की सरकार को और भी अधिक कठोर कदम उठाने पड़े और 1825 ई० में घोषित किया गया कि यदि कोई भी विदेशी किसी भी प्रकार जापान के सीमा तट पर दिखाई देगा तो उसे तत्काल गोली मार दी जाएगी। इस घोषणा द्वारा जापान ने विदेशी प्रवेश को उस समय तक रोके रखा जब तक चीन में अफीम युद्ध (Opium Wars) के बहाने बड़ी संख्या में विदेशी प्रविष्ट होकर वहाँ अव्यवस्था न फैलाने लगे।

जापान के ये प्रयास यूरोप के स्वार्थी देशों की साम्राज्यवादी नीति से बचने के लिये ही थे, किन्तु रूस (Russia) व ब्रिटेन (Britain) के स्थान पर साम्राज्यवादी संकट, संयुक्त राज्य अमरीका (U.S.A) द्वारा भेजा गया था। अमरीका का व्यापार बहुत से द्वीपों के साथ होता था। वह जापान में भी अपना व्यापार बढ़ाना चाहता था, किन्तु जापान की सरकार किसी भी प्रकार से इसे मानने के लिये तैयार नहीं थी। 1846 ई० में प्रशान्त औमहासागर एक जहाज फंस गया था। अत: अमरीकी सरकार ने जापान से सहायता की याचना की, किन्तु जापान सरकार ने याचना अस्वीकृत कर दी। अन्त में अमरीका की सरकार ने जल सेनानायक कमोडोर पेरी (Commodore Perry) के नेतृत्व में चार युद्ध-पोत कुछ उपहार भेंट तथा एक पत्र, अपने लिये व्यापारिक सुविधाओं की प्राप्ति के लिए जापान के सम्राट के पास भेजा तथा एक वर्ष की अवधि पत्र का उत्तर देने के लिए दी। एक वर्ष के पश्चात् पैरी (Perry) पुनः योडो (Yedo) की खाड़ी में आठ युद्ध-पोतों सहित आया। इस समय तक जापान अमरीका को सुविधा देने के लिए निर्णय कर चुका था। अन्तत: जापानी द्वार विदेशियों के आगमन के लिये खोल दिये गये। 1867 ई. तक लगभग सभी देश जापान के साथ व्यापारिक सन्धि कर चुके थे तथा ब्रिटेन भी क्रीमिया (Cremia) के युद्ध के पश्चात् जापान के साथ मित्रता का हाथ मिला चुका था।

(2) जापान की क्रान्ति (Revolution in Japan)- 

व्यापारिक सन्धि होने के साथ ही जापान अपने देश की उन्नति और विकास के दृष्टिकोण से पाश्चात्य सभ्यता ग्रहण करने लगा। अब तक जापान की स्थिति मध्य युग- की भांति ही थी। जापानी सम्राट मीकाडो (Mikado) एक महान् आत्मा तथा संसार से विरक्त समझा जाता था। उसका निवास क्योटो (Kyoto) के राजमहल में था, जहाँ से राजा के नाम पर शोगून (Shogun) नामक जापान का प्रधानमन्त्री राजकीय कार्य करता था। विदेशी व्यापारी भी प्रधानमन्त्री को ही वास्तविक शासक मानते थे।

जनता आरम्भ से ही शोगून (Shogun) की नीति से असन्तुष्ट और विदेशियों के जापान में प्रवेश के विरुद्ध थी, क्योंकि विदेशी जापानी जनता का उसी प्रकार आर्थिक शोषण करने लगे थे जिस प्रकार वे पहले से ही चीनी जनता का शोषण कर रहे थे । इससे जापानी जनता के मन में विदेशियों के प्रति धूणा व आक्रोश की भावना उत्पन्न हो गई थी। अब प्रत्येक स्थान पर हिंसक क्रान्तियाँ होनी आरम्भ हो गई। जनता जापान-सम्राट मीकाडो (Mikado) के हाथ में राजसत्ता सौंपकर जापान को विदेशियों से खाली कराना चाहती थी। 1867 ई० में सम्राट की जय हो’ ‘जंगली विदेशियों को निकाल दो’ के व्यापक उद्घोष के साथ ही प्रधानमन्त्री शोगून (Shogun) के प्रशासनिक अधिकार समाप्त कर दिये गये और मीकाडो (Mikado) जापान के वास्तविक शासक बने। जापान-सम्राट ने अपने देश की सर्वतोन्मुखी उन्नति के लिये एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार का निर्माण किया। समुराई (सैनिक-वर्ग) को जर्मनी ढंग का सैनिक-प्रशिक्षण दिया गया तथा नौ-सेना (Navy) को ब्रिटेन (Britain) को नौ-सेना जैसा बना दिया गया।

