इतिहास

अशोक का शासन प्रबंध | अशोक के राजनीतिक सिद्धान्त | अशोक का राजत्व सिद्धान्त | अशोक का शासन-सुधार

अशोक का शासन प्रबंध | अशोक के राजनीतिक सिद्धान्त | अशोक का राजत्व सिद्धान्त | अशोक का शासन-सुधार

अशोक का शासन प्रबंध

अशोक को उत्तराधिकार के रूप में केवल एक विस्तृत साम्राज्य ही नहीं प्राप्त हुआ था; अपितु सुव्यवस्थित शासन-व्यवस्था भी, जो कुशल शासक चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा प्रतिपादित की गई थी। चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था में थोड़ा-बहुत परिवर्तन एवं परिवर्धन करके ही अशोक ने शासन-प्रबन्ध किया। अशोक के शासन-प्रबंध का आधार चन्द्रगुप्त मौर्य की ही शासन-व्यवस्था है। अशोक को अपने पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-प्रबंध में जो कुछ भी थोड़ा-बहुत परिवर्तन-परिवर्धन करना पड़ा, उसका मूल कारण उसकी नैतिकता एवं धार्मिकता है। अशोक के शासन-प्रबंध का अध्ययन करने के पूर्व हमें उसके राजत्व-सिद्धांत पर विचार कर लेना आवश्यक है।

अशोक का राजत्व-सिद्धान्त-

अशोक एक आदर्श मानव था। उसकी नैतिकता उसके जीवन की अनुशासिका थी। कलिंग-विजय के पूर्व का अशोक साम्राज्यवादी था; किन्तु इस रक्त-प्लावित घटना के पश्चात् का अशोक पहले मानव और तब सम्राट था-सपाट भी इस अर्थ में कि वह कम से कम अपने साम्राज्य की सम्पूर्ण प्रजा को अपना पुत्र समझ सके, उसका रक्षक बन सके। मानव होने के नाते तो वह सम्पूर्ण धरती के विभिन्न जीवधारियों का शुभचिन्तक था। कलिंग शिलालेख अशोक तथा धरती के सम्पूर्ण मनुष्यों के निकटत्तम संबंध का निर्देश इस प्रकार करता है-”सब मनुष्य मेरे पुत्र हैं। जिस प्रकार मैं अपने पुत्रों का हित और सुख चाहता हूँ, उसी प्रकार मैं प्रजा के लौकिक एवं पारलौकिक हित की कामना करता हूँ।” अशोक अपने अभिलेखों में यह अंकित करते हुए नहीं अघाता है कि “सर्व-लोकहित से बढ़कर दूसरा कोई कर्त्तव्य नहीं है…….. । प्रजा के लिए मैं उत्थान (परिश्रम) तथा अर्थ- कर्म (राजकाज) करने से अघाता नहीं।”

अशोक अपने चौथे स्तंभ-लेख में प्रजा के प्रति गद्गद् हो फूट पड़ने वाले अपने हार्दिक उद्गारों को इस प्रकार प्रकट करता है-”जिस प्रकार मनुष्य अपनी संतान को निपुण धाय को सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि वह धाय मेरे बालक को सुख पहुँचाने की भरपूर चेष्टा करेगी, उसी प्रकार प्रजा के हित और सुख के अभिप्राय से रज्जुक (राजुक) नाम के कर्मचारी नियुक्त किये हैं।” इससे अधिक स्पष्ट और कोई प्रमाण अशोक की प्रजाप्रियता का नहीं हो सकता। प्रजा की सेवा में यह कितना दत्तचित्त, जागरूक तथा संलग्न था, उसकी सुख-समृद्धि के लिए वह कितना सचेत था तथा प्रजाहित-कार्य में निरन्तर प्रयलशील रहने की वह कितनी आकांक्षायें रखता था, इसका साक्षात् प्रमाण उसका चतुर्थ स्तंभ-लेख ही है- “मैने यह प्रबंध किया है कि सब समय में चाहे मैं भोजन करता होऊँ, चाहे अंतःपुर में रहूँ, चाहे शयनागार में, चाहे उद्यान में सर्वत्र मेरे प्रतिवेदक प्रजा के कामों की मुझे सूचना दें। मैं प्रजा के कार्य सर्वत्र करूँगा। यदि मैं स्वयं आज्ञा दूँ कि अमुक कार्य किया जाय और यदि महामात्रों में उस विषय में कोई मतभेद उपस्थित हो अथवा मंत्रि-परिषद् उसे अस्वीकार करे तो हर घड़ी और हर समय मुझे इस बात की सूचना दी जाय; क्योंकि मैं कितना ही परिश्रम क्यों न करूँ, कितना ही राज्य-कार्य क्यों न करूँ, मुझे पूर्ण संतोष नहीं होता।” प्रजाहित कार्य करने के उद्देश्य एवं उत्तरदायित्व को बतलाते हुए अशोक अपने उक्त अभिलेख में आगे इस प्रकार कहता है-”मैं जो कुछ पराक्रम (श्रम) करता हूँ वह केवल इसलिए कि प्राणियों के प्रति जो मेरा ऋण है मैं उससे उऋण हो जाऊँ और इस लोक में लोगों को सुखी करूँ तथा परलोक में उन्हें स्वर्ग का अधिकारी बनाऊँ।” अशोक प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए, उसके लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिये कितना चिंतित रहता था, यह हमें उसके निम्नलिखित कथन से भी स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है-

