इतिहास

1911 की चीनी क्रांति | 1911 की चीनी क्रांति के कारण | 1911 की चीनी क्रांति के परिणाम

1911 की चीनी क्रांति | 1911 की चीनी क्रांति के कारण | 1911 की चीनी क्रांति के परिणाम

1911 की चीनी क्रांति संक्षेप में

बॉक्सर आंदोलन के पश्चात् साम्राज्यवाद और चीनी राष्ट्र के बीच के अंतर्विरोध तथा सामंतवाद और व्यापक जन-समुदाय के बीच के आंतरिक तनाव काफी बढ़ते गए। चीन का क्रांतिकारी तूफान बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में एक नई बुलंदी पर पहुंच गया। पूंजीवादी क्रांतिकारियों ने, जिनका नेतृत्व सनयात-सेन कर रहा था, देश में जनवादी क्रांति का प्रचार-प्रसार किया और सुधारवादियों के विरुद्ध अपना विचारधारात्मक संघर्ष जारी रखते हुए स्वयं अपने खेमे का विस्तार किया। सुधारवाद् को त्यागकर क्रांति को अपनाने का नवीन वातावरण बन गया। 1905 ई. में सनयात सेन के नेतृत्व में चीन की पहली पूंजीवादी राजनीतिक पार्टी ‘क्रांतिकारी लीग’ की स्थापना की गई। इस पूंजीवादी-जनवादी क्रांति का कहना था- “मंचू शासकों को खदेड़ दो, चीनी राष्ट्र का फिर से उत्थान करो, गणराज्य की स्थापना करो और भूमि का समान बंटवारा करो।”

1911 ई० में हूपेई प्रांत के कुछ क्रांतिकारियों ने मंचू सरकार की कुछ फौजी टुकड़ियों को विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित किया। अन्य प्रांतों में भी इस क्रांति की आग फैली । क्रांति का समर्थन जनसाधारण ने किया। 1912 ई० में चीन गणराज्य को अस्थायी सरकार नानकिंग में कायम की गई । फरवरी, 1912 में मंचू राजवंश के अंतिम सम्राट ने गद्दी त्याग दिया।

1911 ई. की क्रांति के परिणामस्वरूप राजतंत्र का पतन हुआ और चीन में गणराज्य की स्थापना की गई। इस पूँजीवादी-जनवादी गणराज्य के लिए एक ‘अस्थायी संविधान’ तैयार किया गया। साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध जनता को एकजुट करने में चीन के क्रांतिकारी सफल नहीं रहे। अपनी सफलता के लिए उन्हें साम्राज्यवादी एवं सामंतवादी तत्वों से मद्द लेनी पड़ी। इसका फल यह निकला कह अस्थायी सरकार के राष्ट्रपति सनयातसेन को फरवरी, 1912 में अपना पद छोड़ना पड़ा। साम्राज्यवादियों एवं सामंतवादियों तथा पूंजीपतियों का मुख्य प्रतिनिधि युवान शिखाएं स्वयं राष्ट्रपति बन बैठा। 1911 ई० की क्रांति की उपलब्धियों को उसने हड़प लिया।

1840 ई. के अफीम युद्ध से 1911 ई० तक चीनी जनता साम्राज्यवाद एवं सामती तत्वों के विरुद्ध लड़ती रही, किंतु उसके प्रयास असफल रहे । अनेक असफल प्रयासों ने प्रमाणित कर दिया कि न तो किसान और न पूंजीपति वर्ग ही क्रांति का नेतृत्व करके उसे पूर्ण विजय तक ले जा सकते थे।

