इतिहास

शेरशाह की राजनैतिक उपलब्धियाँ | शेरशाह की प्रशासनिक उपलब्धियाँ | शेरशाह का शासन प्रबंध | शेरशाह के शासन-प्रबंध के उद्देश्य

शेरशाह की राजनैतिक उपलब्धियाँ | शेरशाह की प्रशासनिक उपलब्धियाँ | शेरशाह का शासन प्रबंध | शेरशाह के शासन-प्रबंध के उद्देश्य

शेरशाह की राजनैतिक एवं प्रशासनिक उपलब्धियाँ

शेरशाह की गणना मध्यकाल के श्रेष्ठतम शासकों में की जाती है। उसका महत्व जितना अधिक एक कुशल सेनानायक के रूप में है, उससे कहीं अधिक एक शासन-प्रबन्धक के रूप में है। एक विद्वान ने लिखा है, “शेरशाह की जोड़ का कोई भी राजा मध्यकालीन समय में शासन-प्रबन्ध के क्षेत्र में नहीं हुआ। अपने पाँच वर्ष के अल्प शासन काल में उसने अपना नाम इतिहास के पन्नों में सदैव के लिये अमर कर दिया।”

शेरशाह का शासन प्रबंध

शेरशाह के शासन के विषय में विलियम कुक का विचार है, “शेरशाह पहला ऐसा व्यक्ति था जिसने कि इचण पर आधारित भारतीय साम्राज्य के निर्माण का प्रयास किया।”

शेरशाह को अपने उच्चकोटि के शासन के लिये भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। वह अपनी प्रतिभा के बल पर ही सिंहासन पर आसीन हुआ और जिस पद पर वह आसीन हुआ, उस पर उसने बड़ी योग्यतापूर्वक कार्य किया। बुद्धिमत्ता और अनुभव में, शासन और राजस्व के ही प्रबन्ध में तथा सामरिक कौशल में वह दिल्ली के सुल्तानों में अग्रगण्य है। पांच वर्ष के अल्प शासन काल में ही शासन के क्षेत्र में उसने जो-जो महत्वपूर्ण कार्य किये, उनके परिणामस्वरूप शेरशाह का नाम इतिहास के ही पृष्ठों में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा चुका है।

शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की प्रशंसा करते हुए कीन महोदय ने लिखा है, “यह दूरदर्शी व्यक्ति अपनी मृत्यु और अपने वंश के शासन के बाद भी मध्य काल के भारतीय शासकों द्वारा जनता की भलाई के लिये जो कुछ किया गया, उसका निर्माता था।”

“This far sighted man even after his death and supervision of his dynasty was the originator of all that was done by medieval Indian rule for the good of the people.”

-Keen.

शेरशाह ने जिस उदारता, कुशलता, बुद्धिमत्ता, व्यवहार कुशलता, प्रजा हित-चिंतन आदि गुणों का परिचय दिया, वे मध्य-युग में अन्यत्र कहीं नहीं दिखलाई पड़ते । यही कारण है कि इतिहासकारों एवं अन्य विद्वानों ने उसके आदर्श-पालन की मुक्त कंठ से प्रसंशा की है।

शेरशाह के शासन-प्रबंध के उद्देश्य

शेरशाह ने पूर्ववर्ती सुल्तानों की कठोर एवं असहिष्णुता की नीति का परित्याग कर, उदारता और सहिष्णुता की नवीन नीति का पालन किया, जो नये युग का द्योतक है। शेरशाह के शासन के निम्नलिखित तीन प्रमुख उद्देश्य हैं-

(अ) जनसाधारण के लिये सुख एवं शान्ति की व्यवस्था करना- शेरशाह प्रथम शासक था, जिसने हिन्दू-मुस्लिम मतभेद का ध्यान न रखकर जनसाधारण को सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करना अपना प्रमुख धर्म तथा कर्त्तव्य माना। उसके विषय में इरस्किन ने लिखा है, “अकबर के पूर्व जितने भी शासक हुए उनमें से सबसे अधिक उसमें अपने व्यवस्थापन और जनता के संरक्षक के भाव विद्यमान थे।”

“He had more of the spirit of legislator and guardian of his people than any prince before Akbar.”

