संगठनात्मक व्यवहार

संघर्ष का अर्थ एवं परिभाषा | संघर्ष के कारण अथवा स्त्रोत

संघर्ष का अर्थ एवं परिभाषा | संघर्ष के कारण अथवा स्त्रोत | Meaning and definition of struggle in Hindi | Cause or source of conflict in Hindi

संघर्ष का अर्थ एवं परिभाषा

Meaning and Definition of Conflict

संघर्ष दो पक्षकारों के मध्य हितों, विचारों एवं दृष्टिकोण की टकराहट है। संघर्ष एक  विवाद स्थिति है जिसके फलस्वरूप अन्तर्वैक्तिक व्यवहारों में परिवर्तन आ जाता है। संघर्ष विरोधी विचारों, मूल्यों, हितों या लक्ष्यों के कारण उत्पन्न होता है। यह व्यक्तियों, समूहों अथवा संगठन में पाये जाने वाले विरोध, तनाव, मनमुटाव, अन्तर्द्वन्द्व, असहमति, विघ्न, टकराव अथवा विद्वेषपूर्ण व्यवहार की स्थिति है। स्वार्थ, स्वहित अथवा हितों की भिन्नता संघर्ष का मूल कारण है।

संघर्ष के साथ सकारात्मक और नकारात्मक पहलू जुड़े होते हैं। जब संघर्ष संगठनात्मक लक्ष्यों के एवं कार्य निष्पादन में सुधार लाने के पक्ष में होता है तो इसे सकारात्मक या स्वस्थ संघर्ष कहते हैं। किन्तु यदि संघर्ष के कारण संगठनात्मक लक्ष्यों में बाधा आती है तो इसे नकारात्मक या अस्वस्थ संघर्ष कहते हैं।

‘संघर्ष’ की प्रमुख परिभाषायें निम्नानुसार हैं-

गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, “संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न व्यक्ति अथवा समूह अपने विरोधियों को अपने शक्ति परीक्षण अथवा हिंसा द्वारा अथवा हिंसा की धमकी देकर स्व-लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

जोसेफ रिट्ज के अनुसार, “एक संगठन के अन्दर संघर्ष को सामान्य कार्य- संचालन में बाधा, रुकावट एवं व्यवधान के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसके फलस्वरूप, व्यक्तियों एवं समूहों को सामूहिक रूप से कार्य करने में कठिनाई अनुभव होती है।”

एस०पी०रॉबिन्स के अनुसार, “संघर्ष से आशय……. सभी प्रकार के विरोध अथवा विरोधी अन्तः क्रिया से है।”

डेविड आर० हैम्पटन (David R. Hampton) के अनुसार, “संघर्ष हम उस व्यवहार को कहते हैं जो दो या अधिक पक्षकारों के इस कारण से विरोधी स्थिति ग्रहण करने पर उत्पन्न होता है कि एक पक्षकार की कार्यवाही दूसरा पक्षकार अपने आपको तुलनात्मक वचन की स्थिति में अनुभव करता है।”

एस0ए0शेरलेकर (S.A. Sherlekar) के अनुसार, “संघर्ष दो पक्षकारों के मध्य एक ऐसा विवाद अथवा मतभेद की स्थिति है जबकि संघर्ष के पक्षकार विरोधी पक्षकार को उसके उद्देश्यो की प्रगति में जानबूझकर एवं खुल्लम-खुल्ला तौर से विद्वेषी कार्यवाहियों द्वारा बाधा उत्पन्न करते हैं।” यह बाधा सक्रिय अथवा निष्क्रिय, कोई भी रूप धारण कर सकती है। बाधा उत्पन्न करने का निष्क्रिय रूप-सूचनाओं एवं साधनों का लोप करना, उन्हें गुप्त बनाये रखना तथा समय पर उन्हें प्रदान न करने का रूप धारण कर सकता है।

