वित्तीय प्रबंधन

शुद्ध वर्तमान मूल्य विधि | वर्तमान मूल्य पद्धति के गुण | वर्तमान मूल्य पद्धति की सीमायें

शुद्ध वर्तमान मूल्य विधि | वर्तमान मूल्य पद्धति के गुण | वर्तमान मूल्य पद्धति की सीमायें | Net Present Value Method in Hindi | Properties of Present Value Method in Hindi | Limitations of Present Value Method in Hindi

शुद्ध वर्तमान मूल्य विधि

(Net Present Value Method)

समय समायोजित प्रत्याय दर पर आधारित पूँजी व्ययों के विश्लेषण के लिये प्रयोग की जाने वाली विधियों में शुद्ध वर्तमान मूल्य विधि अधिक महत्वपूर्ण है। इसे Excess Present Value Method या Net Gain Method भी कहते हैं। इस विधि का प्रयोग उस समय सरलतापूर्वक किया जाता है जब प्रबन्ध द्वारा विनियोगों पर न्यूनतम स्वीकार्य प्रत्याय दर निर्धारित कर दी जाती है। इस विधि में विनियोग या परियोजना से प्राप्त रोकड़ अन्तर्वाहों का प्रबन्ध द्वारा निर्धारित अपेक्षित प्रत्याय दर (Required Earning Rate) से बट्टा (Discount) करके वर्तमान मूल्य ज्ञात किया जाता है। इस वर्तमान मूल्य की परियोजना लागत या विनियोग राशि से तुलना की जाती है। यदि परियोजना में विनियोग लागत से प्राप्त रोकड़ अन्तर्वाहों का वर्तमान मूल्य अधिक होता है तो परियोजना में विनियोग प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता है अन्यथा अस्वीकार कर  दिया जाता है। प्राप्त रोकड़ अन्तर्वाहों का वर्तमान मूल्य परियोजना लागत या विनियोग राशि से जितना अधिक होता है वह विनियोग उतना ही अच्छा माना जाता है। प्रबन्ध के सामने एक से अधिक परियोजनाओं में से किसी एक का चुनाव करने की स्थिति में उस परियोजना का चुनाव किया जायेगा जिससे प्राप्त रोकड़ अन्तर्वाहों का वर्तमान मूल्य परियोजना लागत की तुलना में सबसे अधिक है अर्थात जिसका शुद्ध वर्तमान मूल्य (Net Present Value) सबसे अधिक है उस परियोजना का चुनाव किया जायेगा।

Where,

Net Present Value = Present Value of cash inflows in Project life-

Project Cost

Or

Initial Investment

Or

Or = PV – PC or I

Where,

NP = Net Present Value

PV-Present Value of Cash inflows in Project life

PC = Project Cost

I= Investment in Project or Initial Investment

वर्तमान मूल्य पद्धति के गुण

(i) इस पद्धति में समय कारक (Time Factor) को उचित महत्व दिया जाता है, इस कारण यह पद्धति दीर्घकालीन विनियोगों की लाभप्रदता के निश्चयन के लिये सर्वश्रेष्ठ पद्धति मानी जाती है।

(ii) यह अन्य पद्धतियों की अपेक्षा अधिक वस्तुनिष्ठ (Objective) है क्योंकि इससे प्राप्त निष्कर्षों पर हास पद्धतियों तथा पूँजीगत एवं आगम व्ययों में विभाजन से सम्बन्धित प्रबन्धकों के निर्णयों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(iii) इसमें विनियोग के सम्पूर्ण जीवनकाल में प्राप्त होने वाली आय का ध्यान रखा जाता है।

(iv) इस पद्धति में जोखिम तथा अनिश्चितताओं पर ध्यान दिया जाता है। जोखिम तथा अनिश्चतताओं के विभिन्न कारकों (Factors) को ध्यान में रखकर ही इस पद्धति में अर्जन की दर का निश्चय किया जाता है।

(v) विनियोग की जीवन अवधि में असमान दर प्राप्त अर्जन की स्थिति में यह पद्धति अधिक उपयुक्त होती है। असमायोजित औसत विनियोग पर प्रतिदान दर की अपेक्षा यह पद्धति अधिक शुद्ध निष्कर्ष प्रदान करती है।

(vi) इस पद्धति में अलग-अलग अवधि वाली तथा अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग आय प्रदान करने वाले विनियोगों की लाभदायकता की तुलना करना सम्भव है।

वर्तमान मूल्य पद्धति की सीमायें

(i) यह पद्धति समझने में तथा प्रयोग करने में अपेक्षाकृत कठिन है।

(ii) चूँकि विनियोग की जीवन अवधि का पूर्वानुमान पूर्ण शुद्धता से लगा लेना अत्यन्त कठिन है, अतः यह पद्धति स्वतः ही कम महत्वपूर्ण हो जाती है।

(iii) यह पद्धति अनेक जटिलताओं तथा बारीकियों से भरी हुई है, जिसमें स्वयं अनेक अनिश्चिततायें होती हैं, अतः अनिश्चितताओं के आधार पर लगाये गये अनुमान अनिश्चित होते हैं। उदाहरण रोकड़ अन्तर्वाह का अनुमान लागत एवं विक्रय अनुमान पर आधारित होता है, जबकि लागत एवं विक्रय अनुमान स्वतः ही अनिश्चिताओं से भरे हुए होते हैं।

(iv) इस विधि में रोकड़ अन्तर्वाह की गणना के लिये एक निश्चित प्रतिदान दर को आधार माना जाता है। यह प्रतिदान दर क्या हो? अथवा कौन-सी दर उचित होगी? यह निर्धारित करना अपने आप में एक समस्या है।

(v) यह पद्धति लेखांकन की अवधारणाओं (Conventions) के अनुरूप लागत एवं आगम का अभिलेखन नहीं करती।

(vi) यह पद्धति अन्य पद्धतियों से अच्छी है, किन्तु इससे व्यवसाय की पूंजी लागत (Cost of Capital) पर प्रभाव नहीं पड़ता।

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Pankaja Singh

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