-Eruskin.

(ब) अफगानों को सुसंगठित करना- शेरशाह का दूसरा प्रमुख उद्देश्य अफगानों को सुनियंत्रित करना था, जिससे उनके दोष और उनकी दुर्बलतायें दूर हो जायें । साथ ही उनकी प्रभुता स्थायी रूप से स्थापित हो सके।

(स) सीमाओं को सुदृढ़ बनाना- शेरशाह का तीसरा उद्देश्य यह था कि सीमाओं को सुदृढ़ बना दिया जाय, जिससे मुगलों का पुनः भारत में प्रवेश पाना असम्भव हो सके और मुगल-सत्ता फिर से भारत में स्थापित न हो सके।

केन्द्रीय शासन

(1) एकतन्त्रीय व स्वेच्छाचारी शासन- शेरशाह का शासन एकतन्त्रीय था। सम्राट को हर प्रकार की शक्ति प्राप्त थी। उसके कहे हुए शब्द ही कानून थे। यद्यपि शेरशाह अपने को सलाह देने के लिए मन्त्रियों की नियुक्ति की थी, परन्तु यह मन्त्र उसकी इच्छा पर निर्भर होते थे। शासन नौति के समस्त घागे उसके हाथ में थे। उसने उल्माओं की सलाह की कभी परवाह नहीं की। शासन के सभी भागों को वह स्वयं देखता था।

शेरशाह स्वेचमचारी था परन्तु निरंकुश नहीं। उसने जनता की भलाई की ओर विशेष ध्यान दिया था। डा० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, “शेरशाह का शासन यद्यपि स्वेच्छाचारी था परन्तु आकर्षक और दर्द था।”

(2) मन्त्री और उनके विभाग- शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिये शेरशाह ने मंत्रियों की नियुक्ति की थी। शासन का कार्य कई विभागों में बाँट रखा था। सभी विभागों के मन्त्री अपनी रिपोर्ट को देते थे। पमुख विभाग निम्नलिखित है।

(अ) दीवान ए विजारत इस विभाग का अध्यक्ष वजीर था। वह राजस्व एवं अर्थ विभाग का अध्यक्ष होता था। वजीर राज्य की आय एवं व्यय के लिये उत्तरदायी था। उसे निरीक्षण कार्य भी सम्पन्न करना होता था।

(ब) दीवान-ए-आरिज- इस विभाग का अध्यक्ष आरिज- ए- मलिक होता था। वह सेना की भर्ती, उसका संगठन और शासन के लिये उत्तरदायी था।

(स) दीवान-ए-रसातल- यह विभाग विदेशी मन्त्री के अधीन था जिसका कार्य विभिन्न राज्यों से राजनैतिक सम्बन्ध स्थापित करना था। दान आदि का कार्य भी वह सम्पन्न करता था।

(द) दीवान-ए-इन्शा- इस विभाग के मंत्री का कार्य राजकीय घोषणाओं एवं पत्रों का लिखना था। वह सरकारी लेखे भी रखता था।

(घ) दीवान-ए-काजी- यह विभाग मुख्य काजी के अधीन था। यह न्याय विभाग था। मुख्य काजी का कार्य राज्य की न्याय व्यवस्था को देखना था। नीचे की अदालतों के निर्णय के विरुद्ध की गई अपीलों को भी वह सुनता था।

