अर्थशास्त्र

विनिमय नियन्त्रण के ढंग | Methods of Exchange Control in Hindi

विनिमय नियन्त्रण के ढंग | Methods of Exchange Control in Hindi

विनिमय नियन्त्रण के ढंग

(Methods of Exchange Control)

(अ) प्रत्यक्ष रीतियाँ (Direct Methods)- जिनका उद्देश्य विदेशी विनिमय दर पर प्रभाव डालना है।

(ब) अप्रत्यक्ष रीतियाँ (Indirect Methods)- जो अपनाई किसी अन्य उद्देश्य से जाती हैं किन्तु प्रभाव विनिमय दर पर भी डालती है।

(अ) विनिमय नियन्त्रण की प्रत्यक्ष रीतियाँ

(Direct Methods of Exchange Control)

प्रत्यक्ष विनिमय नियन्त्रण रीतियों को दो उप-वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-(i) हस्तक्षेप और, (ii) विनिमय प्रतिबन्ध । हस्तक्षेप (Intervention) की नीति के अन्तर्गत सरकार व्यापारियों द्वारा विदेशी विनिमय के क्रय-विक्रय की स्वतन्त्रता को कायम रखते हुए विदेशी विनिमय के क्रय-विक्रय की दर घोषित करती है और विनिमय बाजार में स्वयं क्रय-विक्रय करके माँग-पूर्ति पर प्रभाव डालती है। किन्तु विनिमय प्रतिबन्ध (Exchange restiction) के अन्तर्गत सरकार व्यापारियों द्वारा विदेशी विनिमय के क्रय-विक्रय की स्वतन्त्रता को समाप्त करके विदेशी मुद्रा की पूर्ति का नियमन करती है और विनिमय दर को प्रभावित करती है। दोनों रीतियों में मुख्य अन्तर यह है कि एक में विनिमय बाजार में मुक्त प्रवेश पर नियन्त्रण रहता है जबकि दूसरे में विनिमय बाजार सबके लिए खुला रहता है किन्तु एक कृत्रिम तत्त्व रख दिया जाता है।

(I) सरकारी हस्तक्षेप (Government Intervention)

सरकार प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के द्वारा अपनी मुद्रा की विनिमय-दर को एक निश्चित स्तर पर बनाये रखने का प्रयत्न करती है। इसकी निम्नांकित मुख्य रीतियाँ हैं-

  1. विनिमय उद्बन्धन (Exchange Pegging)- जब सरकार हस्तक्षेप के द्वारा स्वभाविक रूप में निर्धारित होने वाली दर से एक भिन्न विनिमय दर निर्धारित करे और उसे इस स्तर से घटने-जान दे, तब इसे विनिमय उबन्धन (या पेगिंग) कहते हैं। पेगिंग या उद्बन्धन ऊँचा हो सकता है या नीचा। ऊँचे उद्बन्धन (Pegging up) में विनिमय दर को किसी ऊँचा स्तर पर बनाये रखा जाता है किन्तु नीचे उद्बन्धन(Pegging down) में एक नीचे स्तर पर। प्रायः ऊँचे उबन्धन को अपनाया जाता है। हाँ, अवमूल्यन के उद्देश्य से नीचे उद्बन्धन की नीति भी अपनाई जा सकती है।

ऊँचे उद्बन्धन के लिए सरकार को अपने मुद्रा के लिए माँग में वृद्धि करना और पूर्ति को कम करना पड़ता है। इस हेतु सरकार विदेशी मुद्राओं को देशी मुद्रा के बदले किसी भी सीमा तक विक्रय करती है। नीचे उद्बन्धन के लिए देशी मुद्रा के लिए माँग को कम करना और पूर्ति को बढ़ाना आवश्यक होता है। इस हेतु सरकार असीमित मात्रा में देशी मुद्रा को विदेशी मुद्राओं के बदले बेचती है। ऐसा क्रय-विक्रय सरकार अपनी पूर्व निर्धारित दर पर ही करती है।

घरेलू मुद्रा के मूल्य को ऊँचा या नीचा रखने के प्रयासों का दुष्परिणाम विदेशी मुद्रा की कालाबाजारी के रूप में परिलक्षित होती है। जैसा कि निम्न चित्र में दर्शाया गया है।

