इतिहास

अफीम युद्ध के कारण | अफीम युद्ध के परिणाम | प्रथम अफीम युद्ध

अफीम युद्ध के कारण | अफीम युद्ध के परिणाम | प्रथम अफीम युद्ध

अफीम युद्ध के कारण

19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में चीन विश्व में एक् अति धनाढ्य देश जाना जाता था। दुनिया से अलग-अलग वह एक सामंती समाजवाला देश् था, जिसकी उत्पादन व्यवस्था में संयुक्त रूप से लघु किसान कृषि और घरेलू दस्तकारी उद्योग की प्रधानता थी। काफी संख्या में किसान-समुदाय के पुरुष खेती बारी करते थे और खियाँ कताई-बुनाई करती थीं। वे अपनी जरूरत का अनाज, कपड़ा और अन्य चीजें स्वयं ही पैदा कर लेते थे। प्रारम्भ में चीन बड़े पैमाने पर सामान का निर्यात ही करता था और आयात छोटे पैमाने पर।

आर्थिक लाभ के लालच में यूरोप के कई देश चीन को ललचाई दृष्टि से देखते थे। 1840 ई० के आस-पास ब्रिटेन संसार का सबसे विकसित पूँजीवादी देश था। भारत में अपना उपनिवेशवाद सुदृढ़ करने के फौरन बाद उसने चीन को अपने आक्रमग का निशाना बनाया। विटेन में निर्मित सूती कपड़ा तथा ऊनी चीजें चीन के बाजार में आसानी से नहीं बिक पाती थीं। इसलिए ब्रिटिश पूंजीपतियों को चीन से चाय रेशम और दूसरी उत्पादित वस्तुएं खरीदने के लिए बड़ी मात्रा में चाँदी अपने देश से यहाँ लानी पड़ती थी।

चांदी के अभाव में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी चीनी माल की कीमत चुकाने के लिए कोई अन्य उपाय सोचने लगी। उसने अफीम का व्यापार करने का फैसला किया। 1781 ई० में कंपनी ने पूरी तैयारी के साथ पहली बार भारतीय अफीम को बड़ी मात्रा में चीन भेजा। इससे पहले मादक द्रव्य के बारे में चीन के लोग बिल्कुल नहीं जानते थे। इसके बाद यह व्यापार दिन दूना रात चौगुना बढ़ता गया। शीघ्र ही एक ऐसी हालत पैदा हो गई जिसमें चीन से निर्यात होनेवाली चाय, रेशम और अन्य चीजों का मूल्य चीन में आयात की जानेवाली अफीम का मूल्य चुकाने के लिए काफी नहीं रह गया तथा चाँदी देश के अंदर आने के बदले देश के बाहर जाने लगी।

1800 ई० में चीन के सम्राट ने अफीम के शारीरिक और आर्थिक दुष्मभाव से अत्यंत चिंतित होकर चीन में इस पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन, तब तक बहुत-से लोगों को इसकी आदत लग चुकी थी। अफीम के व्यापार के मुनाफे से बहुत-से व्यापारी और अफसर भ्रष्ट हो चुके थे। इसलिए तस्करी और घूसखोरी ने इस प्रतिबंध को लगभग निष्णभावी बना डाला।

अफीम का वार्षिक व्यापार, जो 1800 ई० में 2000 पेटियों के बराबर था, 1838 ई० में बढ़कर 40,000 पेटियों के बराबर हो गया । इस व्यापार में अमेरिकी जलयान काफी पहले ही शामिल हो चुके थे। वे भारतीय अफीम की कमी पूरा करने के लिए तुर्की की अफीम भी लाते थे। इस प्रकार, उन्होंने भी इस व्यापार में बेशुमार मुनाफा कमाया, जो बाद में अमेरिका के औद्योगिक विकास का आधार बना।

