इतिहास

सन् 1878 का रूस-तुर्को युद्ध | रूस-टर्की युद्ध को निकट लाने वाली घटनायें

सन् 1878 का रूस-तुर्को युद्ध | रूस-टर्की युद्ध को निकट लाने वाली घटनायें

सन् 1878 का रूस-तुर्को युद्ध

रूस-टर्की युद्ध को निकट लाने वाली घटनायें

(Events leading to the Russo-Turkish War)

(1) स्लाव जाति का संरक्षक बनना (To be the Guardian of Slay)-  रूस बलकान प्रायःदीप की निवासी स्लाव् (Slay) जाति का संरक्षक बन गया था। उसने उन्हें तुर्क शासन की अधीनता से मुक्त होने के लिये प्रोत्साहित करने के साथ-साथ सैनिक एवं आर्थिक सहायता भी प्रदान की।

(2) स्लाव चर्च की स्थापना (Establishment of Slav Church)- रूस ने 1870 ई० में तुके सुल्तान (Porte) पर दबाव डाल कर बलकान निवासी स्लाव जाति के लिये स्लाव चर्च तथा स्लाव धर्म गुरु की स्थापना कराई। तुर्क सुल्तान ने जार की मांग को स्वीकार करते हुए स्लाव चर्च और स्लाव धर्म गुरु (Slav Patriarch) की स्थापना की।

(३) सीबास्टोपोल की किलेबन्दी (Fortification of Sebastopole)- 1872 ई० में रूस ने काला सागर (Black Sea) के तट पर स्थिति सीबास्टोपोल (Sebastopole) नाम के बन्दरगाह की मरम्मत कराकर उसके दुर्ग की रक्षार्थ उसकी किलेबन्दी कराई । उसने वहां जल सेना (Navy) के एक बड़े जहाजी बेड़े को भी रख दिया। इस बेड़े में कई बड़े-बड़े युद्ध पोत (War ships) भी थे।

(4) बलकान में तुर्क शासन के विरुद्ध असन्तोष (Disatisfaction aganist Turkish Rule in Balkan)-  बलकान प्रदेश के विभिन्न राज्यों पर तुर्क सुल्तान का शासन था। उसके कर्मचारी बलकान प्रदेशों की जनता पर तरह-तरह के भीषण अत्याचार करते रहते थे, जिनके कारण वहाँ जनता तुर्क शासन के विरुद्ध हो गई थी। जनता की असन्तुष्टि का यह भी एक प्रमुख कारण था कि उन पर राष्ट्रीयता और स्वतन्त्रता आदि की भावनाएँ प्रभाव डालने लगी थी तथा तुर्क सुल्तान ने सुधार के झूठे वायदे करके उनकी असन्तुष्टि को और अधिक बढ़ा दिया था।

(5) स्लाव जाति के कष्टों की उपेक्षा कर सकना (Could ngi avoid the Troubles of slavs)-  रूस के जार द्वारा स्ताव जाति पर बलकार राज्यों में तुर्क नौकरशाही द्वारा किये गये अत्याचारों को सहन नहीं किया जा सका।

(6) युद्ध का तत्कालीन कारण (Immediate Cause of the Russia Turkish War)-  इंगलैण्ड का प्रधानमन्त्री डिजरायली (Disracli) तुर्क सुल्तान का पक्षपाती बना हुआ था। अत: यूरोपीय शक्तियाँ संगठित होकर तुर्की (Turkey) पर आक्रमण करने में असमर्थ थीं। अत: 24 अप्रैल 1877 ई. के दिन रूस के जार द्वारा अकेले ही तुर्क सुल्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देनी पड़ी।

युद्ध की घटनायें

(Events of War)-

रूस के जार ने अपनी राजनीतिक कुशलता के आधार पर आस्ट्रिया-हंगरी के सम्राट को युद्ध आरम्भ होने पर तटस्थ रहने के लिये तैयार कर लिया या। इसके बदले में जार द्वारा अस्ट्रिया के सम्राट का हजेंगोविना (Herzegovina) तथा बोसनिया (Bosania) पर प्रभाव स्वीकार कर लिया गया अतः आस्ट्रिया (Austria) इस युद्ध में तटस्थ रहा। उधर रूमानिया (Rumania) ने भी रूस (Russia) के साथ संन्धि करके तुर्की (Turkey) के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर डाली थी। इस प्रकार रूम और रूमानिया की सेनाओं ने संगठित होकर तुर्की पर आक्रमण कर दिया। केवल दो महीने के अल्प समय में ही देनों की सेनाएँ तुर्क सेना को पराजित करती हुई, डेन्यूब नदी (River Danube) पर केवल तुर्क सुल्तान की राजधानी कुस्तुनतुनिया (Constantinople) की ओर द्रुतगति से अग्रसर हुई।