डालर का मूल्य (रुपयों में) साम्यस्तर से नीचा-ऊँचा रखने का परिणाम चित्र में DxDx डालर का माँग वक्र Sx Sx डालर का पूर्ति वक्र, OP रुपयों में डालर का मूल्य तथा OX डालर की साम्य मात्रा है यदि सरकार डालर की दर को ऊँचे स्तर OP1 पर निर्धारित करती है तो डालर की माँग घटकर Ox1 रह जायेगी। इसके विपरीत यदि डालर का मूल्य OP2 रखा जाता है तो डालर की मांग बढ़कर OX2 हो जायेगी जबकि पूर्ति OX1 ही होगी अतिरिक्त मांग X1X2 की पूर्ति डालर की कालाबाजारी करके ही पूरा किया जा सकता है इसलिए डालर पर P1 P2 प्रति इकाई की कालाबाजारी होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि साम्य स्तर से डालर का मूल्य जितना नीचा होगा डालर की पूर्ति में उतना ही संकुचन होगा तथा डालर पर उतना ही अधिक कालाबाजार मूल्य प्राप्त किया जायेगा।

हस्तक्षेप की उक्त रीति का प्रयोग ब्रिटेन ने प्रथम महायुद्ध-काल में किया। उनसे पौंड को ऊंची दर पर उबन्धित कर दिया था। 1933 में न्यूजीलैण्ड ने अपने पौंड का नीचा उबन्धन किया।

विनिमय उद्बन्धन की नीति के सफल होने के लिए सरकार (या केन्द्रीय बैंक) के पास विदेशी विनिमय के यथेष्ठ भण्डार होने चाहिये। यदि ऐसा है, तो वह विनिमय दर को ऊँचा टाँकने (Pegging up) के लिए उन भण्डारों से देशी मुद्रा खरीद सकेगा और इस प्रकार उसकी माँग बढ़ाकर मूल्य ऊँचा टाँक सकेगा किन्तु, चूँकि किसी भी देश के पास विदेशी मुद्राओं के असीमित भण्डार नहीं होते, इसलिए पेकिंग अप एक सीमा तक ही सम्भव है। इसके विपरीत, विनिमय दर को नीचा टॉकने (Pegging down) के लिए सरकार को आन्तरिक मौद्रिक साधनों में वृद्धि करना पडता है। इसके लिए वह कई तरीके अपनाती है, जैसे-मुद्रा की मात्रा बढ़ाना। मुद्रा की मात्रा को बढ़ाने से मुद्रा प्रसार होता है और कीमत-वृद्धि से पेकिंग डाउन को बल मिलता है। परन्तु मुद्रा प्रसार कुछ समय के लिए ही सहायक हो सकता है।

  1. विनिमय समानीकरण खाता (Exchange Equalisation Account)-

स्वर्णमान के खण्डन के बाद इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका, हॉलैण्ड, बेल्जियम और स्विट्जरलैण्ड में विनिमय समानीकरण खाता स्थापित किया गया। इसका उद्देश्य विनिमय दरों को, अधिमूल्यन या अवमूल्यन के बिना ही, स्थिर या समान रखना था। इस रीति के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक अपने पास स्वर्ण, विदेशी मुद्रा और देशी मुद्रा का कोष रखता है ताकि इससे विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय किया जा सके और इस प्रकार विनिमय दर को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया जाता है। कोष का उद्देश्य दीर्घकालीन या स्थायी प्रवृत्तियों में हस्तक्षेप करना नहीं है वरन् विनिमय दर में अस्थायी परिवर्तनों को रोकना है। कोष की स्थापना करने वालों में सहयोग रहना आवश्यक है।

(II) विनिमय प्रतिबन्ध (Exchange Restrictions)

द्वितीय महायुद्ध के दौरान प्रत्यक्ष विनियम नियन्त्रण के लिए हस्तक्षेप की नीति बहुत सशक्त अनुभव नहीं हुई। अतः विनिमय प्रतिबन्धों का प्रयोग होने लगा। इस रीति के अन्तर्गत विदेशी विनिमय बाजार में देशी मुद्रा की पूर्ति को अनिवार्य रूप से घटा दिया जाता है और इस प्रकार वहाँ लेन-देन सीमित कर दिये जाते हैं। इस रीति की तीन मुख्य विशेषताएँ हैं-(i) विदेशी विनिमय के लेन-देन पर सरकार का एकाधिकार होना, (ii) सरकार व केन्द्रीय बैंक के अतिरिक्त अन्य संस्थाएँ या व्यक्ति विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय नहीं कर सकते एवं (iii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नियमन सरकार द्वारा किया जाता है। विनिमय प्रतिबन्ध के प्रमुख तरीके निम्न प्रकार हैं-

