सिंकदर का आक्रमण | सिकंदर के भारतीय आक्रमण का स्वरूप तथा प्रभाव
सिंकदर का आक्रमण
विजय अभियान की प्रारम्भिकता-
अति विशाल एवं सुगठित सेना की सहायता से उसने अपना विजय-अभियान प्रारंभ किया। सर्वप्रथम पश्चिमी एशिया एवं मिस्त्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर उसने ईरान के जर्जरित साम्राज्य पर आक्रमण किया। ईरान का शासक दारा द्वितीय पराजित होकर बलख की ओर भाग गया। सिकन्दर ने उसकी राजधानी पार्सीपौलिस को नष्ट कर दिया। दारा द्वितीय का पीछा करता हुआ वह बलख की ओर गया और ईरान की रही-सही शक्ति को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। इस विजय के फलस्वरूप सिकन्दर की सत्ता यूनान से लेकर सीर नदी के तटवर्ती बोखारा तथा समरकन्द तक स्थापित हो गई। फारस का विशाल साम्राज्य अब उसके चरणों पर लोट रहा था। सिकन्दर द्वारा भारत विजय का स्वप्न देखने से काफी पहले, यूनानियों को भारत के विजय में काफी जानकारी हो गई थी। उन्हें इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम पता देने वाले पारसी लोग थे। सिकन्दर के भारत आगमन से पहले भारत एवं यूनान के बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे। सिकन्दर के सहगामी लेखकों के वर्णन से पता चलता है कि उसने भारतीय दार्शनिकों, ब्राह्मणों आदि के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। आधुनिक अफगानिस्तान तक के प्रदेश को जीत कर उसने “The Great King of Persia” की उपाधि धारण की। परन्तु उसकी महत्वाकांक्षाएं असीमित थीं। अतः “दुग्ध एवं शहद के देश” (भारत) पर विजय प्राप्त करने का निश्चय कर, वह युद्ध-नीति बनाने में संलग्न हो गया।
पारसिक साम्राज्य को नष्ट करने के बाद उसने पूर्वतम प्रान्त (बैक्ट्रिया) के रमणीक प्रदेश यूनानी उपनिवेश की स्थापना की थी जिसे भारत पर आक्रमण करने के लिए मोर्चे का आधार बनाया। बैक्ट्रिया से फिर वह काबुल की ओर खिसक आया और वहीं पर अपनी भारत विजय की योजना को अन्तिम रूप देने लगा।
सिकन्दर का प्रस्थान-
भारत-विजय की अभिलाषा का विचार, सिकन्दर ने अपने पिता फिलिप से पैतृक रूप में प्राप्त किया था। ई०पू० 327 के बसन्तकाल में हिन्दूकुश को पार कर उसे कोहिदामन (Kohidama) की घाटी में प्रवेश किया तथा यहाँ पर ‘अलैक्जैन्ड्रिया’ नामक नगर की स्थापना की। अपनी स्थिति को सुदृढ़ता प्रदान कर, वह आधुनिक जलालाबाद के पश्चिम में स्थित ‘निकाई’ नामक नगर की ओ. बढ़ा । इस स्थान पर उसने अपनी सेना के दो भाग किये। पहला सैन्य दल वार्डिक्कस के अधिनायकत्व में कावुल नदी की घाटी द्वारा सिन्धु प्रदेश की ओर बढ़ा तथा दूसरे सैन्य-दल का अधिनायकत्व स्वयं ग्रहण कर, वह दुर्गम पर्वतीय मार्ग द्वारा भारत भूमि की ओर चल दिया। दोनों दलों की सम्मिलित सैन्य-शक्ति अति विशाल थी। प्लूटार्क के अनुसार सिकन्दर की सेना में 1,20,000 पदाति तथा 15000 अश्वारोही थे।
भारत-विजय आरम्भ करने से पूर्व, सिकन्दर की पूर्वोक्त सैनिक सज्जा यह प्रमाणित करती है कि उत्तर-पश्चिमी भारत के दुर्बल एवं छिन्न-भिन्न अवस्था के विपरीत भी भारतीय सैन्य-बल अति विकट समझा जाता था।
भारत-भूमि पर पदार्पण-
