इतिहास

19वी शताब्दी के यूरोपियन नव साम्राज्यवाद के प्रमुख कारण | 19वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में यूरोप में साम्राज्यवाद के पुनरुत्थान के कारण | यूरोप में उनीसवीं सदी में साप्राज्यवाद का पुनरूत्थान

19वी शताब्दी के यूरोपियन नव साम्राज्यवाद के प्रमुख कारण | 19वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में यूरोप में साम्राज्यवाद के पुनरुत्थान के कारण | यूरोप में उनीसवीं सदी में साप्राज्यवाद का पुनरूत्थान

19वी शताब्दी के यूरोपियन नव साम्राज्यवाद के प्रमुख कारण

19वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों को यूरोप के इतिहास में औपनिवेशिक प्रसार के आधार पर अत्यधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है। इस काल में प्रमुख यूरोपीय शक्तियों द्वारा किया गया औपनिवेशिक प्रसार ही अपना नाम बदल कर साम्राज्यवाद बन गया था। तत्कालीन अनेक यूरोपीय राजनीतिज्ञों के अनुसार उस समय छोटे-छोटे राष्ट्रों का समय समाप्त हो गया था तथा महान राष्ट्रों के साम्राज्यों की स्थापना का समय आ गया था। इसी कारण छोटे-राष्ट्रों और राज्यों का भविष्य एवं अस्तित्व बड़े-बड़े शक्तिशाली राष्ट्रों की कृपा पर निर्भर हो गया था। इस काल में यूरोपीय साम्राज्यवाद का प्रसार इतनी तीव्र गति से हुआ था कि पृथ्वी के सम्पूर्ण धरातल के 30 प्रतिशत से भी अधिक बड़े भाग पर यूरोपीय शक्तियों के सामाज्यों की स्थापना हो गई। साम्राज्यवाद के इस अदभुत प्रसार के प्रमुख कारण निम्न प्रकार से व्यक्त किये जा सकते हैं-

नवीन साम्राज्यवाद के कारण

(Causes of New Imperialism)

(1) आर्थिक कारण (Economic Causes)-

19वीं शताब्दी के साम्राज्यवाद के प्रसार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण आर्थिक थे, जिनका विवरण इस प्रकार है-

(i) औद्योगिक क्रांति के कारण फ्रांस, जर्मनी, इंगलैण्ड आदि यूरोपीय देशों में उद्योग धन्धों को अत्यधिक उन्नति हुई जिससे प्रत्येक देश के कल-कारखानों में इतना अधिक उत्पादन होने लगा कि उन्हें उस माल को बेचने के लिये बाजार ढूँढने पड़ें।

(ii) इन सभी देशों के व्यापारी सम्पन्न और समृद्ध हो चुके थे। अतः इन देशों के सम्मुख अपने यहाँ की अतिरिक्त पूंजी (Capital) को अन्यत्र लगाने की समस्या भी उपस्थित थी । इसके अतिरिक्त धनराशि को वे विदेशों में स्थापित किये गये अपने उपनिवेशों में सुरक्षित रूप से लगा सकते थे।

(iii) अपने कल-कारखानों को अबाध गति से संचालित रखने के लिये कच्चे माल (Raw material) की भारी आवश्यकता थी, जो वे अपने उपनिवेशों से सरलतापूर्वक उचित मूल्य पर प्राप्त कर सकते थे।

(iv) औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ इन देशों की जनसंख्या में भी द्रुतबेग से वृद्धि होने लगी। इस बढ़ी हुई जनसंख्या को बसाने के लिये तथा उसकी खाद्यान्नु समस्या को सुलझाने के लिये भी उन्हें इस प्रकार के नवीन देशों को खोजना पड़ा जहाँ वे अपने उपनिवेश बसा सकें तथा उनसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। इसके लिये अफ्रीका की पिछड़े देश सर्वोत्तम साधन माने गये तथा यूरोपीय राष्ट्रों ने उन्हें अपने उपनिवेशों के रूप में ढालना आरम्भ कर दिया।

(v) यूरोपीय देशों ने अपने उद्योगों के रक्षार्थ बाहर से आने वाले व्यापारिक माल पर भारी कर लगा दिये। इस प्रकार संरक्षण नीति (Protection Policy) ने भी साम्राज्यप्रसार के लिये यूरोपीय राष्ट्रों को प्रोत्साहित किया।