1911 की चीनी क्रांति के कारण

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में चीन की दशा अत्यंत शोचनीय हो गई थी। डॉ. सन्यातसेन के शब्दों में , वह एक ‘अर्द्ध-उपनिवेश’ बन गया, एक ऐसी गाय बन गया जिसे अनेक साम्राज्यवादी शक्तियों ने एक साथ दुहना शुरू कर दिया। यहां की सरकार निकम्मी होने के कारण देश की रक्षा नहीं कर सकती थी। चीन की शासन व्यवस्था बिल्कुल विकृत हो गई थी। आर्थिक दृष्टिकोण से वह दिनानुदिन पिछड़ता जा रहा था। विदेशी कंपनियों ने चीन में घुसपैठ करके ‘आधुनिकतावादी’ नौकरशाहों द्वारा कायम किए गए औद्योगिक कारोबारों पर भी कब्जा कर लिया। मंचू सम्राट निर्बल हो गए थे। वे चीन को नहीं संभाल सके और क्रांति अनिवार्य हो गई।

बीसवीं शताब्दी में पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान और राजनीतिक विचारधारा से चीन का संपर्क हुआ। चीनी पश्चिमी देश जाकर नई प्रेरणा ग्रहण करते थे। जब वे लौटते थे तब उन्हें चीन में बदलाव लाने की आवश्यकता महसूस होती थी। विदेश में जब चीनियों के साथ अपमानजनक व्यवहार होने लगा तब उनमें आत्म-सम्मान जाग उठा। उनकी नजर में क्रांति द्वारा ही व्यवस्था में परिवर्तन संभव था।

1911 ई. की क्रांति के पीछे सनयातसेन के दर्शन की मुख्य भूमिका थी। वे साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी, दैवी अधिकार के कटु आलोचक और जनतंत्र के प्रवल समर्थक थे । उनका विचार था कि जन-जन में क्रांति की भावना जागृत कर ही साम्राज्यवाद की नींव को हिलाई जा सकती थी। वस्तुतः, 1911 ई० की क्रांति के जनक सनयातसेन ही थे।

साम्राज्यवाद और मंचू सरकार को अकर्मण्यता के प्रति घृणा और विद्रोह की भावना ने अनेक क्रांतिकारी संगठनों को जन्म दिया। सनयातसेन की प्रेरणा से गुप्त समितियों की स्थापना हुई। देश के बाहर टोकियो में उन्होंने ब्लैक ड्रेगन सोसायटी (Black Dragon Society) की स्थापना की। चीनी छात्रों ने एक संगठन कायम किया जिसका नाम तुंगगहुई था। इस संगठन की शाखा प्रत्येक नगर में खोली गई । तुंगमेंगहुई. नामक इस संगठन को चीन में काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई। इन संगठनों ने आपसी सहयोग के बल पर चीन में राष्ट्रीय भावना का प्रसार किया।

देश की युवा-शक्ति क्रांति के वाहक का काम करती है। चीनी छात्र विदेश से शिक्षा प्राप्त कर क्रांति का संदेश अपने देश में फैलाने लगे। चीनी जनता जागृत होने लगी।

आर्थिक दृष्टि से चीन के उत्तर-पूर्व में स्थित लोहे एवं कोयले के खानों पर जापान का प्रभुत्व था। 1904 से 1910 ई. के बीच कुरीब पचास हजार चीनी मजदूरों को दक्षिण अफ्रीका में ट्रांसवाल नों में भेजा गया, जहाँ उन्हें 25 सेंट दैनिक मजदूरी पर अनुबंधित गुलामों की तरह काम करना पड़ता था। चीन का विदेशी व्यापार बढ़कर दुगुने से भी ज्यादा हो गया, किंतु चीन को इससे कोई लाभ नहीं था। उस पर विदेशी कर्जे का बोझ बढ़ता जा रहा था। विदेशी पूंजी को साम्राज्य-वादियों का समर्थन प्राप्त था। चीन के राष्ट्रीय पूजीपति वर्ग द्वारा देश में भारी उद्योग एवं यातायात के विकास के लिए किए गए प्रयासों को गंभीर बाधाओं का सामना करना पड़ा।

