इतिहास

मौर्य शासन प्रबंध | मौर्य प्रशासन की विशेषतायें

मौर्य शासन प्रबंध | मौर्य प्रशासन की विशेषतायें

मौर्य शासन प्रबंध

मौर्य शासकों में चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सम्राट अशोक दो ही ऐसे शासक हुए, जिनके प्रशासन की विशेषताओं को कुल मिलाकर मौर्य प्रशासन की विशेषतायें कहा जा सकता है। मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उसका पोता. सम्राट अशोक दोनों ही कुशल प्रशासक थे। प्रशासन की दृष्टि से चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही मौर्य प्रशासन की आधारशिला रखी। उसने काफी कठिन परिस्थितियों में मौर्य वंश का प्रभुत्व मगध के सिंहासन पर स्थापित किया। नन्द राजाओं के शासन में मगध की राजधानी से बिना कुछ लिये वह इधर-उधर भटकता फिरा और कुछ दिनों पश्चात् उसने अपनी प्रबल बुद्धि के बल पर पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेशों को अपने अधिकार में किया और फिर मगध के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसके इस महान् एवं विकट समय में उसका एकमात्र महत्त्वपूर्ण सहयोगी चाणक्य था। चाणक्य को दो अन्य नामों से भी इतिहास में लिखा जाता है- वे नाम हैं कौटिल्य और विष्णुगुप्त। इस प्रकार  चाणक्य, कौटिल्य और विष्णुगुप्त एक ही व्यक्ति के नाम थे।

मगध के सिंहासन पर अधिकार करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने विशाल साम्राज्य को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित किया। वास्तव में मौर्य साम्राज्य की सीमाओं का इतना विस्तार था, जितना विस्तार इससे पहले भारतवर्ष में किसी सम्राट का नहीं रहा। अपने दादा चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन को लगभग बिल्कुल वैसा ही सम्राट अशोक ने भी बनाये रखा। परन्तु कलिंग बुद्ध के पश्चात् उसने उसमें आध्यात्मिकता, धर्म तथा जन कल्याण को प्रमुख रूप में रखा दिया। चन्द्रगुप्त को तो स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासक कहा जा सकता है जैसे कि प्रो० वी०ए० स्मिथ ने कहा है कि “यद्यपि सम्राट अशोक एक लोकनायक के रूप में जनकल्याण की भावना से अपने देश पर शासन करता था। वह अपनी प्रजा को अपने पुत्र के समान समझता था। चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथ में राज्य की सभी शक्तियाँ केन्द्रित थीं। वह अपने साम्राज्य का प्रशासनिक दृष्टि से, अर्थ की दृष्टि से, सैनिक दृष्टि से, न्याय की दृष्टि से एवं अन्य सभी दृष्टियों से सर्वोच्च अधिकारी था, तथापि वह स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासक नहीं था। वह अपनी मन्त्रिपरिषद् की सलाह से काम करता था एवं उसके कार्यों पर जनकल्याण की भावना का नियन्त्रण था।”

मौर्य प्रशासन की विशेषतायें

(Salient Features of Mauryan Administration)

मौर्यकालीन प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है। यथा-

(1) साम्राज्य विस्तार-

मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की सीमाओं का भी इतना विस्तार था, जितना भारत में इससे पहले किसी सम्राट का नहीं रहा। सम्राट अशोक ने इन सीमाओं का और भी अधिक विस्तार किया। कलिंग विजय के पश्चात् ही अशोक ने अपने साम्राज्य का विस्तार रोक दिया। इस समय तो अशोक एक महान् धार्मिक एवं नैतिक व्यक्ति बन गया। फिर भी सम्राट अशोक की साम्राज्य की सीमायें अपने दादा चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य से भी अधिक विस्तृत हो गयी थीं। इस प्रकार अशोक के साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार के सम्बन्ध में वही बातें लागू होती हैं, जो कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में लागू होती थीं। सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार इतना था, जितना कि इससे पहले भारत में किसी सम्राट का नहीं रहा।

  1. शासन व्यवस्था-

मौर्यवंश के दो ही ऐसे प्रमुख शासक हुए हैं, जिनका मौर्यकालीन शासन व्यवस्था के निर्माण में योगदान कहा जा सकता है। मौर्यवंश की शासन व्यवस्था की आधारशिला बड़ी कठिन परिस्थितियों में मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही रखी थी और वही शासन व्यवस्था मौर्यवश के सभी सम्राटों ने बनाए रखी। साधारण रूप में सम्राट अशोक की शासन व्यवस्था मूल रूप में उसके दादा चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था के ही अनुरूप थी। मौर्यों की शासन-व्यवस्था के विषय में हमें निम्नलिखित स्रोतों से जानकारी मिलती है-