  1. अवरुद्ध खाते (Blocked Accounts)- इस तरीके में सरकार विदेशियों को अपनी पूंजी व संपत्ति देश से बाहर ले जाने से रोक देती है। लेनदार देशों को ऋण व ब्याज की अदायगी रोक दी जाती है। इस प्रकार से रोकी हुई कुल राशि केन्द्रीय बैंक के पास, अवरुद्ध खाते में जमा कर दी जाती है। कभी-कभी विदेशियों को इस पूँजी का प्रयोग उसी देश में कर सकने की सुविधा दे दी जाती है। विदेशी भुगतान रोकने से विदेशी विनिमय सम्बन्धी भार कुछ समय के लिए कम हो जाता है और इस तरह विनिमय दर में गिरावट को रोका जाता है। इस रीति का प्रयोग सर्वप्रथम नाजी जर्मनी ने किया था।

अवरुद्ध सम्पत्ति को वापस पाने के लिए विदेशी व्यापारी सरकार की अनुमति से उसी देश से माल खरीदकर अपना भुगतान ले लेते हैं या अपनी मुद्रा को प्रचलित से कम विनिमय दर पर ही बेच देते हैं। इस प्रकार ऋणी देश दोनों ही दशाओं में लाभ उठाता है। किन्तु अवरुद्ध खाते की व्यवस्था अवरुद्ध सम्पत्ति के काले बाजार को जन्म देती है। इसके अतिरिक्त देश में माल का आयात रुक जाता है, क्योंकि कोई भी देश उसे माल भेजना पसन्द नहीं करता। इस प्रकार, विदेशी विनिमय का लेन-देन ही बन्द हो जाता है और विनिमय दर का कोई महत्त्व नहीं रहता।

