संगठनात्मक व्यवहार

संघर्ष के प्रकार या रूप | Types or Forms of Conflict in Hindi

संघर्ष के प्रकार या रूप | Types or Forms of Conflict in Hindi

संघर्ष के प्रकार या रूप

(Types or Forms of Conflict)

संघर्ष की उत्पत्ति विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न रूपों में हो सकती है। संघर्ष के इन प्रकारों को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है-

(i) व्यक्ति के भीतर संघर्ष।

(ii) व्यक्तियों के बीच संघर्ष।

(iii) व्यक्ति और समूह के बीच संघर्ष।

(iv) समूहों के बीच संघर्ष।

(v) संगठनात्मक के बीच संघर्ष।

(I) व्यक्ति के भीतर संघर्ष- (Conflict within An Individual)

इसे व्यक्तिपरक संघर्ष (Intrapersonal Conflict) कहते हैं। यह एक व्यक्ति के भीतर चलने वाला उसके अन्तर्मन का संघर्ष है। मूलरूप से इसकी उत्पत्ति स्वयं के लिये लक्ष्प्रकार हैं करने और प्रत्याशित भूमिका का निर्वाह करने को लेकर हो सकती हैं। इसके निम्नलिखित दो प्रमुख प्रकार हैं-

(1) लक्ष्य संघर्ष (Goal Conflict)- व्यक्ति के भीतर लक्ष्य संघर्ष तब उत्पन्न होता है जब उसके सामने दो या दो से अधिक लक्ष्यों में से किसी एक को चुनने की समस्या होती है। ये लक्ष्य परस्पर विरोधी प्रकृति के किन्तु लगभग समान प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते हैं। लक्ष्य से सम्बन्धित संघर्ष के तीन रूप हो सकते हैं-

(i) सादृश्य-सादृश्य संघर्ष (Approach-Approach Conflict)- जब किसी व्यक्ति को दो या दो से अधिक सकारात्मक लक्ष्यों में से किसी एक का चयन करना पड़ता है तब इस प्रकार का संघर्ष उत्पन्न होता है। इसमें व्यक्ति के सम्मुख दो समान मनपसन्द विकल्प रहते हैं। अतः उसके मन में यह संघर्ष बलता है कि उसे एक लक्ष्य की पूर्ति के लिये दूसरे लक्ष्य का परित्याग करना पड़ेगा।

(ii) सादृश्य-परिवर्जन संघर्ष- (Approach-Avoidance Conflict)- इस संघर्ष की स्थिति में यद्यपि लक्ष्य तो एक ही होता है, लेकिन उसके साथ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू जुड़े रहते हैं। जैसे-एक व्यक्ति पदोन्नति का विकल्प स्वीकार करना चाहता है, लेकिन वह इसके लिये दूसरे स्थान पर जाने का इच्छुक नहीं होता। यह स्थिति उसके भीतर संघर्ष उत्पन्न कर देती है।

(iii) परिवर्जन-परिवर्जन संघर्ष- (Avoidance-Avoidance Conflict) – इस स्थिति में व्यक्ति को दो प्रतिकूल विकल्पों में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। जैसे- शोरगुल वाले संयन्त्र में कार्य करने अथवा कम्पनी के अत्यधिक दूर स्थिति संयन्त्र में कार्य करने के विकल्प में से किसी एक का चयन करना।

उल्लेखनीय है कि सादृश्य-परिवर्जन और परिवर्जन-परिवर्जन संघर्ष व्यक्ति और संगठन दोनों के लक्ष्यों में एकीकरण स्थापित करने की दृष्टि से सिद्ध हो सकते हैं।

अतः व्यक्तिगत और संगठनात्मक लक्ष्यों में एकीकरण स्थापित करने की दृष्टि से लक्ष्यगत संघर्षों को ध्यान में रखना चाहिये।

(2) भूमिका संघर्ष (Role Conflict)- जब व्यक्ति का व्यवहार उसकी भूमिका से जुड़ी अपेक्षाओं के अनुरूप न हो तो व्यक्ति के भीतर भूमिका को लेकर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। इस संघर्ष के निम्नलिखित कारण होते हैं-

(i) व्यक्ति को अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों के बारे में स्पष्ट ज्ञान न होना।

