इतिहास

पानीपत के युद्ध के विजय के बाद बाबर की समस्याएं | खानवा का युद्ध

पानीपत के युद्ध के विजय के बाद बाबर की समस्याएं | खानवा का युद्ध

पानीपत के युद्ध के विजय के बाद बाबर की समस्याएं

पानीपत के युद्ध के विजय के बाद बाबर की समस्याएं समाप्त नहीं हुई थीं अपितु बढ़ ही गयी थीं। अब उसके समक्ष दुहरी समस्या थी- (1) लोदी वंश के अधीन रहे अन्य क्षेत्रों को अपने अधीन करना एवं (2) विजित क्षेत्रों को संगठित एवं व्यवस्थित करना। इन दो प्रमुख समस्याओं के अतिरिक्त कुछ छोटी किन्तु महत्वपूर्ण समस्याएँ भी थीं जिनका सामना बाबर को करना पड़ा जिनका विवेचन निम्नवत् है-

(1) भारत की जनता के लिए बाबर आक्रमणकारी था। अतः उसके द्वारा दिल्ली अधिकृत कर लिये जाने पर नागरिक नगर छोड़कर भागने लगे थे। अपने सम्मान एवं धन की सुरक्षा के लिए नागरिकों ने गांव के गाँव खाली कर दिये थे तथा शहरों में लोगों ने फाटक बन्द कर लिये थे। चारों ओर अव्यवस्था फैल गई थी, अराजकता एवं लूटमार का बोलबाला था तथा जनजीवन पूर्णतः अशान्त एवं असुरक्षित हो गया था। बाबर ने इस समस्या का धैर्य से समाधान किया। दण्ड आदि के स्थान पर लोगों में विश्वास जाप्रत किया तथा शान्ति एवं सुव्यवस्था का आश्वासन दिया। उसने यह प्रचारित किया कि जो लोग उसकी अधीनता स्वीकार कर लेंगे उन्हें किसी प्रकार का दण्ड नहीं दिया जायेगा। (पानीपत के युद्ध के विजय के बाद बाबर की समस्याएं)

(2) बाबर की दूसरी समस्या स्वयं उसके सैनिकों एवं सरदारों द्वारा उत्पन्न की गई थी। भारत को गर्म जलवायु से परेशान होकर सैनिक वापस काबुल लौटना चाहते थे। बाबर ने इस समस्या को भी अपनी वाक्पटुता से दूर किया। उसने अपने सैनिकों के समक्ष बड़े ही प्रभावशाली ढंग से भाषण दिया। बाबर ने स्वयं लिखा है, “मैंने उन्हें बताया कि साम्राज्य और विजय युद्ध-सामग्री और युद्ध-संसाधनों के बिना टिक नहीं सकते। शहंशाही और नवाबी विना प्रजा और अधीन प्रान्तों के कोई महत्व नहीं रखती। कई वर्षों के परिश्रमों के बाद भारी कठिनाइयों से गुजरकर, अनेक कठिन यात्राओं को तय करते हुए, अनेक सैन्य दल खड़े करते हुए भयानक खतरे को परिस्थितियों से उलझकर परमात्मा की कृपा से मैंने अपने भयंकर शत्रु को समाप्त कर दिया है और अनेक प्रान्तों तथा राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो इस समय मेरे हाथ में है और अब कौन सी शक्ति और किस कठिनाई से बाध्य होकर बिना स्पष्ट कारण के हम अपनी विजयश्री को त्यागकर भाग चलें ? प्रत्येक व्यक्ति जो अपने को मेरा मित्र समझता है, अब से कभी मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव न रखे। यदि तुम लोगों में से कोई ऐसा है जो यहाँ ठहर ही न सके या अपने लौटने का इरादा न बदल सके तो उसे चला जाने दो।” बाबर की यह उत्साहजनक अपील काम कर गयी। सभी अधिकारियों में उसका  साथ देने एवं भारत में ठहरने का निर्णय लिया। इस प्रकार बाबर की एक महत्वपूर्ण समस्या का समाधान हो गया।

(3) बाबर की तीसरी महत्वपूर्ण समस्या राजपूतों से सम्बन्धित थी। इसी समस्या के परिणामस्वरूप खानवा का युद्ध हुआ जिसका भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।