(2) धार्मिक कारण (Religious Causes)-

साम्राज्यवाद के प्रसार में धार्मिक एवं नैतिक कारणों का भी कम महत्व नहीं था। ईसाई पादरियों और धर्म प्रचारकों का शताब्दियों पूर्व से ही सर्वोच्च ध्येय ईसाई धर्म का प्रसार करके उसे विश्वव्यापी धर्म बनाने का ध्येय रहा है। अत: ईसाई धर्म का संसार के विभिन्न भागों में प्रचार करने के लिए धर्म प्रचारकों और पादरियों के मण्डल यूरोपीय राज्यों से जाते रहे हैं। इस प्रकार अफ्रीका तथा प्रशान्त महासागर के द्वीपों में जाकर पादरियों एवं धर्म-प्रचारकों ने वहाँ के अशिक्षित और पिछड़े हुए व्यक्तियों को ईसाई धर्म का अनुयायी बनाया। इन्हीं धर्म प्रचारकों एवं पादरियों द्वारा अपने देश के व्यापारियों तथा सेनाओं के लिये मार्ग खोजने का कार्य भी किया गया, जिससे उनके देश का व्यापार इन नवीन देशों के साथ होने लगे और उन्हें उपनिवेशों का रूप देकर अपने साम्राज्य का अंग बनाया जा सके। इस प्रकार ईसाई पादरियों ने ईसाई धर्म का प्रचार करते हुए नवीन साम्राज्यवाद के प्रसार में अत्याधिक सहायता पहुंचाई।

(3) राजनीतिक तथा सैनिक कारण (Political and Military Causes)-  

नवीन साम्राज्यवाद् आर्थिक एवं धार्मिक कारणों के समान ही राजनीतिक तथा सैनिक कारण भी थे। यूरोप के बड़े-बड़े राष्ट्रों द्वारा, जिनका साम्राज्य विश्व के विभिन्न भागों में दूर-दूर तक विस्तृत था, अपने व्यापारिक जहाजों तथा युद्धपोतों (War ships) को ठहराने के लिये बन्दगाहों को आवश्यक्ता अनुभव की जाने लगी। अतः यूरोपीय देशों द्वारा समुद्रतटीय भागों पर अधिकार करके वहाँ अपने उपनिवेश बसाने एवं समुद्र तट पर अथवा उसके समीप स्थित् द्वीपों पर अपने नाविक अड्डों तथा बन्दरगाहों का निर्माण आरम्भ किया। उस काल के अनेक यूरोपीय राज्यों में क्रांतियां हुई थीं। जिनके कारण उन्हें सदैव युद्ध आरम्भ होने की आशंका बनी रहती थी। इसीलिये सभी शक्तिशाली यूरोपीय राज्यों ने अपनी सैनिक शक्ति में वृद्धि करने के उद्देश्य से अपने उपनिवेशों से सेना के लिये बलिष्ठ युवकों की भी आरम्भ की। इस प्रकार युद्ध आरम्भ होने पर प्रत्येक यूरोपीय राष्ट्र उपनिवेशों से अपने लिये बड़ी संख्या में सैनिक प्राप्त कर सकता था।

(4) राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक (Symbol of National Dignity)-

19वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में यूरोप में उग्र राष्ट्रीयता (Intense Nationality) अपना प्रभाव प्रकट कर रही थी। अत: यूरोप के देश उपनिवेशों को राष्ट्रीय गौरव और सम्मान का प्रतीक मानने लगे थे। जिस राष्ट्र के पास जितनी अधिकता के साथ उपनिवेश होते थे, वह राष्ट्र उतना ही अधिक गौरवशाली, प्रतिष्ठित तथा शक्तिशाली राज्य समझा जाता था। उपनिवेशों की स्थापना उनकी साम्राज्यवादी भूख को शान्त करने का साधन भी था। जर्मनी और इटली विशेष रूप से उपनिवेशों की प्राप्ति के लिये प्रयलशील थे। इन दोनों देशों के शक्तिशाली राष्ट्रों के रूप में उद्य होने से पूर्व ही फ्रांस (France) और इंग्लैण्ड (England) अपने अपने अनेक उपनिवेशों की स्थापना कर चुके थे। जर्मनी और इटली दोनों ही अपनी साम्राज्यवादी नीति का उपता के साथ पालन करने के लिये विवश थे, क्योंकि वे इंगलैण्ड और फ्रांस के समक्ष स्वयं को हीन समझते हुए उनसे ईर्ष्या करने लगे थे, इस प्रकार उग्र राष्ट्रीयता की भावना ने साम्राज्यवादी नीति को अत्यधिक उप बनाकर साम्राज्य प्रसार के लिये उनमें प्रतिद्वंद्विता आरम्भ की।

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Pankaja Singh

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