“यह धर्मलेख चिरस्थायी हो और मेरी पत्नी, पुत्र तथा प्रपौत्र लोकहित के लिए प्रयत्न (पराक्रम) करें। अत्यधिक प्रयत्न के बिना यह कार्य बहुत कठिन है।”

अशोक ने अपनी प्रजा को बहुश्रुत होने की अनुमति दी थी और जैसा कि उसका नियम था, प्रजा को किसी कार्य के लिये प्रेरित करने के पूर्व वह स्वयं उस कार्य को करता था। अतः अशोक स्वयं बहुश्रुत था। विभिन्न राजत्व-सिद्धांतों का उसे पूर्ण ज्ञान था। राजनीति के आदर्श सिद्धांतों का वह पंडित था। उसकी राजनीति में चाणक्य की कूटनीति का समावेश न था या यदि था भी तो अपने धर्म-परिवर्तन के साथ-साथ उसने इसे पूर्णतया भुला दिया था। पवित्रता, आदर्शवादिता, प्रजाप्रियता, नैतिकता तथा मौलिकता इसके राजत्व-सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं हैं; मौलिकता इसलिए कि अशोक के पूर्व या पश्चात् भी भारतीय इतिहास में इस प्रकार का कोई सम्राट नहीं हुआ जो प्रजा के लिए जीने-मरने को तैयार हो।

स्वायत्त शासन- अशोक के तेरहवें शिलालेख के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने ऐसा अनुमान लगाया है कि अशोक के अधीन कुछ ऐसे प्रदेश भी थे जो अप्रत्यक्ष रूप में तो अशोक की अधीनता स्वीकार करते थे, किन्तु उन्हें स्वशासन का अधिकार प्राप्त था, जैसे यवन, कम्बोज, नाभक, नाभपत्ति, आन्ध्र, भोज तथा पारिंद आदि। विद्वानों ने उक्त प्रदेशों में से कुछ की स्थिति का अनुमान इस प्रकार लगाया है यवन तथा कम्बोज राज्य संभवतः उत्तरी-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश में, भोज पश्चिमी समुद्र तट अथवा बरार में और आंध्र सम्भवतः कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के तटीय प्रदेश थे।

मन्त्रि-परिषद्- चन्द्रगुप्त के शासन-प्रबंध के विषय में लिखते हुए यह कहा गया था कि उसके शासन-प्रबंध में भी मंत्रि-परिषद् का बहुत बड़ा महत्त्व था। अशोक ने भी मंत्रि-परिषद् को स्थापित रखा। वह भी राज-काज में मंत्रियों की राय को मान्यता प्रदान करता था। उसके छठे शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि मंत्रि-परिषद को इस बात की काफी स्वतंत्रता थी कि सम्राट् से किसी गूढ़ विषय पर वाद-विवाद कर सके तथा अपना मत सम्राट को उसकी (महामात्रों के) कोई दान-संबंधी अथवा मेरे द्वारा की गई किसी मौलिक घोषणा के सम्बन्ध में अथवा महामात्रों के सुपुर्द कर दिये गये किसी आवश्यक कार्य के विषय में विवाद या सुधार का प्रस्ताव उपस्थित किया जाय तो उसकी सूचना मुझे उसी क्षण मिलनी चाहिए। मैं कहीं भी रहूँ और कोई भी समय हो।”

अशोक अपने मंत्रियों को नैतिक एवं धार्मिक शिक्षाओं में दक्ष होना आवश्यक समझता था, अतः उसके मंत्री सर्वदा उसी की भाँति सोचते थे।