बेहद तेज गति से चीन की चाँदी बाहर जाने लगी। 1832-35 में दो करोड़ औंस चांदी चीन से बाहर चली गई। परिणामस्वरूप, देश में उसका भाव बेहद् चढ़ता गया। इसका बोझ किसानों पर पड़ा; क्योंकि इससे अनाज के दाम गिरते गए। लेकिन, जमींदारों और कर वसूलने वालों ने पहले से अधिक अनाज वसूल करना शुरू कर दिया। इसलिए चाँदी के रूप में उनकी आमदनी पहले जैसी ही बनी रही। इस तरह चीन के सामंती समाज में तनाव पहले से ज्यादा बढ़ता गया। यह सामाजिक तनाव पहले ही इतना बढ़ चुका था कि अठारहवीं शताब्दी के मध्य में किसान-विद्रोहों की एक नई लहर उठने लगी। 1810 ई० के बाद मंचू राजवंश के खिलाफ पहले से ज्यादा संख्या में और व्यापक पैमाने का विद्रोह हुए। 1813 ई० में तो विद्रोहियों का एक दल पेकिंग में सम्राट के राजमहल में भी घुस गया।

अपने को बचाने के उद्देश्य से मंचू राज्वंश के पेकिंग स्थित शासकों को मजबूर होकर कुछ कारगर कदम उठाने पड़े। अफीम के व्यापार की रोकथाम के लिए पहले से ज्यादा कड़े फरमान जारी करने के बाद, उन्होंने लिन चेश्वी को, जो अफीम के व्यापार पर प्रतिबंध का पक्का समर्थक् था, कैण्टन (क्वांगचो) का विशेष कमिश्नर नियुक्त कर दिया। लिन चेश्वी मार्च, 1839 में कैण्टन पहुंचा। जनता के समर्थन में उसने नगर के उस भाग की नाकेबंदी कर दी जिसमें बिटिश और अमेरिकी व्यापारियों को अपने व्यापारिक संस्थान कायम करने को अनुमति थी। उसने वहाँ के तमाम अफीम व्यापारियों को आदेश दिया कि वे अफीम का अपना सारा स्टॉक एक निश्चित अवधि के अंदर उसके हवाले कर दें। इस आदेश के बाद चीन-स्थित ब्रिटिश व्यापार अधीक्षक चार्ल्स इलियट को 20,000 पेटियों से ज्यादा अफीम, जिसका वजन 11 लाख 50 हजार किलोग्राम था, चीनी अधिकारियों के हवाले करना पड़ा। इनमें लगभग 1,500 पेटियां अमेरिकी व्यापारियों की थीं। 3 जून, 1839 को लिन चेश्वी ने एक अन्य आदेश जारी किया कि जब्त की हुई तमाम अफीम हूमन के समुद्रतट पर खुलेआम जला दी जाए। इस तरह तमाम अफीम जला देने के बाद लिन चेश्वी ने चीन और विटेन के बीच का सामान्य व्यापार पुनः शुरू करने का आदेश दिया। इसके साथ यह प्रतिबंध भी लगा दिया कि आगे से बिटिश व्यापारियों को किसी भी हालत में थोड़ी-सी भी अफीम चीन में लाने को अनुमति नहीं दी जाएगी। परिणामस्वरूप, पहला अफीम युद्ध छिड़ गया।

प्रथम अफीम युद्ध

विदेशी शक्तियों द्वारा किए गए आर्थिक शोषण, सामाजिक एवं राजनीतिक आदि कारणों वश प्रथम अफीम युद्ध छिड़ गया। इसमें पश्चिम के प्रमुख ‘सभ्य देशों की लोलुपता तथा चीन के बाहरी तौर पर शानदार दिखाई देने वाले सामती साम्राज्य के पिछड़ेपन और खोखलेपन की कलई चीनी जनता और समूचे विश्व के सामने खुल गई। जून, 1840 में ब्रिटेन ने अपने व्यापारियों की रक्षा करने के बहाने 40 से अधिक जहाज और 4,000 से अधिक सैनिक भेजकर चीन के कैण्टन (क्वांगतुंग) के तटवर्ती इलाके पर आक्रमण कर दिया। अफीम युद्ध इस प्रकार शुरू हुआ। क्वांगतुंग की जनता और सेना ने, जो इस हमले का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह तैयार थी, दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दिया। इसलिए ब्रिटिश आक्रमणकारी सेना क्वांगतुंग से हट गई और उसने फुच्येन प्रांत के श्यामन नामक स्थान पर हमला कर दिया, लेकिन वहाँ की जनता एवं सेना ने भी हमलावरों को उसी तरह मार भगाया। बाद में आक्रमणकारियों ने चच्यांग प्रांत के तटवर्ती शहर तिंगव्हेई पर हमला कर दिया और उस पर अधिकार कर लिया। फिर वे उत्तर की ओर बढ़े और अगस्त, 1840 में थ्येनचिन पहुँच गए। मंचू सरकार का इरादा तोपों की गरज के सामने डगमगाने लगा। अतः, उसने लिन चेश्वी को, जिसने अफीम के अवैध व्यापार को रोकने के लिए कठोर कदम उठाए थे, न केवल कार्यमुक्त कर दिया बल्कि दंडित भी किया और आत्मसमर्पण वादियों के सरदार छीशान को ब्रिटिश सेना से शांतिवार्ता के लिए क्वांगचो भेजा।

