प्रथम विश्वयुद्ध के कारण | प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएँ | प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम (प्रभाव)

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण | प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएँ | प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम (प्रभाव)

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण

(Causes of the First World War)

प्रथम विश्वयुद्ध अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता, आयुधों की होड़, विकृत राष्ट्रवाद, समाचारपत्रों के सुर्थीदार समाचार छापने तथा अंत में बोस्निया को राजधानी सेराजेवो में आस्ट्रिया के युवराज हत्या, जिसमें सर्बिया के सैनिक अफसर शामिल थे, का परिणाम था। प्रथम विश्वयुद्ध एक ऐसा युद्ध था जिसने पूरे विश्व को झकझोर दिया और उसकी घटनाओं से पूरा विश्व प्रभावित हुआ।

यूरोपीय कूटनीतिक व्यवस्था- प्रथम विश्वयुद्ध के लिए यूरोपीय कूटनीतिक व्यवस्था काफी हद तक जिम्मेवार थी। 1871 ई० में जुर्मनी के एकीकरण के पश्चात् विस्मार्क ने घोषित किया कि जर्मनी तुप्त और संतुष्ट राष्ट्र है और वह क्षेत्रीय फैलाव नहीं चाहता है। फिर भी उसने एल्सास और लोरेन फ्रांस से लेकर फ्रांस को आहत कर दिया, जिससे उसे सदैव भय रहता था कि फ्रांस यूरोप में दूसरे राष्ट्रों से दोस्ती करके जर्मनी से बदला लेने की कोशिश करेगा। इसलिए बिस्मार्क फ्रांस को अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एकाकी रखने के लिए कूटनीतिक जाल बुनने लगा। उसने 1879 ई० में द्वैध संधि (dual alliance) आस्ट्रिया के साथ की। यद्यपि यह संधि रक्षात्मक धी, फिर भी संधि की शर्ते गुप्त थीं, अत: यूरोप में शंका का वातावरण व्याप्त हो गया। 1882 ई० में द्वैध संधि में इटली को शामिल कर इसे त्रिवर्गीय संधि (triple allilance), बना दिया गया। फिर भी बिस्मार्क रूस की सदिच्छा नहीं खोना चाहता था और उसकी फ्रांस से मिलने नहीं देना चाहता था. इसलिए उसने 1871, 1881 एवं 1887 ई० में रूस से संधि कर उसको अपने पक्ष में मिलाए रखा और फ्रांस को मित्रहीन बनाए रखा। परंतु, 1890 ई० में उसके चांसलर के पद से हटने पर जर्मन सम्राट विलियम स्वयं परराष्ट्र-नौ श का संचालन करने लगा। उसमें योग्यता एवं दूरदर्शिता का अभाव था, फलतः फ्रांस ने 1894 ई० में रूस से मित्रता कर लो। 19वीं शताब्दी में इंगलैण्ड ने ‘श्रेष्ठ एकाकीपन’ (Grand isolation) बनाए रखा। लेकिन, जब बिस्मार्क अपना कूटनीतिक जाल बुन्ने लगा और 1890 ई० में उसके पतन के बाद फ्रांस और रूस में 1894 ई० में मित्रता हो गई तो इंगलेण्ड भी यूरोप में मित्र को तलाश करने लगा। सर्वप्रथम उसने जर्मनी से मित्रता करनी चाही, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली तो उसने 1907 ई० में जापान से संधि की। फिर 1904 ई० में इंगलैंड और फ्रांस में समझौता हुआ। 1907 ई० में इंगलैंड, फ्रांस और रूस ने मिलकर एक समझौता किया जिसे त्रिराष्ट्रीय समझौता या त्रिवर्गीय मैत्री संघ (riple entente) कहा जाता है। इन दोनों गुटों को प्रतिद्वंद्विता बढ़ती रही और अंत में ये दोनों गुट 1914 ई० में प्रथम विश्वयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ने में संलग्न हो गए।

साम्राज्यवाद- साम्राज्यवाद 19वीं शताब्दी के अंत में यूरोप के लिए एक समस्या बन गया। वास्तव में जर्मनी और इटली के एकीकरण के पहले ही यूरोपीय राज्यों ने अपना साम्राज्य एशिया और अफ्रीका में स्थापित कर लिया था। प्रशा में जर्मनी के एकीकरण के पहले ही उद्योगीकरण शुरू हो गया था और एकीकरण के बाद उद्योगीकरण की गति काफी तीव्र हो गई। इसी तरह इटली के एकीकरण के बाद वहाँ भी उद्योगीकरण तेजी से होने लगा। अब इन देशों के समक्ष अपने-अपने उपनिवेश कायम करने की समस्या थी, क्योंकि उनके देशों के उद्योगपतियों के लिए कच्चे माल लाने और तैयार माल बेचने के लिए बाजार चाहिए था। जब तक बिस्मार्क चांसलर रहा, उसने जर्मनी को साम्राज्यवादी युद्धों में शामिल नहीं होने दिया, लेकिन उसके पतन के बाद कैसर विलियम द्वितीय उपनिवेश की माँग करने लगा। वास्तव में जर्मनी के एकीकरण में प्रशा के पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों ने इस आशा में काफी मदद की थी कि जर्मनी के एकीकरण होने पर उनके उद्योगों द्वारा उत्पादित मालों को बेचने के लिए जर्मनी भी अपना उपनिवेश बसाएगा। लेकिन, जब तक विस्मार्क चांसलर के पद पर विराजमान रहा और उसका प्रभाव शासन पर कायम रहा तब तक उसने साम्राज्यवादी विस्तार और युद्ध से जर्मनी को अलग रखा। 1890 ई० में जर्मन डायट में जर्मन सम्राट कैसर विलियम ने भाषण करते हुए कहा कि “जर्मनी को भी सूर्य के नीचे जगह चाहिए।” अर्थात् जर्मनी को भी अपने उद्योगों को चलाने के लिए उपनिवेश चाहिए। विस्मार्क को 1890 ई. में पदत्याग करना पड़ा और तब से कैसर विलियम स्वयं परराष्ट्र नीति भी संभालने लगा। वह जर्मन उद्योगपतियों के प्रभाव में पूर्णत: कार्य करने लगा और जब उसने बर्लिन-बगदाद रेल लाइन की योजना पेश की तो इंगलैंड घबड़ा गया और जर्मनी को वह अपना अब्बल शत्रु समझने लगा।

