संगठनात्मक व्यवहार

संघर्ष की परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराएँ | पुरातन तथा आधुनिक संघर्ष विचारधारा में अन्तर

संघर्ष की परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराएँ | पुरातन तथा आधुनिक संघर्ष विचारधारा में अन्तर

संघर्ष की परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराएँ (उपागम)

(Traditional And Modern Theories or Approaches to Conflict)

संघर्षों के सम्बन्ध में समय-समय पर अलग-अलग विचारधाराएँ (उपागम) प्रचलन में रहें हैं। इन विचारधाराओं को परम्परावादी (Traditional) तथा आधुनिक विचारधाराओं के नाम से जाना जाता है। इन दोनों विचारधाराओं का विवेचन निम्न प्रकार है-

(I) परम्परावादी विचारधारा (उपागम) (Traditional Theory or Approach )

परम्परागत विचारधारा, जैसा कि इसके नाम से भी स्पष्ट होता है, संघर्ष की सबसे पुरानी विचारधारा है। यह विचारधारा सन् 1890 से लेकर सन् 1940 तक रही। उस समय प्रबन्ध के क्षेत्र में वैज्ञानिक प्रबन्ध आन्दोलन का बोलबाला था। वैज्ञानिक प्रबन्ध की विचारधारा में इस बात पर बल दिया जाता है कि श्रमिक कार्य के अनुरूप एवं उसके लिए उपयुक्त होना चाहिए। इसमें उत्पादकता व श्रमिकों की कार्यकुशलता को बढ़ाने पर बल दिया जाता था। कार्य प्रमापों, कार्य- समय, कार्य-निगमन, व कार्य-तकनीकों के निर्धारण पर विशेष जोर दिया जाता था। प्रबन्धक तो येन-केन तरीकों से उत्पादन बढ़ाने पर जोर देते थे। वे श्रमिकों के हितों को गौण मानते थे। सभी प्रकार के संघर्ष संगठन के लिए अवांछनीय, हानिकारक एवं अशुभ माने जाते थे। अतएव उन्हें येन- केन-प्रकारेण दूर किये जाने पर जोर दिया जाता था।

इस प्रकार यह विचारधारा संघर्ष को नकारात्मक दृष्टि से देखती है उसे हिंसा अशान्ति, विनाश, उपद्रव एवं अविवेक के साथ जोड़ती है। संगठन के भीतर संघर्ष की उत्पत्ति इस बात की सूचक है कि संगठन की कार्यप्रणाली अथवा कर्मचारियों अथवा दोनों में कहीं दोष है। प्रबन्ध संगठन तथा कर्मचारियों को एक साथ लेकर चलने में असफल रहा है। उन्हें यह समझाने में असफल रहा है कि व्यक्तियों तथा संगठनों के हितों में समानता है। परम्परागत विचारधारा की यह स्पष्ट मान्यता है कि प्रबन्ध यदि अपनी इन कमियों व दोषों को सुधार ले तो संघर्ष की उत्पत्ति ही नहीं होगी। निष्कर्ष रूप से, परम्परावादी विचारधारा की प्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) सभी प्रकार के संघर्ष संगठन के हित के लिए अवांछनीय, हानिकारक, विघ्नकारी एवं अशुभ हैं।

(2) संघर्ष को येन-केन-प्रकारेण समाप्त करने पर बल दिया जाता है।

(3) यह विचारधारा संघर्ष को नकारात्मक दृष्टि से देखती है।

(4) संगठन के अन्दर संघर्ष की उत्पत्ति इस बात की सूचक है कि संगठन की कार्य- प्रणाली अथवा कर्मचारियों में कहीं कोई कमी है।

(5) संघर्ष उत्पन्न होने के कारणों में प्रत्यायोजन का अभाव, सत्ता का अस्पष्ट विभाजन, कर्मचारियों की अकुशलता; लक्ष्यों, कार्यों व भूमिकाओं की अस्पष्ट; संगठन के निर्माण कार्यों का दूषित विभाजन आदि प्रमुख है।

(6) प्रबन्ध कर्मचारियों एवं संगठन को एक साथ लेकर चलने में असफल रहा है एवं उन्हें यह समझाने में भी विफल रहा है कि कर्मचारियों तथा संगठन के हितों में समानता है।