जनवरी, 1841 में बिटेन के साथ एक समझौता-पत्र’ पर हस्ताक्षर हुए और इसके अनुसार चीन को मजबूरन हांगकांग बिटेन् को देना पड़ा और क्वांगचो को व्यापारिक बंदरगाह के रूप में खोलना पड़ा। चीन को अपनी प्रादेशिक भूमि और हर्जाने की रकम एक अन्य देश ब्रिटेन को मजबूरन देनी पड़ी। इसे शाही सत्ता का अपमान समझा गया और चीनी सम्राट ने ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। इस युद्ध में चीनी सेना का नेतृत्व चीनी सम्राट का भतीजा ईशान ने संभाला । सेना क्वांगचो पहुँची। फरवरी, 1841 में ब्रिटिश सेना ने फिर एक बार हूमन पर हमला किया। देशभक्त सेनापति क्वान थ्येनफेड़ के निर्देशन में चीनी सैनिकों ने वहादुरी के साथ ब्रिटिश सेना से लोहा लिया। किंतु सुरक्षित स्थान नहीं मिल पाने के कारण अंत में सारे सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए। मई, 1841 में ब्रिटिश सेना ने क्वांगचो पर तोपों से गोलाबारी शुरू की। ईशान ने सफेद झंडा फहराकर आत्मसमर्पण कर दिया। ब्रिटिश सैनिकों ने क्वांगचो के उत्तरी उपनगर के सानयवानली नामक इलाके में खूब लूट-खसोट की। सानयवानली की जनता गुस्से से भर गई और उसने आसपास के अन्य 103 गांवों के किसानों के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना का मुकाबला किया तथा बहुत से हमलावरों को मार डाला या घायल कर दिया।

उधर ब्रिटिश सरकार को जब छ्वानपी समझौते का मसौदा प्राप्त हुआ तब वह बहुत अप्रसन्न हुई; क्योंकि उसके अनुसार मसौदे में चीनियों के प्रति बहुत नरमी दिखाई गई थी। उसने इस समझौते की पुष्टि करने के बजाय हेनरी पोटिगर को आदेश दिया कि वह 26 जंगी जहाजों और 3,500 सैनिकों को लेकर चीन-विरोधी आक्रमणकारी युद्ध का विस्तार कर दे। ब्रिटिश सेना ने अगस्त, 1841 में श्यामन पर और अक्टूबर, 1841 में तिंगहाई पर कब्जा कर लिया। कुछ समय बाद चनहाए और निंगपोनगर भी चीन के हाथ से निकल गए। जून, 1842 में ब्रिटिश सेना ने यांगत्सी नदी के मुहाने पर स्थित ऊसुंग पुर हमला किया तथा उसके बाद शंघाई व चनच्यांग को भी हथिया लिया। अगस्त, 1842 में ब्रिटिश जंगी जहाज नानकिंग के बाहर यांगत्सी नदी में दिखाई देने लगे। इससे मंचू सरकार आतंकित हो उठी और उसने अपमानजनक ‘चीन-ब्रिटेन नानकिंग संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए शाही कमिश्नर छींग को ब्रिटिश जंगी जहाज के साथ भेज दिया।

नानकिंग की संधि

मंचू सरकार ने हारकर ब्रिटेन से नानकिंग की संधि को। इस संधि में 13 धाराएँ थी। यह संधि चीन द्वारा विदेशी हमलावरों के साथ सम्पन्न की गई पहली असमान संधि थी। इस संधि में मुख्यतया यह निर्धारित किया गया कि क्वांगचो, फूचओ, श्यामन, निंगपो और शंघाई-इन पांचों शहरों को ब्रिटेन के व्यापार के लिए खोल दिया जाएगा; हांगकांग बिटेन को दे दिया जाएगा और चीन ब्रिटेन को 2 करोड़ 10 लाख चांदी के डालर (सिक्के) हर्जाने के तौर पर देगा। इसमें यह व्यवस्था भी थी कि ब्रिटिश माल के प्रवेश पर लगने वाला सीमा-शुल्क दोनों देशों की बात-चीत के जरिए निर्धारित किया जाएगा।