(3) जापान का आधुनिकीकरण (Modernization of Japan)- 

अब जापान विस्मयकारी द्रुत गति से आधुनिक बनने लगा। रेल-तार-डाक, विद्युत उद्योग और कारखानों की पाश्चात्य देशों के समान स्थापना करके जापान विकसित और आधुनिक राष्ट्र के रूप में विश्व के समक्ष प्रकट हुआ। विदेशी व्यापार भी प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक बढ़कर 27 गुना हो चुका था, जो स्वयं में एक आश्चर्य था। जापान ने विदेशों में शिष्ट-मण्डल भेजने आरम्भ कर दिये। नेपोलियन कोड (Code Nopoleon) अर्थात् नेपोलियन की विधि-संहिता के आधार पर कानूनों का निर्माण कराया गया। नवीन कैलेण्डर बनाकर सभी धर्मों को मान्यता प्रदान की गई । रूस के जनूतन्त्रात्मक विचारों को, रूसी पुस्तकों का जापानी भाषा में अनुवाद करके, ग्रहण किया गया और जर्मनी की राष्ट्रवादी भावना ने भी जापानियों को विकास पथ पर आगे बढ़ाया। इस प्रकार 50 वर्षों में ही जापान का काया-कल्प हो गया। 1899 ई० में जापान के सम्राट मिकाडो (Mikadoy द्वारा निर्मित संविधान में दो भवनों की धारा सभा का निर्माण किया गया था तथा मिकाडो के प्रति उत्तरदायी होने वाले मन्त्रीमण्डल का गठन किया गया। बच्चों के लिये प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। जापान के विविध भागों में बड़ी संख्या में राष्ट्रीय संरक्षण के अन्तर्गत विद्यालय निर्मित किये गये, जहाँ अंग्रेजी भाषा और सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई।

(4) विदेश नीति (Foreign Policy)- 

आधुनिकीकरण के पश्चात् जापान के सम्राट द्वारा शक्तिशाली विदेश नीति का निर्धारण किया गया। कोरिया ने 1872 ई० में जापान के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को अस्वीकृत किया तो जापान ने पाश्चात्य साम्राज्यवादी नीति (Policy of Imperialism) का अनुकरण करते हुये कोरिया (Korea) और उसके बन्दरगाहों पर विध्वंसकारी बम-वर्षा कराई।

(5) चीन के साथ युद्ध (Sino-Japanese War 1894-95)- 

चीन के साथ जापान के युद्ध का प्रमुख कारण कोरिया (Korea) ही था क्योंकि जापान की सुरक्षा के लिये कोरिया का जापान के नियंत्रण में होना आवश्यक था और कोरिया इस समय चीन के अधीन था। अतः जापान ने अवसर पाते ही चीन से कोरिया छीन लेने के लिये उस पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इस समय विदेशी शक्तियां चीन के शासन की दुर्बलता का भरपूर लाभ उठा रही थी। इससे जापान को भी अपने ऊपर खतरे की आशंका होने लगी। यद्यपि जापान की स्थिति इतनी सुदृढ़ हो चुकी थी कि पाश्चात्य देश स्वयं उसके साथ मैत्रीपूर्ण सन्धि करने को उत्सुक हो रहे थे। परन्तु रूस ने साइबेरिया (Siberia) पर अधिकार करके उत्तरी कोरिया की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया था। रूस की इस चेष्टा ने जापान को सजग कर दिया। अब चीन से कोरिया को लेना जापान के अस्तित्व की सुरक्षा के लिये आवश्यक था। अतः 1806 ई० में उसने सन्धि करके कोरिया को चीन से मुक्त स्वतत्र राज्य का दर्जा प्रदान किया। इसी से उत्साहित होकर कोरिया के राजनीतिक दल ‘टोघकों’ (Tonghaks) ने विदेशियों को देश से निष्कासित करने के लिये चीन से सहायता मांगी । चीन ने 2500 सैनिकों की सहायता भी दी, परन्तु यह कार्यवाही 1884 ई.को सन्धि के विरुद्ध थी। अतः जापान ने हस्तक्षेप करके 8000 सैनिक कोरिया में छोड़े। यद्यपि वहाँ का विद्रोह शान्त हो गया था, परन्तु चीन-जापान परस्पर युद्ध के लिये तैयार थे। दोनों देशों ने मिलकर सन्धि करनी चाही। चीन ने कभी भी कोरिया में हस्तक्षेप न करने का प्रस्ताव रखा । जापान ने भी “दोनों देश मिलकर आन्तरिक सुधार करेंगे” का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। चीन ने जापान के इस प्रस्ताव को अमान्य कर दिया। 1894 ई० में जापान ने कोरिया में अपने सुधरों को लागू करने से लिये कहा तथा कोरिया द्वारा इसे अस्वीकार कर देने पर जापान ने वहाँ के शासक को आक्रमण करके बन्दी बना लिया। चीन के द्वारा जापान के इस कृत्य की निन्दा की जाने पर “जापान ने चीन के कोरिया जाने वाले जल-पोत को पानी में डुबा दिया। इसी घटना से दोनों देशों में प्रत्यक्ष युद्ध आरम्भ कर दिया गया।