प्लेवना (Plevenus) नामक स्थान पर तुर्क सेनापति उस्मान पाशा (Usman Pasha) ने अत्यन्त वीरता के साथ युद्ध करके रूस और रूमानिया की सेना की अच्छी तरह पिटाई की और लगभग 5 माह तक उन्हें वहाँ से आगे नहीं बढ़ने दिया इसके पश्चात् एक अन्य रूसी सेना द्वारा सेनापति टाडलेवेन (Tadleben) के नेतृत्व में उस्मान् पाशा की तुर्क सेना को घेर लिया गया। उस्मान पाशा (Usman Pasha) ने रूसी सेना के घेरे को तोड़ने का अत्यधिक प्रयास किया। परन्तु इस कार्य में उसे सफलता प्राप्त नहीं हो सकी और विवश होकर उसे दिसम्बर, 1877 ई० में रूसी सेना के समक्ष हथियार डाल देने पड़े।

अन्य स्थानों पर तुर्क सेना की पराजय

(Defeat of Turkish Army at Other Places)-

सेनापति स्कोवेलेव (Skobeleve) ने जनवरी 1878 ई० में एड्रियानोपिल (Adrianople) को जाने वाले मार्ग से शत्रु सेना का सफाया कर दिया। 28 जनवरी को एड्रियानोपिल का पतन हो गया और रूसी सेना द्वारा वहाँ अपना झण्डा फहरा दिया गया। अब सर्वत्र हो तुर्क सेना को मार-मार कर पीछे हटाया जाने लगा तथा युद्ध में रूस का पक्ष प्रबल हो गया। कुस्तुनतुनिया नगर अब रूसी सेना की पहुंच के भीतर आ गया। सर्बिया (Serbia) ने भी इस स्थिति का लाभ उठाने के लिये तुर्की शासन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर डाली तथा तुओं के प्रसिद्ध हवाई अडडे निश (Nish) पर अधिकार कर लिया। उधर माण्टीनीसो (Montengro) ने भी डुलसिगनों (Dulcigno) एवं स्पिजा (Spizza) नाम के युद्ध की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थानों पर तुर्क सेना को पराजित करते हुए अपना अधिकार जमा लिया।

एशियायी मोचें पर रूस की विजय

(Victory of Russia over Asiatic front)-

रूस की शक्तिशाली सेना द्वारा पश्चिमी एशिया के मोर्चे पर भी विजय प्राप्त कर ली गई। एजेंरम (Ezerum), कार्स (Kars), आर्धान (Ardhan) आदि महत्वपूर्ण दुर्गों पर रूसी झण्डा फहराने लगा और लगभग समस्त अर्मीनिया (Armenia), पर रूस की सेना का अधिकार हो गया। अपनी सेना को सर्वत्र पराजित होते देखकर तुर्क सुल्तान अब्दुल हमीद (Abdul Hamid) ने रूस के साथ सन्धि कर ली, जो इतिहास में सान स्टीफेनो को सन्धि (Treaty o[ San Stefane) के नाम से प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध इतिहासकार ग्राण्ट एण्ड टेम्परले द्वारा सन्धि के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है। कि “उस स्थिति में रूस ने सबसे अधिक बुद्धिमानी का कार्य किया। उसने तुर्कों के साथ 3 मार्च 1878 ई० के दिन सान स्टीफेनो में एक पृथक सन्यि सम्पन्न की। इस सन्धि द्वारा उसने इंगलण्ड का विरोध न करते हुए विजित प्रदेशों में से अधिकांश पर अपना अधिकार स्थिर रखा।”

सान स्टीफेनो सन्धि की धारायें

(Terms of Sun Stelano Treaty)-

(1)  रूस को बेसरेबिया का कुछ भाग बलकान प्रायः द्वीप में तथा कार्स, आर्धान और बातूम (Batum) के दुर्ग पश्चिमी एशिया में प्रदान किये जायें। (2) रूमानिया को दोवरूझा (Dobrujha) का प्रदेश दिया जाये। (3) डेन्यूब नदी के तटीय भाग में स्थिति सभी किलों को, जिन पर अभी तक तुर्कों का अधिकार था, नष्ट कर दिया जाये। (4) अर्मीनिया में सुधारों को तुर्क सुल्तान द्वारा लागू किया जाये। (52 सविया और माण्टीनोपो को स्वतन्त्र राज्य का दर्जा प्रदान किया जाये। (6) बलगारिया के नवीन और विशाल राज्य का निर्माण किया जाये। उसे टर्की को वार्षिक कर तो देना होगा परन्तु अन्य सभी बातों में उसे स्वतन्त्र समझा जायेगा। (7) थेजले और कीट में भी सुधार योजना का निर्माण किया जाये।

इतिहासकार केटलवी ने इस सन्धि के विषय में लिखा है कि-“यह सन्यि यूरोप महाद्वीप से तुर्क साम्राज्य की समाप्ति तथा उसके रिक्त स्थान को रूस द्वारा पूर्ति की द्योतक है। इसके द्वारा काला सागर भी कैस्पियन सागर के समान रूसी झील बन जायेगा।”

बर्लिन कांग्रेस

(Congress of Berlin)-

जुलाई 1878 ई. में जर्मन साम्राज्य के चांसलर प्रिंस बिस्मार्क (Bismurck) के नेतृत्व में सान स्टीफेनों की सन्धि में संशोधन करने के उद्देश्य से इंगलैण्ड, आस्ट्रिया, रूस और जर्मनी के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बर्लिन (Berlin) में किया गया। इस सन्धि पत्र पर 13 जुलाई 1878 ई० को चारों राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर हुए। इस सन्धि के अनुसार निम्न निर्णय किये गये-

