संगठनात्मक व्यवहार

संघर्ष की प्रक्रिया एवं स्तर | समूहों के मध्य संघर्ष | Process and levels of conflict in Hindi | Conflict between groups in Hindi

संघर्ष की प्रक्रिया एवं स्तर | समूहों के मध्य संघर्ष | Process and levels of conflict in Hindi | Conflict between groups in Hindi

संघर्ष की प्रक्रिया एवं स्तर

(Process and Levels of Conflict)

संगठन में संघर्ष कई रूपों में विद्यमान होता है। कभी संघर्ष सूक्ष्म रूप में तो कभी गम्भीर रूप में देखने को मिलता है। प्रत्येक संघर्ष बीज के रूप में अंकुरित होकर धीर-धार वृक्ष बनकर सामने आता है। संघर्ष के उत्पन्न होने से लेकर उसकी समाप्ति तक की विभिन्न अवस्थायें ‘संघर्ष की  प्रक्रिया’ के नाम से जानी जाती हैं। संक्षेप में, इनका उल्लेख अग्र प्रकार से है-

(1) अव्यक्त संघर्ष ( Latent Conflict ) – संघर्ष प्रक्रिया का प्रथम चरण अव्यक्त होता है। इस अवस्था में सम्बद्ध व्यक्तियों,  समूहों अथवा विभागों के बीच भ्रामक तथा विपरीत धारणायें घर कर जाती हैं। दोनों पक्ष अविश्वासपूर्ण और विरोधी व्यवहार ससंरचनाये अपनाने लगते हैं। संघर्ष के इस स्तर पर वर्तमान संघर्ष से पहले यदि कोई संघर्ष हुआ हो तो उसके परिणाम भी प्रभाव डालते हैं। इस अवस्था में संघर्ष बीज रूप में होता है। अतः यदि प्रबन्धक या दोनों पक्ष स्पष्ट संचार एवं प्रत्यक्ष भेंट कर पारस्परिक गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास करें तो ऐसे संघर्ष को तुरन्त दूर किया जा सकता है।

(2) संघर्ष की अनुभूति ( Perceiving conflict) – इस चरण में संघर्ष व्यक्ति के मस्तिष्क तक सीमित होता है किन्तु संघर्ष में अन्तर्ग्रस्त पक्षकार संघर्ष का स्पष्ट आभास कर लेते हैं। वे स्व-हितों की रक्षा के लिये संघर्ष के कारणों, प्रभावों एवं परिणामों पर विचार करने लगते हैं। उनके मस्तिष्क में संघर्ष के उपाय एवं समाधान के प्रेरक चक्कर काटने लगते हैं। इस स्तर पर संघर्ष को कम या समाप्त करने के लिये समझौते और विवेक का प्रयोग वांछनीय माना जाता है।

(3) व्यवहार में अनुभव करना (Feeling Conflict in Behaviour)- इस चरण में ‘संघर्ष’ मस्तिष्क से आगे बढ़कर व्यवहार एवं आचरण में अनुभव होने लगता है। अन्तर्ग्रस्त पक्षकार यह अनुभव करने लगता है कि उसके हितों, पद-प्रतिष्ठा, कार्य-सुविधाओं आदि पर चोट की जा रही है। इस चरण में पक्षकरों का व्यवहार परस्पर आक्रामक हो जाता है। वे संघर्ष की तीव्रता एवं उसके प्रभावों को महसूस करने लगते हैं। इस अवस्था में भी सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर संघर्ष के नकारात्मक प्रभावों को उत्पन्न होने से रोका जा सकता है।

(4) संघर्ष व्यक्त हो जाना ( Manifesting Conflict )- इस अवस्था में संघर्ष प्रकट हो जाता है। पक्षकार स्व-उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक दूसरे को हानि पहुँचाने का प्रयास करते हैं। मौखिक, लिखित बल प्रयोग तथा विकृत व्यवहार के रूप में ‘संघर्ष’ भावनाओं एवं व्यवहारों से प्रकट होने लगता है। उदाहरणार्थ- हड़ताल, तोड़फोड़, घेराव, हिंसा, नियमानुसार कार्य, वेतन कटौती, दुर्भाग्यपूर्ण छँटनी, निष्कासन, अनुशानात्मक कार्यवाही आदि संघर्ष की अभिव्यक्तियाँ हैं। इस अवस्था में तीसरे पक्षकार की सहायता अथवा सामूहिक सौदेबाजी के माध्यम से संघर्ष के समाधान का प्रयास किया जा सकता है।

(5) संघर्ष परिणाम (Conflict Aftermath)- यह संघर्ष प्रक्रिया का अन्तिम चरण है। इस चरण में यदि संघर्ष को दबा दिया जाता है तो समाप्त नहीं होता, वरन् आगामी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार कर देता है। इसके विपरीत, यदि संघर्ष को आपसी समझौते द्वारा सुलझा लिया  जाता है तो संघर्ष की स्थिति आपसी सहयोग एवं सामंजस्य से बदल जाती है। एवं दोनों पक्षकार शान्ति अनुभव करने लगते हैं।

समूहों के मध्य संघर्ष (Conflict between Groups)-

एक उपक्रम में व्यक्तियों के अनेक समूह कार्यरत होते हैं। संघर्ष उस समय उत्पन्न होता है जबकि एक समूह दूसरे समूह पर लाभ, शक्ति अथवा छवि सुधारने एवं आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करता है। समूह संघर्ष उस समय भी उत्पन्न होते हैं जबकि समूहों के मतों में भिजताएँ हो, निष्ठा में भिन्नताएँ हो अथवा संसाधनों के सम्बन्ध में परस्पर प्रतियोगिता हो। ऐसे संघर्षों का समूचे संगठन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जैसे- एक दूसरे समूह के प्रति आक्रात्मक, शत्रुतापूर्ण एवं पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण। निष्कर्ष रूप में, समूहों के मध्य होने वाले संघर्षों के प्रायः निम्न कारण होते हैं-

(i) समूहों के लक्ष्यों व उनके प्राप्त करने के संसाधनों में भिन्नता एवं अस्पष्टता।

(ii) दूसरे समूह पर आधिपत्य स्थापित करने की लालसा अथवा प्रयास।

(iii) प्रतियोगी समूह के प्रति आक्रात्मक, शत्रुतापूर्ण एवं पक्षपात का दृष्टिकोण

(iv) सीमित संसाधनों व परितोषिकों के लिए प्रतिस्पर्द्धा

(v) व्यक्तिगत, नापसन्दगी, ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार, पूर्वाग्रह आदि।

(vi) समूह के कार्य में परस्पर निर्भरता।

(vii) कार्यशील पर्यावरणों, आदतों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों, जीवन शैलियों, पद-स्तरों आदि में तीव्र विषमता।

(viii) अधिकार सत्ताओं, भूमिकाओं व सम्प्रेषण प्रतिमानों में विसंगतियाँ।

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Pankaja Singh

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