चीन में आधुनिक औद्योगिक मजदूर वर्ग का विकास तेजी से हुआ। यह वर्ग पूजीपतियों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक एकताबद्ध और शक्तिशाली था। विदेशी पूँजी के कारण सभी जगह चीनी मजदूरों को एक जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता था। मजदूर वर्ग में अधिकांश लोग पहले किसान थे और गांवों से उनके संबंध अब भी बने हुए थे। उनका शोषण सैकड़ों वर्षों से किया जा रहा था। चीन के पुराने समाज से उन्हें कुछ नसीब नहीं होने जा रहा था। किसानों को न केवल चीनी जमींदारों के प्रत्यक्ष शोषण का बल्कि साम्राज्यवाद के निरंतर बढ़ते शोषण का भी शिकार बनना पड़ रहा था। इस समय तक करीब 70 प्रतिशत जनता कृषि से संबंद्ध थी।

हालाँकि सम्राट अब भी राजगद्दी पर विराजमान था, पर समाज बदलता जा रहा था। वे सभी मुख्य वर्ग, जिन्होंने समकालीन चीनी जनक्रांति के दौरान प्रमुख भूमिका निभाई, अस्तित्व में आने लगे थे।

असंतोष की आग भड़काने में अनेक तात्कालिक कारणों का हाथ रहा। चीन में रेलवे, टेलीग्राफ, सड़क, पुल आदि के निर्माण से यातायात् उन्नतिशील हो गए। इससे क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार चीन में तेजी से हुआ। चीन को क्रांति के कगार पर लाने में छापाखानों और समाचार पत्रों का बड़ा योगदान था।

1906 ई. में कोयला मजदूरों ने विद्रोह कर दिया जिसमें किसान भी शामिल हो गए। 1907 ई० में हानखओ में सैनिकों ने वेतन के लिए वगावत् किया। शाही सेना के बहुत-से सैनिक क्रांतिकारियों के पक्ष में शामिल हो गए। शहर के लोगों ने प्रांत के बाढ़ग्रस्त किसानों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया, जो कई महीनों तक चलता रहा।

1911 की चीनी क्रांति के परिणाम

गणतन्त्र की स्थापना ने 1911 ई० की क्रांति पर सफलता की मुहर लगा दी। सनयातसेन का सपना साकार हुआ। अयोग्य तथा निर्बल मंचू सम्राटों के हाथों से शासन छीन लिया गया। जनता के शासन का द्वार खुल गया। लोगों में एक नया उत्साह पैदा हुआ। लोग चीन के उज्जवल भविष्य के प्रति आशावान हो गए। प्रवासी चीनी स्वदेश लौटने लगे। इस प्रकार, 1911 ई. की चीनी क्रांति ने चीन के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू किया, किंतु इस युद्ध के समय तक चीन के बुरे दिन समाप्त नहीं हो सके थे। क्रांतिकारियों के हाथ में अभी तक शक्ति नहीं आ पाई थी। क्रांति के परिणामस्वरूप चीन की आर्थिक दुर्दशा तथा आंतरिक दुर्व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आ सका। गणराज्य का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। चूंकि चीन की क्रांति आंशिक रूप से असफल रही, इसलिए इसका परिणाम भी संकुचित है।

असफलता के कारण

चीन की क्रांति असफल रही। इसका एक कारण था युवान् शिकाई। सनयातसेन और अन्य क्रांतिकारियों ने ‘युवान शिकाई’ के साथ समझौता करके उसे राष्ट्रपति बना दिया। यह उनकी भूल थी। गणतंत्र की स्थापना तुरंत नहीं हो सकी; क्योंकि युवाने शिकाई राजतंत्र का समर्थक और प्रतिक्रियावादी व्यक्ति था। वह कभी राष्ट्र की एकता का प्रतीक न हो सका। अत: 1911 ई०की क्रांति असफल रही।