1843 ई० में ब्रिटेन ने मंचू सरकार को मजबूर कर नानकिंग संधि के पूरक दस्तावेजों-‘चीन के पांच शहरों में ब्रिटेन के व्यापार से संबद्ध सामान्य नियमावली’ और ‘चीन-ब्रिटेन हूमन संधि-पर भी हस्ताक्षर करवा लिए। इन दोनों दस्तावेजों में यह व्यवस्था की गई कि ब्रिटेन का जो भी माल चीन में आयात किया जाएगा या चीन से वाहर भेजा जाएगा उस पर 5 प्रतिशत से ज्यादा सीमा-शुल्क नहीं लगेगा तथा सुधि में निर्धारित पाँच शहरों में अंग्रेजों को अपनी बस्तियाँ वसाने के लिए पट्टे पर जमीन लेने की इजाजत होगी। (इस व्यवस्था से चीन में विदेशियों के लिए पट्टे पर भूमि लेने और उसपर विदेशी बस्तियाँ बसाने का रास्ता खुल गया। इसके अलावा विटेन ने चीन की धरती पर विदेशी कानून लागू करने और ‘विशेष सुविधा प्राप्त राष्ट्र का बर्ताव पाने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया।

1844 ई. में अमेरिका और फ्रांस ने मंचू सरकार को क्रमशः ‘चीन-अमेरिका वांगश्या संधि’ और ‘चीन-फ्रांस व्हांगफू संधि’ पर हस्ताक्षर करने को बाध्य किया। इन दो संधियों के जरिए अमेरिका और फ्रांस ने चीन से प्रादेशिक भूमि व हर्जाने को छोड़कर बाकी सभी ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त कर लिए जिनकी चर्चा नाकिंग संधि एवं उससे संबद्ध दस्तावेजों में की गई थी। इसके अलावा, अमेरिकियों ने अपने देश के व्यापार की सुरक्षा के लिए चीनी व्यापारिक बंदरगाहों में युद्ध-पोत भेजने और पाँच व्यापारिक बंदरगाह-शहरों में चर्च एवं अस्पताल बनाने के विशेषाधिकार भी प्राप्त कर लिए। इसी दौरान फ्रांसीसी भी मंचू सरकार को इस बात के लिए मजबूर करने में सफल हो गए कि वह व्यापारिक बंदरगाहों में रोमन कैथोलिकों की गतिविधियों पर लगा प्रतिबंध उठा ले, ताकि वे अपनी इच्छानुसार धर्म प्रचार कर सकें। जल्दी ही प्रोटेस्टेंट मिशनरियों ने भी यह अधिकार प्राप्त कर लिया।

नानकिंग की संधि और दूसरी असमान संधियों पर हस्ताक्षर होने के फलस्वरूप चीन एक प्रभुसत्तासंपन्न देश नहीं रहा। बड़ी मात्रा में विदेशी माल आने से चीन की सामंती अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे किंतु निश्चित रूप से विघटित होने लगी ।तब से चीन एक अर्द्ध औपनिवेशिक और अर्द्ध सामंती समाज में बदलता गया। चीनी राष्ट्र और विदेशी पूंजीपतियों के बीच का अंतर्विरोध धीरे-धीरे विकसित होकर प्रधान अंतविरोध बन् गया। इसी समय से चीन के क्रांतिकारी आंदोलन का लक्ष्य भी दोहरा हो गया अर्थात घरेलू सामंती शासकों के विरुद्ध संघर्ष करने के साथ-साथ विदेशी पूंजीवादी आक्रमणकारियों का विरोध करना।

अफीम युद्ध के बाद चीनी जनता विदेशी पूंजीपतियों और घरेलू सामंतवादी तत्वों के दोहरे उत्पीड़न का शिकार हो गई तथा उसके कष्ट बढ़ते गए। 1841 ई० से 1850 ई० के दौरान देश में 100 से अधिक किसान-विद्रोह’ हुए। 1851 ई० में अनेक छोटी-छोटी विद्रोहरूपी धाराओं ने आपस में मिलकर एक प्रचंड प्रवाह अर्थात् ताईपिंग विद्रोह का रूप ले लिया।