आर0 लिकर्ट ( R. Likert) के अनुसार, “यदि व्यक्ति (पक्ष) अपने वरीय (Pre- ferred ) उद्देश्यों की प्राप्ति में सक्रिय रूप से प्रयत्नशील हो जाता है और उसके उद्देश्यों की प्राप्ति, अन्य व्यक्ति (पक्ष) को स्वयं के वरीय उद्देश्यों की प्राप्ति से वंचित रखती है, जिसके फलस्वरूप संगठन में समन्वय एवं सामंजस्य में बधा उपस्थित होकर, आवंछनीय रूप से विद्वेष एवं विरोध उत्पन्न होता हो तो ऐसी स्थिति को संघर्ष के नाम से जाना जायेगा।”

संघर्ष के कारण अथवा स्त्रोत

(Causes or Sources of Conflict)

संघर्ष को बढ़ावा देने वाले अनेक कारण हैं। इनमें से प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

(1) सीमित साधनों के लिये प्रतियोगिता- संगठन में पूँजी, श्रम तकनीक, प्रबन्ध कौशल, यन्त्र आदि सभी साधन सीमित होते हैं। विशिष्ट ज्ञान की आपूर्ति भी दुर्लभ होती है। संगठन में कार्यरत सभी व्यक्ति एवं विभाग इन साधनों की माँग करते हैं और उसके लिये प्रबन्ध पर दबाव बनाते हैं। ये दबाव ही धीरे धीरे संघर्ष का रूप धारण कर लेते हैं। यह अन्तर्समूह संघर्ष कहलाता है।

(2) क्रियाओं की अन्तर्निर्भरता- आधुनिक संगठनों की प्रकृति एवं कार्यप्रणाली अत्यन्त जटिल होती है। बड़ी संख्या में कर्मचारियों के कार्यरत रहने तथा विभिन्न विभागों के एक- दूसरे पर निर्भर होने के कारण वे एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। यह परस्पराश्रितता की स्थिति ही विभागों व व्यक्तियों के बीच संघर्ष को प्रेरित करती है। थॉमसन ने संगठन में तीन अन्तर्निर्भरताओं का उल्लेख किया हैं- सामूहिक (Pooled), अन्तर्निभरता, क्रमिक (Sequential), अन्तर्निर्भरता एवं पारस्परिक (Reciprocal) अन्तर्निर्भरता। इनके कारण संघर्ष की सम्भावनायें बनी रहती हैं।

(3) लक्ष्यों में अन्तर होना- व्यक्तियों, उनके समूहों, विभागों तथा संगठन के लक्ष्यों में अन्तर होता है। हितों की यह भिन्नता संघर्ष को उत्पन्न करती है। लक्ष्यों की भिन्नता के कारण उत्पन्न होने वाला संघर्ष दुष्क्रियात्मक प्रकृति का होता है। ऐसे संघर्ष का प्रभाव न केवल कार्मिकों वरन् ग्राहकों व बाहरी पक्षों पर भी पड़ता है।

(4) मूल्यों व धारणाओं की भिन्नता- संगठन में कार्यरत व्यक्तियों व प्रबन्धकों के मूल्य, विश्वास, मत, व दृष्टिकोण भी भित्र-भित्र होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितियों की वास्तविकता को अपनी दृष्टि से देखता है और अन्य की दृष्टि की उपेक्षा करता है। इससे वहाँ संघर्ष की सम्भावना बढ़ जाती है। उदाहरण के लिये, प्रथम पंक्ति पर्यवेक्षक सामयिक एवं लोचपूर्ण नीति को चाहते हैं जबकि उच्च प्रबन्धक दीर्घकालीन नीति को प्राथमिकता देते हैं। इन्जीनियरिंग विभाग वस्तु की किस्म एवं डिजाइन को महत्व देता है, जबकि उत्पादन विभाग लागत पर बल देता है। युवा प्रबन्धक नैत्यिक कार्य सौंपे जाने पर असन्तोष व्यक्त करते हैं जबकि अनुभवी प्रबन्धक ऐसे कार्यों को भी उनके प्रशिक्षण का एक भाग मानते हैं।