प्रान्तीय शासन या ‘सरकार’ का शासन

कुछ इतिहासकारों का मत है कि प्रान्तों का निर्माण अकबर ने किया था। डॉ० कानूनगो का मत है कि शेरशाह के शासन में प्रान्त नहीं थे व शासन की दृष्टि से ‘सरकार’ ही सबसे बड़ी इकाई थी। डॉ सरन उनसे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि यह मानना है कि अकबर के पहले प्रान्त थे ही नहीं, उचित नहीं प्रतीत होता है। वह यह भी नहीं मानते कि ‘सरकार’ शासन की सबसे बड़ी इकाई थी। कुछ आधुनिक इतिहासकारों का यह मत है कि इन दोनों विद्वानों के कथन कुछ सीमा तक ही सत्य हैं। वास्तव में शेरशाह के शासन की सबसे बड़ी इकाई ‘इक्या’ थी। इसका शासन एक अफसर के हाथ में रहता था जिसको सैनिक और सामान्य दोनों प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। यह ‘सरकार’ के शासन की देख-भाल भी करता था।

‘सरकार’ एक महत्वपूर्ण इकाई थी। कहा जाता है कि शेरशाह के समस्त राज्य 47 सरकारों में विभाजित थे । प्रत्येक ‘सरकार’ के शासन के लिये दो प्रमुख अफसरों की नियुक्ति की गई थी।

(1) शिकदार-ए-शिकदारान एवं

(2) मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान

प्रथम कोटि के अफसर के पास दो हजार से पाँच हजार तक की सेना रहती थी। उसका कार्य राज्य में शान्ति स्थापित करना और विद्रोहों का दमन करना था। विभिन्न शिकदारों के कार्य का निरीक्षण भी वही करता था। मुन्सिफ़-ए-मुन्सिफान का मुख्य कार्य न्याय करना था। वह परगनों की सीमाओं से सम्बन्धित झगड़ों को निपटाता था और अमीन आदि का निरीक्षण करता था।

इन दोनों अफसरों के अतिरिक्त प्रत्येक सरकार में अनेक क्लर्क, एकाउण्टेण्ट और अन्य कर्मचारी होते थे।

‘परगना’ का शासन

अब्बास खान का मत है कि सम्पूर्ण राज्य में 13,000 परगने थे। परन्तु यह संख्या ठीक नहीं प्रतीत होती है क्योंकि वास्तव में यह गाँवों की संख्या है।

‘परगना’ के शासन के लिये अनेक अफसर थे। उनमें से मुख्य में शिकदार और मुन्सिफ शिकदार के पास सुरक्षा के लिये सैनिक होते थे। उसका कार्य आधुनिक डिप्टी कलेक्टरों की भाँति होता था। मुन्सिफ या जमीन का कार्य परगना’ के गरौनिक कार्यों की देखभाल करना था। उसका पद उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि शिवदार का। राजस्व को इकट्ठा करने के देखभाल का कार्य भी वही सम्पन्न करता था। बत् परगना के आय-व्यय का भी लेखा रखता था। इन दो अफसरों के अतिरिक्त कर्मचारी भी होते थे। क्लर्कों की कार्कुन कहा जाता। दो कार्कुन होते थे जिनमें से एक फारसी में लेखा रहता था और दूसरा हिन्दी में। अमीनों और शिकदारों के स्थानान्तरण दो वर्ष में होते थे। सपाट ‘परगना’ के शासन में बहुत कम हस्तक्षेप करता था।

ग्राम-शासन

गाँव के शासन के लिए गाँव में एक पंचायत थी जिनमें गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति रहते थे। पंचायत का कार्य गाँव के झगड़ों का निपटारा करना था। पंचायत के कार्य में किसी का हस्तक्षेप नहीं होता था। गाँव में पटवारी और चौकीदार ही सरकारी कर्मचारी होते थे।

सेना का प्रबन्ध

दिल्ली सल्तनत के काल में सेना का प्रबन्ध उत्तम न था। उस काल में सेना जागीरदारों और अमीरों द्वारा संगठित होती थी। फलतः उसके संगठन में प्रायः शिथिलता बनी रहती थी। सैनिकों की भर्ती योग्यता के आधार पर न होकर प्रायः रिश्तेदारी के आधार पर होती थी। अमीरों और जागीरदारों की सेना पर केन्द्र का नियन्त्रण ढीला रहता था। इन्हीं सब कारणों से उसमें सुधार की आवश्यकता उत्पन्न हो चुकी थी। अतः शेरशाह का ध्यान सेना के संगठन और उसके सुधार की ओर गया। इस क्षेत्र में उसने निम्न महत्वपूर्ण कार्य किये।