(6) युद्ध की घटनायें (Events of War)-

निरन्तर 9 माह के भीषण युद्ध के पश्चात् जापान की विजय हुई। सितम्बर के अन्त में चीनी सेना कोरिया से निकाल दी गई। 1895 ई. तक जापानी सेना ने शाण्टुंग (Shantung) पहुंचकर पीकिंग (Peking) के लिये संकट उत्पन्न कर दिया। अप्रैल 1895 ई० में युद्ध समाप्त हुआ। चीन् को जापान के साथ शिमोनोसेकी की सन्धि (Treaty of Shimonoseki) करके फारोसा द्वीप (Formosa island), पेस्केडोरस (Peskedoras) लाओटंग (Liaotung) को प्राय: द्वीप तथा भारी मात्रा में क्षतिपूर्ति को राशि जापान को देनी पड़ी। युद्ध का परिणाम यह हुआ कि जापान भी अब सभ्य और सशक्त देशों की गणना में आ गया था।

(7) इंगलैण्ड तथा जापान की सन्धि (Anglo and Japanese Alliance)-

ग्रेट ब्रिटेन (Great Britain) फ्रांस (France) रूस (Russia), और जर्मनी (Germany), ने मित्र बनकर चीन के प्रदेशों पर अधिकार करना आरम्भ कर दिया था, परन्तु जापान को इन्होंने अलग ही रहने दिया। 1900 ई० में बाक्सर विद्रोह (Boxers-Revolt) के बहाने से रूस ने बलात् मन्चूरिया (Manchuria) पर अधिकार कर लिया था। इस कारण से जापान के लिये यह आवश्यक हो गया कि वह किसी ऐसे समर्थ और रूस-विरोधी देश के साथ सन्धि करे, जो रूस (Russia) का दृढ़तापूर्वक सामना कर सके। अतः जापान ने इंगलैण्ड की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया। 1902 ई० में दोनों देशों के मध्य सन्धि (Anglo Japanese Alliance) सम्पन्न हुई जिसके अनुसार निश्चय किया गया कि “यदि कोई भी दो देश जापान और इंगलेण्ड में से किसी एक पर आक्रमण करेंगे तो वे परस्पर एक-दूसरे की सहायता करेंगे। दोनों देशों ने चीन को दोनों ही के लिये मुक्त द्वार (Free to Enter) स्वीकार किया। इस सन्धि को 1905 ई० 1911 ई० में फिर से दोहराया गया, इस सन्धि में कोरिया पर भी जापान का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। इंगलैण्ड और जापान की यह सन्धि बराबरी के स्तर पर थी तथा इसने जापान की शक्ति और प्रतिष्ठा में अत्यधिक वृद्धि की।