(7) इस विचारधारा की यह स्पष्ट मान्यता है कि यदि प्रबन्ध अपनी कमियों व त्रुटियों को सुधार ले तो संघर्ष की उत्पत्ति ही नहीं होगी।

(8) इस विचारधारा के अनुसार संघर्ष को बड़े सरल एवं सीधे-साधे तरीकों से समाप्त किया जा सकता है। जैसे- कार्य के अनुसार उपयुक्त कर्मचारियों का चयन, प्रशिक्षण के माध्यम से कर्मचारियों की कुशलता एवं योग्यता में वृद्धि, सविस्तार कार्य विवरण, सत्ता का समुचित प्रत्यायोजन, पुरस्कार व दण्ड की व्यवस्था आदि।

(9) यह विचारधारा सकारात्मक तथा नकारात्मक संघर्षों के मध्य कोई अन्तर नहीं करती है।

निष्कर्ष रूप में यह बात कही जा सकती है कि इस विचारधारा के अनुसार संघर्ष की उत्पत्ति संगठन या कर्मिकों में पायी जाने वाली किसी कमी या अपर्याप्तता के कारण होती है, अतः उस कमी या अभाव को दूर करके संघर्ष को समाप्त किया जा सकता है। संघर्ष चूँकि संगठन के स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक होता है अतः उसे शीघ्र समाप्त करना आवश्यक होता है।

(II) आधुनिक विचारधारा (उपागम) अथवा अन्योन्यक्रियावादी विचारधारा (उपागम)

(Modern Theory) (Approach) or (Interactionist Theory (Approach)

संघर्ष की अन्योन्यक्रियावादी विचारधारा एक आधुनिक विचारधारा है जोकि संघर्ष की अपरिहार्यता को न केवल स्वीकार करती है अपितु उसे प्रोत्साहित करने का भी पक्ष लेती है। साथ ही इस विचारधारा की यह भी मान्यता है कि संघर्षो का समुचित प्रकार से नियमन होना चाहिए, ताकि वे नियन्त्रण से बाहर न हो जायें अन्यथा उसके दुष्परिणाम निकल सकते हैं। संघर्ष की आधुनिक विचारधारा की पप्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखि हैं-

(1) किसी भी संगठन में क्रियात्मक संघर्ष नितान्त आवश्यक होता है।

(2) क्रियात्मक विरोध को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

(3) संघर्ष प्रबन्ध में, संघर्ष का निराकरण एवं प्रोत्साहन दोनों पर ही ध्यान देने की आवश्यकता होती है।

(4) संघर्ष का प्रबन्ध, सभी स्तर के प्रबन्धकों का प्रमुख दायित्व माना जाना चाहिए।

(5) इस विचारधारा के अनुसार लोगों में आक्रामकता और प्रतियोगिता की भावना सहज रूप में होती है और संगठनात्मक पारितोषिकों, जैसे- पद, उत्तरदायित्व, सत्ता आदि की सीमितता होती है। ऐसी स्थिति में संगठनात्मक संघर्ष उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

(6) यह विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि परिवर्तन अपने आप नहीं होते। परिवर्तन का मार्ग संघर्ष द्वारा प्रशस्त किया जाता है। परिवर्तन उसी समय सम्भव होते हैं जबकि संगठन में असन्तोष व्याप्त हो तथा साथ ही सुधार की इच्छा विद्यमान हो और रचनात्मक भावना से प्रेरित होकर विकल्पों के विकास का प्रयत्न किया जाये। इस प्रकार इस विचारधारा के समर्थकों की मान्यता है कि यदि संघर्ष चरम सीमा तक पहुँच गया हो तो उसके निराकरण के उपाय खोजने चाहिए और इसके विपरीत यदि संघर्ष निम्नस्तरीय ही हो तो उसे प्रोत्साहित करने की आवश्यकता होती है।

(7) इस विचारधारा के अनुसार समूहों को सक्रिय बनाये रखने तथा उन्हें नवपरिवर्तनों का सामना करने के योग्य बनाने के लिए संघर्ष का एक न्यूनतम स्तर बनाये रखना आवयश्क है।

