इतिहास

19वीं शताब्दी में नव साम्राज्यवाद का उदय | अफ्रीका विभाजन के कारण

19वीं शताब्दी में नव साम्राज्यवाद का उदय | अफ्रीका विभाजन के कारण

19वीं शताब्दी में नव साम्राज्यवाद का उदय

(अफ्रीका विभाजन के कारण)

“साम्राज्यवाद” शब्द की व्याख्या अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग की है। लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में करते हैं “भिन्न प्रजाति वाले देश पर किसी दूसरे देश की राजनीति या आर्थिक आधिपत्य की अव्यवस्था को साम्राज्यवाद कहते हैं।”

साम्राज्यवाद के जीवन को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-पुराना साम्राज्यवाद और नया साम्राज्यवाद। पुराने साम्राज्यवाद का आरम्भ लगभग 15 वीं शताब्दी से माना जाता है। इसके पूर्व तक यूरोप के लोग अपने महाद्वीप के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश से अपरिचित थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में एक नई प्रवृत्ति आरम्भ हुई। भूगोलवेत्ता और अनुसंधानकर्ता नये-नये प्रदेशों को खोज निकालने के लिए जिज्ञासु प्रतीत होने लगे। दिग्दर्शक पत्र के आविष्कार से समुद्री यात्रा आसान हो गई। अब उपनिवेशों की स्थापना का कार्य आसान था। इस कार्य में सेन तथा पुर्तगाल ने विशेष तत्परता दिखलाई । स्पेन के राजा को सहायता से 1492 में कोलम्बस ने अमेरिका का पता लगाया। 1498 में पुर्तगाल का वास्कोडिगामा अफ्रीका का चक्कर लगाते हुए भारत वर्ष आ पहुंचा। इन मार्गों से पूर्व के देशों से व्यापार आरम्भ हुआ। अमेरिका पर स्पेन का अधिकार स्थापित  हो गया। स्पेन और पुर्तगाल की आकस्मिक प्रगति को देखकर अन्य यूरोपीय देश भी इस दिशा में आगे बढ़ें। इंग्लैंड तथा फ्रांस के लोगों ने उत्तरी अमेरिका में बसना आरंभ किया। इसी प्रकार पुर्तगाल की तरह अन्य यूरोपीय देश भी एशिया में आने लगे। अब इन देशों में व्यापारी स्पर्धा आरंभ होने लगी। कुछ ही वर्षों में यूरोप के मुट्ठी भर देशों ने सारे संसार को आपस में बांट लिया। सम्पूर्ण उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, भारतवर्ष, दक्षिणी पूर्वी एशिया में मलाया, हिन्द चीन हिन्दशिया तथा अफीका के उत्तरी और दक्षिणी किनारे के कुछ भागों पर यूरोपीय साम्राज्य स्थापित हो गया।

उन्नीसवीं शताब्दी में इस उपनिवेशवाद ने नया रूप धारण कर लिया। अब यह साम्राज्यवाद बन गया। इस समय तक औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में नयी विचारधाराओं का जन्म हुआ। एडम स्मिथ और तुर्की ने ‘मुक्त व्यापार के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत के कारण पुरानी वाणिज्यवादी पद्धति का हास्स होने लगा। साथ ही यूरोपीय राज्यों के बहुत से उपनिवेश स्वतंत्र होने लगे। इंग्लैण्ड फ्रांस तथा हालैण्ड के उपनिवेश स्वतंत्र हो गये।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में “औपनिवेशिक उदासीनता देखने को मिलती है।” इस समय मुक्त व्यापार तथा हस्तक्षेप के सिद्धान्तों के कारण उपनिवेश स्थापित नहीं हुए। किन्तु 1870 के पश्चात् यूरोप में साम्राज्यवाद की भावना पुनः प्रबल होने लगी। अगले 25 वर्षों में संसार के अविकलित क्षेत्रों पर अधिकार करने की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई जिसके फलस्वरूप अफ्रीका जैसे विशाल साम्राज्य को आपस में बाँट लिया और एशिया के कई प्रदेशों तथा प्रशान्त महासागर के अनेक द्वीपों पर अधिकार कर लिया। साम्राज्यवाद की इस नीति के परिणामस्वरूप अफ्रीका महाद्वीप का 90 प्रतिशत भाग यूरोपीय राज्यों के मध्य बंट गया।