इतना ही नहीं, अभी तक इंगलैंड की नौ-सेना काफी शक्तिशाली थी और उसकी समुद्री शक्ति को कोई देश चुनौती देने के काबिल नहीं था। लेकिन, जब जर्मनी ने साम्राज्यवादी नीति अख्तियार की तो वह अपनी नो-सेना को भी मजबूत करने लगा जिसे इंगलैंड ने एक चुनौती के रूप में लिया।

औद्योगिक रूप से यूरोप के विकसित देशों के पूँजीपति अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल और उत्पादित सामग्री को बेचने के लिए उपनिवेशों की अनिवार्यता को महसूस करते थे। इसके अलावा अपने देश में अधिक मजदूरी देने के डर से वे विदेशों में पूर्जी लगाना चाहते थे, ताकि कम मजदूरी देने पर भी अधिक काम कराया जा सके और उत्पादन बढ़ाकर अधिक मुनाफा कमाया जा सके। लेकिन, इस पूँजी निवेश की सुरक्षा तभी हो सकती थी जब उस क्षेत्र पर किसी न किसी तरह का राजनीतिक प्रभुत्व उनकी मातृभूमि का रहे । यह कार्य युद्ध कर संबद्ध देश को पराजित कर ही संभव था। लेकिन, एक समय ऐसा भी आया जब सारे अफ्रीका एवं एशिया के अविकसित भू-भाग पर यूरोपीय देशों का आधिपत्य हो गया तथा जर्मनी और इटली बाद में साम्राज्यवादी युद्धों में शामिल होने के कारण अतृप्त रह गए। परिणामतः ये देश वैसे देशों से उपनिवेश छीनना चाहते थे जिन्होंने पहले ही अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया था, जबकि दूसरे वर्ग के देश ‘यथास्थिति’ में अपना आर्थिक हित समझते थे। ऐसी हालत में संघर्ष अवश्यंभावी हो गया।

विकृत राष्ट्रवाद- विकृत राष्ट्रवाद भी प्रथम विश्वयुद्ध के लिए बहुत हद तुक जिम्मेवार था। राष्ट्रवाद का उदय फ्रांस की क्रांति का एक परिणाम था। यह जर्मनी और इटली के एकीकरण में रक्षात्मक रूप में खूब उभरा। लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रवाद उग्र रूप धारण करने लगा और साम्राज्यवादी मनोवृत्ति ने उसे और विकृत कर दिया। जर्मनी के राष्ट्रवादी फ्रांस के विरूद्ध थे और फ्रांस के राष्ट्रवादी जर्मनी का नामोनिशान मिटा देना चाहते थे। वे 1871 ई. की अपुमानुजनक संधि को नहीं भूले थे। इस बीच राष्ट्रीयता के उदय से बाल्कन क्षेत्र में समस्याएँ और जटिल हो गई। क्योंकि बोस्निया और हर्जेगोविना आस्ट्रिया को दे दिया गया जिसमें सर्वजाति के लोग रहते थे और इस संबंध में सर्बिया के दावे को ठुकरा दिया गया। उधर सर्बिया के लोग स्लाव वंश के थे, अत: रूस अपने को उनके हितों का रक्षक समझता था, जबकि ऑस्ट्रिया किसी भी तरह बोस्निया और हर्जेगोविना को छोड़ना नहीं चाहता था। उसी तरह बुल्गर, चेक, पोल इत्यादि जातियाँ भी अपने स्वतंत्र राष्ट्र की कामना करती थीं। राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा विकृत रूप यह था कि कुछ जातियों अपने को सर्वश्रेष्ठ समदाने लगी और अन्य जातियों पर अपना शासन स्थापित करना अपना अधिकार समझने लगीं। अतिशय राष्ट्रवाद प्रथम विश्वयुद्ध के लिए बहुत हद तक जिम्मेवाद था; क्योंकि जर्मनी की उग्रवादी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण यूरोप के दूसरे देश चिंतित हो गए और उसे किसी भी तरह पराजित करने का अवसर ढूँढने लगे ।