राष्ट्रीयता की भावना का अभाव चीन की क्रांति की असफलता का दूसरा कारण था। अगर चीन के सभी निवासी राष्ट्रीयता से प्रेरित होकर क्रांति करते तो सफलता निश्चित थी। चीन में गणतंत्र की स्थापना के बावजूद आर्थिक अवस्था में सुधार नहीं हुआ। उद्योग-धंधों का विकास नहीं हो पा रहा था। जनसाधारण की आर्थिक स्थिति दयनीय रही। सामंती प्रथा का अब भी बोलबाला था। सरकार के पास साधनों का अभाव था। वह चाहकर भी विकास कार्य करने में असमर्थ थी।

अधिकांश चीनी जनता को गणतंत्र के प्रति रूचि नहीं थी। चीन में ऐसी जनता की संख्या पर्याप्त थी जो गणतंत्र के विरोधी न थे, किन्तु उसके प्रति उदासीन थे। चीन में इस समय प्रगतिवादी और रूढ़िवादी दोनों भावनाएँ पनपीं। इन दोनों विचारधाराओं में काफी मतभेद था। इस स्थिति में दोनों में युद्ध होना आवश्यक था। इस संघर्ष की स्थिति में गणतंत्र की सफलता संदिग्ध हो गई।

10 मार्च, 1912 को नानकिंग में नए गणराज्य के संविधान की घोषणा कर दी गई। उसमें मतदान के अधिकार के लिए संपत्ति का मालिक होने की शर्त लगा दी गई थी। फलतः देश के अधिकांश नागरिक मताधिकार से वंचित हो गए। जनता ने महसूस किया कि सरकार का रूप बदलने मात्र से क्रांति सफल नहीं हो जाती। 1921 ई० की क्रांति इस तरह असफल रही और सच्चे गणतंत्र का स्वप्न जल्दी साकार नहीं हो सका।

चीनी क्रांति के कारण एवं परिणाम

चीन के खुले द्वार में यूरोपीय शक्ति द्वारा पाई गई सफलता ने चीन को आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से बिल्कुल जर्जर कर दिया। पश्चिमी देशों के विरुद्ध जब भी चीन की जनता ने विद्रोह किया उन्हें कुचल दिया गया। चीन में पश्चिमी देशों के प्रभुत्व का मुख्य कारण एक तरफ् पश्चिमी देशों का शक्तिशाली होना था तो दूसरी तरफ चीन भी इसके लिए कम जिम्मेवार नहीं था। चीन के आंतरिक मतभेदों ने एक सूत्र में बंधकर पश्चिमी देशों से लड़ने का कभी दंग से प्रयास नहीं किया था। अतः, पश्चिमी देशों की शक्ति को कमजोर करना चीन के लिए संभव नहीं था। लेकिन, आंतरिक एकता और शासन-व्यवस्था में सुधार लाने के पश्चात् पश्चिमी शक्तियों से मुक्ति पाना संभव था। इसके लिए मंचू राजवंश का अंत सबसे आवश्यक था क्योंकि यह शासुन यूरोपीय शक्ति के हाथ में था। 1900 ई० में हुए बॉक्सर-विद्रोह न मंचू राजवंश को सैनिक सुधार करने के लिए बाध्य कर दिया। 1905 ई० में पुरानी परीक्षा पद्धति का अंत करके नई पद्धति को लागू किया गया। जापान से चीन हार चुका था; क्योंकि अपनी तैयारी जापान ने पश्चिमी शक्तियों के तरीके से किया था। अतः, चीन भी अपनी शिक्षा एवं सैनिक तैयारी पश्चिमी ढंग से करना आवश्यक समझा। इसके लिए चीनी लोगों ने आंदोलन किया, किंतु सरकार के शांति-सुधार कार्यों में काफी धीमापन रहा। आंदोलन के कारण चीन के प्रांतों में 1909 ई० में विधानसभा की स्थापना हुई। 1910 ई० में राष्ट्रीय स्तर पर एक महासभा की स्थापना की गई। जिसमें उग्रवादियों का बहुमत था। राजुवंश का अंत कर जनता शासन- कार्य अपने हाथ में चाह रही थी जिसके लिए मंचू राज्य तैयार नहीं था।