(1) सैनिकों से निकट सम्बन्ध- दिल्ली सुल्तान के समय से सेना की भर्ती अमीरों द्वारा की जाती थी। वे उनके प्रति ही वफादार होते थे। सम्राट से उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध न था। यही कारण था कि अमीरों को स्वतन्त्र होने एवं विद्रोह करने का सुअवसर मिल जाया करता था। शेरशाह ने सैनिकों को तरक्की देने का कार्य अपने हाथ में ले लिया। इसके अतिरिक्त नए सैनिकों की नियुक्ति के समय वह स्वयं ही उनका वेतन निश्चित करने लगा। सैनिकों को वेतन राज-कोष से दिया जाने लगा ताकि उनके अफसर उनके वेतन को कम न कर सकें। इन सुधारों से कई लाभ हुए। प्रथम तो सम्राट का सैनिकों से निकटतम सम्बन्ध स्थापित हो गया। सैनिक अपने अफसरों के वफादार होने के बजाय सम्राट के प्रति वफादार होने लगे। इन सुधारों के कारण ही कुछ इतिहासकार, शेरशाह को न केवल मध्यकालीन सुल्तानों से वरन् मुगल सम्राट अकबर से भी उच्च स्थान प्रदान करते हैं।

(ii) सेना के दो भाग- सम्राट की सेना के दो भाग थे। इनमें से एक प्रकार की सेना युद्ध की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों पर नियुक्त की गई थी। इस प्रकार की सेना ‘फौज’ कहलाती थी। और इसका सेनापति ‘फौजदार’ कहलाता था। ‘फौजदार का प्रमुख कार्य सैन्य-संचालन ही था। वे शासन नहीं करते थे। इसके अतिरिक्त सेना का एक ऐसा भी भाग था, जिसके अफसर न केवल सैनिक कार्य करते थे, बल्कि उन्हें शासन करने का कार्य भी दिया गया था। हैबत खां और फतेह जंग खाँ इस प्रकार के ही फौजी अफसर थे।

(iii) उसकी सेना- उपर्युक्त सेना के अतिरिक्त उसकी सेना का एक भाग उसके प्रत्यक्ष नियन्त्रण में कार्य करता था। उसकी सेना के अन्तर्गत 1 लाख 50 हजार घुडसवार, 5,000 हाथी एवं 1,500 पैदल थे। इस विशाल सेना के अतिरिक्त उसके पास एक तोपखाना भी था। उसमें 4,000 तोपें थी जो कि चार मन तक का गोला फेंक सकती थीं। इस प्रकार उसकी केन्द्रीय सेना संगठन की दृष्टि से दिल्ली के समस्त सुल्तानों की सेना से कहीं उत्तम थीं।

(iv) सेना में हिन्दुओं की भर्ती- शेरशाह एक बड़ा ही दूरदर्शी शासक था अतः उसकी सेना में अनेक हिन्दू सैनिक थे। उसका अन्य सभी जातियों की सेना से अधिक हिन्दुओं की सेना पर विश्वास था। कारण यह था कि वे उसके दुख के साथी थे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि शेरशाह ने अकबर से भी पहले राष्ट्रीयता को मध्यकालीन युग में जन्म दिया। उसको सेना में विक्रमादित्य’ नामक हिन्दू सेनापति था। इस प्रकार उसने सेना संगठन सहिष्णुता के आधार पर किया था। कुछ योग्य हिन्दू सेना को उच्च पदों पर भी नियुक्त किये गये थे।