सैन्यवाद- प्रथम विश्वयुद्ध के लिए सैन्यवाद भी काफी जिम्मेवार था । वास्तव में फ्रांस की क्रांति के साथ सैन्यवाद का जन्म हुआ और इटली एवं जर्मनी के एकीकरण के समय तक सैन्यवाद का काफी विकास हुआ। धीरे-धीरे सेना के उच्च अधिकारी राजनीतिज्ञों पर हावी होने लगे और हम जानते हैं कि 1871 ई० में बिस्मार्क जैसा चांसलर को भी अपने सेनानायकों की इच्छाओं के सामने झुककर एल्सास और लोरेन को फ़्रांस से लेना पड़ा। धीरे-धीरे ये सेना के पदाधिकारी उदंड (arrogant) होकर राजनीतिज्ञों पर हावी हो गए, किंतु ये सेना के अधिकारी देश के अन्य मामलों में कम रुचि रखते थे। उनका ध्यान केवल युद्ध पर था। हम जानते हैं कि युद्ध की योजना शत्रु के विरुद्ध पहले ही बना ली जाती हैं। इस कूटनीतिक प्रतिद्वंद्विता के युग में ये सैनिक पदाधिकारी युद्ध की तैयारी बहुत ही पहले कर लेते थे और यह सर्वविदित है कि जो पहले आक्रमण करता है, वह लाभ में रहता है। लेकिन, एक बार आक्रमण हो जाने पर युद्ध रोकुना असंभव हो जाता है। सैनिक पदाधिकारी युद्ध की संभावना को ताक में सदैव रहते हैं; क्योंकि युद्ध के समय उनका महत्व बढ़ जाता है, उन्हें रणकौशल दिखाने का मौका मिलता है तथा पदोन्नति की संभावना भी बढ़ है। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले सैनिक पदाधिकारी राजनीतिज्ञों की जानकारी के विना हो षड्यन्त्र कर युद्ध के लिए राजनीतिज्ञों पर हावी हो गए। साम्राज्यवादी विस्तार के लिए सेना तथा नौ सेना बढ़ाने की होड़ लग गई। यह स्थिति युद्ध के लिए काफी हद तक उत्तरदायी थी।

समाचार-पत्रों की भूमिका- समाचारपत्रों ने भी युद्ध भड़काने में काफी हाथ बंटाया। 18वीं और 19वीं शताब्दी के शुरू के वर्षों में जनमत का कोई महत्व नहीं था। लेकिन, फ्रांस की 1830 और 1848 ई० की क्रांति और उनके परिणामस्वरूप हुए यूरोप में राजनीतिक चेतना तथा इटली और जर्मनी के एकीकरण में समाचार-पत्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके बाद के वर्षों में भी किसी देश की राजनीतिक घटना का प्रभाव उस देश की सरकार से संबंद्ध लोगों पर ही नहीं पड़ता था, बल्कि वहाँ की जनता भी उस घटना से अपने को संबद्ध कर लेती थी और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी। फलस्वरूप, राष्ट्रवाद के उदय एवं साम्राज्यवाद के विस्तार ने यूरोपीय जनता से राजनीतिक घटनाओं को जोड़ दिया। फलस्वरूप, संबंद्ध देश की जनता समाचार-पत्रों द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने लगी। ये समाचार-पत्र अपना महत्व बढ़ाने के लिए सुर्थीदार समाचार छापने लगे, जिससे उग्र जनमत का उदय हुआ। 1871 ई० के बाद फ्रांस का जनमत निश्चित रूप से जर्मनी के विरुद्ध था। बोस्निया, हर्जेगोविना और सर्बिया की जनता ऑस्ट्रिया के विरुद्ध थी और रूस की जनता स्लाव जाति होने के कारण बाल्कन देर्शो के साथ थी। इसी तरह 1890 ई. के बाद इंगलैंड की जनता जर्मनी को अपना शत्रु समझने लगी; क्योंकि वह इंगलैंड के साम्राज्यवाद में रोड़ा अटकाने लगा था। जर्मनी और इटली भी फ्रांस और इंगलैंड के विरुद्ध थे। इस तरह हम देखते हैं कि समाचारपत्र विभिन्न देशों में अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध जनमत तैयार करने लगे और यह जनमत राजनीतिज्ञों को प्रभावित करने लगा।

मार्क्सवादी विचार- मार्क्सवादी इतिहासकारों का विचार है कि प्रथम विश्वयुद्ध बड़ी-बड़ी हथियार बनानेवाली कंपनियों द्वारा अपनी सरकारों पर युद्ध करने के लिए दबाव के कारण हुआ। ये कंपनियाँ अपने हथियार बेचना चाहती थी और यह तभी संभव था जब युद्ध आसन्न हो या युद्ध चल रहा हो। जर्मनी में सैन्यवाद के उभरने से हथियारों की मांग बढ़ी और 1890 ई. में जर्मनी जब ‘सूर्य के नीचे भूमि’ की खोज में लगा तो हथियारों की मांग और बढ़ी। इसके साथ ही गुप्त-संधियों के जाल से जब यूरोप गर्माया और बाल्कन के युद्धों ने त्रिवर्गीय संधि (triple alliance) के देशों और त्रिवर्गीय मैत्री संघ (triple entente) में कुडुवाहट पैदा की, तो हथियारों की मांग और बढ़ी। इस मांग की पूर्ति के लिए संबंद्ध देशों के पूंजीपतियों ने कारखाने बनाकर बड़ी तादाद में हथियार बनाने शुरू किए, जिनको बिक्री युद्ध के समय ही हो सकती थी। इन पूंजीपतियों को हथियार के कारखानों से ज्यादा फायदा हो रहा था और इन्होंने पैसा खर्च कर अपने-अपने देशों की‌  सरकारों को युद्ध के लिए प्रेरित करना शुरू किया। प्रचार माध्यमों पर भी इनका काफी प्रभाव था, परिणामतः प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल ये युद्धाग्नि भड़काने के लिए करते थे, क्योंकि युद्ध की स्थिति में इनके हथियारों के अधिक बिकने की गुंजाइश थी जिससे इनको अधिक मुनाफा मिलता।