(1) कौटिल्य का ग्रन्थ अर्थशास्त्र,

(2) मैगस्थनीज की पुस्तक इण्डिका,

(3) अशोककालीन अभिलेख।

  1. केन्द्रीय शासन-

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था निरंकुश राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली पर आधारित थी। साम्राज्य की व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका सम्बन्धी सर्वोच्च शक्तियाँ सम्राट में निहित थीं। तीनों ही क्षेत्रों में सम्राट का निर्णय अन्तिम निर्णय होता था। इस प्रकार सम्राट ही शासन का सर्वोच्च अधिकारी था। सम्राट की इन शक्तियों तथा अधिकारों को देखकर कोई भी कह सकता था कि सम्राट स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश होता था। प्रो० वी० ए० स्मिथ ने तो चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए ऐसा लिख भी दिया, ‘चन्द्रगुप्त के शासन से विदित तथ्य इस बात को सिद्ध कर देते हैं कि वह कठोर, निरंकुश शासक था।’ परन्तु वास्तव में मौर्य सम्राट निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी नहीं था। वह मन्त्रिपरिषद् से परामर्श लेने के बाद ही कोई नीति बनाता एवं कार्य करता था। वह लोकमत को सदैव ही अपने सामने रखकर कार्य करता था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र हमें बतलाता है कि सम्राट अपने को प्रजा का ऋणी समझता था। अपनी प्रजा के सर्वाधिक कल्याण तथा शासन के सुचारुपूर्ण संचालन के लिए पदाधिकारियों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अपने सैनिक विभाग का भी प्रधान था और अपनी सेना के संगठन की व्यवस्था स्वयं करता था। युद्ध के समय वह स्वयं सेना का नेतृत्व करता था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ और मेगस्थनीज की पुस्तक ‘इण्डिका’ से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त स्वेच्छाचारी नहीं था। अपने प्रशासनिक कार्यों को वह पूरी सतर्कता से देखता था। साम्राज्य के आय-व्यय की जाँच, आन्तरिक व्यवस्था की देखभाल व अधिकारियों से परामर्श वह स्वयं करता था। राजदूतों से बातचीत तथा नियम- आदेशों को प्रसारित करने का काम भी स्वयं करता था। सम्राट अशोक के प्रशासन का स्वरूप भी राजतन्त्रात्मक था तथा उसकी शासन व्यवस्था भी चन्द्रगुप्त मौर्य के समान थी। सम्राट अशोक शासन का सर्वशक्तिमान सर्वोच्च अधिकारी होते हुए भी जनहित के कार्यों को प्रमुखता देता था।

  1. मन्त्रिपरिषद्-

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में सम्राट को सहयोग तथा परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होती थी। सम्राट अशोक भी साम्राज्य का सर्वेसर्वा था, फिर भी सम्राट को प्रशासनिक कार्यों में सहयोग देने के लिए मन्त्रिपरिषद् बनाये रखी थी। सम्राट अशोक की मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को गूढ़ एवं गुप्त से गुप्तं बात पर अपने मत प्रकट करने की स्वतन्त्रता थी। अशोक अपने मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को नियुक्त करते समय यह देख लेता था कि वे दृढ़ चरित्र, उच्च नैतिकता तथा धार्मिक आदर्शों का पालन करने वाले व्यक्ति हैं या नहीं। मन्त्रिपरिषद् की कार्यवाही गुप्त रखी जाती थी। सम्राट मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों को मानने के लिए बाध्य नहीं थे। मन्त्रिपरिषद् का अधिवेशन दैनिक राजकार्य के लिए नहीं होता था, अपितु वह आवश्यक कार्यों के सम्बन्ध में ही बुलाई जाती थी। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं थी। मन्त्रिपरिषद् के निर्णय बहुमत से होते थे, परन्तु सम्राट् उन निर्णयों को मानने के लिए बाध्य नहीं थे। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।

  1. मन्त्रिण-

राज्य के दैनिक कार्यों के लिए कुछ मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी। मौर्य सम्राट् इन मन्त्रियों के सहयोग एवं सलाह से शासन का संचालन करता था। प्रत्येक मन्त्री को 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। इससे स्पष्ट होता है कि मन्त्रिण का पद मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों से ऊँचा होता था।