नवीन शिक्षा पद्धति के कारण प्रगतिशील विचार के नवयुवकों ने ऊंचे-ऊंचे पद प्राप्त किए। बहुत-से विद्यार्थी विज्ञान एवं आधुनिक शिक्षा के अध्ययन के लिए अमेरिका और यूरोप जाने लगे। शिक्षा के दृष्टिकोण से चीन का विदेशों के साथ संपर्क बढ़ा। इन नवयुवकों ने विदेशी राजनीतिक गतिविधियों को समझा और इसी नीति के आधार पर शिक्षित चीनी वर्ग ने चीन में क्रांतकारी रूपरेखा तैयार की। जो लोग चीन से जापान जान बचाने के लिए भाग गए थे उन लोगों ने जापान में एक क्रांतिकारी दल बना लिया और जो भी चीनी नवयुवक जापान जाता उसे ये लोग अपने विचारों से इस तरह प्रभावित करते कि चीन लौटने के बाद यहाँ भी क्रांतिकारी दलों की स्थापना होने लगी।

समाचार पुत्रों का विकास चीन में 19वीं सदी में ही हो चुका था जिसके माध्यम से पश्चिमी शक्तियों के शोषण के विरुद्ध क्रांतिकारी भावनाएँ प्रसारित की जाने लगी। लोकतांत्रिक पद्धति पर स्थापित शासन के संगठन के महत्व के बारे में चीनी जनता को बताया गया।

बाढ़, महामारी, सूखा, विदेशियों द्वारा शोषण, आबादी का बढ़ना तथा कृषि उत्पादन में कमी आने के परिणामस्वरूप चीनी जनता में घोर अशांति थी। गाँव के लोग बेघर होते गए और शहरों में बेकारी बढ़ती गई। चीनी सरकार जनता की सहायता करने में असमर्थ थी। 1910-11 की बाढ़ तथा अकाल ने चीनी जनता को और बेचैन कर दिया।

भोजन की तलाश में बहुत-से चीनी लोग विदेशों में बस गए। अमेरिका में भी चीनी लोग बसने लगे। अधिक संख्या देखकर अमेरिका द्वारा चीनी लोगों के बस्ने पर रोक लगा दी गयी । बहुत से चीनी लोग मलाया, फिलीपाइन्स, हवाईद्वीप आदि स्थानों में जाकर बस गये। विदेशों से संपर्क होने से इन चीनी लोगों, जिनमें गरीब और अशिक्षित लोग ही ज्यादा मात्रा में थे, के बीच एक नई भावना का प्रसार होने लगा और इनके ज्ञान में वृद्धि हुई। कभी-कभी बुद्दियों में जब ये अपने देश चीन में लौटते तो कई बातों की जानकारी चीनी जनता को देते थे। इस तरह एक तरफ शिक्षा पाने के माध्यम से नवयुवकों में विदेशी बातो से संबद्ध भावनाओ विकास हुआ और दूसरी तरफ गरीब और अशिक्षित जनता में जो रोटी के लिए विदेशों में बस गई। कभी -कभी चीन में आकर विदेशी प्रगति की बात चीनियों को बताई।

बॉक्सर-विद्रोह के परिणामस्वरूप वैसे तो कई क्रांतिकारी दलों को दबा दिया गया किन्तु क्रांतिकारी संगठनों की रचना जारी रही। मंचू राजाओं के कारण सनयावसेन जापान भाग गये। उन्होंने तुंग मेंग हुई नामक एक क्रांतिकारी दल को संगठित किया था जिसका उद्देश्य चीन में मंच राज्य का अन्तू और गणतन्त्र की स्थापना करना था। इसकी शाखा चीनी जनता एवं सैनिकों के बीच भी स्थापित हुई जिसके कारण 1910-11 में चीन में कई सैनिक विद्रोह भी हुए।