फ्रांस के बदले की भावना- जर्मनी 1870 ई० में फ्रांस को पराजित कर संतुष्ट नहीं हुआ। वर्साय के राजप्रासाद में प्रशा के राजा को जर्मनी का सम्राट घोषित किया गया और फ्रांस से एल्सास और लोरेन ले लिया गया। स्वाभिमानी फ्रांसीसी इस राष्ट्रीय अपमान को कभी नहीं भूल पाए। जले पर नमक छिड़कने के लिए जर्मनी ने मोरक्को में भी फ्रांस का विरोध किया। इससे फ्रांस में जर्मनी के विरुद्ध विद्वेष की भावना बढ़ी। वहाँ के कई राजनीतिक नेताओं तथा चिंतकों ने उत्तेजनापूर्ण लेखों से लोगों को जर्मनी के विरुद्ध उत्तेजित करना शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस ने आक्रामक कूटनीतिक जाल बुनना शुरू किया और इंगलैंड और रूस से मित्रता की। फ्रांस किसी भी तरह जर्मनी से अपने राष्ट्रीय अपमान का बदला लेना चाहता था और प्रथम विश्वयुद्ध में ही वह ऐसा मौका देख रहा था।

अंतर्राष्ट्रीय अराजकता- 1879 ई० में बिस्मार्क ने जिस कूटनीतिक जाल को बुनना शुरू किया, उसका एक स्वरूप संधि की शर्तों को गुप्त रखना था। ऐसी स्थिति में शंका और भय का वातावरण यूरोप में व्याप्त हो गया। इसके अलावा यूरोपीय अपने छोटे-से-छोटे स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी संधि की शर्त को तोड़ने में नहीं हिचक रहे थे। रूस 1878 ई० के बर्लिन कांग्रेस के बाद जर्मनी से नफरत करता था, फिर भी वह उसके बाद् जर्मनी से मित्रवत् बने रहने का वादा करता रहा। उसी तरह जर्मनी एक तरफ ऑस्ट्रिया के हितों की रक्षा की बात करता था तो दूसरी तरफ रूस से मित्रता के लिए वह 1890 ई. तक कुछ भी करने को तैयार था। इंगलैंड फ्रांस से सैद्धांतिक स्तर पर मित्रता की बात नहीं कर अपने साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए जर्मनी के विरुद्ध मित्र की तलाश कर रहा था। इटली जर्मनी और ऑस्ट्रिया के साथ रहते हुए अपने हितों को साधने के लिए दूसरे गुट से भी संपर्क बनाए हुए था जिसका इजहार युद्ध शुरू होने के तुरंत बाद उसने त्रिवर्गीय मैत्री संघ में शामिल होकर किया। इस प्रकार यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंतर्राष्ट्रीय अराजकता फैली हुई थी जिसमें संधि की शर्तों की अवहेलना और मित्रवत् रहने पर भी शत्रुवत षड्यन्त्र करना आम बात हो गई थी। ऐसे समय में प्रथम विश्वयुद्ध अवश्यंभावी हो गया।

बाल्कन क्षेत्र की जटिलता- बाल्कन क्षेत्र की जटिल समस्या ने त्रिवर्गीय संधि और त्रिवर्गीय मैत्री संघ के सदस्यों को आमने-सामने ला खड़ा किया। वास्तव में एक तरफ यदि रूस धर्म और जाति के नाम पर अपने को स्लाव जाति का संरक्षक समझता था तो दूसरी तरफ ऑस्ट्रिया किसी भी तरह से सर्व आंदोलन को दबाकर उस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था। ये बातें उतनी उप नहीं होतीं यदि सर्बिया को रूस की सहायता का आश्वासन नहीं होता और रूस की पीठ पर फ़्रांस और इंगलैंड के समर्थन की बात नहीं होती। इसी तरह ऑस्ट्रिया भी बाल्कन क्षेत्र में अकेले युद्ध करने की हिम्मत नहीं करता यदि उसे युद्ध के समय जर्मनी और इटली का समर्थन मिलने की आशा नहीं रहती। इसीलिए, कहा जाता है कि “प्रथम विश्वयुद्ध दो घोड़ों (सर्बिया और ऑस्ट्रिया) का युद्ध था, घुड़सवार बाद में इस युद्ध में शामिल हुए।”

तात्कालिक कारण- प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में एक सर्व द्वारा ऑस्ट्रिया के युवराज और उसकी पत्नी की हत्या था। ऑस्ट्रिया की सरकार इसके लिए सर्बिया को दोषी मानती थी और उसने एक अल्टीमेटम भेजा जिसकी सभी शर्तों को सर्बिया के लिए मानना असंभव था। फिर भी ऑस्ट्रिया की कुछ मांग सर्बिया ने स्वीकार कर ली और बाकी मांगों पर उसने पुनर्विचार करने के लिए आवेदन किया जिसे ऑस्ट्रिया ने अस्वीकार कर दिया। अपनी मांगों की पूर्ति न होने पर ऑस्ट्रिया ने 28 जुलाई, 1914 को सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 30 जुलाई, 1914 को रूस ने अपनी सेना को प्रस्थान करने की आज्ञा दी। 31 जुलाई को ऑस्ट्रिया और 1 अगस्त को जर्मनी ने अपनी सेना का प्रस्थान कराया। इस तरह प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ जो त्रिगुट संधि एवं ट्रिपुल अतां के देशों के मध्य हुआ।

युद्ध-संचालन (Conduction of the War)

प्रथम विश्वयुद्ध नए-नए हथियारों से लड़ा गया। इस लड़ाई में पनडुब्बियों का व्यवहार हुआ तथा टैंक भी बड़े पैमाने पर उपयोग में लाए गए। हवाई जहाज का भी प्रयोग प्रथम विश्वयुद्ध से शुरू हुआ। लड़ाई के कई नए तरीके भी अपनाए गए, जैसे-खाई खोदकर लड़ाई करना। इस भयंकर लड़ाई में असंख्य लोगों को जानें गई और काफी संपत्ति भी नष्ट हुई। अंत में ट्रिपुल अतां के देशों के विजय हुई और पेरिस शांति-सम्मेलन के साथ प्रथम विश्वयुद्ध का अंत हुआ।