भारत प्रवेश के लिये सिकन्दर ने किस मार्ग का अनुसरण किया यह बताना कठिन है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि काबुल नदी के उत्तरवर्ती मार्ग से अभियान करता हुआ, वह कुनार एवं स्वात घाटी के पहाड़ी भाग में घुसा, जहाँ पर उसे अश्वक नामक भारतीय जाति से पहली बार सामना करना पड़ा। अपनी वीरता एवं चातुर्य द्वारा इस जाति ने सिकन्दर की सेना का दृढ़तापूर्वक सामना किया। सिकन्दर स्वयं घायल हो गया। इसी भीषण प्रतिक्रिया स्वरूप, उसने ‘कत्लेआम’ की घोषणा कर दी। बर्बरता के सम्मुख अश्वकों की पराजय हुई तथा प्राण बचाने के लिए मस्सग की ओर भागे। सिकन्दर ने बजौर की घाटी में प्रवेश किया तथा यहीं पर दूसरे मार्ग से भेजे गये सैन्य-दल से मिलन हुआ। कर्टियस के अनुसार, अश्वकों को पराभूत करके, सिकन्दर न्यासानगर की ओर बढ़ा। यहाँ पर न्यासा निवासियों ने शस्त्रों की अपेक्षा पुष्पहारों से सिकन्दर का स्वागत किया। न्यासा शासक आकुफिस ने अपनी उत्पत्ति यूनानी बताते हुए सिकन्दर की मित्रता प्राप्त कर ली। फलतः न्यासा राज्य ने स्वतः अधीनता स्वीकार करके, रक्तपात की विभीषिका से मुक्ति पा ली।
मस्सग का पतन-
अश्वक जाति एवं न्यासा पर प्रभुत्व स्थापित कर, सिकन्दर ने गौरी नदी (पंजकौर) को पार किया तथा मस्सग नगर पहुंचा। मस्सग काफी बड़ा नगर था। कई दिन तक घेरा डालने के बाद, मस्सग नगर का प्रधान पराजित होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। मस्सग लोगों ने युद्ध-विराम कर लिया परन्तु सिकन्दर ने छल द्वारा मस्सगों पर आक्रमण कर दिया। सिकन्दर के इस कायरतापूर्ण कृत्य की डियोडोरस ने इन शब्दों में निन्दा की है-
“Alexander’s conduct on the occasion was a foul blot on his martial fame.”
पुष्कलावती पर अधिकार-
स्वात घाटी, बाजिरा तथा ओरा स्थानों पर अधिकार जमाकर, सिकन्दर पेशावर घाटी की ओर बढ़ा। यह घटना ई०पू० 327 के अन्त की है। पेशावर में अष्टकों की राजधानी पुष्कलावती स्वात नदी के निचले भाग पर अवस्थित थी। सिकन्दर के आने का समाचार पाकर पुष्कलावती के राजा ने अपने दुर्ग में सैन्य-संगठन कर लिया। परन्तु सिकन्दर की सेना के सामने उसकी एक न चली। उसकी हार हुई एवं सिकन्दर ने निकट की पहाड़ी जातियों को नष्ट करके पुष्कलावती में, फिलिप नामक अधिकारी के नायकत्व में यूनानी नगर की स्थापना की।
सिकन्दर अभी तक सिन्ध को पार नहीं कर पाया था। अब उसका ध्यान सिन्ध एवं पुष्कलावती के मध्य स्थित अनेक छोटे-छोटे नगरों की ओर गया। यहां अस्सकेनोई जाति निवास करती थी। यह स्थान आर्नो नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार अधिकार करना सरल नहीं था।
सिकन्दर के आक्रमण से भारतीय आस-पास की कुछ जातियों ने, उसका पथ-प्रदर्शन किया। टालमी, उन लोगों की सहायता से एक ऊँची चट्टान पर पहुँचा तथा युद्ध शिविर की स्थापना की। रात्रि में, संकेत सूचना द्वारा सिकन्दर भी उस ओर बढ़ा। परन्तु आर्नो सैनिकों ने इस चाल को विफल कर दिया। सिकन्दर ने फिर से छल का सहारा लिया, जिसमें किसी आर्नोवासी ने ही उसकी सहायता की तथा कई दिन के निरन्तर परिश्रम के उपरान्त आर्नो का पतन हो गया। सिकन्दर को अपनी इस छोटी सी विजय में, महान् कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा था फलतः उसने वहां पर देवताओं की पूजा करके, एक दुर्ग का निर्माण कराया।