प्रान्तीय शासन- शासन के दृष्टिकोण से संपूर्ण साम्राज्य चार केन्द्रों में विभाजित था। ये निम्नलिखित थे-

(1) तक्षशिला, (2) उज्जयिनी, (3) तोसली तथा (4) सुवर्णगिरि।

राजा का सहायक ‘उपराज’ होता था। यह राजकुलीन व्यक्ति होता था। अशोक का भाई तिष्य उसका उपराज था। ‘युवराज’ भी राजकाज में सम्राट् की सहायता करता था। इसी प्रकार ‘अग्रामात्य’ भी राजा का प्रमुख सहायक था। अशोक के समय में राधगुप्त अग्रामात्य थे। राजकुमारों (कुमार अथवा आर्यपुत्र) से भी सम्राट् शासन-प्रबंध में सहायता लेता था। इनकी नियुक्ति सुदूरस्थ प्रांतों में की जाती थी क्योंकि उनसे राजभक्ति की पूर्ण आशा थी और सुदूरस्थ प्रांतों में इसी कोटि के शासक की आवश्यकता थी।

ऊपर जिन चार प्रमुख केन्द्रों का वर्णन किया गया है उनका शासन भी राजकुलीन व्यक्तियों द्वारा होता था। दिव्यावदान के अनुसार अशोक का पुत्र कुणाल तक्षशिला का वायसराय था। फाहियान इसे धर्म-अभिवर्धन कहता है, उसे गान्धार प्रान्त का वायसराय बताता है।

अशोक के पदाधिकारी- अशोक के अभिलेखों से हमें विभिन्न प्रकार के पदाधिकारियों का बोध होता है, उनमें से अधिकांश अर्थशास्त्र में उल्लिखित पदाधिकारियों से मिलते-जुलते हैं। केवल धर्म-संबंधी पदाधिकारी नवीन हैं। डॉ. हेमचन्द्र रायचौधरी ने निम्नलिखित बारह प्रकार के पदाधिकारियों का उल्लेख किया है-

(1) महामात्र, (2) राजुक, (3) रथिक, (4) प्रादेशिक, (5) युत अथवा युक्त, (6)इ पुलिश, (7) पतिवेदक, (8) बचभूमिक, (9) लिपिकार, (10) दूत, (11) आयुक्त तथा (12) कारणका

धर्म महामात्र- चन्द्रगुप्त के शासन काल में धर्म महामात्र नामक पदाधिकारी नहीं था। अशोक ने इनकी नियुक्ति सर्वप्रथम की थी। स्मिथ महोदय ने धर्म महामात्रों को निरीक्षण’ (Censor) कहा है। पर स्मिथ महोदय ने उनके कर्तव्यों को समझने में कुछ भूल की है। वास्तव में धर्म महामात्रों का कार्य केवल निरीक्षक’ ही न था, वरन् उनके ऊपर कुछ और भी धार्मिकता एवं नैतिकता-संबंधी उत्तरदायित्व थे। अशोक का पंचम शिलालेख स्वयं ही धर्म महामात्रों के कर्तव्यों का स्पष्टीकरण कर देता है-

“आज के पूर्व निकट अतीत में कभी धर्म महामात्र नहीं रहे। अपने राज्याभिक के तेरह वर्ष के पश्चात् मैंने ही उनकी नियुक्ति की। वे सभी सम्प्रदायों के बीच नियुक्त किये गये हैं और उनका कार्य धर्म की स्थापना करना, धर्म की घोषणा करना तथा धर्मानुरागियों की सतत् सुरक्षा एवं आनंद के लिये प्रयत्न करना है।” सभी वर्ग के लोगों के बीच उपस्थित रह कर, क्या ब्राह्मण क्या गृहपति, क्या अनाथ और क्या वृद्ध अथवा बहु-संतान के भार से दबे हुए अथवा शोषित जन अथवा धर्म टेक ग्रहण कर मधुकरी या भिक्षान्न पर निर्वाह करने वाले सभी व्यक्तियों को उनकी आवश्यकतानुसार उचित सहायता देना इन्हीं धर्ममहामात्रों का कर्त्तव्य था।