खानवा का युद्ध (16 मार्च 1527 ई०)

राजपूत भारत की एक शक्तिशाली एवं अत्यन्त स्वाभिमानी जाति थी। भारत के एक महत्वपूर्ण भाग की सत्ता अभी उसी के हाथ में थी। यह सत्ता तुर्कों के समय में भी कभी पूर्णतः पराजित न की जा सकी थी। अतः बाबर के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह राजपूतों से संघर्ष करे। यद्यपि यह विवादास्पद है कि राजपूत शासक राणा सांगा ने बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था, फिर भी यह कहा जाता है कि राणा सांगा और बाबर के मध्य यह समझौता हुआ था कि राणा इब्राहीम पर आगरा की ओर से आक्रमण करे और बाबर उत्तर की ओर से । संभवतः राणा सांगा की यह धारणा रही होगी कि बाबर भी अन्य विदेशी आक्रमणकारियों की तरह देश को लूटकर वापस हो जाएगा। किन्तु जब बाबर का भारत में ठहरने का निर्णय स्पष्ट हो गया तो उसने (राणा) बाबर की अपेक्षा अफगानों का सहयोग अधिक उचित समझा। अतः उसने हसन खाँ मेवाती से बाबर को भारत से बाहर निकालने के लिए सहायता मांगी। इतना ही नहीं उसने महमूद लोदी (इब्राहीम लोदी का भाई) दिल्ली का बादशाह भी स्वीकार कर लिया। इससे बाबर की चिन्ता और बढ़ गयी। परिणामत: दोनों ने एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप प्रारम्भ कर दिया। बाबर ने राणा पर अविश्वास का आरोप लगाया कि उसने शर्त के अनुसार इब्राहीम के विरुद्ध सहायता नहीं की। दूसरी ओर राणा ने बाबर के ऊपर अभियोग लगाया कि उसने कालपी, धौलपुर और बयाना पर अधिकार कर लिया, जबकि समझौते की शर्तों के अनुसार ये स्थान राणा सांगा को ही मिलने चाहिए थे।

युद्ध का प्रारम्भ राणा सांगा की ओर से ही हुआ। उसने बयाना और आगरा को विजित करने के लिए प्रस्थान किया। हसन खाँ मेवाती और महमूद लोदी के आ जाने से साँगा का मनोबल और बढ़ा। परिणामतः बाबर के दो पूर्ववर्ती दस्तों को गजपूतों ने आसानी से परास्त कर दिया। राजपूतों की इस विजय से उनके शौर्य एवं पराक्रम से मुगल सैनिक घबरा उठे थे। उधर काबुल के किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी मुगल सैनिकों को परेशान कर रही थी कि राजपूतों के विरुद्ध यह युद्ध मुगलों के विपक्ष में जायेगा। अतः बाबर के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह किसी तरह अपने साथियों को प्रोत्साहित करे। इसलिए उसने अपने साथियों के समक्ष बड़े ही नाटकीय ढंग से मदिरा का परित्याग करते हुए अपने सरदारों एवं सैनिकों के सामने शराब के बहुमूल्य पात्रों को तोड़ डाला, मुसलमानों पर से “तमगा” नामक कर हटा दिया। किन्तु फिर भी जब उसके साथी संतुष्ट न हुए तो उसने एक अपील की, “मेरे साथी सरदारों क्या तुम जानते हो कि हमारे और हमारी जन्मभूमि के मध्य कुछ महीनों की यात्रा है ? यदि हमारा पक्ष पराजित होता है तो हमारी क्या दशा होगी ?” कहाँ हमारी जन्मभूमि होगी ? कहाँ हमारा नगर होगा ? हमें अपरिचितों औरर विदेशियों से जूझना है लेकिन प्रत्येक आदमी याद रखे कि जो कोई भी इस संसार में आता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है कलंकित जीवन जीने से उसका त्याग देना ही अच्छा है। अगर मैं शान के साथ मरता हूँ तो यह बड़ा अच्छा है। मुझे प्रतिष्ठा छोड़ जाने दो क्योंकि मेरा शरीर वास्तव में मौत से बचकर नहीं जा सकता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने हमारे निमित्त उस भाग्य की स्थापना की है और हमारे सम्मुख यह उत्कृष्ट भक्तिव्यता रख दी है कि यदि हमारी हार होती है तो हम शहीदों की तरह मरेंगे और यदि हम विजयी होते हैं तो समझ लो हमने उस परमात्मा के पवित्र उद्देश्य पर विजय प्राप्त कर ली। इसलिए उस सर्वशक्तिमान के नाम पर हमें शपथ ग्रहण करनी चाहिए कि हम ऐसी शानदार मृत्यु से मुख नहीं मोड़ेंगे और जब तक हमारी आत्माएँ हमारे शरीर से पृथक् नहीं हैं, हमारे संघर्ष के इन खतरों से कभी पृथक् नहीं होंगे। इसके साथ ही उसने वचन दिया कि इस युद्ध के बाद जो कोई अपने घर जाना चाहेगा उसे अनुमति दे दी जायेगी। 11 फरवरी 1527 ई० को ‘जिहाद’ (इस्लाम की रक्षा के लिए धर्म युद्ध) घोषित कर दिया। इन सबका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक ने कुरान पर हाथ रखकर अपनी पत्नी के परित्याग की शपथ लेते हुए कहा कि वे अन्त तक लड़ेंगे और बाबर का साथ देंगे। इस प्रकार बाबर की सेना में एक बार पुनः साहस का संचार हुआ।