नवीन साम्राज्य के विकास के कारण

  1. आर्थिक कारण

(अ) अतिरिक्त उत्पादन

औयोगिक कांति के कारण मानव समाज के आर्थिक संगठन से बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। मध्यकाल में आर्थिक उत्पादन बहुत छोटे पैमाने पर हुआ करता था। अतः उसकी खपत उसी देश में हो जाती थी। उस समय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए न तो मार्ग था और न ही एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए समुचित साधन ही थे किन्तु 1870 के पश्चात् औद्योगिक क्रांन्ति के फलस्वरूप औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि गई। इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के साथ ही जर्मनी, इटली तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी आयोगिक उत्पादन बढ़ा। इंग्लैण्ड को अपने तैयार माल को बेचने की चिन्ता होने लगी। यूरोप में अन्य देश इस समय संरक्षण नीति का पालन कर रहे थे। इस कारण विदेशी वस्तुओं पर भारी कर लगाये जाते थे। इस कारण औद्योगिक देशों को अपना अतिरिक्त माल बेचने के लिए नये बाजार ढूंढ़ने की आवश्यकता पड़ी। यही नवीन साम्राज्यवाद का आधार था।

(ब) अतिरिक्त पूँजी

औद्योगिक क्रान्ति के कारण यूरोप के देशों में धन का संचय आरम्भ हो गया। बड़े पैमाने पर उत्पादन होने से लागत कम आयी और वस्तुओं का उत्पादन अधिक हुआ। देश में पूंजीपतियों का एक वर्ग तैयार हो गया। यह वर्ग चाहता था कि अतिरिक्त पूँजी को ऐसे स्थान पर लगाया जाय ताकि लाभ अधिक हो । यूरोप के राज्यों में पूंजी की मांग कम थी अतः उस पर बहुत कम व्याज मिलने की सम्भावना थी। इसी कारण पूँजी को उपनिवेशों में लगाने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। इस प्रकार यूरोपीय देशों के अतिरिक्त पूंजी वाले लोगों ने अपनी सरकार को उपनिवेश स्थापना के लिए प्रेरित किया। मोरक्को में फ्रांस के साम्राज्य की स्थापना का कारण भी यही था।

(स) कच्चे माल की आवश्यकता

औद्योगिक देशों द्वारा कच्चे माल की आवश्यकता साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण कारण रहा। औद्योगिक उत्पादन के लिए रबर, टीन, कपास, वनस्पति तेल आदि कई प्रकार के कच्चे माल की मांग बढ़ती जा रही थी। इस मांग की पूर्ति उपनिवेशों द्वारा ही सम्भव थी। अतः उद्योग प्रधान देश ऐसे उपनिवेशों पर अधिकार करने का प्रयत्न करने लगे जहाँ उन्हें अधिक मात्रा में सस्ते दामों पर कच्चा माल मिल सके । उद्योग प्रधान देशों के अधिकतर लोग उद्योग-धन्धों में लगे रहते थे अतः अन्न का उत्पादन कम होने लगा। इसको पूर्ति भी उपनिवेशों से पूरी की जानी थी। इस प्रकार तेल, काफी, चाय, चीनी, आदि पदार्थ भी नवीन साम्राज्यवाद के विकास में सहायक सिद्ध हुए।

(द) यातायात एवं दूरसंचार साधनों का विकास

औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यातायात के साधनों का विकास हुआ। भाप की शक्ति से चलने वाले जहाजों के बन जाने से सुदूरवर्ती देश से व्यापार करना भी आसान हो गया। रेलवे, डाक, तार, टेलीफोन आदि के आविष्कार से मनुष्य ने देश और काल पर अभूतपूर्व विजय प्राप्त की। लंदन से भारत आना केवल तीन सप्ताह का कार्य रह गया। टेलीफोन और केबिल के द्वारा प्रत्येक उपनिवेश से व्यापारिक सौदे करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी।