  1. मौर्यकालीन पदाधिकारी-

अलग-अलग विभागों के अध्यक्ष नियुक्त किये जाते थे, जो “आमात्य” कहलाते थे। इनके अतिरिक्त राज्य में कर एकत्र करने के लिए “समाहर्ता’, साम्राज्य के आय-व्यय का ब्यौरा रखने के लिए ‘सन्निधाता”, सैनिक प्रबन्ध व युद्ध संचालन करने के लिए “सेनापति”, उद्योगों की देखभाल के लिए ‘कर्मान्तिक”, प्रशासनिक विभागों के अभिलेखों को सुरक्षित रखने के लिए ‘प्रशास्ता’, सीमान्त प्रदेशों के दुर्गों की देखभाल करने के लिए ‘अन्तपाल’ तथा साम्राज्य के भीतरी भागों की देखभाल करने के लिए ‘दुर्गपाल’ होते थे। सम्राट अशोक के काल में भी ‘अग्रामात्य’ सम्राट का प्रमुख सहायक होता था। प्रशासन के विभिन्न विभागों के अध्यक्ष ‘महामात्र’ कहलाते थे। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अधिकारी “राजुक” होता था, जो प्रान्तीय स्तर का उच्च अधिकारी होता था। राज्य के आय- व्यय की देख-रेख करने वाले अधिकारी को “युक्त” कहा जाता था। अन्त:महामात्र सीमान्त प्रदेशों के उच्च अधिकारी होते थे। धर्म महामात्र धर्म की देख-रेख तथा दीन-दुःखियों की सहायता करते थे। प्रादेशिक जिले के प्रमुख अधिकारी होते थे।

  1. केन्द्रीय शासन के विभाग-

चन्द्रगुप्त ने शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय शासन को कई विभागों में बांट दिया था। ये विभाग “तीर्थ” कहलाते थे। कौटिल्य के “अर्थशास्त्र” के अनुसार इन तीर्थों की संख्या 18 थी, जिनके विभागाध्यक्ष इस प्रकार थें- (1) प्रधान (मंत्री एवं पुरोहित), (2) समाहर्ता (राजस्व मन्त्री), (3) सन्निधाता (कोष मन्त्री), (4) सेनापति, (5) युवराज, (6) प्रदेष्टा (न्यायाधीश), (7) व्यावहारिक (न्यायाधीश), (8) नायक (सैन्य संचालन का उत्तरदायित्व रखने वाला), (9) कर्मान्तिक (उद्योगों का प्रबन्ध देखने वाला), (10) मन्त्रीपरिषदाध्यक्ष, (11) दण्डपाल (सेना के लिए सामग्री इकट्ठा करने वाला), (12) अन्तपाल (सीमाओं की सुरक्षा करने की देखभाल करने वाला), (13) दुर्गपाल (साम्राज्य के अन्तर दुर्गों की व्यवस्था देखने वाला), (14) पौर (नगरों की शासन व्यवस्था देखने वाला), (15) प्रशास्ता (राजाओं के अभिलेख रखने वाला), (16) दौवारिक (राजप्रासाद का प्रधान अधिकारी, (17) अन्तर्वेशिक (अन्तःपुर का अध्यक्ष), (18) आटविक (जंगल विभाग का मन्त्री)।

  1. विभाग-

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ही 26 विभागों का उल्लेख किया गया है। प्रत्येक विभाग का प्रमुख एक विभागाध्यक्ष होता था। ये विभागाध्यक्ष एक मन्त्री के अधीन कार्य करते थे। एक मन्त्री के पास एक से अधिक विभाग हो सकते थे। ये विभाग थे- (1) कोष, (2) आकर (खानें), (3) अक्षशाला (धातु), (4) टकसाल, (5) लवण, (6) सुवर्ण, (7) कोष्ठागार, (8) व्यापार, (9) वन, (10) आयुधागार, (11) तोलमाप, (12) देशकाल मान, (13) शुल्क, (14) सूत्र (कताई-बुनाई), (15) सीता (कृषि), (16) सुरा, (17) बूचड़खाना, (18) पोत विभाग, (19) गो (अश्व, हस्ति विभाग), (20) पासपोर्ट, (21) चारागाह, (22) गुप्तचर, (23) धार्मिक संस्थायें, (24) द्यूत, (25) जेल,(26) पत्तन (बन्दरगाह)।

