वित्तीय प्रबंधन

वाल्टर का लाभांश सिद्धान्त | वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य मान्यताएँ | वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाएँ

वाल्टर का लाभांश सिद्धान्त | वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य मान्यताएँ | वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाएँ | Walter’s Dividend Theory in Hindi | Key Assumptions of Walter’s Dividend Theory in Hindi | Major Criticisms of Walter’s Dividend Theory in Hindi

वाल्टर का लाभांश सिद्धान्त

वाल्टर लाभांश की संगति विचाराधारा के समर्थक हैं। इनके अनुसार लाभांश नीति का चुनाव उद्यम नीति का चुनाव उद्यम के मूल्य को प्रभावित करता है। इस प्रकार संस्था की विनियोग नीति को लाभांश नीति से पृथक नहीं किया जा सकता औरर दोनों एक दूसरे से जुड़े होते हैं। उनके अनुसार संस्था के आन्तरिक प्रत्याय दर (r) तथा उसकी पूँजी की लागत (k) के बीच उपलब्ध सम्बन्ध का अपना महत्व है। इसी सम्बन्ध के आधार पर लाभांश की नीति का निर्धारण किया जाता है और उसी के आधार उद्यम के मूल्य को अधिकतम करने का प्रयास किया जाता है।

यदि विनियोग पर प्रत्याय दर पूँजी की लागत से अधिक है तो ऐसी स्थिति में उद्यम के लिए आय का प्रतिधारण उपयुक्त सिद्ध होता है। यदि उद्यम के विनियोग पर प्रत्याशित दर (r) आवश्यक प्रत्याय दर (k) से कम है तो साख बनाये रखने के लिए आय का वितरण लाभांश के रूप में कर देना चाहिए। वास्तव में यदि आन्तरिक प्रत्याय दर (r) अंशधारियों की प्रत्याशा (k) से अधिक है तो इसका अर्थ यह है कि लाभांश उपलब्ध करने पर अंधधारियों द्वारा पुनार्विनियोजित की जाने वाली धनराशि आवश्यक प्रत्याय दर (k) से कहीं अधिक उद्यम आय अर्जित करने में सक्षम सिद्ध हो रही है।

इस प्रकार वाल्टर सिद्धान्त लाभांश के वितरण अथवा आय के प्रतिधारण को उपलब्ध विनियोग अवसरों से सम्बन्धित करता है। दूसरों में पर्याप्त लाभ परक विनियोग अवसर उपलब्ध होने पर उद्यम विनियोक्ताओं की प्रत्याशा (k) से अपेक्षाकृत अधिक आय (r) अर्जित करती है। इस प्रकार के उद्यमों को विकासशील उद्यम (Growth Firm) के नाम से जाना जाता है। एक विकसित उद्यम के लिए अनूकूलतम भुगतान अनुपात (Optimum Payout Ratio) शून्य के पक्षबाराबर होती है। इस तरह r>k की स्थिति में भुगतान अनुपात में कमी होने पर प्रति अंश बाजार मूल्य में वृद्धि होती है। लेकिन यदि उद्यम के पास अनगिनत विनियोग अवसर उपलब्ध नहीं है और उपलब्ध लाभपरक विनियोग अवसरों का अधिकतम उपयोग उद्यम द्वारा कर लिया गया है तो ऐसी स्थिति में उद्यम पूँजी की लागत के बराबर ही विनियोग पर प्रत्याय दर अर्जित करेगी। अर्थात् यह स्थिति r =k का परिचाय है। इस स्थिति में उद्यम का होने पर उद्यम होने पर उद्यम को सामान्य फर्म के नाम से पुकारा जाता है। इस दशा में अंशों के बाजार मूल्य पर लाभांश नीति का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक सामान्य फर्म के लिए कोई विशेष अनुकूलतम भुगतान अनुपात नहीं होता। उद्योग विशेष में प्रत्येक जगत लाभांश नीति एक ही तरह की होती है। एक अवनति वाले उद्यम (declining firm) की स्थिति में विनियोग पर प्रत्याय दर (r) पूँजी की लागत (k) से कम होती है क्योंकि कुछ उद्यम ऐसे होते हैं जिनके पास आय को विनियोजित करने के लिए कोई लाभपरक विनियोग अवसर नहीं होते। इस प्रकार के उद्यम के अंशधारियों को आय का लाभंश के रूप में वितरण बेहतर स्थिति (better off) में ले आयेगा। अवनति वाले उद्यम से आय प्राप्त करके वे या तो उसको व्यय करेंगे या उसका कहीं उपयुक्त विनियोग कर अपक्षाकृत अधिक प्रत्याय दर प्राप्त करेंगे या उसका कहीं उपयुक्त विनियोग अपेक्षाकृत अधिक प्रत्याय दर प्राप्त करेंगे। व्यवहार में इस प्रक्रिया से सम्पूर्ण आय का लाभांश के रूप में वितरण कर अंशों के बाजार मूल्य को अधिकतम किया जा सकेगा। यहाँ पर लाभांश भुगतान अनुपात (Payout ratio) 100 के बराबर होगा। r<k की स्थिति में भुगतान अनुपात  में वृद्धि के साथ-साथ प्रति अंश बाजार मूल्य में वृद्धि होती है।