(य) जनसंख्या का दबाव

उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप को आबादी बड़ी तेजी के साथ बढ़ी। 1800 ई. में ब्रिटेन की आबादी एक करोड़ साठ लाख थी जो 1900 ई० में बढ़कर चार करोड़ दस लाख हो गयी। इसी प्रकार एक शताब्दी में जर्मनी की आबादी दो करोड़ दस लाख से बढ़कर पांच करोड़ साठ लाख हो गयी । इटली की आवादी दो करोड़ तीस लाख से बढ़कर चार करोड़ हो गयी। इस बढ़ती हुई आबादी को रोजगार देने तथा बसाने की समस्या दिनों-दिन् उप होती गयी। इस समस्या का आसान हल यह था कि बहुत से लोगों को दूसरे देशों में वसा दिया जाय। एशिया, अफ्रीका आदि में बहुत से प्रदेश खाली पड़े थे। इस आधार पर उपनिवेशों की स्थापना की गयी। इन उपनिवेशों में बहुत से लोग सैनिक के रूप में, शासन के अधिकारियों के रूप में जाकर रहने लगे। कुछ लोग उद्योग-धन्धों के विस्तार के लिए वहाँ बस गये।

  1. राजनीतिक कारण

साम्राज्यवाद का विकास किसी भी देश की राजनीतिक एवं आर्थिक आवश्यकता को ध्यान में रखकर किया जाता रहा है। इस कार्य में कुछ लेखक, विचारक एवं राजनीतिज्ञों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, पुर्तगाल, इटली, जर्मनी आदि राज्यों में इसी प्रकार के राष्ट्रवादी व्यक्तियों के प्रभाव के कारण उपनिवेशवाद को प्रोत्साहन मिला। इटली ने राष्ट्रीय गौरव की भावना के कारण ही लीबिया में उपनिवेश स्थापित किया।

साम्राज्य में निहित स्वार्थ

किसी भी साम्राज्य के निर्माण में सम्पूर्ण राष्ट्र के लोगों का बहुत ही कम योगदान रहता है। देश के निर्माण का कार्य कुछ ही लोग करते हैं। ये कुछ लोग अपने स्वार्थों की भावना से प्रेरित होकर ही साम्राज्यवाद का समर्थन करते हैं। देश के भीतर इस तरह के लोगों का एक वर्ग बन जाता है जिन्हें साम्राज्यवाद के निहित का वर्ग कहते हैं।

(अ) व्यापारिक वर्ग

किसी भी देश का व्यापारिक वर्ग हमेशा अपने व्यापार की उन्नति के विषय में ही सोचता है। इन व्यापारियों का ऐसा संगठन बन जाता है जो सरकार पर दबाव डालकर व्यापारिक लाभ के लिए किसी कार्य को करने के लिए मजबूर करता है। यूरोप के देशों में भी औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् ऐसे वर्ग तैयार हुए। इनमें कपड़े तथा लोहे के व्यवसायियों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये साम्राज्यवाद के कट्टर समर्थक होते थे क्योंकि वे अपना माल बेचने के लिए हमेशा नये बाजार की तलाश में रहते थे। इसी प्रकार अस्त्र-शस्त्र गोला-बारूद तैयार करने वाली कनियों के व्यवसायी भी साम्राज्यवाद् का समर्थन इसलिए करते थे ताकि युद्ध की स्थिति में उनके व्यवसाय को तरक्की हो सके। बड़ी-बड़ी जहाज कम्पनियों के मालिक इस नीति का समर्थन इसलिए करते थे कि उन्हें कोयला लेने या तूफान आदि से बचने के लिए सुरक्षित स्थानों पर अड्डों की आवश्यकता पड़ती थी। सामाज्यवाद के विस्तार में बैंक अधिकारियों का भी स्थान महत्वपूर्ण रहा। ब्रिटेन के रोथस-चाइल्ड बैंक ने प्रधानमंत्री डिजरैली को स्वेज नहर में हिस्सा खरीदने के लिए धन दिया और बाद में मिस्र पर ब्रिटिश अधिकार करने के लिए उस पर दबाव डाला।