फतेहपुर सीकरी से 10 मील दूर खानवा नामक स्थान पर 16 मार्च 1527 ई. को दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ। रशबुक विलियम्स के अनुसार बाबर और राणा साँगा के सैनिकों का अनुपात 1:8 था किन्तु डा० ए० एल० श्रीवास्तव ने यह अनुपात 1:2 का माना है। बाबर की सेना में लगभग 40,000 सैनिक थे जबकि राणा साँगा के पास 80,000 सैनिक थे। बाबर ने पानीपत के युद्ध के समान ही व्यूह रचना की थी। दोनों सेनाओं के मध्य 16 मार्च 1527 ई० को प्रात: 9 बजे के लगभग युद्ध प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ में राजपूतों के आक्रमण के वेग से मुसलमानों के पांव उखड़ने लगे किन्तु शीघ्र ही मुगलों की घुड़सवार सेना व तोपों के आक्रमण से राजपूतों की सेना में भगदड़ मच गई। इसी समय राणा सांगा के घायल हो जाने से उसे युद्ध क्षेत्र से हटाना पड़ा। राणा सांगा के घायल होने की खबर से राजपूतों का मनोबल गिर गया तथा वे नेतृत्वविहीन हो गये। इसी समय देशद्रोही सिलहदी तँवर, जो रायसेन का शासक था, बाबर से जा मिला और रणक्षेत्र से राणा के हटने की उसे सूचना दे दी। इससे मुगलों ने दुहरे उत्साह से आक्रमण किया और राजपूतों की पराजय सुनिश्चित हो गई।

इस प्रकार एक बार पुनः बाबर के श्रेष्ठ सेनापतित्व, श्रेष्ठ युद्ध नीति, श्रेष्ठ सैन्य संचालन, अवसर के अनुकूल साहस और तोपखाने के उचित प्रयोग के कारण मुगलों की विजय हुई। राजनीतिक दृष्टि से इस युद्ध से राजपूतों की शक्ति दुर्बल हो गयी। बाबर ने युद्ध में मारे गये राजपूतों के सिरों की एक मीनार खड़ी की और ‘गाजी’ (काफिरों को मारने वाला) की उपाधि धारण की। स्वयं राणा साँगा बुरी तरह घायल हुआ था जिससे जनवरी 1528 ई. में मृत्यु हो गयी। इस प्रकार मेवाड़ का वह गौरव नष्ट हो गया जिसने राजपूतों को एकता प्रदान की थी। इसके पश्चात् राजपूत कभी भी संयुक्त न हो सके। इससे दिल्ली पर आधिपत्य करने का उनका सपना नष्ट हो गया।