भूमि-प्रबन्ध

प्रारम्भिक मुसलमान शासकों के युग में भूमि व्यवस्था असन्तोषजनक थी। उन्हें प्रजा के हित का कोई ध्यान न था। दूसरे वे, अनुमान लगाकर ही मालगुजारी निश्चित करते थे। मालगुजारी भी इतनी अधिक ली जाती थी कि किसानों को सरलतापूर्वक जीवन निर्वाह करना दुष्कर-सा हो जाता था। शेरशाह ने इस ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया और इन त्रुटियों को यथासम्भव दूर करने का प्रयास किया। उसने प्रत्येक किसान के पास जितनी भूमि थी, उसकी नाप करवायी और उचित अनुमान लगाकर भूमि का 1/4  भाग लगान के रूप में वसूलना निश्चित किया। अनुमान किसान एवं सरकार के मध्य में किये गये। प्रत्येक किसान अमीन को अपने खेत का विवरण लिखकर देता था। फिर सरकार उसे पट्टा लिख देती थी, जिसमें लगान आदि की दर दर्ज होती थी। रुपये के रूप में लगान लिया जाता था। विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत अनाज के रूप में भी मालगुजारी जमा की जा सकती थी। किसान अपना लगान अमीन को न देकर सीधे राजकोष में भी जमा कर सकते थे। मालगुजारी निश्चित करते समय तो नर्मी का व्यवहार किया जाता था, किन्तु उसको वसूल करते समय कठोरता का बर्ताव किया जाता था। वास्तव में देखा जाय तो उसकी भूमि-व्यवस्था सर्वोत्तम थी। उसके विषय में कानूनगो महोदय ने लिखा है, यदि “शेरशाह 10-20 वर्ष और जीवित रहता तो भारतवर्ष से जमींदारों का वर्ग समाप्त हो गया होता और हिन्दुस्तान एक ऐसा समतल, उपजाऊ देश बन जाता जहाँ कहीं भी झाड़ियाँ आदि नहीं होती तथा किसानों की उत्साहपूर्ण देख-रेख के फलस्वरूप सर्वत्र उपजाऊ भूमि दिखलाई पड़ती।”

न्याय-व्यवस्था

शेरशाह ने न्याय-व्यवस्था का काफी उत्तम एवं प्रशंसनीय प्रबन्ध किया। उसका विश्वास था कि न्याय प्रत्येक राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है। वह अपराधी को पूरी खोज करवाता था और तदुपरान्त उस अपराधी को उचित दण्ड दिया जाता था। सपाट स्वयं न्याय का सर्वोच्च पदाधिकारी था। न्याय-व्यवस्था की सुविधा हेतु प्रत्येक क्षेत्र में प्रधान शिकदार और प्रधान मुन्सिफ को न्याय करने का अधिकार दिया गया था। प्रधान शिकदार फौजदारी मुकदमों का निर्णय किया करता था। कानून के समक्ष सभी बराबर समझे जाते थे। यदि किसी गांव में चोरी हो जाती थी या डाका पड़ जाता था और उसका पता नहीं चलता था तो मुखिया को दण्ड दिया जाता था। हिन्दुओं के दीवानी के मुकदमे पंचायत में ही तय होते थे। फौजदारी के मुकदमों का निर्णय राजकीय न्यायालयों में ही होता था। उसकी न्याय-व्यवस्था सर्वोत्तम थी।

पुलिस एवं गुप्तचर विभाग

आन्तरिक शान्ति-व्यवस्था कायम रखने के हेतु शेरशाह ने पुलिस और गुप्तचर विभाग का समुचित रूप से संगठन किया था। पुलिस मुखिया और मुखियों से मिलकर चोरी इत्यादि का पता लगाती थी। इसी प्रकार गुप्तचर विभाग भी गम्भीर अपराधों एवं षड्यन्त्रों आदि का पता लगाने में सतर्कतापूर्वक कार्य करता था। वास्तव में यह व्यवस्था न केवल आन्तरिक शान्ति के कायम रखने के हेतु लाभदायक थी, बल्कि उस समय के निरंकुश शासन की स्थिरता और दृढ़ता के लिये भी परमावश्यक सिद्ध हुई थी। इस पुलिस और गुप्तचर विभाग की सतर्कता एवं दण्डों की कठारेता के कारण अपराधों का अभाव था। इलियट महोदय के शब्दों में, “शेरशाह के युग में एक बूढ़ी औरत अपने सिर पर गहनों की टोकरी रखकर जा सकती थी और कोई चोर या डाकू शेरशाह के दण्ड के भय से उसके निकट नहीं आ सकता था।”

