इतिहास

पेरिस शांति सम्मेलन की समस्यायें | वसार्य की संधि

पेरिस शांति सम्मेलन की समस्यायें | वसार्य की संधि

पेरिस शांति सम्मेलन की समस्यायें

प्रथम विश्वयुद्ध में मित्रराष्ट्रों

ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका इत्यादि-ने पुरी-राष्ट्रों-जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों अर्थात्, आस्ट्रिया, हंग्री, बुल्गेरिया और तुर्की-को पराजित किया था। विजयी राष्ट्रों ने युद्धोत्तर काल की समस्याओं को सुलझाने के लिए पेरिस में 1919 ई. में एक शांति सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में सभी विजयी राष्ट्रो के प्रतिनिधि शामिल हुए थे, लेकिन सम्मेलन के निर्णयों पर निर्णायक प्रभाव अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लायड जॉर्ज तथा फ्रांस के प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लीमेशो का ही पड़ा था। सम्मेलन में पराजित राज्यों से समझौता करने के लिए पांच शांति संधियों का प्रारूप तैयार किया गया जिसके परिणामस्वरूप यूरोप का मानचित्र बदल गया और अनेक भावी समस्याओं का जन्म हुआ।

वास्तव में प्रथम विश्वयुद्ध में अपार धन-जन की क्षति तो हुई ही थी, युद्ध के दौरान ही कई नई घटनाएं भी घटी थीं, जिनका प्रभाव बाद के इतिहास पर पड़ा और इन घटनाओं से उत्पन्न समस्याओं का प्रभाव भी प्रेरिस शांति-समझौते पर पड़ा। युद्ध के दौरान जर्मनी, ऑस्ट्रिया, रूस और तुर्की साम्राज्यों का अंत हुआ। इन साम्राज्यों के सम्राट भाग खड़े हुए या हटा दिए गए तथा इन् साम्राज्यों के विघटन से भी कई समस्याएं आ खड़ी हुई। गरीबी से लोग परेशान थे और ऐसी ही स्थिति में विजेता राष्ट्रों के प्रतिनिधि पेरिस में ऐसी व्यवस्था स्थापित करने के लिए एकत्रित हुए जिसके द्वारा पराजित राष्ट्रों के साथ प्रतिशोधात्मक न्याय हो सके, राष्ट्रीयता के सिद्धांत के आधार पर राजनीतिक सीमाओं का संशोधन हो सके, विजेता राष्ट्रों की क्षतिपूर्ति हो सके, पराजित राष्ट्रों का निःशस्त्रीकरण हो सके और साथ ही विश्व में शांति कायम की जा सके।

(क) पेरिस शांति सम्मेलन के नेतागण- संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन (Woodrow Wilson) की इच्छा के विरूद्ध पराजित देशों को अपमानित कर उनके प्रतिनिधियों को समुचित स्थान नहीं दिया गया। इसके साथ ही रूस में साम्यवादी सरकार का निमार्ण हो चुका अत: रूस को भी पेरिस शांति सम्मेलन में निमंत्रित नहीं किया गया। पेरिस शांति सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज, इटली के प्रधानमंत्री ओरलैंडो (Orlando) तथा जापान के प्रधानमंत्री सेओंजी (Saionji) शामिल हुए। फ्रांस का प्रतिनिधित्व क्लीमेंशों (Clemenceau) ने किया और उसे ही सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया। क्लीमेंशो और लायड जॉर्ज बदले की भावना से ग्रस्त थे, जबकि राष्ट्रपति विल्सन आदर्शवाद और नैतिकता की दुहाई देकर पराजितों के कष्टों को कम करने के प्रयास में था। विल्सन के चौदह-सूत्री सिद्धान्त प्रथम विश्वयुद्ध को जीतने में बहुत सहायक हुए थे लेकिन लायड जॉर्ज और क्लीमेंशो ने विल्सन की उपेक्षा की।