सूत्र व्यवस्था

(Formula Arrangement)

वाल्टर ने प्रति अंश बाजार मूल्य के निर्धारण के लिए निम्नलिखित सूत्र निरूपित किया है-

P = {D+(r/k) (E – D)}/k

जहाँ,

P= प्रति अंश बाजार मूल्य (Market price per Share)

D= प्रति अंश लाभांश (Dividend per Share)

E = प्रति अंश आय (Earning per share)

r= आन्तरिक प्रत्याय की औसत दर (Internal Average Rate of Return)

k= पूँजी की लागत या पूँजीकरण की दर (Cost of Capital or Capitalisation rate)

वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य मान्यताएँ

(Assumptions)

वाल्टर का लाभांश सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-

(i) उद्यम का समस्त वित्तीयकरण प्रतिधारित आय से किया जाता है। ऋण अथवा नयी समता पूँजी का निर्गमन नहीं किया जाता।

(ii) उद्यम द्वारा अतिरिक्त विनियोग किये जाने से उद्यम के व्यावसायिक जोखिम में परिवर्तन नहीं होता, इसलिए आन्तरिक प्रत्याय दर (r) तथा पूँजी की लागत (k) यथा स्थिर रहती है।

(iii) समस्त वितरण तुरन्त लाभांश के रूप में कर दिया जाता है अथवा उद्यम में आन्तरिक आधार पर पुनर्विनियोजित कर दिया जाता है।

(iv) महत्वपूर्ण चरों जैसे प्रति अंश आरम्भिक आय (E) तथा लाभांश (D) में कोई परिर्तन नहीं होता सूत्र में प्रति अंश आय तथा लाभांश के मूल्यों में परिवर्तन परिणाम जानने के लिए किया जा सकता है लेकिन एक दिये हुए मूल्य को निर्धारित करने के लिए दिये गये प्रति अंश आय (E) तथा लाभांश (D) में यह मान लिया जाता है कि वे यथा स्थिर रहेंगे।

(v) उद्यम शाश्वत आधार पर चलते रहेंगे या उसका जीवन काल काफी लम्बी अवधि का होगा।

वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाएँ

(Criticisms)

वाल्टर के लाभांश सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) यह सिद्धान्त केवल प्रतिधारित आय के विनियोग को महत्व देता है। बाह्य वित्तीयकरण को कोई महत्व नहीं प्रदान करता है।

(ii) यह सिद्धान्त केवल ऐसे उद्यमों में लागू होता है, जिनमें समस्त पूँजी समता अंशों पर ही आधारित होती है।

(iii) इस सिद्धान्त के अन्तर्गत औसत प्रत्यायदर (r) तथा पूँजी की लागत (k) को स्थिर माना गया है जबकि बढ़े हुए विनियोग की स्थिति में दोनो चरों में परिवर्तन हो जाता है।

(iv) यह सिद्धान्त उद्यम के मूल्य पर जोखिम के प्रभाव को नजरअन्दाज करता है।

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Pankaja Singh

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