(ii) संगठन में किसी पद विशेष से परस्पर विरोधी अपेक्षाएँ रखना।

(iii) व्यक्ति का महत्वाकांक्षी अथवा भावुक व्यक्तित्व

(iv) व्यक्ति को अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुरूप कार्य न मिलना।

(v) अपनी रुचि व पसन्द के अनुरूप कार्य न मिलना।

(vi) कार्य वितरण, अधिकार सत्ता व उत्तरदायित्वों को लेकर उत्पन्न होने वाली असन्तुष्टि उल्लेखनीय है कि लक्ष्य एवं भूमिका रूपी संघर्ष के अतिरिक्त भी यदि कर्मचारी संस्था की नीतियों, विशेषतः सेविवर्गीय नीतियों से असन्तुष्ट है तो व्यक्ति आन्तरिक संघर्ष का शिकार हो जाता है।

(II) व्यक्तियों के बीच संघर्ष (Interpersonal Conflict)

इन्हें ‘अन्तर्वैयक्तिक संघर्ष’ कहा जाता है। ये संघर्ष दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य होने वाली अन्तः क्रियाओं के कारण होते हैं। यह संघर्ष उच्चाधिकारी व अधनीस्थों, क्रियात्मक विशेषज्ञों, पेशेवर कार्मिकों के बीच होने वाले अन्तर्व्यवहार से सम्बन्धित हैं। चूँकि एक संगठन विभिन्न व्यक्तियों के बीच लम्बवत, समतलीय तथा विकर्णीय सम्बन्ध पाये जाते हैं। और इसी रूप में उनके बीच अन्तः क्रियायें चलती हैं, इसलिये अन्तर्वैयक्तिक संघर्षो को निम्नलिखित श्रेणियों में रखा जा सकता है-

(a) लम्बवत् संघर्ष- ये उच्चाधिकारी एवं अधीनस्थों के बीच चलते हैं।

(b) समतलीय संघर्ष- ये समान संगठनात्मक स्तर पर कार्यरत व्यक्तियों के बीच होते हैं।

(c) विकर्णीय संघर्ष- ये दो भिन्न स्तरों पर कार्यरत व्यक्तियों के बीच होते हैं, लेकिन इनके बीच प्रत्यक्षतः उच्चाधिकारी-अधीनस्थ सम्बन्ध नहीं पाये जाते हैं। ऐसे संघर्ष व्यक्तियों की प्रकृति एवं संगठनात्मक स्थितियों के कारण उत्पन्न होते हैं।

अन्तर्वैयक्तिक संघर्ष के प्रमुख कारण निम्नलिखत हैं-

(i) अन्तर्व्यवहार में व्यक्तियों की भावनायें आहत होना।

(ii) व्यक्तियों की प्रतिष्ठा एवं आत्म-सम्मान को धक्का पहुँचना।

(iii) व्यक्तियों के स्वभावों में विरोध पाया जाना।

(iv) भिन्न-भिन्न अहम् स्थितियों (Ego States) से अन्तर्व्यवहार होना।

(v) मूल्यों, उद्देश्यों, विश्वासों एवं सामजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की मित्रता।

(vi) व्यक्तियों के सोचने, समझने एवं व्यवहार करने के ढंग में अन्तर होना।

(vii) व्यक्तियों में पायी जाने वाली जातिगत, धर्मगत, समुदायगत, परम्परागत और क्षेत्रगत भित्रतायें।

(viii) सम्प्रेषण की विफलता और संगठनात्मक कार्यों व भूमिकाओं की अस्पष्टता।

(III) व्यक्ति और समूह के बीच संघर्ष

(Conflict between an Individual and a Group)

किसी व्यक्ति और समूह के बीच संघर्ष तब उत्पन्न होते हैं जब वह व्यक्ति अपने समूह के मानदण्डों को पूरा करने में असमर्थ रहता है। जब कोई व्यक्ति समूहगत उत्पादकता के मानदण्डों से अधिक या कम निष्पादन करता है तब उस पर समूह का दबाव पड़ता है। मानदण्डों से कम उत्पादन करने पर समूह व्यक्ति को दण्डित भी कर सकता है। ऐसी दशा में समूह और व्यक्ति के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसके अतिरिक्त समूह के लक्ष्यों, आदर्शों, निश्चित नियमों, कार्य- अपेक्षाओं आदि की अवहेलना की दशा में भी समूह और व्यक्ति के बीच संघर्ष चलता है।