(ख) शांति-सम्मेलन की समस्याएँ- (i) पेरिस शांति सम्मेलन कटुता से भी उभर नहीं पाया। यदि फांस और इंगलैंड पतिशोधात्मक नीति अख्तियार कर अधिक से अधिक धन और पराजित राष्ट्रों से वसूलना चाहते थे और पराजितु राष्ट्रों के उपनिवेशों को हड़पना चाहते थे तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति विल्सन आदर्शवाद और नैतिकता की दुहाई देकर पराजितों को अत्याचार से बचाना चाहता था। विल्सन के चौदा-सूरी सिद्धान्तों को प्रचारित कर मित्रराष्ट्रों युद्ध के दौरान जनमत को अपने पक्ष में किया था और उन्हीं सिद्धान्तों पर जर्मनी ने आत्मसर्मपण किया था, अतः संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी जोर दे रहे थे कि पेरिस शांति सम्मेलन की बैठक विल्सन के चौदह सूत्री सिद्धांतों के आलोक में होनी चाहिए। इसके विपरित फ्रांस और इंग्लैण्ड विजय के मद में तिरोधात्मक भावना से ग्रस्त होकर किसी भी प्रकार अधिक से अधिक हर्जाना वसूल करने और पराजित राष्ट्रों के भग्नप्रायः साम्राज्य को आपस में बांटने के प्रयास में थे। ऐसे समय में युद्ध के दौरान घोषित समानता, स्वतंत्रता, लोकतंत्रवाद इत्यादि के नारे विजयी राष्ट्र भूल गए।

(ii) शांति सम्मेलन की दूसरी कठिनाई युद्ध के दौरान की गई गुप्त संधियाँ थीं। इन गुप्त संधियों के आधार पर मित्रराष्ट्रों ने इटली, जापान रूमानिया इत्यादि देशों को तरह-तरह के आश्वासन दिए थे और उन्हीं आवश्वासनों को पाकर ये देश युद्ध में शामिल हुए थे। मित्रुराष्ट्रों के बीच भी कई गुप्त संधियां हुई थी और सारी संधियों के मजमून विल्सन के चौदह सूत्री सिद्धांतों से मेल नहीं खाते थे। यदि राष्ट्रपति विल्सन और जर्मनी चौदहसूत्री सिद्धान्तों की दुहाई देकर गुप्त संधियों की भर्त्सना कर सभी मामलों पर खुले अधिवेशन में निर्णय करने पर जोर देते थे, तो दूसरी तरफ बिटेन और फ्रांस गुप्त संधियों और गुप्त आश्वासनों को पूरा करने के लिए विवश थे। उन्हें विल्सन के आदर्शवादी सूत्रों की कोई परवाह नहीं थी। विजय के बाद उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ गई थीं कि परास्त देशों के न्यायमुक्त अधिकारों की उपेक्षा करने में उन्हें जरा भी संकोच नहीं था। राष्ट्रपति विल्सन आदर्शवादी था और उसने सदैव जोर दिया कि विजयी राष्ट्र केवल अपना स्वार्थ हो न देखें, बल्कि उन राष्ट्रों की इच्छाएँ भी ध्यान में रखें जिन पर इस समझौते का असर पड़नेवाला था।

(iii) पेरिस शांति सम्मेलन की तीसरी समस्या मध्य एवं पूर्वी यूरोप में युद्ध के कारण उत्पन्न खाद्य समस्या का समाधान ढूँढ़ना था। विजयी सेनाओं, उत्तेजित् जनमत तथा समाचारपत्रों को नियंत्रित करना आवश्यक था। इसके अलावा यूरोप के छोटे-छोटे राज्यों के आपस के झगड़ों को निपटाना भी एक कठिन समस्या थी।

(iv) सम्मेलन में महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय गुप्त रूप में लिया जाए या खुले तौर पर-यह एक बड़ी समस्या के रूप में आई। असल में विल्सन खुले रूप से निर्णय लेने के पक्ष में था, लेकिन फ्रांस और इंग्लैंड इसके विपरीत गुप्त रूप से निर्णय लेने के पक्षधर थे। क्षेत्रीय व्यवस्था के संबंध में खुले निर्णय लेने पर उत्तेजना फैलने की आशंका थी, अतः फ्रांस के समाचारपत्रों पर कड़ा नियंत्रण लगाया गया और सम्मेलन के अधिकांश निर्णय गुप्त रुप से ही लिए गए।