सेना के कुछ अधिकारी भी साम्राज्यवादी नीति के समर्थक थे क्योंकि औपनिवेशिक युद्ध उन्हें यश प्राप्ति का मौका देते थे। सैनिकों की संख्या में वृद्धि के साथ ही उच्च पदोन्नति के अवसर अधिक होंगे।

(ब) ईसाई मिशनरियों का योगदान

यूरोपीय साम्राज्यवाद के प्रसार में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यूरोप के पादरियों का मुख्य उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार करना था। मध्य काल में जब यूरोपीय लोगों में नये प्रदेशों की खोज करने की प्रवृत्ति शुरू हुई तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी उसमें हाथ बंटाया। मार्को पोलो नामक यात्री जब चीन गया तो अनेक मिशनरो ईसाई भी उसके साथ गये। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में अनेक ईसाई धर्म प्रचारक चीन की राजधानी पेंचिग गये जहाँ उन्होंने बाइबिल का तातरि भाषा में अनुवाद किया और अनेक तातरि लोगों को इसाई धर्म में दीक्षित करके उन्हें धर्म प्रचार के लिए तैयार किया। इसाई पादरी साम्राज्य विस्तार के एक अच्छे साधन बन जाते थे। यदि पादरियों का किसी तरह अपमान होता था तो राष्ट्रीय सरकार उस अपमान का बदला लेने के बहाने उन देशों पर आक्रमण कर देती थी। या उनके आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप करती थी।

मिशनरियों ने प्रत्यक्ष रूप से भी साम्राज्यवाद को प्रोत्साहित किया। इस सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के डा० डेविड लिविस्टोन (David Living Stone) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। लिविंग्स्टोन ने लगभग बीस वर्ष तक अफ्रीका के अन्त: प्रदेश में जेम्बिसी और कांगो नदियों के क्षेत्रों की खोज की। उसने 1873 में अपनी मृत्यु के पहले देशवासियों को यह संदेश भेजा कि भूमि उनके व्यापार और ईसाई धर्म के प्रचार के लिए उपयुक्त है। इसी प्रकार फ्रांस के कार्डिनल लेबोगेरी ने अल्जीरिया में ‘अफ्रीका के मिशनरियों को समिति’ स्थापित की। और उसके माध्यम से ट्युनिस में अपना धार्मिक प्रभाव स्थापित किया। इससे फ्रांस को ट्यूनिस् पर अधिकार करने में सहायता मिली। बेल्जियम के पादरियों ने भी इसी प्रकार कांगो के क्षेत्र में अपने राज्य का प्रभाव स्थापित करने के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ईसाई धर्म के प्रचारकों में कुछ लोग तो सच्चे धार्मिक तथा मानव-प्रेमी थे और उन्होंने मानवता की वास्तविक सेवाएँ भी की। फ्रांस ने अपनी औपनिवेशिक विस्तार की नीति को सभ्यता के विस्तार का कार्य बतलाया, इटली ने इसे पुनीत कर्तव्य घोषित किया, इंग्लैण्ड ने उसे श्वेत जाति का भार या दायित्व बतलाया।

  1. भौगोलिक खोजों और साहसिकों का वर्ग

पुनर्जागरण काल से यूरोप में भौगोलिक खोजों की प्रवृत्ति आरंभ हुई थी। इसका पूर्ण विकास उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक हुआ। इस समय में अनेक साहसिक पैदा हुए जिन्होंने केवल साहस पूर्ण कार्यों के लिए नये नये उपनिवेशों को खोज निकाला। इन खोजों से साम्राज्य विस्तार में काफी सहायता प्राप्त हुई । हैनरी मार्टेन स्टेनली,डा. डेविड लिविंग्स्टोन, गुस्टाव नैकटिगाल कुछ ऐसे ही उत्साही व्यक्ति थे। यूरोपीय साम्राज्य के विस्तार में उनका प्रत्यक्ष हाथ था। कैमकन और टोगोलैण्ड को जर्मन उपनिवेश बनाने का श्रेय गुस्टाव नैकटिगाल को दिया जाता है।