अफीम युद्ध का स्वरूप

अफीम युद्ध में चीन हारा और पश्चिम में प्रमुख ‘सभ्य देशों को लोलुपता तथा चीन के बाहरी तौर पर शानदार दिखाई देनेवाले सामंती साम्राज्य के पिछड़ेपन और खोखलेपन की कलई खुल गई। 1839 ई. से 1842 ई० के बीच ब्रिटिश सेना ने समुद्र के किनारे स्थित क्वांगचो, शंघाई, श्यामन (अमोय) और निंगपो आदि स्थानों पर कब्जा कर लिया। उत्तर चीन और दक्षिण चीन के बीच के मुख्य व्यापार-मार्ग-बड़ी शाही नहर को बर्बाद करने के उद्देश्य से बिटिश सेना चीन के भीतर प्रवेश कर गई। उनके द्वारा चीनी धन की काफी लूट-खसोट एवं हत्या की गई।

चीनी योद्धाओं ने ब्रिटिश सेना का वीरतापूर्वक मुकाबला किया। चीनी सेना की वीरता का वर्णन करते हुए एक अंग्रेज अधिकारी ने लिखा कि उनके बुलंद साहस अद्वितीय थे। यांगत्सी नदी के किनारे चनच्यांग में तैनात एक चौनी कमांडर अपने अधीन सब सैनिकों के मारे जाने के बाद ब्रिटिश संगीनों की नोक तक बढ़ता गया तथा दीवार के उस पार से दो मेनेडियरों को अपनी तरफ खींच लेने में सफल रहा और उनके साथ स्वयं भी मौत को गले लगा लिया। जब चनच्यांग नगर बर्बाद हो गया तब उसके गवर्नर हाएलिंग अपने घर लौटकर सारे सरकारी कागजात के साथ लकड़ी की चिता में भस्म हो गया।” बहुत से स्थानों में अधिकारियों एवं सिपाहियों ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया तथा अंग्रेजी औजारों का मुकाबला तीर-कमानों व तोड़ेदार बंदूकों से करने में असमर्थ होने के कारण अपने परिवार के सदस्यों को खत्म करने के बाद स्वयं आत्महत्या कर ली। इस युद्ध में करीब 500 ब्रिटिश सैनिक और 20,000 चीनी सैनिक मारे गए।

अफीम युद्ध का यह महत्वपूर्ण पक्ष था कि अंग्रेजों के विरुद्ध जिस एकमात्र लड़ाई में चीनी पक्ष की जीत हुई उसमें मुख्य भूमिका सामंती फौज की नहीं बल्कि किसानों की रही। मई-जून, 1841 में क्वांगचो के शाही अधिकारियों ने जब ब्रिटिश सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तब जाकुर नजदीक के ग्रामीणों ने विटिश् फौज को परास्त कर देहाती इलाके में धकेल दिया। सौ से ज्यादा गाँवों के कृषकों ने अंग्रेज-विरोधी एक लड़ाकू संगठन (फिंगई गथ्वान) बनाया। इस संगठन ने करीब 2,000 बिटिश सैनिकों को परास्त कर डाला।

चीनी जनता ने पहली बार प्रमाणित कर दिखाया कि देश की रक्षा के लिए पतनशील सामंती सरकार पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। उन्होंने साबित कर दिया कि ग्रामीण जनसमुदाय, घटिया हथियारों के बावजूद, आधुनिकतम हथियारों से लैस आक्रमणकारियों को अपने बल पर परास्त कर सकता था।

चीन की भ्रष्ट सामंती सरकार जनता की शक्ति को प्रोत्साहित करने में असमर्थ और अनिच्छुक रही। असमर्थता एवं दुलमुलपन के कारण उसने शीघ्र ही ब्रिटिश शक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

1840 ई० में जब ब्रिटिश नौबेड़ा पेकिंग से 90 मील दूर था तभी शाही दरबार में खलबली मच गई। उसने आक्रमणकारियों से समझौता वार्ता शुरू कर दिया। देशभक्त कमिश्नर लिन चेश्वी को पदच्युत एवं निर्वासित कर दिया गया; क्योंकि अफीम की होली जलाकर उसने युद्ध को आमंत्रण दिया था। कुछ ही दिनों पश्चात् शाही दरबार ने अपनी नीति पुनः बदल डाली तथा ब्रिटेन के साथ समझौता वार्ता करनेवाले प्रष्ट अधिकारी छीशान को कैद कर लिया । छीशान की संपत्ति जब सरकार द्वारा जब्त की गई, उस समय वह कोई 11,000 औंस् सोने, 1,70,000,00 औंस चाँदी, हीरे-जवाहरात की अनेक पेटियों तथा 4,27,000 एकड़ खेतिहर जमीन का मालिक था। इसके बावजूद छीशान चीनी अधिकारियों में सबसे धनी नहीं था।