(IV) समूहों के बीच संघर्ष

(Conflict between Groups within an Organisation)

समूहगत संघर्ष दो प्रकार के होते हैं- प्रथम, एक ही समूह में विभिन्न व्यक्तियों के मध्य संघर्ष। इस प्रकार के संघर्ष को अन्तर्वैयक्तिक संघर्ष के नाम से पुकारा जाता है। द्वितीय, विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष होना, जिन्हें अन्तर्समूह संघर्ष कहा जाता है।

समूहगत संघर्ष के निम्नलिखित कारण होते हैं-

(अ) समूहों के लक्ष्यों व साधनों में भिन्नता एवं अस्पष्टता।

(ब) सीमित साधनों व पारितोषिकों के लिये प्रतिस्पर्द्धा।

(स) समूहों के नियमों व आदर्शों की भिन्नता।

(द) समूह के कार्यों में परस्पर निर्भरता।

(य) समूहों के वातावरणों, सदस्य-आदतों, पृष्ठभूमियों, जीवन-शैलियों, पद-स्तरों आदि में तीव्र भित्रता।

(र) व्यक्तिगत पसन्द, ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार, पूर्वाग्रह आदि।

(ल) अधिकारी सत्ताओं, भूमिकाओं, व सम्प्रेषण प्रतिमाओं में विसंगतियाँ।

(व) समूहों के बीच राजनीति एवं एक-दूसरे पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास।

(V) संगठनात्मक संघर्ष (Organisational Conflict)

व्यक्तियों व समूहों के बीच उत्पन्न होने वाले संघर्ष तथा व्यक्ति व समूहों के संघर्ष एवं अन्तसमूहों के संघर्ष को संगठनात्मक संघर्ष के नाम से जाना जाता है। एक संगठन में व्यक्तियों पर कई संगठनात्मक संघर्षों का दबाव पड़ता है। संगठनात्मक संघर्ष को संरचना की दृष्टि से निम्नलिखित पाँच श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

(i) पदानुक्रम संघर्ष (Hierarchical Conflict)- इस प्रकार के संघर्ष किसी संगठन के विभिन्न स्तरों के बीच पाये जाते हैं, जैसे संचालक मण्डल और उच्च प्रबन्ध के बीच संघर्ष, मध्य-स्तरीय प्रबन्ध और निम्न-स्तरीय प्रबन्ध के बीच संघर्ष, प्रबन्धकों एवं श्रमिकों के बीच संघर्ष आदि।

(ii) कार्यात्मक संघर्ष (Functional Conflict)- यह संघर्ष विभिन्न विभागों जैसे उत्पादन, क्रय, वित्त, विपणन आदि के बीच चलता है।

(iii) रेखा-स्टाफ संघर्ष (Line-Staff) – रेखीय व स्टॉफ व्यक्तियों (विशेषज्ञों) के बीच भी पद, प्रतिष्ठा, अधिकार, भूमिकाओं, सत्ता व संगठन स्थिति आदि मुद्दों को लेकर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष उनकी भूमिकाओं व दृष्टिकोण में आपसी टकराव के कारण उत्पन्न होता है।

(iv) औपचारिक-अनौपचारिक संघर्ष (Formal-Informal Conflict)- संगठन में औपचारिक व अनौपचारिक समूहों के बीच तथा उनके अन्तर्गत भी निष्पादन मानदण्डों, लक्ष्यों, कार्यशैलियों आदि में मेल न होने के कारण संघर्ष चलता है।

(v) संगठनों के बीच संघर्ष (Conflict between Organisation)- विभिन्न संगठनों के बीच आर्थिक, तकनीकी, प्रबन्धकीय एवं अन्य मुद्दों को लेकर टकराव हो जाता है। प्रायः इस प्रकार के संघर्ष को ‘प्रतियोगिता‘ कहते हैं। यह संघर्ष निर्वाध अर्थव्यवस्था का अनिवार्य परिणाम है। संगठनों के बीच प्रतियोगिता रूपी संघर्ष होने के कारण नयी-नयी वस्तुओं, किस्म, डिजाइनों आदि की खोज होती है, प्रौद्योगिकी का विकास होता है, कीमतों में कमी आती है तथा मानवीय व अन्य संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग सम्भव होता है।

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Pankaja Singh

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