अफ्रीका का बँटवारा

अफ्रीका एक विस्तृत महाद्वीप है। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व यह विश्व के अन्ध महाद्वीप’ के नाम से प्रख्यात था। यूरोप के निकट होते हुए भी यूरोप के निवासियों को इसका भौगोलिक ज्ञान नहीं था। उत्तरी-अफ्रीका के कुछ देश मिस्र, अल्जीरिया, ट्यूनिस, मोरक्को आदि समुद्र तट के आस-पास के प्रदेशों को छोड़कर शेष अफ्रीका के विषय में उन्हें बहुत कम जानकारी थी। 1875 के पूर्व अफ्रीका का एक छोटा सा भू-भाग यूरोपीय राज्यों के आधिपत्य में था। उत्तरी तट पर 1830 में फ्रांस ने अल्जीरिया पर संरक्षण स्थापित किया। इंग्लैण्ड ने 1806 में हालैण्ड से केप कालोनी का प्रदेश छीन लिया और 1843 में नेटाल पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार फ्रांस ने पश्चिमी तट पर इंग्लैण्ड ने गेम्बिया, गोल्ड-कोस्ट, सियरालिपोन और लेगास पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार फ्रांस ने पश्चिमी तट पर सेनेगल, आइवरी कोस्ट और गेबून पर अधिकार कर लिया था। पुर्तगाल ने भी अंगोला और मोजम्बिक पर अधिकार कर लिया था। स्पेन ने स्पेनिश गिनी पर अपना अधिकार जमा लिया था। इस प्रकार लगभग दस प्रतिशत अफ्रीकी भू-भाग पर ही यूरोपीय देशों का अधिकार था। अभी 90 प्रतिशत भू-भाग से यूरोप के लोग अनभिज्ञ थे।

अफ्रीका के अन्धकारपूर्ण भूखण्ड का पता लगाने का कार्य साहसिक खोजकर्ताओं तथा धर्म प्रचारकों के द्वारा किया गया था। वे धर्म प्रचारक पथ् भ्रष्ट अफ्रीकियों को सुमार्ग दिखलाने के लिए उत्सुक थे। इन जगत् हितैपियों में डा. डेविड लिविंग्स्टोन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने पाँच साल तक मध्य अफ्रीका के विविध प्रदेशों में भ्रमण किया। जब उसने अपनी अफ्रीकी यात्रा का वर्णन प्रकाशित किया तो लोगों का ध्यान अफ्रीका की तरफ आकृष्ट हुआ। इसके पश्चात् 1875-76 में हेनरी मार्टन स्टेनली ने कांगो नदी की घाटी तथा उसके सहायक नदियों के क्षेत्र का अन्वेषण किया। उसकी पुस्तक ‘थु दि डार्क कान्टीनेन्ट’ के प्रकाशित होने से यूरोप के देशों की रुचि अफ्रीका के सम्बन्ध में बढ़ने लगी। यूरोप के प्रायः सभी राष्ट्र अफ्रीका के भू-भाग पर गिद्ध की तरह टूट पड़े। जो अफ्रीका कुछ वर्षों पूर्व अज्ञात था वह अब भूखे साम्राज्यवादियों का शिकार बन गया।

अफ्रीका का बँटवारा यूरोपीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। सर्वप्रथम बेल्जियम के शासक लियोपोल्ड द्वितीय ने अफ्रीका में रूचि प्रदर्शित की। उसने 1876 में राजधानी बूसेल्स में यूरोप के राज्यों को एक सभा आयोजित की। उसका उद्देश्य अफ्रीका के महत्व पर विचार करना तथा प्रत्येक देश में अफ्रीकन सभाओं का आयोजन करना था परन्तु इस सभा के उच्च आदर्श अधिक समय तक विद्यमान नहीं रह सके। अब यूरोप का प्रत्येक राष्ट्र अपने हित की दृष्टि से अफ्रीका में कार्य करने का प्रयास करने लगा। लियोपोल्ड ने स्टेनली के सहयोग से अफ्रीका में कांगो के विशाल राज्य का गठन किया। बेल्जियम की इस कार्यवाही के फलस्वरूप फ्रांस, पुर्तगाल, इटली, ब्रिटेन, और जर्मनी भी अफ्रीका के विभिन्न भागों को छीना-झपटी में सम्मिलित हो गये।

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Pankaja Singh

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