प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएँ

(Important Events of the First World War)

सर्बिया की राजधानी में ऑस्ट्रिया के युवराज की हत्या से प्रथम विश्वयुद्ध का श्रीगणेश हुआ।ऑस्ट्रिया के अल्टीमेटम देने पर रूस चुप नहीं बैठा रहा। बाल्कन प्रायद्वीप की समस्याओं में रूसे शुरू से ही दिलचस्पी लेता रहा था। सर्बिया के निवासी स्लाव लोग उसी जाति के थे जिस जाति के रूस के लोग। अत: वह सर्बिया को असहाय नहीं छोड़ सकता था। रूस ने इस मामले को यूरोप की सभी शक्तियों के सम्मुख रखने को कहा, लेकिन ऑस्ट्रिया अपनी जिद पर अड़ा रहा। जर्मनी उसका साथ देने के लिए तैयार था। रूस ने अपनी फौजे एकत्र करनी शुरू कर दी। रूस के विरोध के कारण जर्मनी भी मैदान में उतर आया; क्योंकि वह त्रिगुट संघ की शर्तों से बाध्य था। रूस के विरुद्ध युद्ध का अर्थ फ्रांस से भी युद्ध करना था, क्योंकि रूस और फ्रांस दोनों त्रिगुट संघ के सदस्य थे। इंगलैंड को भी त्रिगुट संघ के सदस्य होने के नाते युद्ध में शामिल होना पड़ा। जर्मनी फ्रांस पर आक्रमण करने के लिए बेल्जियम से स्वतंत्र मार्ग माँगता था। बेल्जियम तटस्थ देश था । बेल्जियम के अस्वीकार करने पर जर्मनी ने उस पर आक्रमण कर दिया । उसकी रक्षा के लिए इंगलैंड को मैदान में आना पड़ा। दूसरा कारण यह था कि इंगलैण्ड नहीं चाहता था कि उसके सामने के दूसरे तट पर किसी सशक्त राष्ट्र का अधिकार हो। बेल्जियम पर जर्मनी के अधिकार होने से इंगलैंड के सामने यूरोपीय समुद्री तट पर जर्मनी डट जाता। अतः, इन कारणों से इंगलैंड को युद्ध में भाग लेना पड़ा।

इटली ने में किसी का साथ नहीं दिया। यद्यपि वह त्रिगुट संघु का सदस्य था, फिर भी उसने घोषित किया कि उसके साथी रक्षात्मक युद्ध नहीं कर रहे हैं, अतः वह युद्ध से अलग रहा। लेकिन, कुछ समय के बाद 1915 ई० में वह इंगलैंड, फ्रांस और रूस की ओर से मैदान में आ गया।

कुछ अन्य राष्ट्र भी युद्ध में सम्मिलित हो गए। नवम्बर, 1914 में जापान जर्मनी के विरूद्ध युद्ध में कूद पड़ा। इधर तुर्की जर्मनी और ऑस्ट्रिया के पक्ष से युद्ध में आ गया। 1917 ई० में संयुक्त राज्य अमेरिका जर्मनी और ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित हो गया। बुल्गेरिया ने जर्मनी का साथ दिया और मांटैनीमो ने ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। कुछ ही समय में लिबेरिया, चीन, श्याम तथा दक्षिणी अमेरिका के बहुत से राज्य युद्धभूमि में उतर पड़े। इस प्रकार, सभ्य संसार के प्रायः सभी देश किसी-न-किसी रूप में युद्ध में संलग्न हो गए।

जर्मनी ने बेल्जियम पर सर्वप्रथम आक्रमण किया । बेल्जियम के निवासियों ने बड़ी वीरता से जर्मन फौजों का सामना किया, लेकिन जर्मनों की संख्या अधिक थी, अतः लीज (Liege) और नामूर (Namur) की लड़ाइयों में वे पराजित हो गए। 20 अगस्त, 1914 को बेल्जियम की राजधानी बसेल्स पर जर्मनी का अधिकार हो गया।

जर्मन सैनिकों ने तीन ओर से फ्रांस पर आक्रमण किया। फ्रेंच फौजों ने उनका सामना किया, लेकिन उनकी प्रगति के सामने टिकना कठिन हो गया। शीघ्र ही जर्मन फौजें पेरिस से पंद्रह मील की दूरी पर पहुंच गई। फ्रांसीसी सरकार का केंद्र बोरदो (Bordeaux) में स्थापित हो गया। जर्मन सेना वॉन क्लक (Kluck) के नेतृत्व में मार्न नदी तक पहुंच गई थी। मित्रराष्ट्र की सेना जनरल जाफरे के नेतृत्व में लड़ राही थी । जर्मनी की सेना की तीव्र प्रगति के कारण उसकी सभी सेनाएँ अस्त-व्यस्त हो गई। इस मौके से जेनरल फॉस (Foch) ने लाभ उठाया। उसने जर्मनी की अगली और उसके पीछेवाली सेना में बहुत बड़ा अंतर ला दिया। लाचार होकर जर्मन फौजों को पीछे हटना पड़ा। मार्न नदी के युद्ध से फ्रांस की रक्षा हो गई। मित्रराष्ट्रों को अपनी सैन्य योजना के लिए समय मिल गया।

फ्रांस में जब जर्मनी को शीघ सफलता न् मिली तो उसने बेल्जियम पर पूरी तरह अधिकार कर लिया। वहाँ से उसुने कैले की ओर बढ़ने की योजना बनाई। जर्मनी कैले से इंगलिश चैनेल पार कर इंगलैंड पर आक्रमण करना चाहता था। लेकिन, फ्रांस और इंगलैंड की संयुक्त सेना ने जर्मनी की प्रगति रोक दी। इस प्रकार कैले की रक्षा हो गई और इंगलैंड पर आक्रमण न हो सका।