वास्तव में खानवा के युद्ध का महत्व पानीपत के युद्ध से कम नहीं है। पानीपत के मैदान में बाबर ने मात्र दिल्ली शासक को पराजित किया था, उसके अन्य दावेदार राजपूत एवं लोदी वंशज अभी पराजित नहीं हुए थे। किन्तु खानवा के मैदान में न केवल राजपूत पराजित हुए थे बल्कि लोदी वंश के अन्य दावेदार भी पराजित होकर भाग खड़े हुए थे। हसन खाँ मेवाती युद्ध में ही मारा गया था। इस युद्ध के पश्चात् मुगल वंश की स्थिति भारत में हो गयी तथा बाबर की शक्ति का केन्द्र काबुल से हटकर हिन्दुस्तान हो गया। इस युद्ध के महत्व के विषय में बी० एन० मजूमदार ने लिखा है-

“The battle of Khanwaha had for reaching effects. It crushed the confederacy of the Hindus in their bid for power, and finally it established Babar and his Mughal dynasty securely ob the throne of Delhi for next theree centuries.

चन्देरी विजय (1528 ई०)- यह राज्य मालवा और बुन्देलखण्ड की सीमा पर स्थित था। इसका राजनीतिक एवं व्यापारिक दोनों महत्व था। चन्देरी का शासक उस समय मेदनीराय था। मेदनीराय ने खानवा के युद्ध में राणा साँगा की ओर से भाग लिया था। अतः मेदनीराय को परास्त करना बाबर के लिए आवश्यक था। चन्देरी को जीतने से न केवल राजपूत शक्ति अधिक दुर्वल होती बल्कि बाबर को मालवा को जीतने में भी सुविधा हो सकती थी। अतः इन कारणों से प्रेरित होकर बाबर ने युद्ध का बहाना बनाया। उसने मेदनीराय से शमशाबाद के बदले में चंदेरी माँगा। मेदनीराय के इंकार करने पर उस पर आक्रमण कर दिया गया। 29 जनवरी 1528 ई० को लगभग एक घंटे के युद्ध के पश्चात् बाबर का चन्देरी पर अधिकार हो गया। मेदनीराय युद्ध में मारा गया और हजारों की संख्या में राजपूत कत्ल कर दिये गये। मेदनीराय की एक लड़की कामरान को और दूसरी हुमायूँ को भेंट स्वरूप दे दी गई। चन्देरी का शासन अहमदशाह नामक व्यक्ति को सौंप दिया गया।

घाघरा का युद्ध (1529 ई०)- अफगानों ने अभी अपनी पराजय स्वीकार नहीं की थी। वे इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी के नेतृत्व में बिहार में संगठित हो चुके थे। बंगाल का शासक नुसरतशाह भी उनकी सहायता कर रहा था। इससे अफगान अत्यन्त उत्साहित थे। इसी उत्साह में उन्होंने बाबर पर तीन ओर से (सावर, बनारस और चन्देरी) आक्रमण करने के लिए कूच किया। अतः उनके दमन हेतु बावर भी 2 फरवरी 1528 ई० को आगे बढ़ा। बाबर के आगमन की सूचना पाते ही बहुत से अफगान सरदार भागने लगे। कइयों ने तो बाबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। किन्तु बिहार के अफगान युद्ध के लिए तत्पर थे। बाबर ने बंगाल के शासक नुसरत शाह को युद्ध से अलग रहने के लिए पत्र- व्यवहार किया किन्तु जब कोई उत्तर न प्राप्त हुआ तो 6 मई 1529 ई० को घाघरा के तट पर अफगानों से उसका युद्ध हुआ। इसमें बाबर को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई । अनेक अफगान सरदार उसके संरक्षण में आ गये। महमूद लोदी बंगाल भाग गया। बिहार का कुछ भाग मुहम्मद खाँ लोहानी को और अधिकांश भाग जलालुद्दीन को दे दिया गया। केवल कुछ भाग बाबर ने अपने अधीन रखा । शेर खाँ सूर को माफ कर दिया गया और वह जलालुद्दीन का मंत्री बन गया। बंगाल के शासक नुसरतशाह से बाबर की संधि हो गयी। दोनों ने एक-दूसरे की संप्रभुता एवं सीमा को स्वीकार कर लिया। साथ ही नुसरतशाह ने आश्वासन दिया कि वह बाबर के शत्रुओं को अपने यहाँ शरण न देगा। इस प्रकार अफगानों का साहस कुछ समय के लिए पस्त हो गया।