सड़कें और सरायें (धर्मशाला)

शेरशाह का निर्माण कार्य भी सराहनीय था। उसने यातायात की सुविधा के हेतु अनेक सड़के निर्मित करवायीं . उसकी सबसे बड़ी सड़क ‘ग्रान्ट टुन्क रोड’ नाम से आज भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त अन्य ऐसी सड़कों का भी निर्माण करवाया जो कि राज्य के प्रमुख नगरों को मिलाती थी। सड़कों के दोनों किनारों पर छायादार वृक्ष भी लगवाये गये थे। प्रत्येक दो कोस पर सरायों की भी समुचित व्यवस्था थी। इनमें हिन्दू एवं मुसलमान यात्रियों के ठहरने के हेतु पृथक्-पृथक् व्यवस्था थी। प्रत्येक सराय में कुछ लोग ऐसे रहते थे जो कि यात्रियों को उनकी पदवी के ही अनुसार ठहरने की सुविधायें प्रदान करते थे। सराय में दो घोड़ों को भी रखा जाता था, जिनके द्वारा सूचनायें विभिन्न स्थानों को भेजी जाती थी। उसने लगभग 1,700 सरायें बनवायीं थीं।

इमारतें

शेरशाह को इमारतें बनवाने का भी बड़ा शौक था। उसने ‘सहसराम का मकबरा’ बनवाया जिसकी शैली की प्रशंसा सभी इतिहासकारों ने की है। दिल्ली में उसने पुराना किला बनवाया। वर्जित स्थानों पर उसने अनेक नगरों का निर्माण करवाया था। अत: उसका यह भी कार्य अत्यन्त प्रशंसनीय है।

डाक-विभाग

शेरशाह ने डाक-व्यवस्था का भी समुचित प्रबन्ध किया था। सड़कों के किनारे उसने जो सरायें बनवायी थी वे डाक की चौकियों का कार्य भी करती थीं। डाकिये घोड़ों अथवा ऊंटों पर चढ़कर डाक ले जाया करते थे। पत्र पैदल मनुष्यों द्वारा भी भेजे जाते थे। इस प्रकार सभी लोग अपने देश की आन्तरिक घटना से सुपरिचित रहा करते थे और दूर रहने वाले सम्बन्धियों एवं मित्र गणों की दशा, समाचार समय-समय पर मिल जाया करते थे।

मुद्रायें

शेरशाह के पहले की मुद्रा-व्यवस्था बड़ी ही असन्तोषजनक थी। मुद्रायें प्रायः मिली हुई धातुओं से बनायी जाती थीं। उनकी सुन्दरता की ओर ध्यान भी नहीं दिया जाता था। सम्राट ने अनेक प्रकार की मुद्रायें निर्मित करवायीं। उसकी अधिकांश मुद्रायें ताँबे की थीं जो कि बाद में ‘दाम’ के नाम से पुकारी गयीं। उसने सोने चाँदी की मुद्राओं का प्रचलन कराया। उसकी मुद्राएं गोल एवं चौकोर सभी प्रकार की पायी जाती हैं। मुद्राओं में उसने अपना नाम हिन्दी एवं फारसी भाषा में अंकित करवाया। इस प्रकार उसकी मुद्रायें भारतीय मुद्राओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। बी० ए० स्मिथ का मत है,“शेरशाह को भारतीय मुद्रा के सुधारे हुए रूप का प्रचलन करने का श्रेय प्राप्त है जो सम्पूर्ण मुगल काल तक चलता रहा और जिसे कि 1835 ई० तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी चलाया और जो वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा पद्धति का आधार है।”

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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