जर्मनी ने फ्रांस में वर्दून तथा सादिये के बीच अनेक स्थानों पर अधिकार स्थापित कर लिया था। उत्तर पूर्वी-फ्रांस का बहुत बड़ा भाग जर्मनी के कब्जे में आ गया था। यह भाग धन-धान्य से परिपूर्ण था। दोनों ओर को सेनाएँ मैदान में डटी रहीं। स्विटजरलैण्ड से उत्तरी सागर तक खांइयां खोदी गई। इस क्षेत्र में चार वर्षों तक निरंतर युद्ध होता रहा; न तो जर्मन सेनाएँ पीछे हटीं, न मित्रराष्ट्रों की फौजे आगे बढ़ीं।

रूस् अत्यंत् शीघ्रता से युद्धभूमि में आ गया। उसने पूर्वी प्रशा पर आक्रमण किया, लेकिन हिंडेनबर्ग ने रूस को टैनेमबर्ग (Tannenberg) की लड़ाई में पराजित कर दिया और रूसी फौजों को जर्मनी से खदेड़ दिया। ऑस्ट्रिया के विरुद्ध रूस को अधिक सफलता मिली । रूसियों ने गैलेसिया पर अधिकार कर लिया। कारपेथियन पहाड़ियों (Carpathian mountains) पर उनका कब्जा हो गया, जहां से वे हंगरी पर सुगमता से आक्रमण कर सकते थे। यहाँ जर्मनी ने ऑस्ट्रिया की सहायता की । रूसी फौजे गैलेसिया (Galicia) से खदेड़ दी गई और वारसा पर जर्मनी का अधिकार हो गया। इसके बाद उसने रूस की सीमा के अंदर उत्तर से दक्षिण तक एक सैनिक पंक्ति खड़ी कर दी।

जर्मनी का पक्ष लेकर तुर्की भी मैदान में आ गया था। तुर्की मुस्लिम देशों का धर्मगुरू माना जाता था। उसने मित्रराष्ट्रों के विरुद्ध मुसलमानों से अपील की, लेकिन अंग्रेजों ने मुस्लिम प्रदेशों को तुर्की के विरुद्ध उभारना शुरू किया। मिस्र में स्वतंत्र राज्य स्थापित कर अंग्रेजों ने वहाँ के सुल्तान से संधि कर ली। अंग्रेजों ने अरब राष्ट्रों में राष्ट्रीय भावना भरकर तुर्की के विरुद्ध विद्रोह करवा दिया और मेसोपोटामिया तथा सोरिया पर आक्रमण कर नया युद्धस्थल खोल दिया। इस प्रकार, जर्मनी को तुर्की से किसी प्रकार की सहायता की आशा नहीं रही।

1915 ई० में अंग्रेजों ने दरें दनियाल से होकर तुर्की की राजधानी कुस्तुनतुनिया (Constantionple) पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उन लोगों ने गेलीपोली (Gallipoli) नामक प्रायद्वीप के एक भाग पर अधिकार कर लिया, ताकि वहाँ से तुर्की पर किया जा सके । जर्मनी ने तुर्की की सहायता की और युद्ध में अंग्रेजों को किसी प्रकार की सफलता नहीं मिली।

समुद्री युद्ध- जर्मनी के पास बड़े-बड़े जंगी जहाज थे। उसने पनडुब्बियों का भी आविष्कार कर लिया था। इससे इंगलैंड के जहाजी वेड़े पर बड़ा आतंक छा गया था। जर्मनी के पास अन्न की कमी थी, इसलिए उसने सेना में राशन’ की व्यवस्था की घोषणा कर दी थी। इंगलैंड ने घोषणा की कि हॉलैंड, नार्वे, स्वीडेन इत्यादि तटस्थ देशों के बंदरगाहों से जानेवाले जहाजों की तलाशी ली जाएगी। अन को भी युद्धोपयोगी सामग्री घोषित किया गया। जर्मनी ने इंगलैंड के चारों ओर घेरा डाल दिया और बहुत-से-जहाजों को डुवा दिया। 1915 ई० में लुसीटानिया नामक जहाज को संयुक्त राज्य अमेरिका से इंगलैंड आते समय जर्मन पनडुब्बियों द्वारा डुबा दिया गया। इसमें केवल यात्री थे। इस कारण जर्मनी की घोर निंदा की गई। बहुत-से तटस्थ राष्ट्र मित्रराष्ट्रों के पक्ष में हो गए।

बुलगारिया का युद्ध में प्रवेश- जर्मनी और ऑस्ट्रिया की संयुक्त सेना ने रूसी सेना को पीछे खदेड़ दिया था। बुलगारिया इस मौके पर मैदान में आ गया। उसने सर्बिया पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने अधिकार में ले लिया।

1915 ई. के अंत में मित्रराष्ट्रों की फौजों ने जर्मनी को पश्चिम जर्मन लाइन से पीछे खदेड़ने का प्रयत्न किया, लेकिन इसमें उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली। जर्मनी ने मी पेरिस पर आक्रमण करने का प्रयत्न किया, लेकिन उसका प्रयल भी असफल रहा। पश्चिमी युद्ध क्षेत्र में 1916 ई० में कई युद्ध हुए। इन युद्धों में टैंकों का प्रथम बार प्रयोग किया गया। इंगलैंड ने अपने यहाँ से 18 से 41 वर्ष तक के उम्रवाले लोगों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी।