आम्भी का आत्म-समर्पण-
आर्नो से लौट कर सिकन्दर ओहिन्द के निकट पहुँचा तथा अपने सैनिकों को एक मास का विश्राम दिया। कायरता, अत्यन्त स्वार्थपूर्ण एवं नीचता की भावना से प्रेरित होकर तक्षशिला के नरेश आम्भी ने विश्राम करते हुए सिकन्दर के पास निमन्त्रण भेजा। इससे पूर्व भी वह सिकन्दर के पास बोखारा में अपने निम्नस्तरीय निमन्त्रण को प्रेषित कर चुका था। कर्टियस के कथनानुसार आम्भी ने दो सौ रजत मुद्रायें, 3090 बलशाली बैल, 1000 भेड़, 65 हाथी तथा 7000 अश्वारोही भेजे थे। निमन्त्रण स्वीकार करके सिकन्दर तक्षशिला की ओर बढ़ा। स्वागत के लिये, आम्भी अपनी सेना के साथ आगे आया। सिकन्दर ने इसे छल-कपट समझा तथा युद्ध की घोषणा कर दी परन्तु आम्भी ने कारण को समझ कर, सैन्य-रहित होकर नंगे पैर ही सिकन्दर की सेवा में आत्म निवेदन किया। यह घटना वैसे तो छोटी-सी प्रतीत होती है परन्तु इसका परिणाम सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में अपनी दुःखद घटनाओं के रूप में शनैः शनैः प्रकट हुआ। आम्भी के आत्म-समर्पण से प्रसन्न होकर सिकन्दर ने उसका राज्य ज्यों का त्यों छोड़ दिया तथा संधि द्वारा आम्भी को अपना सामन्त बनाकर, उसके राज्य में उसी को प्रतिष्ठित कर दिया।
तीन दिन तक तक्षशिला में सिकन्दर का स्वागत होता रहा तथा अनेक निकटवर्ती राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। यहाँ से सिकन्दर ने पोरस के पास अधीनता स्वीकार करने के लिए दूत भेजा जिसके प्रत्युत्तर में पोरस ने भारतीय वीर परम्परानुगत शब्द कहला भेजे-
“I will meet the king but on my own frontiers and in arms.”
अब सिकन्दर ने पोरस के विरुद्ध युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। सर्वप्रथम उसने सिन्ध नदी के पुल को तोड़कर झेलमतट पर शिविर लगाने की आज्ञा की। तत्पश्चात् अपनी एवं आम्भी सैन्य-शक्ति के साथ ‘झेलम’ की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में पोरस के भतीजे के राज्य को जीतकर वितस्ता (झेलम) के तट पर पहुंचा।
सिकन्दर की कूटनीति-
झेलम तट पर शिविर लगाकर, सिकन्दर ने भविष्य की योजनाओं पर ध्यान दिया। उधर पोरस भी विशाल युद्ध की तैयारी कर चुका था। उसकी सेना चतुरंगिणी थी तथा उसमें परम उत्साही वीर थे। यह मई का महीना था, झेलम में बाढ़ आई हुई थी पोरस ने अपनी अधिकांश सैन्य-शक्ति को झेलम से कुछ ही दूर पर, एक प्रधान युद्ध शिविर में छोड़ रखा था तथा बाकी सेना झेलम के इस ओर शत्रु की गतिविधियों के प्रति सजग थी। झेलम के दूसरे तट पर सिकन्दर की सेना में कुशल अश्वारोही, भालाधारी पैदल, सिकन्दर के साथी एवं भाड़े के सैनिक थे। उनके अतिरिक्त आम्भी के सैनिक भी उसके साथ थे। कहा जाता है कि सिकन्दर के पास एक लाख बीस हजार सैनिक थे परन्तु टार्न के अनुसार लड़ने वाले सैनिकों की संख्या पैंतीस हजार थी।