(v) यूरोपीय राज्यों को प्रादेशिक महत्वाकांक्षाओं ने भी शांति सम्मेलन के लिए कठिनाइयां पेश की। फ्रांस किसी भी तरह एल्सास-लोरेन वापस प्राप्त करना चाहता था, पोलैंडवासी किसी भी तरह स्वतंत्र और पृथक राज्य की मांग पर अड़े हुए थे, चेक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग कर रहे थे, बाल्कन क्षेत्र भी असंतोष व्याप्त था। इन सभी राज्यों की राष्ट्रीय आकांक्षाएं पेरिस शांति सम्मेलन के लिए कठिनाई उपस्थित कर रही थीं।

(ग) पेरिस शांति-सम्मेलन के मूल आधार- युद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों ने ऊपरी तौर पर कई सिद्धांतों की घोषणा की थी और विश्व के समक्ष प्रकट रूप से कई वादे किए थे। लेकिन, समय-समय पर उन्होंने कई गुप्त-संधिया भी की थीं। अमेरिका के युद्ध में प्रवेश से राष्ट्रपति विल्सन का आदर्शवादी सिद्धान्त मित्रराष्ट्रों के पक्ष में जनमत तैयार करने में कामयाब रहा। अवः, विल्सन के चौदह-सूत्री सिद्धांत वाह्य तौर पर पेरिस शांति सम्मेलन के कार्यवाहियों को प्रभावित करते थे, लेकिन लायड जॉर्ज और क्लीमेंशो की प्रतिशोधात्मक और लालची निगाहे विल्सन के सिद्धान्तों के प्रभावों को नकार गई जिसके कारण कई बार विल्सन, ओरलैंडो और से ओंजी को सम्मेलन के बहिष्कार की धमकी देनी पड़ी। अंतत: पेरिस शांति सम्मेलन का कार्य आदर्शवाद और कूटनीतिक चालों के मध्य शुरु हुआ जिसमें आदर्शवाद पराजित हुआ।

पेरिस शांति-सम्मेलन की बैठकें और संधियाँ

(Paris peacd Conference and the Treaties)

फ्रांस के विदेश मंत्रालय में शांति-सम्मेलन का अधिवेशन शुरू हुआ। क्रांसीसी प्रधानमंत्री क्लीमेशो को सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। बड़े सम्मेलन में आसानी से काम करना संभव नहीं था, अतः सम्मेलन की कार्यवाही को चलाने के लिए दस व्यक्तियों की एक ‘सर्वोच्च शांति परिषद’ बनाई गई। इसमें तत्कालीन महान राष्ट्रों- अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन जापान और इटली के प्रतिनिधि थे। इस परिषद के सदस्यों का निर्णय सामान्यत: सर्वमान्य होता था। बाद में मार्च, 1919 में केवल चार व्यक्तियों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने का काम सौंप गया। ये थे-विल्सन, लायड जॉर्ज, क्लीमेंशो तथा ओरलैंडो।

शांति सम्मेलन ने पांच संधियों का मसविदा तैयार किया जिसके आधार पर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, बुलगारिया, हंगरी और तुर्की के साथ संधियाँ की गई। 28 जून, 1919 को जर्मनी के साथ वर्साय संधि, 10 दिसंबर, 1919 को ऑस्ट्रिया के साथ सेंट जर्मन की संधि, 27 नवंबर, 1919 को बुलगारिया के साथ नुइली की संधि, 4 जून, 1920 को हंगरी के साथ त्रिआनो (Trianon) की संधि और 10 अगस्त, 1920 को तुर्की के साथ सेवे की संधि की गई। ये सभी संधियाँ सम्मिलित रूप से पेरिस की संधि कही जाती हैं। लेकिन, इनमें वर्साय की संधि सबसे महत्वपूर्ण है। सम्मेलन ने 1600 बैठकें करके अपने 58 आयोगों द्वारा जर्मनी के साथ संधि का एक मसविदा तैयार किया।

वर्साय की सन्धि  

(The Treaty of Versailles)