घाघरा का युद्ध बाबर के जीवन का अंतिम युद्ध था। किन्तु अब तक भारत का विशाल भू भाग उसके राज्य के अन्तर्गत समाविष्ट हो चुका था। अब तक सिन्धु से लेकर बिहार तक तथा हिमालय से लेकर ग्वालियर एवं चन्देरी तक उसका साम्राज्य विस्तृत हो चुका था।

प्रशासन सम्बन्धी समस्या का निदान- पानीपत के युद्ध के पश्चात् वाबर के सम्मुख प्रशासन से सम्बन्धित समस्या भी उत्पन्न हुई। यह सच है कि बाबर इस ओर कोई महत्वपूर्ण कदम न उठा सका, किन्तु यह कहना कि उसमें प्रशासनिक क्षमता नहीं थी, सच न होगा। क्योंकि बाबर भारत में मात्र 4 वर्ष रहा और इस बीच भी वह युद्धों में संघर्षरत रहा अतः उसे प्रशासन के लिए समय न मिल सका। फिर भी समय-समय पर बाबर ने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया। उसने “पादशाहत” की पदवी धारण की। इसका तात्पर्य है कि बादशाह सर्वश्रेष्ठ है, अब वह खलीफा के अधीन नहीं है। भारत में बाबर ने वजहदारी पद्धति को लागू किया। वजहदारी के अन्तर्गत परगनों को विजय के पूर्व ही सरदारों में बाँट दिया जाता था तथा उनके विजय एवं विजयोपरान्त उस पर प्रशासन का उत्तरदायित्व सूबेदारों को सौंप दिया जाता था। वास्तव में यह नियन्त्रित विकेन्द्रीकरण का उत्तम नमूना था। इससे बाबर को एक साथ ही विजय एवं प्रशसन की समस्याओं से मुक्ति मिल गयी।

बाबर ने पादशाहत की पदवी के आधार पर बादशाह के सम्मान में वृद्धि की । सल्तनत युग के बलबन, अलाउद्दीन खिलजी और मुम्महद तुगलक जैसे शासकों से प्रजा प्रेम नहीं करती थी, बल्कि भयभीत थी। इसी प्रकार अफगान अमीर को भी अपने सुल्तान से कोई विशेष प्रेम न था। बाबर ने बादशाहत को ऐसी स्थिति से निकालकर उसे श्रेष्ठ बनाया। बाबर की प्रजा उससे प्रेम करती थी और डरती भी थी। एक शासक के रूप में उसने प्रजा की भलाई का भी ध्यान दिया। बदख्शा से बिहार तक फैले हुए अपने विस्तृत साम्राज्य में उसने शान्ति व्यवस्था स्थापित की, सड़कों की सुरक्षा का प्रबन्ध किया। सरायें बनवायीं, डाक व्यवस्था का प्रबन्ध किया, चोर डाकुओं से अपनी प्रजा के जीवन एवं सम्मान की सुरक्षा की। स्थानीय अधिकारियों को आदेश दिये कि वह प्रजा के साथ अत्याचार न करें और इस प्रकार  उसने अपनी प्रजा को आन्तरिक अशान्ति और विदेशी आक्रमण से सुरक्षा प्रदान की। स्वयं शासन न करते हुए भी बाबर यह देखभाल करता था कि सूबेदार ठीक से प्रशासन संभाले। उसने आगरा, फतेहपुर सीकरी, बयाना, धौलपुर आदि में अनेक इमारतें बनवायीं, अनेक बाग लगवाये फलों को उत्तम कोटि का बनवाया तथा अनेक झरने एवं फव्वारे लगवाये। उसका दरबार अनुशासन का ही नहीं बल्कि संस्कृत का भी केन्द्र था। इस प्रकार जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने न केवल उत्तर भारत की विजयपूर्ण की बल्कि उसके कुशल नियन्त्रण में भी रखा जहाँ भय एवं प्रेम दोनों था। अतः बाबर के प्रशासन को मात्र सैनिक शासन मानना उचित न होगा। बाबर ने भारत में निवास का निर्णय ले लिया था और वह यहाँ कुशल प्रशासनिक तंत्र भी स्थापित करना चाहता था किन्तु उसकी असामयिक मृत्यु ने इस श्रेय से उसे वंचित कर दिया।

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Pankaja Singh

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