सिकन्दर की कूटनीति- पोरस की सैन्य-शक्ति के समक्ष, सिकन्दर के लिए झेलम पार कर, आगे बढ़ने का विचार, आत्महत्या के समान था। अतः सिकन्दर ने कूटनीतिक छलकपट का सहारा लेना शुरू कर दिया। सिकन्दर चाहता था कि जब वह झेलम पार करे तो पोरस की सेना उसे देख न पाये अथवा पोरस की सेना इस भ्रम में पड़ी रहे कि बाढ़ घटने पर ही शत्रु झेलम पार करेगा। इसी बीच सिकन्दर ने अपने अधिकारियों को ऐसे उपयुक्त स्थान की खोज में भेजा जहाँ से छिप कर झेलम पार किया जा सके। युद्ध शिविर से 16 मील दूर, झेलम नदी के ऊपरी भाग में सरल मार्ग प्राप्त हो गया। रात्रि प्रारम्भ होते ही सिकन्दर के सैनिकों ने अपने शिविरों में रंगरेलियाँ मनाना शुरू कर दिया-पोरस के सैनिक निश्चित हो गये कि शत्रु आज प्रयास नहीं करेगा। निश्चित स्थान से सिकन्दर की सेना झेलम पार करने लगी। रात्रि के गहन अन्धकार में सुषुप्त भारत की मुख्य भूमि पर, विदेशी आक्रांता ने अपने प्रथम चरण रख दिये। प्रकृति देवी ने भी भारत का साथ नहीं दिया। उस रात घोर बादल छाये रहे, रह-रहकर बिजली कड़कती जो भारत के दुर्भाग्य एवं विदेशी के सौभाग्य की घोषणा थी।
बारह हजार सैनिक इस पार उतार कर, सिकन्दर नदी तट वाले पोरस के सैनिक शिविर की ओर बढ़ा। भारतीय प्रहरी अब तक सशंकित हो चुके थे। प्रकृति की लीला समाप्त हुई अब मानवीय लीला के प्रारम्भ होने का समय आ गया। सिकन्दर ने अब तक व्यूह रचना कर ली थी, दक्षिण की ओर अंगरक्षक तथा अश्वारोही, तत्पश्चात् पैदल सैनिक थे तदुपरान्त 5000 द्रुतगामी अश्वारोहियों को साथ लेकर वह आगे बढ़ा।
नदी पार करने का समाचार पाते ही पोरस ने अपने पुत्र को 2000 अश्वारोही एवं 120 रथ देकर सिकन्दर को प्रगति को रोकने के लिए भेजा। सिकन्दर अब तक पूर्णरूप से झेलम पार कर चुका था। पोरस के पुत्र की छोटी-सी सेना शत्रु के सामने धराशायी हो गई तथा वह स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुआ।
सिकन्दर तथा पोरस में युद्ध-
संघर्ष-विभीषिका सम्मुख देखकर पोरस, 50,000 पैदल, 3,000 अश्वारोही तथा130 हाथी लेकर आगे बढ़ा। सामने हाथियों को पंक्तिबद्ध करके उनके पीछे पदाति सैनिकों की व्यूह की रचना कर दी। दोनों पार्यों में अश्वारोही तथा उनसे आगे रथ थे। भारतीय सेना के व्यूह को देखकर, सिकन्दर के मुख से सहसा निकल पड़ा “आखिर आज यह खतरा मेरे सम्मुख आ ही गया-जो मेरे साहस को ललकार रहा है।” तभी सिकन्दर के तीरन्दाज घुड़सवारों ने भारतीय सेना के बायीं ओर से आक्रमण शुरू कर दिया। पोरस के अश्वदल को हटकर हाथियों की पंक्ति के पीछे जाना पड़ा। अब हाथी सामने थे, उधर, दूसरी ओर सेल्यूकस ने आक्रमण शुरू कर दिया। हाथियों के दल ने अब शत्रु दल में कुहराम मचा दिया। इसी बीच पोरस का अश्वदल संभल गया परन्तु सिकन्दर के तीरन्दाज घुड़सवारों ने इस बार भी उन्हें विचलित कर दिया। अब घायल होने के कारण हाथी इधर- उधर भागने लगे। इससे पोरस की सेना की ही अधिक हानि हुई। इसी बीच शेष यूनानी सेना भी झेलम से पार आ गई।
पोरस की पराजय-
भारतीय सैनिक अदम्य उत्साह, शौर्य एवं वीरोचित गुणों से मुक्त होकर युद्धरत रहे। दिन की आठवीं घड़ी तक सिकन्दर की सेना आगे न बढ़ पायी। परन्तु अन्त में परिस्थिति बिगड़ गई। पोरस की शक्ति के माध्यम उसके रथ में चार घोड़े तथा उस पर 6 योद्धा बैठते थे। इनमें से दो ढाल धारण करते थे, दो सशस्त्र सारथी तथा अन्य दो बाण वर्षा करते थे। परन्तु उस दिन भीषण वर्षा के कारण, भूमि चिकनी हो गई थी। रथ के पहिये कीचड़ में फँस गये, घोड़े बिगड़ने लगे तथा फिसलन के कारण धनुर्धारी योद्धा अभी अपना कमाल दिखाने में असमर्थ थे। उनके धनुष 6 फुट