  1. विदेशी विनिमय का राशनिंग (Rationing of Foreign Exchange)- इस तरीके में विदेशी विनिमय का स्वतन्त्र क्रय-विक्रय समाप्त कर दिया जाता है, निर्यातकों को प्राप्त विदेशी मुद्राएँ सरकार अपने अधिकार में कर लेती हैं और इसके वितरण के लिए एक प्राथमिकता क्रम के आधार पर, आयात की आवश्यकाताओं के अनुसार, राशनिंग किया जाता है। इस प्रकार, आयात की मात्रा को सीमित रखकर, भुगतान सन्तुलन की दशा को सुधारने का प्रयत्न किया जाता है।
  2. कोटा प्रणाली (Quota System)- कोटा प्रणाली का उद्देश्य भिन्न-भिन्न देशों से आयात की मात्रा को निश्चित करना है जबकि विदेशी विनिमय के राशनिंग का उद्देश्य है अलग- अलग वस्तुओं के लिए आयात की मात्रा को निश्चित करना। सन्तुलन के उद्देश्य से उन देशों से आयात कम रखे जाते हैं जिनको निर्यात कम होता है। इस नीति को फ्रांस व स्टलिंग समुदाय के अन्य देशों ने तीसा की मन्दी के बाद अपनाया था।
  3. बहुमुखी विनिमय दरें (Multiple Exchange Rates)-इस तरीके में विभिन्न उद्देश्यों व विभिन्न वस्तुओं के आयात-निर्यात हेतु विदेशी विनिमय के लेन-देन के लिए अलग- अलग विनिमय दरें अपनायी जाती हैं। जटिल होने के कारण इस व्यवस्था का संचालन करना कठिन काम है। इसे तीसा की मन्दी के दौरान लैटिन अमेरिका के देशों ने अपनाया था।
  4. विनिमय समाशोधन समझौते (Exchange Clearing Agreement)- इस प्रकार का समझौता करने वाले देशों में आयातकर्ता अपने देश की ही मुद्रा में विदेशी माल के लिए अपने यहाँ के केन्द्रीय बैंक को भुगतान करते हैं और निर्यातकर्ता अपने माल का भुगतान देश की मुद्रा में अपने केन्द्रीय बैंक से प्राप्त करते हैं। इस प्रकार, केन्द्रीय बैंकों के यहाँ खाता प्रवष्टियों मात्र से, मुद्राओं का हस्तान्तरण हुए बिना, दोनों देशों में भुगतान हो जाता है। यदि देशों के निर्यात और आयात बराबर न हों, तो शेष को चुकाने के लिए क्या व्यवस्था होगी इसे पहले से ही तय कर लिया जाता है सामान्यत: शेष के लिए भी विदेशी मुद्रा का प्रयोग नहीं होता। विनिमय दर समझौते द्वारा तय हो जाती है। यह भी तय कर लिया जाता है कि विभिन्न मदों के लिए भुगतान किस प्राथमिकता क्रम के अनुसार किया जायेगा। सरकारें विदेशी व्यापार का नियमन इस तरह करती हैं कि व्यापार में असन्तुलन पैदा न हो सके और यदि हो तो हस्तक्षेप द्वारा ठीक कर दिया जाय। इस प्रकार के समझौते विभिन्न देशों में 1931-39 की मध्यावधि में सम्पन्न हुए थे। इस विधि का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके द्वारा विदेशी विनिमय की समस्या को न्यूनतम करते हुए भी विदेशी व्यापार के परिमाण को यथावत् बनाये रखा जा सकता है। दूसरे समाशोधन समझौतों के माध्यम से सुगमतापूर्वक व्यापार को सन्तुलित रखा जा सकता है। यह विधि विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित करती है जबकि विनिमय नियन्त्रण की अन्य विधियाँ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को हतोत्साहित करती हैं। लेकिन इस विधि का प्रमुख दोष यह है कि इसमें आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं विकसित देश कमजोर देश पर यह दबाव डालने में सफल हो जाते हैं कि वे इससे अधिक से अधिक मात्रा में आयात करें तथा इस आयात का भुगतान करने के लिए अपने यहाँ से प्राथमिक उत्पादों का निर्यात करें। विकासशील एवं अर्द्ध-विकसित देशों के लिए यह स्थिति अत्यधिक प्रतिकूल एवं विषम होती है।
  5. भूगतान समझौते (Payment Agreements)- इन समझौतों का उद्देश्य ऐसी व्यवस्था करना है कि जिससे ऋणी-देश मूलधन और ब्याज का भुगतान ऋणदाता-देश को कर सके। इनके अन्तर्गत ऋणदाता देश ऋणी देश से आयातों को यथासम्भव निर्वाध स्वीकार करता है किन्तु ऋणी देश स्वयं ऋणदाता देश से आयातों को यथाशक्ति सीमित रखता है जबकि निर्यात बढ़ाने के भरसक प्रयास करता है। ऐसे समझौते द्वितीय महायुद्ध काल में अनेक देशों ने किये थे।
  6. यथास्थिर समझौते (Standstill Agreements)- इन समझौतों का उद्देश्य सम्बद्ध देशों के बीच पूँजी के आवागमन को रोकना है जिससे ऋणी देश अपनी स्थिति को सुधार सके। उक्त रोक दो प्रकार से लगायी जाती है-विदेशी भुगतान एक मुश्त के स्थान पर किश्तों में धीरे-धीरे करना और अल्पकालीन ऋणों को दीर्घकालीन ऋण में बदलना। पूँजी का आवागमन नियन्त्रित होने से विनिमय दर में स्थिरता रहना सम्भव हो जाता है, इस नीति को जर्मनी में तीसा की मन्दी के समय में अपनाया गया था। इस विधि में आयात-निर्यातकर्ता देशों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध बना रहता है तथा दोनों के बीच व्यापार का विस्तार होता है। प्रायः मुक्त विनिमय पसन्द करने वाले देश भुगतान समझौतों को अच्छा मानते हैं। क्योंकि इन समझौतों को पालन करने का दायित्व उनका स्वयं का न होकर उन देशों को होता है जहाँ विनिमय नियन्त्रण है। समाशोधन समझौतों की तुलना में भुगतान समझौतों का कार्यान्वयन सरल होता है। इससे भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल होने की सम्भावना न्यूनतम रहती है। इस प्रणाली की सबसे प्रमुख कठिनाई यह है कि इन समझौतों को केवल लाइसेन्स प्राप्त भुगतानों के सन्दर्भ में ही लागू किया जा सकता है। दूसरे, खातों की शेष राशि का उपयोग केवल एक देश द्वारा दूसरे देश को दिये जाने वाले भुगतान हेतु किया जा सकता है।
  7. क्षतिपूर्ति समझौते (Compensations Agreements)- क्षतिपूर्ति समझौते वास्तव में वस्तु विनिमय समझौतों की तरह हैं। जिनमें विदेशी विनिमय के आदान-प्रदान के बिना ही वस्तुओं एवं सेवाओं का आयात-निर्यात किया जाता है। इस प्रकार के समझौते (i) दो देशों के निजी व्यापारियों के बीच सरकार की सहमति तथा बिना सहमति के, (ii) दो देशों की अर्द्धसरकारी अथवा सरकारी संस्थाओं के बीच, तथा (iii) दो देशों की सरकारों के बीच सम्पन्न होते हैं। इस समझौते के अन्तर्गत निर्यातकर्ता को निर्यात बिल का भुगतान उसी देश के आयातकर्ता द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार दूसरे देश का आयातकर्ता अपने बिल का भुगतान अपने देश के निर्यातकर्ता को कर देता है इस तरह विदेशी विनिमय के बिना भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्भव हो पाता है। विदेशी विनिमय की बचत होती है। व्यापार का विस्तार होता है। ये समझौते विकासशील देशों, जिनके पास विदेशी विनिमय की कमी है विशेष रूप से लाभदायक हैं। लेकिन इन समझौतों के सफलतापूर्वक लागू होने के लिए चार पक्षों की आवश्यकता होती है या फिर सारा व्यापार सरकारी एजेन्सियों के माध्यम से ही किया जाय। मौसमी वस्तुओं के व्यापार के लिए अनुपयुक्त होते हैं। इस प्रकार के समझौते वस्तु विनिमय को बढ़ावा देते हैं। इसके अन्तर्गत आयात का भुगतान निर्यात के द्वारा किया जाता है और भुगतान के लिए विदेशी विनिमय का प्रयोग नहीं किया जाता है। ऐसे समझौते अन्तर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन की कार्य क्षमता को घटाते हैं, देश की प्रतियोगिता शक्ति को ठेस पहुँचती है और उद्योगों को अनुचित संरक्षण प्रदान करते हैं।
  8. विलम्बकाल हस्तान्तरण (Transfer Moratoria)- इस तरीके में आयात, विदेशी पूँजी पर ब्याज व लाभांश आदि के भुगतान कुछ समय के लिए स्थगित कर दिये जाते हैं। किन्तु आयातकर्ताओं को अपने सौदे के भुगतान की राशि अपने देश के केन्द्रीय बैंक में देशी मुद्रा में ही जमा करा देनी होती है, जो फिर निश्चित अवधि के बाद (विशेष दशाओं में पहले भी) निर्यात- कर्ताओं या ऋणदाताओं को विदेशी मुद्राओं में भुगतान कर देता है। इस प्रकार स्थगनकाल में ऋणी- देश को विनिमय सम्बन्धी आवश्यक समायोजन करने का मौका मिल जाता है। प्रायः भुगतान विदेशी मुद्राओं का हस्तान्तरण हुए बिना ही निपट जाते हैं।