इटली और ऑस्ट्रिया के युद्ध- इटली ऑस्ट्रिया से अपना प्रांत वापस लेना चाहता था, इसलिए उसने ऑस्ट्रिया पर आक्रमण कर दिया। ऑस्ट्रिया ने भी इटली पर आक्रमण कर उसके कई प्रदेशों पर अधिकार जमा लिया। चूंकि ऑस्ट्रिया की सेना रूसी सेना से भी युद्ध कर रही थी। अतः मौके का लाभ उठाकर इटली ने इटालियन भाषी प्रांतों को स्वतंत्र करने के लिए गैलेसिया (Galicia) पर अधिकार कर लिया।

रूमानिया का युद्ध में प्रवेश- रूस और इटली की सफलता से प्रभावित होकर रूमानिया ने मित्रराष्ट्रों के पक्ष में युद्ध में प्रवेश किया। वह ट्रांसिलवेनिया पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था। इसलिए उसने ट्रांसिलवेनिया पर आक्रमण कर दिया, लेकिन जर्मनी के सैनिकों ने उसे बुरी तरह पराजित कर दिया और उसकी राजधानी बुखारेस्ट पर अधिकार कर लिया।

संयुक्त राज्य का युद्ध में प्रवेश

(Entry of the United States in the War)

1917 ई. में दो प्रमुख घटनाएँ घटीं । उसी वर्ष रूस की क्रांति हुई और अमेरिका युद्ध में सम्मिलित हुआ। रूसी क्रांति के फलस्वरूप जार परिवार सहित कत्ल कर दिया गया और रूस का शासन बोल्शेविकों के हाथ आ गया। वे लोग युद्ध से अलग हो गए। उन लोगों ने जर्मनी से समझौता कर लिया, जिसे ब्रेस्ट लिटोवस्क की संधि कहते हैं। इस संधि के अनुसार उन्होंने अपने सारे पश्चिमी प्रांत जर्मनी को दे दिए । फलस्वरूप जर्मनी बहुत ही सुदृढ़ हो गया और उसने अपनी सेनाएँ पश्चिमी मोर्चे पर भेज दी, जिससे मित्रराष्ट्रों को स्थिति बड़े संकट में पड़ गई, लेकिन अमेरिका के युद्ध में प्रवेश करने से मित्रराष्ट्रों को बहुत लाभ उठाया। उन्हें अमेरिका से बहुत ही धन-जन की सहायता मिली । अमेरिका के युद्ध में भाग लेने के कई कारण थे-(i) फ्रांस ने अमेरिका की स्वतंत्रता की लड़ाई में बड़ी मदद की थी, इसलिए अमेरिकावासी फ्रांस के बड़े कृतज्ञ थे। (ii) बहुत-से जर्मन अमेरिका में बसे हुए थे । वे लोग जर्मनी के पक्षपाती थे, लेकिन जब जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण किया तो वे लोग उनके विरोधी हो गए। (iii) अंग्रेज और अमेरिकावासी एक ही जाति के थे। अतः, इंगलैंड के साथ अमेरिका की सहानुभूति स्वाभाविक थी। जर्मनी ने इंगलैंड के चारों ओर घेरा डाल दिया था, इससे अमेरिका में असंतोष फैला था। इसी बीच जर्मनी ने अमेरिका का लुसीटानिया नामक यात्रीजहाज डुबा दिया। इससे बाध्य होकर अमेरिका को युद्ध में कूदना पड़ा।

जर्मनी ने ‘हिंडेनवर्ग पंक्ति’ की स्थापना पश्चिमी मोर्चे पर की थी । मित्रराष्ट्रों की सेनाओं का सेनापति फडनिंड फॉस नियुक्त हुआ। उसने 9 अप्रैल, 1918 को जर्मन सेनाओं का सामना किया। 15 जुलाई, 1918 को जर्मन सेनाएँ पेरिस की ओर बढ़ने लगी थी, लेकिन संयुक्त सेनाओं ने उन्हें पीछे की ओर खदेड़ दिया। धीरे-धीरे युद्ध भयंकर होता जा रहा था और खर्च भी बढ़ता जा रहा था। जर्मनी के साथी राष्ट्र धीरे-धीरे पिछड़ते जा रहे थे। बाल्कन प्रायद्वीप में वुलगारिया ने 29 सितंबर, 1918 को आत्मसमर्पण कर दिया था। अरब प्रदेशों में विद्रोह के कारण तुर्की की स्थिति खराब हो गई थी। उसने 31 अक्टूबर 1918 को आत्मसमर्पण कर दिया। ऑस्ट्रिया-हंगरी के राज्य में विद्रोह हो रहे थे। ऑस्ट्रिया की सारी ताकत विद्रोह दबाने में लगी थी अतः उससे सहायता की अधिक आशा नहीं की जा सकती थी। 3 नवंबर, 1918 को उसने भी आत्मसमर्पण कर दिया।

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम (प्रभाव)

प्रथम महायुद्ध से पहले भी अनेक युद्ध हुए किन्तु यह युद्ध अभूतपूर्व था और इसके व्यापक परिणाम हुए। लगभग सभी क्षेत्र इससे प्रभावित हुए।