ऊँचे तथा बाण तीन फुट लम्बे थे। धनुष के एक सिरे को भूमि पर टिका कर ही वे बाण छोड़ा करते थे परन्तु वर्षा के कारण, सारे उद्यम व्यर्थ हो गये। दूसरी ओर हाथियों के कारण भी बड़ी गड़बड़ी पैदा हो गई। तीरों एवं भालों से घायल होकर, वे अपनी ही सेना को कुचलने लगे। सिकन्दर के सैनिकों का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। वे कभी पार्श्व से, तो कभी पीछे से, तो कभी सामने से, पोरस की सेना को मारने लगे। उनके अश्वारोही द्रुतगामी थे। कुछ यूनानी सैनिक हाथियों के पैरों पर आक्रमण करने लगे, तीरन्दाजों ने अपने बाणों द्वारा उनके महावत को मार कर हाथियों की आँखें फोड़ दी। पोरस की सेना में भगदड़ मच गई। एक विशालकाय हाथी पर बैठ, पोरस युद्ध के अन्तिम क्षणों में भी अविचलित होकर, शस्त्र प्रहार करता रहा। नौ गहरे घाव हो जाने पर भी वह युद्ध से विमुख न हुआ। सिकन्दर को लगभग विजय प्राप्त हो ही चुकी थी। उसने आम्भी को भेजकर, पोरस से युद्ध विमुख होने के लिए कहा। प्राचीन शत्रु को सम्मुख देख, पोरस अपने क्रोध को न संभाल पाया। आम्भी के दूत के रूप में आने के विपरीत भी पोरस ने उस पर प्रहार किया। सिकन्दर, पोरस की वीरता से बड़ा ही प्रभावित हुआ था। मूर्छितावस्था में सिकन्दर के सैनिकों ने उसे बन्दी बना लिया। कुछ विद्वानों के अनुसार पोरस ने सिकन्दर के भेजे हुए सन्देशवाहक दूतों के कहने पर आत्मसमर्पण कर दिया था।
पोरस से मित्रता-
पोरस की वीरता से सिकन्दर बड़ा प्रभावित हुआ। ग्रीक रोमन लेखकों के अनुसार युद्ध में पराजित होने एवं बन्दी रूप में सिकन्दर के सामने लाये जाने पर भी उसके मुख पर भय का लेशमात्र भाव नहीं था। सिकन्दर ने जब उससे पूछा कि “तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाये’ तो पोरस ने इतिहास प्रसिद्ध उत्तर दिया, “नृपोचित व्यवहार”। सिकन्दर ने इस उत्तर को और वृतान्त सहित जानना चाहा तो पोरस ने कहा-
“When I said as a king very thing was contained in that.”
सिकन्दर ने अपने समस्त सैनिक जीवन में इससे अधिक निर्भीक उत्तर नहीं सुना होगा। वीरोचित गुणग्राह्यता के कारण, सिकन्दर बड़ा प्रसन्न हुआ तथा उसने पोरस के राज्य सहित कई अन्य राज्यों को भी पोरस के अधिनायकत्व में कर दिया।
पंजाब विजय–
झेलम तट की विजय के स्मरण में सिकन्दर ने ‘न्हूसा’ तथा ‘बूसेफला’ नामक नगरों की स्थापना की तथा अब वह झेलम एवं चिनाब नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश में प्रविष्ट हुआ। यहाँ पर उसने ग्लोगनिकाई जाति को पराजित कर, उसके 37 नगर जीत लिये तथा उन्हें पोरस के अधीन कर दिया। अभिसार के राजा ने अपने भाई के हाथ उपहारादि देकर, सिकन्दर से सन्धि की प्रार्थना की परन्तु सिकन्दर ने उससे स्वयं आने के लिए कहा। यहीं पर सिकन्दर को सूचना मिली कि अस्सकेनोई जाति ने विद्रोह करके, गवर्नर निकेसार को मार डाला है। फिलिप को विद्रोह दमन करने के लिए भेज कर सिकन्दर रावी नदी की ओर बढ़ा। नदी पार करने पर सिकन्दर की मुठभेड़ कठ जाति से हुई। यहां पर सिकन्दर को बड़ी क्षति उठानी पड़ी। यद्यपि उसे विजय प्राप्त हुई परन्तु यूनानी सैनिक भारी संख्या में मारे गये। तत्पश्चात् झेलम नदी के पूर्व में स्थित सौभूति राज्य ने, बिना किसी संघर्ष के सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली।