चीनी क्रांतिकारियों के प्रयास से प्रांतों का संगठन हो चुका था। इसी समय चीन में रेल लाइनों का निर्माण होने लगा जिसमें विदेशी शक्तियों ने भी घुसपैठ की। चीन की प्रांतीय सरकार अपने-अपने क्षेत्र में रेलवे लाइनों का निर्माण स्वयं करना चाहती थी, किन्तु केन्द्र में प्रांतों बात न सुनकर इसका ठेका विदेशी कंपनी के हाथ में दिया । मंचू शासक के विरूद्ध विद्रोह अब निश्चित सा हो गया जिसकी शुरूआत 10 अक्टूबर 1912 में हैंकों में हुए बम विस्फोट से हुई । यह बम विस्फोट पेकिंग सरकार के विरुद्ध चीनी क्रांतिकारियों के द्वारा की गई थी। अतः इस सम्बन्ध में कई सैनिक और आफिसर क्रांतिकारियों को पकड़ा गया। सेना में असंतोष फैला और विद्रोह शुरू हो गया। सैनिक विद्रोहियों का नेता लीचुवान हंग था। पेकिंग सरकार के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर यह विद्रोह फैलने लगा।

इसी समय केंद्र में महासभा का अधिवेशन चल रहा था जिसमें सदस्यों द्वारा मंचू राजा में सुधार लाने की बात पर विचार किया जा रहा था। मंचू राजा को वही करना पड़ा जो महासभा चाह रही थी। लोकमत की विजय हुई और राष्ट्रीय स्तर पर मंत्रिमंडल के संगठन का प्रस्ताव रखा गया । पश्चिमी देशों के सभी समर्थकों को उनके बीच से हटा दिया गया । देशभक्तों को जेल से आजाद करने का प्रस्ताव महासभा द्वारा रखा गया। मंचू राजा को सारे प्रस्ताव का समर्थन करना पड़ा। प्रांतों के विद्रोह का दमन करना काफी मुश्किल लेकिन आवश्यक था। पेकिंग सरकार को चलाने का कार्य युवान शिकाई नामक वयोवृद्ध राजनेता को सौंपा गया जो राष्ट्रीय महासभा द्वारा 8 नवंबर, 1911 को प्रधानमंत्री बना दिया गया। युवान शिकाई मंचू राजवंश का समर्थक था और क्रांतिकारियों से समझौता करना चाह रहा था। नानकिंग में क्रांन्तिकारी नेताओं की बैठक हुई जिसमें गणतांत्रिक सरकार का अध्यक्ष सनयातसेन को बनाया गया। क्रांतिकारियों की शक्ति में बढ़ोत्तरी हो गई। सनयातसेन जापान से पुनः चीन आ गए।

चीन में पुनः दो सरकारें हो गई। पेकिंग की मंचू सरकार का सारा उत्तरदायित्व युवान शिकाई ने संभाला और नानकिंग की गणतांत्रिक सरकार नेता सनयात्सेन हुए। दोनों सरकारों के बीच पहले तो तनाव फिर समझौता होने की बात हुई। चीन से मंचू राजवंश का अंत कर दिया गया और उसे एक पेंशन निश्चित किया गया। गणतंत्र पर आधारित नई सरकार की स्थापना और उसके संगठन का कार्यभार युवान शिकाई के कंधे पर रखा गया। सनयातसेन ने राष्ट्रपति का पद त्याग दिया और युवान शिकाई चीनी गणराज्य का राष्ट्रपति हुआ। 20वीं शताब्दी में फ्रांसवालों का अनुकरण कर राजसत्ता का अंत और गणराज्य की स्थापना करने वाला एशिया का प्रथम देश चीन था।

1911 ई० की चीनी क्रांति राजनीतिक दृष्टि से सफल अवश्य रही, किंतु आर्थिक दशा नहीं सुधर सको। युवान शिकाई के नेतृत्व में पुराने विचारों का ही बोलबाला रहा। चीन एक राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं हो सका। अशिक्षित चीनी जनता गणराज्य के महत्व को समझने में असमर्थ रही। फलतः, राष्ट्रवादी भावना का अभाव पाया गया।

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Pankaja Singh

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