महामात्र- साम्राज्य के जिले तथा नगरों में महामात्र स्वतंत्रतापूर्वक विचरण किया करते थे। अशोक के शिलालेखों से हमें यह भी ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, तोसली, र्वणगिरि, समाया तथा इसिला मं महामात्रों की नियुक्ति की गई थी। विभिन्न प्रकार के महामात्रों का उल्लेख अशोक के शिलालेखों में किया गया है, उदाहरणार्थ, कलिंग शिलालेख में ‘नगलक’ तथा ‘नगल वियोहलक’ महामात्रों का उल्लेख किया गया है। डॉ० हेमचन्द्र रायचौधरी के मतानुसार ये क्रमशः अर्थशास्त्र के ‘नागरक’ तथा ‘पौर व्यावहारिक’ हैं। प्रथम स्तम्भ-लेख में भी अन्तमहामात्र का उल्लेख मिलता है। यह सम्भवतः अर्थशास्त्र का अन्तपाल है। इसी प्रकार बारहवें शिलालेख में ‘इथिझक’ महामात्र का उल्लेख किया गया है। यह सम्भवतः ‘स्त्री-अध्यक्ष’ है।

उपर्युक्त विवरण से ऐसा ज्ञात होता है कि विभिन्न कार्यों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के महामात्रों की नियुक्ति की गई थी। ये महामात्र अपने-अपने विभागों के अध्यक्ष थे तथा उस विभाग का पूर्ण उत्तरदायित्व इनके ऊपर था।

राजुक- डॉ० स्मिथ के कथनानुसार गजक भी गवर्नर होता था, किन्तु उसका पद कुमार से नीचा था। ये भूमि तथा न्याय के अधिकारी थे। इनके अधिकार विस्तृत थे। अशोक के चतुर्थ स्तम्भ-लेख का उल्लेख प्रारंभ में ही किया गया है जिसमें अशोक ‘रज्जुक’ (राजुक) की नियुक्ति की घोषणा करता है। इस अभिलेख से राजुकों के महत्व का बोध होता है और यह भी ज्ञान होता है कि वह कई लाख मनुष्यों पर शासन करता था। जनपदों की देखभाल करना इसका प्रमुख कार्य था। किसी को सम्मानित एवं दंडित करने का भी इन्हें पूर्ण अधिकार था। रथिक तथा युक्त राजुकों की सहायता करते थे।

प्रादेशिक- प्रादेशिक का स्थान भी काफी महत्त्वपूर्ण था। अशोक के शिलालेग्यों से वह ज्ञात होता है कि ये प्रान्तीय शासन के प्रधान थे तथा वाइसराय के नीचे थे। रुद्रदामन के जूनागढ़-अभिलेख से मौर्य-कालीन दो प्रांतीय गवर्नरों के नाम प्राप्त होते हैं- (1) पुष्यगुप्त जी चन्द्रगुप्त के समय में सौराष्ट्र का गवर्नर था तथा (2) तुपास्प जो अशोक के समय में सौराष्ट्र का गवर्नर था। तुपास्प पारसीक नाम है, अतः इससे ज्ञात होता है कि राजकर्मचारी की नियुक्ति में सम्राट अशोक किसी प्रकार जातीय या देशी-विदेशी भेद नहीं रखता था। यह उसके धार्मिक सहिष्णुता का भी परिचायक है।

युत अथवा युक्त- प्रादेशिक के बाद युत अथवा अर्थशास्त्र के युक्त का उल्लेख अभिलेखों में किया गया है। ये अपने सहायक उपयुक्त की सहायता से जिला-कोप की देखरेख, राजकीय सम्पत्ति का निरीक्षण, मालगुजारी वसूलना तथा खर्च करना, लेखा-जोखा करना आदि काम करते थे। मनु ने भी अपनी स्मृति में इस पदाधिकारी का उल्लेख किया है और उसका कर्त्तव्य खोई हुई वस्तुओं की पुनर्णाप्ति के पश्चात् रक्षा करना बताया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में ‘युक्त’ का उल्लेख करते हुये उसे राज्य सम्पत्ति का प्रबन्धक बतलाया है।