(1) आस्ट्रिया का प्रशासनिक अधिकार (Administrative Rights of Austria)-  आस्ट्रिया को बोसनिया और हर्जेगोविना राज्यों पर प्रशासनिक अधिकार प्रदान करते हुये दानों राज्यों को केवल नाम के लिये टी के अधीन रखा जाये। इन दोनों राज्यों के मध्य के प्रदेश नोवी बाजार के संजक (Sanjak of Novi Bazar) पर आस्ट्रिया को सैनिक अधिकार प्रदान किया जाये।

(2) मॉण्टीनीग्रो और सर्बिया की स्वतन्त्रता (Freedom of Montenegro and Serbia)-  दोनों राज्यों को स्वतन्त्रता तो प्रदान की जाये परन्तु माण्टेनीयो की सीमाओं को यथासम्भव संकुचित किया जाए, सर्बिया के आस्ट्रिया में रखा जाए तथा रूमानिया से वेसरेविया (Bessarabia)लेकर उसके बदले में रूमानिया को दोबरूजा (Dobruja) का लगभग 65 प्रतिशत भाग दे दिया जाये।

(3) रूस की सीमा में विस्तार (Expansion in Russian Boundaries)-  रूस को बेसरेबिया (Bessarabia) देकर उसकी सीमायें डेन्यूब नदी (River Danuble) के मुहाने तक बढ़ा दी जाये । एशिया में उसे बातूम (Balim), कार्स (Kars) और आरमीनिया (Armenia) के कुछ भाग प्रदान किये जायें।

(4) इंगलैण्ड को साईप्रस द्वीप दिया जाये(Cyprus Island to England)-  इंगलेण्ड को साईप्रस दीप प्रदान करके उसे तुर्क साम्राज्य को रक्षार्थ वहाँ एक सैनिक अड्डा (Naval Base) बनाने का अधिकार दिया जाये।

(5) वृहत् बलगारिया का विभाजन (Division of Great Bulgaria)-  बृहत् बलगारिया को तीन बड़े भागों में विभक्त करते हुए उनमें निम्न व्यवस्था की जाये-

(क) डेन्यूब नदी और बलकान पर्वतों के मध्य स्थित 20 लाख की जनसंख्या वाले भू-भाग को स्वशासित राज्य का पद प्रदान किया जाये तथा उसे केवल नाम के लिये ही तुर्की के अधिकार में रखा जाये ताकि वह तुर्की को प्रतिवर्ष विशाल धनराशि कर के रूप में दे सके। (ख) बलकान पर्वत के दक्षिण में स्थित रूमालिया (Rumalia) प्रदेश को भी स्वशासन के अधिकार देकर एक ईसाई गवर्नर के अधिकार में दिया जाए। (ग) वरदार घाटी (Vardar Valley) के मकदूनिया (Macedonia) प्रान्त को टर्की को दे दिया जाये तथा थेजले (Theseley) पर यूनान का अधिकार कराकर उसकी शक्ति में वृद्धि की जाये।

उपरोक्त निर्णय करने के पश्चात् बर्लिन कांग्रेस समाप्त कर दी गई । डिजरायली ने इंगलैण्ड पहुंचकर प्रकट किया कि वह बलिन कांग्रेस के अधिवेशन से सम्मान सहित शांति (Peace with Honour) लेकर आया है। डिजरायली का यह कथन कि वह ससम्मान शान्ति की स्थापना करके आया है। शीघ्र ही असत्य सिद्ध हो गया, क्योंकि बर्लिन कांग्रेस के गर्भ में भविष्य में घटने वाली भीषण घटनाओं के बीज निहित थे जिनके कारण बलकान राज्यों पर काली घटायें घिर आई तथा प्रथम विश्व युद्ध का विस्फोट समीप आने लगा। 1886 ई. में रूस ने बर्लिन सन्धि को 69 वीं धारा का उल्लंघन करते हुये बातूम (Batum) को सैनिक अड्डा बना लिया। उधर डिजरायली साइप्रस को पुर्वी रुस सागर का जिब्राल्टर नहीं बना सका। रूस की बलकान प्रदेश में तो प्रगति में बाधा उत्पन्न होती गई परंतु एशिया महाद्वीप पर उसकी प्रगति होती रही जिसके कारण रूस के साम्राज्य की सीमाएं शीघ्र ही भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित अफगानिस्तान (Afghanistan) की सीमा को स्पर्श करने लगी। इस तरह डिजराइली की नीति ने न तो रूप को निर्बल बनाया और न तुर्क साम्राज्य का पतन ही रोक सकी। उसने बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों के रूप में मूल समस्याओं का निराकरण करने की अपेक्षा और अधिक कठिनाइयों को जन्म दिया तथा प्रथम विश्व युद्ध को और भी अधिक समीप ला दिया।

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Pankaja Singh

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