  1. युद्ध का व्यापक होना- इसके पूर्व के युद्ध इतने व्यापक नहीं थे। यह युद्ध यूरोप और एशिया दोनों ही महाद्वीपों में हुआ। इस युद्ध में 30 देशों ने भाग लिया संसार के केवल 14 देश ही इससे अलग रहे । इस युद्ध के बाद समस्त यूरोप में महामारी का प्रकोप हुआ।
  2. धन की हानि- इस युद्ध में धन की अत्यधिक हानि के कारण यूरोप को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। जिन देशों पर शत्रु का अधिकार रहा उनका तो सर्वनाश ही हो गया। आर्थिक संकट टालने के लिए जनता पर नवीन कर लगाए गए और जनता को कठिनाइयाँ बढ़ गई।
  3. राजनैतिक परिणाम- इस युद्ध के बाद एकतत्र शासन समाप्त हो गया और गणतन्त्र या जनतन्त्र ने उसका स्थान ग्रहण किया। इंगलैंड, स्पेन, ग्रीस आदि देशों में यद्यपि राजतन्त्र बना रहा, किन्तु वहाँ भी जनतन्त्र का विकास तीव्रता के साथ होना शुरू हुआ। एशिया में भी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह की आग धधक उठी और विवश होकर शासकों को जनता की मांग माननी पड़ी
  4. राष्ट्रीयता का विकास- इस युद्ध के बाद राष्ट्रीयता का पूर्ण विकास होना शुरू हुआ। यहाँ इसी आधार पेरिस शान्ति सम्मेलन में आत्मनिर्णय के सिद्धान्त को मानकर 7 नवीन राज्यों की स्थापना की गई किन्तु यूरोप के समस्त राष्ट्रों का निर्माण इसी आधार पर नहीं हुआ जिन राष्ट्रों में राष्ट्रीयता की उपेक्षा की गई वहाँ की जनता असन्तुष्ट रही और उसमें विद्रोह की भावना बलवती होती रही।
  5. अधिनायकतन्त्र का स्थापित होना- युद्ध द्वारा उपस्थित हुई भीषण समस्याएं जनतन्त्रीय सरकार द्वारा न सुलझाई जा सकी । फलतः स्वेच्छाचारी शासकों की स्थापना हुई किन्तु जनता उनकी निरंकुशता को सहन न कर सकी और जनतन्त्र का अन्त हुआ। अधिनायकतन्त्र ने इसका स्थान ग्रहण किया।
  6. सैनिक शक्ति में बढ़ोत्तरी-यद्यपि पेरिस के शान्ति सम्मेलन ने जर्मनी की सैन्यशक्ति को नियंत्रित कर दिया, किन्तु विजयी राष्ट्र ने अपनी सैनिक शक्ति में निरन्तर विकास किया। जर्मनी में नाजीवाद और इटली में फासिस्टवाद के उदय के बाद उन्होंने हर सम्भव तरीके से अपनी सैनिक शक्ति में वृद्धि करने का प्रयल किया। रूस की साम्यवादी सरकार ने भी ऐसा ही किया। कई बार सैनिक शक्ति को नियंत्रित करने के प्रयल किये गये किन्तु व्यर्थ ।
  7. राष्ट्रसंघ का निर्माण- प्रथम महायुद्ध के उपरान्त शान्ति स्थापना के उद्देश्य को सामने रखकर राष्ट्रसंघ निर्मित किया गया। यह इस शान्ति स्थापना की दिशा में अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम था, किन्तु राष्ट्रों के स्वार्थों के कारण यह सफल न हो सका।
  8. आर्थिक परिणाम- युद्ध के बाद साम्यवादी विचारधारा अत्यधिक बलवती हुई और उद्योग-धन्धों का राष्ट्रीयकरण करने की भावना दिन-प्रतिदिन बलवती होने लगी। इस दिशा में अधिक सफलता न मिल सकी। मजदूरों का महत्व बढ़ने लगा और उन्होंने सरकार के सामने अपनी मांगें रखनी शुरू की। उन्होंने अपने संगठन बनाने शुरू किये। लगभग सभी देशों की सरकारों ने उनको सुविधा देने के उद्देश्य से अधिनियम पास किए । जनता करों के बोझ से दब गई।
  9. सामाजिक परिणाम- इस युद्ध का सामाजिक क्षेत्र में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रभाव हुआ। लोगों के युद्ध में जाने के कारण स्त्रियों को उनके व्यवसायों में लगना पडा उनमें आत्म-विश्वास जागृत हुआ। फलतः युद्ध के बाद उन्होंने भी अपने अधिकारों की मांग करनी शुरू की और उनको बहुत सी माँगें सभी राज्यों द्वारा मान ली गईं। युद्ध में पुरुषों के मारे जाने के कारण स्त्रियों की संख्या बढ़ गई। इसके बड़े बुरे परिणाम हुए। इस युद्ध से काले गोरे का अन्तर कम हो गया और विज्ञान की दिशा में पर्याप्त उन्नति हुई और नवीन अनुसन्धान किए जाने लगे।
  10. समाजवाद का प्रसार- इस युद्ध के बाद सरकार द्वारा उद्योग-धन्धों पर नियन्त्रण स्थापित करने का कार्य शुरू हो गया और मजदूरों के स्तर को धीरे-धीरे उन्नत किया जाने लगा। समाजवादी सरकार की नीति से संतुष्ट न हुए और उन्होंने अपनी मांगे मनवाने के लिए आन्दोलन शुरू कर दिये । रूस में लेनिन साम्यवादी सरकार की स्थापना करने में सफल हुआ ।इस प्रकार प्रथम महायुद्ध के परिणामों में भविष्य के इतिहास को एक नवीन मोड़ दिया।

क्या युद्ध रोका जा सकता था?

टकराव संधियों, औपनिवेशिक सैन्य व्यवस्था के कारण यह सब हुआ। परन्तु इस युद्ध को रोका जा सकता था। ब्रिटेन भी ऐसा कर सकता था । रूस के पास युद्ध की योजना नहीं थी। अन्तर्राष्ट्रीय दवाव से ऐसा जरूर किया जा सकता था। जर्मनी ब्रिटेन की कमजोरी जानता था। ब्रिटेन चुप था। बड़े राष्ट्रों ने ऐसा नहीं किया अन्यथा युद्ध रोका जा सकता था।

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