(8) रूस-जापान युद्ध कारण (Causes of the Russia japanese War)-

(i) इंगलैण्ड के साथ मित्रता की सन्धि होते ही जापान की गणना शक्तिशाली देशों में की जाने लगी। इस सन्धि के कारण रूस (Russia) जापान (Japan) से भयभीत हो गया था क्योंकि उसे फ्रांस से सहायता मिलने की आशा नहीं थी। (ii) जापान ने रूस से मन्चूरिया (Manchurin) वापिस करने की मांग की, जिसे रूस स्वीकार करके भी पूर्ण नहीं करना चाहता था। उसने 6-6 माह के अन्तर से रूसी सेना मन्चूरिया (Manchuria) से वापिस बुलाने का जापान को आश्वासन तो दिया किन्तु अपनी सेना मन्चूरिया से नहीं हटाई । (iii) इसके अतिरिक्त रूस द्वारा कोरिया (Korea) में भी जापान के प्रभाव को कम करने का प्रयास किया जाने लगा। रूस के साथ हुए जापान के युद्ध का यही तात्कालिक कारण था।

युद्ध की घटनायें (Events of War)-  जापान ने 1904 ई. में रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार अब तक के अजेय माने जाने वाले यूरोपीय देशों में से रूस के विरुद्ध एशियाई देश जापान ने युद्ध करके अजेयता की धारणा को थोथा सिद्ध कर दिया था। युद्ध आरम्भ होने से पहले ही निश्चित था कि जापान ही जीतेगा। 15 दिन के अविराम युद्ध में 60,000 से अधिक सैनिक दोनों पक्ष में अलग-अलग हताहत हुए । जापान ने विजयी होकर प्रशान्त महासागर पर एकाधिकार प्राप्त कर लिया।

(9) पोर्टसमाउथ की सन्यि (Treaty, Portsmouth)- 

अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने मध्यस्थ बनकर रूस (Rusia) और जापान (Japan) के बीच 1905 ई० में एक सन्धि कराई । यह सन्धि इतिहास में पोर्टसमाउथ की सन्धि (Treaty of Portsmouth) के नाम से प्रसिद्ध है। इस सन्धि के अनुसार अग्रलिखित निर्णय लिये गए-

(i) कोरिया पर जापान के एकाधिकार को मान्यता प्रदान की गई। (ii) रूस द्वारा जापान को लाओतुंग प्रायद्वीप पट्टे पर प्रदान किया गया। (iii) सखालीन (Sakhalin) प्रायद्वीप का दक्षिणी आधा भाग रूस द्वारा जापान को दिया गया तथा मंचूरिया से रूसी सेना हटा लेने का निर्णय किया गया। (iv) रूस द्वारा पोर्टआर्थर का बन्दरगाह जापान को प्रदान किया गया, जो शीतकाल में हिमरहित (Ice Free) रहने के कारण जापान के लिये बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ।

परिणाम (Consequences)-  ‘दो विश्वयुद्धों के मध्य जापान ने इतना शीघ अपना उत्थान किया कि सम्पूर्ण विश्व आश्चर्यचकित रह गया।’ यद्यपि यह विकास जापान ने अपनी सुरक्षा और अपने अस्तित्व को बनाये रखने के प्रयल में किया था, फिर भी रूस और चीन के साथ भीषण युद्ध करने पड़े। (i) इन युद्धों का परिणाम् यही हुआ कि इन युद्धों ने जापान की प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि की। छोटे से देश जापान ने विशाल चीन को पराजित करके यह सिद्ध कर दिया था कि देश प्रेम, अदम्य साहस, और आधुनिक शस्त्रों का संयोग बड़ी शक्ति को भी प्राजित करने की क्षमता रखता है (ii) इस युद्ध ने पाश्चात्य देशों को जापान के साथ मैत्री करने की प्रेरणा दी। (iii) अभी तक की प्रचलित रीति-असमान सन्धि व प्रतिबन्ध भी समाप्त कर दिये गये। अब दो देशों के मध्य समान स्तर पर सन्धि सम्पन्न होने लगी। जापान सुदूर पूर्व का नेता बन गया। (iv) इस युद्ध ने चीन को भी प्रभावित किया। चीन के देशभक्तों ने अपने देश को पाश्चात्य देशों के समान ही उद्योग-धन्धों, शिक्षा एवं अन्य बातों में उन्नत करने का निश्चय किया। देश में सुधारों के लिये मांग की जाने लगी। तथा चीनी युवक विदेशों में जाकर पाश्चात्य शिक्षा, विज्ञान और कला-कौशल का ज्ञान प्राप्त करने लगे। चीनी सेना को भी फिर से संगठित किया गया। अत: 1911 ई० में चीन में क्रान्ति हुई, जिसके द्वारा मंचू वंश (Manchu Dynasty) के शासन का अन्त करके गणतन्त्र की स्थापना की गई, (v) जापान की विजय और रूस की पराजय ने न केवल रूस वरन् समस्त यूरोप की राजनीति को प्रभावित किया। 1907 में ग्रेट ब्रिटेन (Great Britain) के साथ की गई, जापान की मित्रता की सन्धि (Anglo-Japanese Alliance) इसी कारण से दोहराई गई थी क्योंकि जापान को शक्ति रूस (Russia) से अधिक सिद्ध हो गई थी। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप विटेन व रूस ने अपनी शत्रुता समाप्त करते हुए एशिया में अपने हितों को सुरक्षित किया। आस्ट्रिया (Austria) ने भी जापान का अनुकरण करते हुए गोसनिया (Bovnln) और हर्जेगोविना (Herzegovina) के राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