  1. पुलिस एवं गुप्तचर प्रबन्ध-

मौर्य काल में राज्य में शान्ति बनाये रखने के लिए पुलिस की व्यवस्था थी। पुलिस का काम यह देखना था कि लोग राज्य के बनाये नियमों व कानूनों को भंग नहीं करें और जो लोग नियमों या कानूनों के अनुसार कार्य नहीं करें या उनको तोड़ें, तो उनको पकड़ कर उन्हें दण्ड दिलावें। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में पुलिस का आदमी, ‘रक्षिन’ कहलाता था। अशोक एवं अन्य मौर्य शासकों के समय में भी पुलिस की व्यवस्था थी।

इनके अतिरिक्त गुप्त रीति से किये गये अपराधों का पता लगाने के लिए गुप्तचर थे। चन्द्रगुप्त ने गुप्तचरों की आवश्यकता को समझा। चन्द्रगुप्त मौर्य का गुप्तचर विभाग दो विभागों में विभक्त था।। संस्थान विभाग, 2. संचारण विभाग। ‘संस्थान’ विभाग के गुप्तचर एक ही स्थान पर रहकर इधर-उधर घूमकर स्थानीय बातों की सूचना सम्राट को दिया करते थे। ‘संचारण’ विभाग के गुप्तचर सदैव भ्रमण किया करते थे तथा दूर-दूर की बातों का पता लगाकर सम्राट को उसकी सूचना दिया करते थे। ये गुप्तचर बड़े-बड़े अधिकारियों की बातों की सूचना को सम्राट तक पहुँचाते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के गुप्तचर विभाग में स्त्रियाँ भी थीं। सम्राट अशोक का भी गुप्तचर विभाग था। उसने भी अपने नजदीक रहने वाले लोगों में से ‘प्रतिवेदक’ नियुक्त किये हुए थे। वे प्रतिवेदक साम्राज्य में घटने वाली प्रत्येक क्षण की घटना की जानकारी सम्राट को देते रहते थे।

  1. सेना का प्रबन्ध-

चन्द्रगुप्त अपने साम्राज्य के विस्तार को देखते हुए उसकी सुरक्षा के कालिए एक विशाल सुसंगठित सेना की आवश्यकता को समझता था। उसकी चतुरंगिणी सेना में पैदल, रथ, घोड़े एवं हाथी थे। उसकी सेना में 6 लाख पैदल, 30 हजार घुड़सवार, 36 हजार गजारोही तथा 24 हजार रथ सैनिक थे। सम्राट स्वयं ही सेना का प्रधान सेनापति होता था तथा युद्ध के समय वह स्वयं ही सेना का संचालन करता था। चन्द्रगुप्त के पास जल सेना भी थी। इस सम्पूर्ण सेना के प्रबन्ध के लिए 30 सदस्यों का एक सैनिक मण्डल था। छः समितियाँ सेना की व्यवस्था करती थीं। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे। चार विभाग चतुरंगिणी सेना की व्यवस्था अलग-अलग देखते थे। एक विभाग जल सेना का प्रबन्ध करता था तथा एक विभाग सेना को सामग्री और रसद की व्यवस्था करता था। घायल तथा रोगी सैनिकों की देखभाल के लिए एक चिकित्सा विभाग भी था। सम्राट अशोक भी स्वयं सेना का प्रधान सेनापति था तथा वह स्वयं ही युद्ध के समय सेना का संचालन करता था। परन्तु कलिंग युद्ध के बाद तो उसने कोई युद्ध लड़ा ही नहीं। उसने प्रेम, अहिंसा और सहानुभूति को अपने राज्य का आधार बना लिया।