व्यास नदी के किनारे पर अंतिम पड़ाव-
इस प्रकार अनेक विजयों एवं समर्पणों को प्राप्त करता हुआ, सिकन्दर सिन्धु एवं उसकी सहायक पाँच नदियों में से अन्तिम नदी व्यास के किनारे पहुँचा। कुछ विद्वानों के मतानुसार, इस स्थान पर आने का उद्देश्य वस्तु-स्थिति का ज्ञान प्राप्त करना था। इस नदी के पूर्व में, विशाल नन्द साम्राज्य था। व्यास नदी के तट पर भगल नामक एक सरदार ने, सिकन्दर को नन्द साम्राज्य की सीमा एवं विस्तार के विषय में विस्तृत जानकारी दी जिसका समर्थन पोरस ने भी किया। सिकन्दर को बताया गया कि व्यास नदी के उस पार एक अत्यन्त वैभवशाली, सम्पन्न एवं समृद्ध साम्राज्य है जिसकी सम्पत्ति तथा शक्ति असीमित है। इस वर्णन से सिकन्दर के जिज्ञासु हृदय में इच्छा एवं अभिलाषा ने जन्म लिया होगा अथवा नहीं इसका उत्तर देना कठिन है क्योंकि अब परिस्थितियाँ प्रायः प्रतिकूल होती जा रही थीं। परन्तु यूनानी लेखकों के वर्णनों के अनुसार, सिकन्दर के हृदय में अभी भी अदम्य उत्साह हिलोरें ले रहा था। उसने अपने पदाधिकारियों को एकत्र करके नाना प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उत्साह एवं अभिलाषा को जागृत करना चाहा परन्तु किसी के भी मस्तिष्क एवं कानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
महान् वीर, कुशल सेनानायक सिकन्दर के जोशीले एवं उत्साहवर्द्धक प्रयलों के सम्मुख उसकी सेना. ने मौन धारण करके, आगे बढ़ने में जो असहमति प्रकट की, उसके सम्बन्ध में इतिहासकारों ने दो कारणों की प्रधानता बताई है।
पहला कारण, आन्तरिक कारण तो यह था कि सैनिकों में शिथिलता, व्याधिग्रस्तता, वस्त्राभाव तथा गृह प्रेम आदि उमड़ रहे थे।
दूसरा कारण, भारतीय सैनिकों की रणकुशलता एवं भावी खतरे के भय के कारण, उनके हृदय में निराशा जन्म ले चुकी थी।
प्लूटार्क ने इस विद्रोह एवं असहयोग के कारण इन शब्दों में वर्णित किये हैं-“पोरस के मोर्चे ने मकदूनिया सैनिकों के दिल बैठा दिये थे। भारत में और बढ़ने की कामना सर्वथा नष्ट हो गई। वे समझ चुके थे कि केवल 20000 पैदल, 2000 अश्वारोही सेना वाले पोरस को जीतने में उन्हें बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था और इसलिए जब सिकन्दर ने और आगे बढ़ने के लिये कहा, तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। एरियन ने लिखा है, “एशिया में तत्कालीन जितनी भी जातियाँ थीं; भारतीय जातियाँ, युद्ध-कला में उन सबसे अग्रगण्य थीं।” सिकन्दर को, कोनोस के उत्तर से, बड़ा क्रोध आया तथा उसने आवेश में आकर कहा “डाल दो, मुझे गरजती नदियों के भँवर में छोड़ दो, मुझे क्रुद्ध हाथियों की दया पर और उन क्रूर जातियों की हिंसक प्रवृत्ति पर, जिनके नाममात्र से तुम काँप रहे हो। मैं ऐसे वीरों को ढूँढ़ लूँगा जो मेरा अनुसरण करेंगे।”
सिकन्दर का उत्साही हृदय टूक-टूक हो गया। तीन दिन तक वह अपने शिविर में पड़ा रहा- परन्तु सैनिकों का हृदय परिवर्तन नहीं हुआ। अन्त में, निराश सिकन्दर के मुख से ये शब्द निकले–“निस्सन्देह बहरे कानों से मेरे शब्द टकराते रहे। मैं ऐसे कायरों को उत्साहित करता रहा, जिनके हृदय त्रास से भर गये थे।’ विवश सिकन्दर ने प्रत्यावर्तन की आज्ञा दी तथा सैनिकों ने प्रसन्न अश्रुओं से इसका स्वागत किया। स्वप्नद्रष्टा का स्वप्न भङ्ग हो गया।