वर्साय की संधि जर्मनी के साथ की गई। मित्रराष्ट्रों द्वारा की गई सभी संधियों में यह महत्वपूर्ण संधि थी। इन संधि का मसविदा चार महीने के अनवरत परिश्रम के बाद तैयार हो सका था। 250 पृष्ठों में छपी हुई यह संधि 15 भागों में विभक्त थी और उसमें 440 धाराएँ थीं। 7 मई, 1919 को मित्रराष्ट्रों ने जर्मन प्रतिनिधिमंडल के सम्मुख संधि का मसविदा स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत किया। जर्मनी को दो सप्ताह का समय विचार-विमर्श के लिए दिया गया। जर्मनी की आम जनता, अखवार और राजनीतिज्ञ संधि की शत्तों से असंतुष्ट थे। इससे लायुड जॉर्ज ने चिढ़कर पुनः युद्ध की धमकी दी। जर्मन राजनीतिज्ञों ने शांति से संधि की शर्तों पर विचार किया और 26 दिनों के बाद अपनी तरफ से साठ हजार शब्दों का एक विरोध-प्रस्ताव प्रस्तुत किया। जर्मनी ने शिकायत की कि जिन शर्तों पर उसने आत्मसमर्पण किया था, प्रस्तावित संधि में उन सिद्धान्तों का उल्लुंखन हुआ है। उसका कहना था कि जर्मनी की नई सरकार पूर्ण रूप से प्रजातंत्रिक है और राष्ट्रसंघ की सदस्यता के लिए इच्छुक है। निःशास्त्रीकरण को शर्त केवल जर्मनी पर ही नहीं, अपितु समस्त राज्यों पर लागू की जानी चाहिए। विश्वयुद्ध के लिए जर्मनी को एकमात्र जिम्मेवार बताना गलत था। जर्मनी ने संधि की सभी शर्तों को मानने में असमर्थता जताई, लेकिन मित्रराष्ट्रों की दृढ़ता के समक्ष जर्मनी को झुकना पड़ा। छोटे-छोटे संशोधनों के बाद पाँच दिनों के भीतर जर्मनी को संधि पर हस्ताक्षर करने को कहा गया। मित्रराष्ट्रों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि हस्ताक्षर नहीं करने का अर्थ जर्मनी पर पुनः आक्रमण होगा। शिडेमान सरकार ने संधि को अस्वीकार कर त्यागपत्र दे दिया। अंत में वहां की दूसरी सरकार ने संधि पर हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर कर लौटते समय जर्मन् प्रतिनिधियों पर पेरिस की जनता ने ईंट-पत्थर फेंके। दूसरे दिन जर्मनी के एक समाचारपत्र ने ‘कहीं हम भूल न जाएँ’ नाम से एक लेख छापा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज जर्मनी पर वर्साय संधि लाद कर बो दिए गए।

वर्साय संधि की शर्ते-

(i) राष्ट्रसंघ- वर्साय में विल्सन के दबाव पर 26 धाराएँ राष्ट्रसंघ से संबद्ध जोड़ी गई। वास्तव में मित्रराष्ट्र इसके पक्ष में नहीं थे, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध में अमेरिका के अल-शस्त्र तथा 14-सूत्री सिद्धांतों से सहयोग को नकारना कठिन था। लायड़ जॉर्ज ने लिखा है कि विल्सन, शांति-संधियों के केवल उस भाग को, जिसमें राष्ट्रसंघ की व्यवस्था थी, सबसे अधिक महत्व देता था। इसके लिए वह कोई भी त्याग करने के लिए तैयार था और अंत में उसके कठिन प्रयास से ही राष्ट्रसंघ का निर्माण हुआ। राष्ट्र संघ का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाना तथा अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को कायम रखना था।

(ii) प्रादेशिक व्यवस्था एल्सास-लोरेन- जर्मनी पराजित देश था, अत: उसको दंडित करने के लिए जर्मनी के कई प्रदेशों को उससे छीन लिया गया। 1871 ई. में फ्रांस से जर्मनी ने एल्सास-लोरेन ले लिया था। वर्साय संधि के दौरान यह तय हुआ कि ये प्रदेश फ्रांस के हैं, अत: फ़्रांस को लौटा दिए जाएँ। वर्साय संधि के प्रावधानों में इसको सम्मिलित कर लिया गया और एल्सास-लोरेन फ्रांस को लौटा दिया गया।