(8) प्रबन्ध का मूलभूत उद्देश्य प्रभावपूर्ण ढंग से निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना है।

(9) इस विचारधारा के अनुसार यदि संगठन में संघर्ष के अभाव में नवप्रवर्तनशील और रचनात्मकता का मार्ग अवरुद्ध हो जाये एवं इसके कारण अनुकूलतम निष्पादन स्तर की प्राप्ति होना कठिन हो जाये, तब संघर्ष को  प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

(10) ‘उत्तरजीविका’ प्रत्येक संगठन का प्रमुख ध्येय होता है और इस प्रकार संघर्ष को किसी भी संगठन के जीवन का प्रमुख अंग माना जाना चाहिए।

संघर्ष की परम्परावादी तथा आधुनिक विचारधारा (समागम) में अन्तर

(Difference Between Traditional and Modern Theory (Approach) of Conflict)

अथवा

पुरातन तथा आधुनिक संघर्ष विचार में अन्तर

(Difference Between Old and Modern Views of Conflict)

जेम्स स्टोनर तथा चार्ल्स वंकल (James Stoner and Charles Wanker) के अनुसार पुरातन तथा आधुनिक संघर्ष विचार के अन्तर को निम्न तालिका द्वारा सरलता से स्पष्ट किया जा सकता है-

अन्तर का आधार

पुरातन विचार

आधुनिक विचार

1. संघर्ष की प्रकृति

संघर्ष हानिप्रद है अतएवं इससे बचना चाहिए।

संघर्ष अपरिहार्य है।

2. संघर्ष की उत्पति

संगठनात्मक संरचना की रूपरेखा बनाने में और संगठन को प्रबन्धित करने में कमियों के कारण संघर्ष उत्पन्न होते हैं।

संघर्ष की उत्पत्ति विभिन्न कारणों से होती है, जैसे- संगठनात्मक संरचना में त्रुटि, लक्ष्यों में भिन्नता, लोगों के विचार तथा बोध में भिन्नता।

3. संघर्ष के प्रभाव

संघर्ष समूचे संगठन को अस्त-व्यस्त कर देता है तथा अनुकूलनम निष्पादन के मार्ग में बाधाएँ खड़ी करता है।

संघर्ष के कारण संगठनात्मक निष्पादन के मार्ग में सदैव बाधाएँ खड़ी नहीं होती। कुछ मामलों में तो इसके कारण निष्पादन में सुधार भी होता है।

4. प्रबन्ध का कार्य

प्रबन्ध का कार्य संघर्ष को दूर करना एवं उसे समाप्त करना है।

प्रबन्ध का कार्य संघर्ष के स्तर को प्रतिबन्धित करना है, ताकि अनुकूलतम निष्पादन की प्राप्ति हो सके।

5. संघर्षो की समाप्ति /सन्तुलित स्तर बनाये रखना

संगठन में अनुकूलतम निष्पादन के लिए संघर्षों की समाप्ति होना आवश्यक है।

संगठन में अनुकूलतम निष्पादन के लिए संघर्षो का संन्तुलित स्तर बनाये रखना आवश्यक है।

(III) व्यवहारवादी विचारधारा (उपागम) (Behavioural Theory (Approach)

उपरोक्त दोनों महत्वपूर्ण विचारधाराओं के अतिरिक्त संघर्ष की तीसरी विचारधारा भी है जिसका नाम व्यवहारवादी विचारधारा (उपागम) है। इस विचारधारा की यह मान्यता है कि संघर्ष किसी भी संगठन का अपरिहार्य अंग है जो उसके ताने-बाने में बुना रहता है। अतएव उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। यह विचारधारा 1940 के दशक से लेकर 1970 के दशक तक प्रचलित रही हैं। व्यवहारवादी विचारधारा के विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक संगठन व्यक्तियों से मिलकर बनता है और मूल्यों एवं लक्ष्यों के बारे में सभी व्यक्तियों के विचार एक समान नहीं होते हैं। अतएव संघर्षों की उत्पत्ति होती है। संघर्ष सदैव हानिप्रद नहीं होते हैं।

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Pankaja Singh

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