अशोक का शासन-सुधार

अशोक के राजत्व सिद्धान्त के विषय में लिखते हुए यह बतलाया गया है कि वह राजा का प्रमुख कर्त्तव्य प्रजा की सेवा करना समझता था। अतः प्राचीन शासन-प्रणाली में कुछ सुधार करना अत्यन्त आवश्यक था। सर्वप्रथम उसने धर्ममहामात्रों की नियुक्ति की जो प्रजा के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न करते थे, धर्ममहामात्र प्रजा को सुखी बनाने के लिए उनमें दान-वितरण भी करते थे। अशोक के पंचम शिलालेख से यह भी विदित होता है कि वे धर्ममहामात्र वृद्ध अथवा अधिक संतान वाले बन्दी की मुक्ति अथवा कारागार की अवधि कम करने की भी सिफारिश करते थे। दूसरा नवीन सुधार जो अशोक ने किया, वह यह था कि राज्य के प्रधान कर्मचारी राजुक, प्रादेशिक, युक्त आदि पंचवर्षीय अथवा त्रिवर्षीय अनुसंधान (दौरा) किया करते थे जिससे वे ग्रामीण जनता के निकट संपर्क में आकर उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक समस्याओं का अध्ययन कर सकें और उनके कष्ट को दूर करें। अशोक का तृतीय शिलालेख तथा प्रथम कलिंग शिलालेख से हमें उपर्युक्त बात ज्ञात होती है। अब तक गुप्तचर विभाग केवल राजनीतिक विषयों की सूचना सम्राट् को देते रहे, किन्तु अशोक ने पतिवेदक नामक अधिकारी को केवल इसलिए नियुक्त किया था कि वे संपूर्ण महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक विषयों से हर समय उसे सूचित किया करें (छठा शिलालेख)। अशोक ने मौर्य शासन-प्रबन्ध में एक महत्त्वपूर्ण सुधार यह किया कि वह अपने राज्याभिषेक की वर्षतिथि के दिन बन्दियों को मुक्त कर देता था और प्राणदण्ड पाये हुए अपराधियों की जीवन अवधि तीन दिन और बढ़ा देता था (पाँचवाँ तथा चौथा शिलालेख)। तत्कालीन भारतीय राजनैतिक सिद्धान्त के अनुसार दो पड़ोसी राज्य बैरी समझे जाते थे और शक्तिशाली राजा अपने पड़ोसी राज्य को हर प्रकार से अभयदान की घोषणा इस प्रकार की-”सीमान्त जातियाँ मुझसे भय न खाएँ, वे मुझा पर विश्वास करें और मुझसे सुख प्राप्त करें। वे कभी दुख न पावें और इस बात का सदैव विश्वास रखें कि जहाँ तक क्षमा करना सम्भव है. राजा उनके साथ करेगा।”

सम्राट अशोक ने शासन-प्रबन्ध में सबसे बड़ा सुधार यह किया कि उसने सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाकर जीवन-स्तर ऊँचा करने का प्रयास किया। इसके लिए उसने कुछ हिंसात्मक समाजों एवं उत्सवों को बन्द करा दिया। मदिरा, मांस, नृत्य आदि में समय अथवा धन का अपव्यय होता था, उसे रोकने का भी अशोक ने पूर्ण प्रयास किया।

पशुवध-निषेध भी इस क्षेत्र में नवीन एवं महत्त्वपूर्ण सुधार था। भारतीय इतिहास तो क्या विश्व-इतिहास में कोई ऐसा सम्राट नहीं मिलता जिसने पशुवध-निषेध की चेष्टा की हो और वह इस कार्य में इतना अधिक सफल हुआ हो ।

प्रजा के हित के लिए प्राचीन भारत के अधिकांश सम्राटों ने अनेक कार्य किये, किन्तु अशोक के सम्मुख उनके प्रजा-हितकारी कार्य फीके पड़ जाते हैं। यद्यपि इसे सुधारों की कोटि में नहीं रखा जा सकता, पर अशोक ने इसे अपना प्रमुख कर्त्तव्य बना लिया था, अपने शासन-प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य घोषित कर चुका था। अतः यह एक प्रकार का सुधार-कार्य कहा जा सकता है।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अशोक के शासन-प्रबन्ध तथा तत्संबंधी सुधारों पर उनकी नैतिकता-प्रधान धार्मिकता की पूर्ण छाप थी। जिन नये पदाधिकारियों की नियुक्ति अशोक द्वारा की गई, वे राजनीतिक क्षेत्र में भले ही महत्त्वपूर्ण कार्य न कर सके हों, पर सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक क्षेत्र में उन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया। तब तक के सांस्कृतिक इतिहास में जिन नवीन पृष्ठों को जोड़ कर जिसने आदर्श भारतीय संस्कृति का उदाहरण अशोक ने प्रस्तुत किया, वह चिरस्मरणीय है। अशोक के शासन-प्रबन्ध में उसके शिथिल सैनिक संगठन के सम्बन्ध में कुछ भी कहना उस अद्वितीय शासन-प्रबंध की मौलिकता एवं महत्ता को घटाना है। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा संगठित सेना अशोक के शासन-काल में अस्त्र-शस्त्रों के स्थान पर नैतिक आदर्शों की पूजा कर रही थी।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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