सिकन्दर का प्रत्यावर्तन-
व्यास नदी के पश्चिम का भाग पोरस के अधीन करके सिकन्दर व्यास नदी से चलकर झेलम के किनारे पहुँचा। यहाँ पर लगभग 803 नौकाओं को तैयार कराने में बड़ा समय लग गया। इसी समय पदाति सेनापति व्याधिग्रस्त हो गया। ई०पू० 326 के नवम्बर मास में, सिकन्दर झेलम के किनारे से रवाना हुआ। सेना के प्रत्यावर्तन हेतु तीन भाग किये गये। जल-सेना का नायकत्व नियार्कस कर रहा था। सिकन्दर की सेना को लिए हुए नावें झेलम के बहाव में सुन्दर पंक्तियाँ बना कर चलने लगीं। उनकी रक्षा के लिए नदी के दोनों किनारों पर हेफिस्टियन तथा कातेरस की अध्यक्षता में सेना अनुसरण कर रही थी। इस प्रकार सिकन्दर रावी तथा चेनाब के संगम पर जा पहुंचा।
प्रत्यावर्तन की बाधायें-
रावी तथा चेनाब के संगम पर शिवि तथा ग्लस्सोई नामक जातियों ने सिकन्दर पर आक्रमण कर दिया। शिवि तो शीघ्र ही पराजित हो गये परन्तु प्लस्सोई जाति ने जमकर मोर्चा लिया। अन्त में सिकन्दर की विजय हुई तथा ग्लस्सोई लोगों ने “अपने घरों में स्वयं ही आग लगाकर पलियों एवं बालकों सहित लपटों में कूद पड़े।” संभवतः इसी प्रथा का अनुसरण कालान्तर में राजपूत जाति ने किया होगा।
मालव तथा क्षुद्रक-
आगे बढ़ने पर सिकन्दर को मालव एवं क्षुद्रक नामक जातियों का सामना करना पड़ा। कर्टियस ने लिखा है कि ‘मालव तथा क्षुद्रक पहले आपस में शत्रु थे परन्तु अब वे संगठित होकर, सिकन्दर का सामना करने को उद्यत हो गये। ग्रीक सैनिकों ने सोचा था कि अब वे खतरे को पार कर चुके हैं परन्तु इस विपत्ति ने उन्हें विकल कर दिया। वे सिकन्दर को कोसने लगे।” सिकन्दर ने बड़े मर्मस्पर्शी शब्दों में अपने सैनिकों से कहा, “मुझे भारत से गौरव सहित लौट जाने दो, भगोड़े की भाँति भागने को मजबूर मत करो।” यूनानी सैनिकों का उत्साह जाग उठा तथा उन्होंने मालवों को बुरी तरह से पराजित कर दिया। इसके उपरान्त सिकन्दर ने आधुनिक मान्टेगुमरी तथा झंग के मालव प्रदेशों पर आक्रमण किया। इस युद्ध में सिकन्दर भी घायल हो गया। यूनानी सैनिकों ने क्रोधित होकर हजारों मालव स्त्री-पुरुष तथा बच्चों तक की हत्या कर डाली। क्षुद्रक इस नृशंसता से भयभीत हो गये तथा उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया।
अवस्तनोई-
सिकन्दर के मार्ग का अगला अवरोध अवस्तनोई जाति थी-जिसका अनुमान सिकन्दर को पहले ही हो गया था अतः उसने अपने सेनापति को भेजा। अम्बरों अथवा अवस्तनोई जाति ने अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा का बड़ा प्रयल किया पर वे असफल रहे ।
अन्य अवरोध-
सिन्ध नदी के मुहाने पर पहुँच कर, सिन्दर को क्रस्थोई, ओस्सदिओई, शूद्र तथा मस्सनोई आदि वीर भारतीय जातियों से युद्ध करना पड़ा। परन्तु इन सब संघर्षों को पार करता हुआ वह ‘पटल’ नामक नगर पहुंच गया। यहाँ पर स्पार्टा की भाँति दो रूढ़ि क्रमागत शासकों का राज्य था। यहाँ पर सिकन्दर को विशेष कठिनाई सामना नहीं करना पड़ा तथा उसे विजयश्री प्राप्त हुई।
अन्तिम विदा-