अफीम युद्ध चीन के इतिहास का एक मोड़ था। इस युद्ध के बाद चीन के एक अर्द्ध-औपनिवेशिक व अर्द्ध-सामंती देश में कदम-ब-कदम रूपांतरित होने की प्रक्रिया शुरू हो गई। दरअसल, आधुनिक चीन का संपूर्ण इतिहास चीनी राष्ट्र द्वारा साम्राज्यवादियों व उनके पालतू कुत्तों के विरुद्ध लगातार संघर्ष करने का इतिहास है।

परिणाम

ब्रिटेन चीन में अपना अवैध अफीम व्यापार जारी रखने पर तुला हुआ था, इसलिए 1840 ई० में उसने चीन के विरुद्ध पहला अफीम युद्ध छेड़ दिया। चीनी जनता हमलावरों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में भाग लेने के लिए उठ खड़ी हुई। किंतु, प्रष्ट छिग सरकार ने विदेशी दुश्मन के सामने घुटने टेक देना ही बेहतर समझा। उसे डर था कि यदि अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रही तो देश की जनता उसमें भाग लेकर पहले से अधिक शक्तिशाली हो जाएगी और तब स्वयं छिग सरकार का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

युद्ध के परिणामस्वरूप चीन पर प्रथम बार अपमानजनक ‘असमान संधियाँ’ थोप दी गई। इन् संधियों ने चीन को राष्ट्रीय विनाश के कगार पर ला खड़ा कर दिया। छिंग शासकों ने 1843 ई० में ब्रिटेन के साथ नानकिंग की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। 1843 ई० को संधि के अनुसार-

(a) लिन चेश्वी भारा जब्त की गई और जलाई अफीम की क्षतिपूर्ति करनी होगी। यह इस विषैले पदार्थ के सभी भावी व्यापारियों के लिए सुरक्षा का आश्वासन था।

(b) हांगकांग ब्रिटेन को दे देना होगा। बाद में चलकर हांगकांग का प्रयोग ब्रिटेन ने चीन में अपनी सैनिक, राजनीतिक और आर्थिक घुसपैठ के अड्डे के रूप में किया।

(c) पाँच मुख्य बंदरगाहों को ब्रिटिश व्यापार एवं ब्रिटिश बस्तियों के लिए खोलना होगा। इससे शीघ्र ही ब्रिटेन के प्रभुत्ववाले प्रादेशिक क्षेत्र कायम हो गए। ये प्रादेशिक क्षेत्र चीन के बंदरगाहों की तथाकथित विदेशी बस्तियों के प्रारंभिक रूप थे।

(d) ब्रिटिश नागरिकों पर चीनी कानून लागू नहीं होंगे। इससे अन्य देशों को भी चीन को प्रादेशिक भूमि पर विदेशी कानून लागू करने की अनुमति मिल गई।

(e) चीन को ब्रिटेन का कृपापात्र बनकर रहना होगा। इसकी माँग अन्य शक्तियों द्वारा भी की गई और इस प्रकार सभी विदेशियों को वे ‘विशेषाधिकार प्राप्त हो गए जिन्हें ब्रिटिश आक्रमणकारियों ने चीन से ऐंठ लिया था।

(f) चीन विदेशी माल पर 5 प्रतिशत से ज्यादा आयात-कर न लगाने का वचन देगा। यह चीन के घरेलू उद्योग के विकास के लिए घातक सावित हुआ।