  1. न्याय प्रबन्ध-

अपराधियों को दण्ड देने के लिए तथा लोगों के मध्य झगड़ों को सुलझाने के लिए न्यायिक व्यवस्था भी आवश्यक होती है। चन्द्रगुप्त ने अपने प्रधानमन्त्री चाणक्य की सहायता से ऐसी उत्तम न्याय-व्यवस्था का प्रबन्ध किया, जिसका आज भी संसार के सभ्य देशों में अनुकरण किया जाता है। ग्रामों में न्याय का काम आजकल की ग्राम पंचायतों की तरह ‘ग्राम-संघों’ द्वारा होता था। चार ग्रामों, सौ ग्रामों, चार सौ ग्रामों, आठ सौ ग्रामों के लिये न्यायालय थे। एक पूरे जनपद के न्यायालय को ‘जनपदसंधि’ कहा जाता था, जिसका न्यायाधीश राजुक कहलाता था। सभी न्यायालयों में अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। आजकल की भाँति उस समय भी दीवानी और फौजदारी मामलों को निबटाने के लिये अलग-अलग न्यायालय थे। ‘धर्मस्थीय’ न्यायालय में दीवानी के मामलों का निर्णय किया जाता था तथा ‘कंटक शोधन’ न्यायालय में फौजदारी में मामलों का निर्णय किया जाता था। साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश सम्राट होता था। प्रचलित व्यवहार धर्मशास्त्र और राज्य के नियम न्याय देने का आधार होते थे। सम्राट अशोक के समय न्याय का सम्पर्ण कार्य ‘राजुक’ के हाथों में सौंप दिया गया। अशोक ने प्रेम और सहानुभूति का मार्ग अपनाकर दण्ड विधान की कठोरता को कम कर दिया। इसके अतिरिक्त अशोक ने अपने राज्याभिषेक के दिन बन्दियों को मुक्त करवाने तथा मृत्यु-दण्ड के अपराधियों को तीन दिन का जीवन दान देने की प्रथा चलाई।

इस प्रकार स्पष्ट है कि मौर्य साम्राज्य में न्याय व्यवस्था धर्म, व्यवहार, चरित्र और राज्य शासन पर आधारित थी। कोई भी न्यायाधीश अपनी मनमानी नहीं कर सकता था। क्योंकि जहाँ अपराधियों के लिये कठोर दण्ड-विधान की व्यवस्था थी, वहाँ भ्रष्ट तथा गलत निर्णय देने वाले न्यायाधीशों तथा अधिकारियों के लिये भी कठोर दण्ट की व्यवस्था थी।

  1. आय-व्यय के साधन-

राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था, जो उपज का 1/6 भाग या 1/4 भाग होता था। भूमि-कर के अतिरिक्त, वनों, खानों, आयात-निर्यात कर, व्यापारिक कर, बिक्री कर, नमक, शराब, अस्त्र-शस्त्र, मुद्रा, न्यायालय शुल्क, जुर्माने आदि भी आय के अन्य साधन थे। राज्य की आय को राज्य कर्मचारियों के वेतन, सेना, शिक्षा, दानकार्यों, सार्वजनिक हित के कार्यों, यातायात, राजपरिवार आदि पर खर्च किया जाता था।

  1. लोक कल्याणकारी कार्य-

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि राजा अपनी प्रजा का कर्जदार समझा जाता था। जनकल्याण व लोकहित कार्य करके ही राजा प्रजा के इस ऋण से मुक्त पाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने लोक कल्याणकारी कार्यों के लिए एक अलग ही विभाग स्थापित किया था। इस विभाग के माध्यम से उसने साम्राज्य में यात्रियों की सुविधा के लिये सड़कों और सरायों का निर्माण कराया। कुएँ, तालाब, झीलें तथा नहरें बनाकर किसानों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई। औषधालयों से मुफ्त औषधि वितरण की व्यवस्था कराई। अकाल की स्थिति से निबटने के लिये अन्न भण्डार बनवाये। उसने शिक्षा की उन्नति के लिये शिक्षण संस्थाओं को पर्याप्त अनुदान की व्यवस्था की। गरीबों, अपाहिजों, वृद्धों, अनाथो तथा बालकों की सहायता की जाती थी। सम्राट अशोक ने तो लोकहित के कार्यों का और भी अधिक विस्तार कर दिया। राज्य के प्रत्येक कर्मचारी को लोकहित के कार्यों में पूर्ण सहयोग देने के उसने आदेश दे रखे थे। अशोक तो अपनी प्रजा के लिए उदारता एवं दया का अवतार बन गया था। उसने केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं, पशु-पक्षियों के देखभाल की भी व्यवस्था की। अशोक ने सड़कें बनवायीं तथा सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये। अशोक के काल में दीन-दुःखियों में भोजन तथा वस्त्र वितरित किये जाते थे। प्रजा-पालन तथा उसके हित चिन्तन को ही अशोक ने अपने शासन का आधार बनाया था।