भारत में सिकन्दर की यह अन्तिम विजय थी। पटल में उसने अपने सेना के कई भाग कर दिये। एक दल नियार्कस के अधिनायकत्व में जलमार्ग द्वारा दूसरा क्रेटेरस के नायकत्व में बोलन के दर्रे से तथा तीसरे भाग के साथ वह स्वयं दक्षिण मरकान की ओर से आगे बढा। मार्ग की अनेक बाधाओं एवं कष्टों के कारण केप मलान में समाप्त होने वाली पर्वत श्रेणी के कारण सिकन्दर को मार्ग बदलना पड़ा तथा अनेक कठिनाइयों के बाद वह अपने साथियों से ईरान की भूमि पर मिल सका।
बची हुई सेना के साथ, सिकन्दर 324 ई०पू० सूसा पहुँचा। ई०पू० 323 में जब वह बगदाद के निकट बेबीलोन पहुँचा उसे ज्वर हो आया। इस समय उसकी आयु 33 वर्ष की थी। ज्वर बढ़ता ही गया, उसकी मानसिक दशा विक्षिप्त भी हो गई थी। बेबीलोनिया में ही उसकी मृत्यु हो गई। अपने अल्प जीवन में ही उसने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली थी जो विश्व के श्रेष्ठतम शासकों एवं विजेताओं के लिये आदर्श स्वरूप है।
सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात्-
सिकन्दर अब भारत से प्रस्थान कर रहा था उसी समय यहाँ पर विद्रोहात्मक प्रवृत्तियाँ उभर रही थीं। 355 ई०पू० फिलिप्स की हत्या कर दी गई। वास्तविक रूप में फिलिप्स भारत में यूनानी साम्राज्य का स्तम्भ था। यदि सिकन्दर चाहता तो वह स्वयं ही परिस्थिति में संभाल सकता था।
परन्तु सिकन्दर अपने जीवन-काल में कोई क्षत्रप न भेज पाया तथा तक्षशिला का शासक, काबुल घाटी एवं हिन्दूकुश तक फैले साम्राज्य का स्वामी बना रहा। अब भारत में सिकन्दर के प्रतिनिधि रूप में केवल यूडेमस ही शेष रह गया। वह पुष्कलावती का सैनिक नियन्त्रण तथा छिन्न-भिन्न यूनानी एवं मेसीडोनियम सेना का प्रधान मात्र था।
ई०पू० 323 में सिकन्दर की मृत्यु होते ही उसके अवशिष्ट साम्राज्य में अस्तव्यस्तता आ गई। ई०पू० 321 में उच्च पदाधिकारियों ने साम्राज्य-विभाजन का निश्चय किया। सिन्ध के गवर्नर पेठन को, सिन्ध एवं पैरा पेनिसड के मध्यवर्ती क्षेत्र का शासक नियुक्त किया गया तथा सिन्धु नदी के पूर्व का भाग यूनानी साम्राज्य के अधिकार से निकल गया। कुछ समय बाद पेठन भी स्वदेश चला गया और वहीं पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार भारत से यूनानी साम्राज्य का अन्तिम प्रतीक भी विदा हो गया।
भारतीयों के पराजय के कारण- सिकन्दर की सैन्य-शक्ति के सामने, भारतीयों की पराजय के कई कारण थे। इसमें से प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
(1) भारतीय शासकों में आपसी फूट, वैमनस्य एवं प्रतिद्वन्द्विता-
उदाहरण के लिये आम्भी तथा पोरस के मध्य द्वेष भाव के कारण, सिकन्दर की विजय का कारण स्वयं भारतीय नरेशों की देशद्रोही प्रवृत्ति ही थी।
(1) योग्य नेतृत्व का अभाव,
(2) संगठन का अभाव,
(3) सिकन्दर की अपूर्व महत्वाकांक्षी एवं कूटनीतिकता,
(4) भारत की अस्त-व्यस्त राजनैतिक दशा,
(5) प्राकृतिक असहयोग-इसके उदाहरणस्वरूप हम पोरस की हार का मुख्य कारण वर्षा मान सकते हैं।
परन्तु डॉ० स्मिथ के मत से हम सहमत नहीं हैं। वास्तविकता तो यह है कि सिकन्दर की सेनाओं को जो कुछ भी विजयें प्राप्त हुईं उनका कारण भारतीय सैनिकों की निर्बलता नहीं अपितु कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण भारतीय सैनिक अपनी पूर्ण कुशलता की अभिव्यक्ति ही नहीं कर पाये।
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