राइनलैंड- फ्रांस जर्मनी की सैन्य-शक्ति से भयभीत था और उसका प्रधानमंत्री क्लीमेंशो फ्रांस को सुरक्षित रखने के लिए राइनलैंड क्षेत्र पर किसी-न-किसी तरह फ्रांस का प्रभाव रखना चाहता था। लेकिन, लायड जॉर्ज और विल्सन ने इसका घोर विरोध किया कि ऐसा करने से एक दूसरा एल्सास-लोरेन बनेगा जो भविष्य में युद्ध का कारण बनेगा। काफी समझाने-बुझाने पर क्लीमेशो तैयार हुआ कि कुछ निश्चित समय के लिए इस क्षेत्र में मित्रराष्ट्र की सेनाएँ रखी जाएँ ताकि जर्मनी इसका उपयोग अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए नहीं कर सके। राइनलैंड को तीन भागों में विभक्त कर दिया गया-उत्तुरी, मध्यवर्ती और दक्षिणी। वर्साय संधि के अनुसार यह तय हुआ कि मित्रराष्ट्रों की सेनाएँ उत्तरी भाग पर पांच साल तक, मध्यवर्ती भाग पर दस साल तक और दक्षिणी भाग पर पंद्रह साल तक मौजूद रहेंगी। इसके अतिरिक्त यह भी तय हुआ कि राइन नदी के दाएँ भाग के 31 मील चौड़े प्रदेश पर जर्मनी किसी भी प्रकार की किलाबंदी नहीं करे और यदि जर्मनी संधि को किसी शर्त का पालन नहीं करे तो मित्रराष्ट्रों की सैनिक मौजूदगी की अवधि और अधिक बढ़ाई जा सके।

सार- जब फ्रांस राइन के तटवर्ती क्षेत्र पर अधिकार नहीं कर पाया तो उसने सार क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए दावा पेश किया। वास्तव में यह क्षेत्र कोयला खानों के लिए मशहूर था। फ्रांस ने तर्क दिया कि जर्मनी ने युद्ध के समय फ्रांस के संपूर्ण कोयले के खानों को बर्बाद कर दिया है, अतः सार के कोयले के खानों पर उसका अधिकार होना चाहिए। लायड जॉर्ज और विल्सन फ्रांस की मांग को जायज बताते थे, लेकिन वे नहीं चाहते थे कि सार के इलाके पर फ्रांस का अधिकार हो; क्योंकि वहाँ की संपूर्ण जनता जर्मन नस्ल की थी। अंत में जो व्यवस्था की गई उसके अनुसार सार प्रदेश की शासन व्यवस्था की जिम्मेवारी राष्ट्रसंघ सौंप दी गई और उसकी खानों को फ्रांस के जिम्मे कर दिया गया। फ्रांसीसी प्राधान्य वाले एक आयोग का गठन हुआ जिसे सार क्षेत्र पर शासन करना था। यह भी तय हुआ कि 15 वर्षों के बाद लोकमत द्वारा निश्चित किया जाएगा कि सार क्षेत्र के लोग जर्मनी के साथ रहना चाहते हैं या फ्रांस के साथ। यदि लोकमत जर्मनी के पक्ष में हुआ तो जर्मनी को फ्रांसु से कोयले की खानों को खरीदना होगा। वर्साय संधि के तहत सार क्षेत्र को फ्रांस को सौंप दिया गया।

बेल्जियम और डेनमार्क की प्राप्ति- यूपेन (Eupen), मार्सनेट (Moresnet) और मुल्मेडी (Malmedy) का प्रदेश बेल्जियम के अधीन कर दिया गया। श्लेस्विग (Schleswig) में जनमत संग्रह हुआ। उत्तरी श्लेस्विग पर डेनमार्क का अधिकार हो गया और दक्षिणी श्लेस्विग जर्मनी के साथ रहा।

जर्मनी की पूर्वी सीमा- जर्मनी को सबसे अधिक नुकसान पूर्वी सीमा पर उठाना पड़ा। मित्रराष्ट्रों ने स्वतंत्र पोलैंड के राज्य के निर्माण लिया। डॉजिग (panaig) को स्वतंत्र नगर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और राष्ट्रसंघ की संरक्षता में रख दिया गया। मेमेल (Memel) का बंदरगाह लिथुआनिया को दे दिया गया। जर्मनी ने चेकोस्लोवाकिया के राज्य को मान्यता दी । उसे ऊपरी साइलेसिया का छोटा-सा भाग भी देना पड़ा। इस प्रकार प्रादेशिक व्यवस्था के अंतर्गत जर्मनी को पच्चीस हजार वर्गमील का प्रदेश और सत्तर लाख की आबादी खोनी पड़ी।