हस्तक्षेप की अपेक्षा विनिमय प्रतिबन्ध की नीति अधिक साधक, प्रत्यक्ष और कठोर होती है। जर्मनी की भाँति अन्य देश भी इसकी सहायता से विनिमय दर को स्थायी रखने में सफल हो सका। हैं। कुछ दिशाओं में तो इसे अपनाना अनिवार्य हो जाता है।

(ब) विनिमय नियन्त्रण की अप्रत्यक्ष रीतियाँ

(Indirect Methods of Exchange Control)

(I) आयात-निर्यात नीति (Import-Export Policy)-  देश का भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल होने की दशा में सरकार आयातों को सीमित करने हेतु आयात कर लगा सकती है, विभिन्न आयातों की मात्रा अथवा उन देशों के नाम, जहाँ से कि वस्तुएँ आयात की जायेंगी निश्चित कर सकती हैं, निर्यातों को प्रोत्साहित करने हेतु वह निर्यात करों से छूट व निर्यात उद्योगों को आर्थिक सहायता दे सकती है। प्रयत्नों से देश की मुद्रा की पूर्ति सीमित हो जाती है जबकि माँग बनी रहती है और इस प्रकार विनिमय-दर को ऊँचा बनाये रखा जा सकता है। परन्तु जब ऐसी नीति अन्य देशों द्वारा भी अपनाई जाती है तब उक्त प्रयत्न विफल हो जाते हैं।

(II) ब्याज दरों में परिवर्तन (Change in Interest Rates)- ब्याज की दर बढ़ा देने पर (यदि विदेशी पूँजी के विनियोग पर रुकावटें न हों). विदेशी पूँजी देश में आकर्षित होती है, जिससे देश की मुद्रा के लिए माँग बढ़ जाती है, भुगतान सन्तुलन अनुकूल हो जाता है और विनिमय दर ऊँचा होने की प्रवृत्ति दिखलाती है। ब्याज की दर को घटाने के प्रभाव विपरीत होते हैं। इस रीति का प्रयोग 1924 और 1930 की मध्यावधि में जर्मनी ने किया था।

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