(10) जापान की साम्राज्यवादी नीति (Japanese Policy of Imperialism)- 

इस विजय के परिणामस्वरूप जापान ने उत्साहित होकर साम्राज्यवादी नीति का पालन करना आरम्भ किया। उसने अपने सामाज्य की सीमाओं में पाश्चात्य देशों के समान ही वृद्धि करने के प्रयास आरम्भ किये, जिनके आधार पर वह जापान (Japan) अब यूरोप का सशक्त प्रतिद्वन्दी बन गया था। चीन-विभाजन में उसने हस्तक्षेप किया व रूस को कोरिया से निकालकर 1910ई० में कोरिया को अपने राज्य में मिला लिया।

1914 ई० में प्रथम विश्वयुद्ध के समय जापान अपने चर्मोत्कर्ष पर था। अत: अनुकूल अवसर देख उसने चीन में अपनी सीमा का विस्तार करना चाहा तथा विश्वयुद्ध में जर्मनी के विरुद्ध युद्ध-पोष करने में भी उसे संकोच नहीं हुआ और किया चाओ (kia Chao) प्रदेश हस्तगत कर लिया, चीन के शान्दंग (Shantung) में भी अपनी सेनायें भेज आतंक फैला दिया था तथा वर्साय की सन्धि में उसे शान्डंग मिल ही गया। 1915 में जापान ने चीन के समक्ष 21 मांगे प्रस्तुत की, जिनके लिए मात्र 48 घण्टे की अवधि दी गई थी। इन मांगों द्वारा उसे मंचूरिया के साथ ही समस्त चीन पर संरक्षण का अधिकार भी मिल गया। वर्साय की सन्धि ने जहाँ शान्टुंग पर जापान का अधिकार माना वहीं समस्त एशिया का नेतृत्व भी सौंप दिया गया। ‘लिप्सन’ ने कहा भी है कि “यह विश्व इतिहास के निर्णायक युद्धों में से एक था। इसके परिणामस्वरूप साम्राज्यवादी जापान का उदय हुआ और जापान को गणना विश्व महान शक्तियों में की जाने लगी।

वाशिंगटन सम्मेलन (Washington Conference, 1921)-  सुदूर पूर्व की समस्या पर विचार-विमर्श के लिये वाशिंगटन में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। अमरीका जापान की साम्राज्य विस्तारक नीति से आतंकित था कि यह (जापान) प्रशान्त महासागर के लिये संकट उपस्थित कर सकता है। मुक्तद्वार नीति (Open door policy) के लिये जापान अवरोध है, अतः अमरीका की इच्छा थी कि आंग्ल-जापान मैत्री, जिसके बल पर जापान सर्वशक्ति-सम्पन्न बन रहा था, 1921 में अवधि समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाए। इसीलिये 1921 ई० में जापान, ब्रिटेन, अमरीका तथा फ्रांस ने संयुक्त सन्धि (Four Power Treaty) द्वारा अपने हितों की सुरक्षा और पारस्परिक संघर्षों का अन्त करने का प्रयास किया 9 अन्य देशों द्वारा चीन की सीमा रक्षा और मुक्त द्वार नीति का समर्थन किया। चीन से भारी रकम लेकर जापान ने शान्टुंग तथा किया-चाओ चीन को दिये, किन्तु जापान की 1920 से 1930 तक की नीति उचित ही रही, तथापि उसमें एक परिवर्तन की  लहर और आई जो भविष्य में द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी।

इस प्रकार जापान और रूस के युद्ध ने यूरोप व एशिया दोनों की राजनीति को प्रभावित कर विश्वइतिहास के नये अध्यायों का निर्माण किया।

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Pankaja Singh

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