  1. प्रान्तीय शासन-

चन्द्रगुप्त का एक विशाल साम्राज्य था। इतना बड़ा विशाल साम्राज्य भारत में पहले किसी सम्राट के अधीन नहीं रहा। इतने बड़े विशाल साम्राज्य का शासन एक ही केन्द्र से चलाना कठिन ही नहीं वरन् असम्भव था। अतः शासन की सुविधा के लिए चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में बाँट दिया था। प्रत्येक प्रान्त के शासन की देखभाल एक ‘प्रान्तपति’ को सौंप दी जाती थी। सम्राट स्वयं इन प्रान्तपतियों की नियुक्ति करता था तथा वे सम्राट के प्रति सीधे उत्तरदायी होते थे। इस पद पर सम्राट पूर्ण विश्वास प्राप्त व्यक्ति को ही नियुक्त करता था। महत्त्वपूर्ण प्रान्तों पर या तो सम्राट का स्वयं का शासन था या वहाँ राजकुल के राजकुमारों को नियुक्त किया जाता था, जिन्हें “कुमारामात्य” कहा जाता था। छोटे प्रान्तों की देखभाल ‘‘राजुक” को सौंप दी जाती थी। “कुमारामात्य’ और “राजुक” भी सम्राट के प्रति सीधे उत्तरदायी होते थे। प्रान्तों को मण्डल कहा जाता था। ये मण्डल छोटे-छोटे जनपदों में बँटे हुए थे। प्रान्त युद्ध के समय सम्राट को सैनिक सहायता पहुँचाते थे। सम्राट प्रान्तों के मुख्य अधिकारियों पर पूरी नजर रखता था। सम्राट अशोक का साम्राज्य भी शासन सुविधा की दृष्टि से पाँच प्रान्तों में विभक्त था। (i) उत्तरी पूर्वी प्रांत, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, सीधे सम्राट की देखरेख में था, (ii) उत्तरापथ, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी, (iii) अवन्तिपथ, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, (iv) दक्षिणापथ, जिसकी राजधानी स्र्वणगिरि थी, (v) कलिंग, जिसकी राजधानी तोषाली थी। इन प्रान्तों में राजकुमार प्रान्तपति (सूबेदार) के रूप में नियुक्त किये जाते थे। प्रांतपति निरंकुश न हो जाये, इसके लिये प्रांतों में भी मंत्रि-परिषदें होती थीं, जो प्रांतीय शासन के कार्य में प्रांतपति को सहायता देती थीं और प्रांतपति की गतिविधियों की सूचना सम्राट को दे देती थीं। प्रत्येक प्रान्तीय शासक को 12000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।

  1. अशोक का धर्म प्रधान शासन-

कलिंग विजय के पश्चात् अशोक की धार्मिक रुचि बहुत अधिक बढ़ गई। अशोक ने स्वयं तो बौद्ध धर्म ग्रहण कर ही लिया था, परन्तु उसने उस समय के सभी धर्मों के प्रति समभाव बनाये रखा। अशोक बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त से सबसे अधिक प्रभावित हुआ था और पशु-बलि आदि को समाप्त करने के उसने आदेश दे दिये। अशोक अपनी प्रजा का नैतिक स्तर ऊँचा रखना चाहता था। उसने धर्म महामात्रों की नियुक्ति कर, उनको लोगों के कष्टों का निवारण तथा उनकी नैतिक उन्नति का कार्य सौंप दिया। धर्म महामात्रों का काम लोगों को अच्छे मार्ग पर लाना था।

  1. स्थानीय शासन–

ग्राम मौर्य साम्राज्य की सबसे छोटी इकाई थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने ग्रामों तथा नगरों का शासन वहीं के लोगों को सौंप दिया था। ग्रामों तथा नगरों में संस्थायें संगठित करके उन्हें पर्याप्त स्वतन्त्रता दे रखी थी। इस प्रकार आजकल की ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं का बीजारोपण चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हो चुका था। ग्राम का प्रमुख अधिकारी ‘ग्रामिक’ कहलाता था जो ग्रामवासियों द्वारा ही निर्वाचित किया जाता था। 5 से 10 ग्रामों के ग्रामिकों से ऊपर एक पदाधिकारी ‘गोप’ कहलाता था। गोपों के कार्यों की देखभाल करने के लिए प्रदेष्ट नियुक्त किये जाते थे।

नगर के मुख्य अधिकारी को ‘नागरिक” कहा जाता था। मौर्य के शासन में कई बड़े नगर थे और नगरों की समस्यायें ग्रामों की समस्याओं से बिल्कुल अलग होती धीं। नगर का प्रशासन चलाने के लिए आजकल की नगरपालिकायें जैसी संस्थाएँ होती थीं। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर के प्रशासन को बहुत ही उच्चकोटि का एवं सुन्दर बताया था। उसके अनुसार नगर के प्रबन्ध के लिए 6 समितियाँ होती थीं। प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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