(5) पद-प्रतिष्ठा सम्बन्धी भिन्नतायें- संगठन संरचना में प्रत्येक व्यक्ति की पद स्थिति अलग होती है। इस पद स्थिति के साथ ही उनके अधिकार, दायित्व, सम्मान, सुविधायें आदि घटक जुड़े होते हैं। इनकी भिन्नता भी गम्भीर संघर्षों को जन्म देती है।

(6) गुणों व नेतृत्व की भिन्नता- व्यक्ति गुणों एवं कार्यशैलियों की भी भिन्नता रखते हैं। उदाहरण के लिये जो व्यक्ति स्वयत्तता, पहलपन एवं जनतान्त्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं उनकी टकराहट, अधिनायक नेतृत्व शैली में विश्वास करने वाले व्यक्तियों से होती रहती है। स्व- मान्यतायें भी संघर्ष का मूल कारण हैं।

जेम्स ए० एफ० स्टोनर लिखते हैं, “कुछ व्यक्ति संघर्ष का आनन्द लेते हैं और जब उन्हें नियन्त्रण में रखा जाता है तो हल्का विवाद संगठन सदस्यों को प्रोत्साहित करता है और उनके निष्पादन को उन्नत बनाता है। कुछ व्यक्ति, जो बहुत ही अधिनायकवादी अथवा निम्न प्रतिष्ठा वाले होते हैं, वे अक्सर अधीनस्थों की तनिक सी असहमतियों पर क्रोध प्रकट कर बैठते हैं। सामान्यतः अन्तर्समुह संघर्ष की सम्भावनायें उस समय सर्वोच्च रहती हैं जबकि समूह-सदस्य, कार्य-प्रवृत्तियों, उम्र एवं शिक्षा सम्बन्धी मामलों में भिन्नतायें लिये होते हैं।

(7) भिन्न क्षेत्राधिकार- संगठन में व्यक्तियों, प्रबन्धकों एवं कार्यात्मक विभागों के क्षेत्राधिकार भिन्न-भिन्न होते हैं। इनकी टकराहट से अन्तर्विभागीय संघर्ष उत्पन्न हो जाता है।

(8) दोषपूर्ण सम्प्रेषण- जब सम्प्रेषण की व्यवस्था अपर्याप्त एवं दोषपूर्ण होती है तो समन्वय में असुविधा होती है तथा भ्रम, सन्देह एवं विवाद उत्पन्न होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।

(9) कार्य के लक्षणों एवं प्रकृति में अन्तर विभिन्न कार्यों की विशिष्टताओं के कारण उनकी प्रक्रिया एवं प्रकृति भिन्न हो जाती है। फलतः उनके निष्पादन कार्यदशाओं एवं कार्यप्रणाली में अन्तर होता है। यह भिन्नता भी अनेक अवसरों पर टकराहट उत्पन्न कर देती है।

(10) संगठन संरचना की अस्पष्टता- संगठन में कार्यों का उचित बँटवारा न होने, सत्ता सम्बन्धों को परिभाषित न करने, क्षेत्राधिकार, दायित्वों, भूमिकाओं एवं नियन्त्रण के क्षेत्र को ठीक से निर्धारित न करने, कार्य की आवश्यकतानुसार केन्द्रीयकरण अथवा विकेन्द्रीयकरण में करने, नियन्त्रण का विस्तार अधिक होने, विभागीयकरण संरचना दूषित होने आदि के कारण भी संघर्षों की उत्पत्ति होती है।

(11) स्वाभाविक तत्व- कुछ सीमा तक संघर्ष संगठनात्मक ताने-बाने का अनिवार्य हिस्सा होता है। मानवीय स्वभाव, कार्य निष्पादन की स्वाभाविक प्रक्रिया आदि के कारण भी संगठन में संघर्ष एक सहज एवं प्राकृतिक क्रिया के रूप में उत्पन्न होता रहता है। बिना मतभेद; विवाद व टकराहट के कोई भी प्रणाली का कार्य संचालन नहीं होता।

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Pankaja Singh

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