चीन को निर्बल देख अन्य विदेशी शक्तियों के दूत भी अपने नौपोतों पर सवार होकर ऐसी ही संधियाँ थोपने आ पहुंचे। पहला दूत संयुक्त राज्य अमेरिका से आया जिसका नाम था कालेब कुशिंग। उसने कमजोर पेंकिंग दूरबार को लापरवाह ढंग से सूचित किया कि यदि उसने समझौता-वार्ता से इनकार किया तो इसे ‘राष्ट्रीय अपमान और युद्ध का न्यायोचित कारण समझा जाएगा । 1844 ई० में चीनी सरकार को वांगश्या संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए अमेरिकी दूत कुशिंग ने बाध्य कर दिया। इस संधि के अनुसार चीन के सामंती शासकों ने जितना विशेषाधिकार ब्रिटेन को दिया था उससे अधिक विशेषाधिकार अमेरिका को प्राप्त हुआ। कुशिंग की यह संधि व्यवहार में तस्करों के लिए वरदान सिद्ध हुई।

अमेरिका के साथ हुई संधि को देख ब्रिटेन ने चीन से और कुछ प्राप्त करना चाहा। 1847 ई० में उसने चीन पर दबाव डाला कि ब्रिटेन द्वारा शासित भारत और पश्चिमी तिब्बत के बीच की सीमा को औपचारिक रूप से निर्धारित कर दिया जाए, ताकि अपने इच्छानुसार वह जो सीमा-रेखा चाहे चीन पर थोप सके। तिब्बत में घुसपैठ करने और उसे चीन से अलग करने का हर विदेशी प्रयास समूचे चीन पर साम्राज्यवादियों के आक्रमण की प्रक्रिया और विभाजन के प्रयास का ही एक अभिन्न अंग था।

अफीम युद्ध के संबंध में एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ईसाई मिशनरियों ने चीन की स्थिति और चीनी भाषा की जानकारी का फायदा उठाकर चीन को अपमानित करने का प्रयास किया; जबकि चीन में वे केवल ईसाई धर्म का प्रचार करने आए थे।

डॉ० गुत्जलाफ नामक एक पादरी ने ब्रिटिश अफीम कंपनी के बिचौलिए के रूप में काम किया था तथा पुरस्कार के रूप में अपनी धार्मिक पुत्रिका के लिए अनुदान प्राप्त किया था। वह बाद में चलकर ब्रिटिश फौज का दुभाषिया और गुप्तचर संगठनकर्ता बन गया। ब्रिटेन के लिए गुप्तचरी करने के लिए उसने चीनी जासूस भर्ती किए थे। ब्रिटिश सेना ने जब तिंगहाए नगर आदि पर अधिकार कर लिया तब निंगपो नामक बंदरगाह का प्रशासक गुत्जलाफ को बनाया गया। बाद में वह हांगकांग की ब्रिटिश सरकार में ‘चीनी मामलों का सचिव बन गया।

अमेरिका के साथ हुई वांगश्या संधि के दौरान भी अमेरिकी ईसाई मिशनरी विलियम्स, ब्रिजमैन और पार्कर ने ही अमेरिकी दूत कुशिंग को सलाह दी थी कि वह एक ऐसा रूख अपनाए जिससे चीन ‘झुक जाए या टूट जाए।’

युद्ध के दौरान विटेन ने सभी को यह आश्वासन दिया कि यह लड़ाई अफीम के लिए नहीं बल्कि चीन को यह सिखाने के लिए की जा रही थी कि वह प्रगति और स्वतंत्र व्यापार का विरोध न करे। 1850 ई० में भारत की ब्रिटिश सरकार को अफीम के व्यापार से होनेवाला मुनाफा उसके कुल राजस्व के 20 प्रतिशत तक पहुँच गया, जबकि चीन इस व्यापार के कारण शक्तिहीन एवं निर्धन बनता गया।

चीन में अफीम का ‘कानूनी’ आयात 1917 ई० तक जारी रहा। चीन की भूमि पर विदेशियों को प्राप्त प्रशासनिक रियायतों को और अधिक विस्तार व आक्रमण करने के लिए स्प्रिंगबोर्ड के रूप में इस्तेमाल किया गया। देश का घरेलू बाजार विदेशी माल से पाट दिया गया। चीन एक अर्द्ध-औपनिवेशिक एवं अर्द्ध-सामंती देश बन गया।

विदेशी हमलावरों को हर्जाने की बहुत बड़ी रकम भुगतान करने के लिए देश की जनता से छिंग सरकार ने हर तरह से धन ऐंठना शुरू किया। जनता कराह उठी और चीन के इतिहास में सबसे बड़े क्रांतिकारी किसान आंदोलन की तस्वीर बनी।

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Pankaja Singh

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