जर्मन उपनिवेश- जर्मनी के साथ प्रादेशिक समझौता करने के बाद मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी के उपनिवेशों पर विचार करना शुरू किया। मित्रराष्ट्र जर्मन उपनिवेशों को अपने-अपने साम्राज्य में मिलाना चाहते थे। अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन, मित्रराष्ट्र किसी भी तरह अपने साम्राज्यवादी मनसूबों को पूरा करना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने संरक्षण प्रणाली की शुरुआत की। प्रशांत महासागर कई द्वीपों और आफ्रिकी महादेश में जर्मनी के चार पनिवेश थे। इन सभी उपनिवेशों को जर्मनी को छोड़ना पड़ा, जिन्हें मित्रराष्ट्रों के संरक्षण में रखा गया। इस प्रकार की प्रादेशिक व्यवस्था से जर्मनी को अपने तेरह प्रतिशत भू-भाग और दस प्रतिशत आबादी से हाथ धोना पड़ा सैनिक व्यवस्था-वर्साय संधि की सैनिक और आर्थिक व्यवस्थाओं ने प्रादेशिक व्यवस्था को पूरा किया। जर्मन सेना की अधिकतम संख्या एक लाख निश्चित कर दी गई। जर्मन प्रधान सैनिक कार्यालय समाप्त कर दिया गया। अस्-शस्त्र तथा अन्य युद्धोपयोगी सामग्रियों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जर्मनी के सभी नौ-सैनिक जहाज जब्त कर लिए गए। यह निश्चय हुआ कि जर्मनी की नौ-सेना में केवल छह युद्धपोत और इतने ही गश्ती जहाज और विष्वंसक रह सकते हैं। अब पन्डुब्बी जहाजों का निर्माण जर्मनी नहीं कर सकता था। निःशस्त्रीकरण की इस व्यवस्था का पालन करवाने और निगरानी रखने के लिए जर्मनी के खर्च पर मित्रराष्ट्रों का एक सैनिक आयोग स्थापित किया गया। राइन नदी के बाएँ किनारे (राइनलैंड) इकतीस मील तक के भू-भाग का स्थायी रूप से असैनिकीकरण कर दिया गया और पंद्रह वर्षों तक इस पूरे क्षेत्र पर मित्रराष्ट्रों का अधिपत्य बने रहने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार, सैनिक दृष्टिकोण से जर्मनी को एकदम पंगु बना दिया गया।

आर्थिक व्यवस्था- वर्साय संधि की 231 वीं धारा में जर्मनी और उसके सुहयोगी राज्यों को प्रथम विश्वयुद्ध के विस्फोट के लिए एकमात्र जिम्मेदार माना गया और इस आधार पर मित्रराष्ट्रों को युद्ध में जो क्षति उठानी पड़ी थी, उसके लिए जर्मनी को क्षतिपूर्ति करने को कहा गया। क्षतिपूर्ति की वास्तविक रकम संधि द्वारा तय नहीं की गई। यह व्यवस्था की गई कि 1921 ई. तक जर्मनी पांच अरब डॉलर दे दे और एक क्षतिपूर्ति आयोग को अंतिम रकम निश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। युद्धकाल में जर्मनी ने फ्रांस के लोहे और कोयले का भरपूर उपयोग किया था। अतः, लोहे और कोयलों की खानों से भरा पड़ा सार का इलाका पंद्रह वर्षों के लिए फ्रांस को दे दिया गया। इस अवधि के समाप्त होने पर सार का भविष्य लोकमत द्वारा तय होने का प्रावधान किया गया। यदि सार की जनता जर्मनी के पक्ष में निर्णय देगी तो जर्मनी को वहाँ की खानों को फ्रांस से खरीदना पड़ेगा।

नैतिक जिम्मेवारी- युद्ध विस्फोट कराने के लिए जर्मन नेताओं की नैतिक निंदा की गई और अंतरराष्ट्रीय नियमों, संधियों तथा युद्ध के नियमों के उल्लंघन के लिए उन्हें दोषी करार दिया गया। सम्राट कैसर और उसके अन्य उच्च पदाधिकारियों पर युद्ध-अपराध के लिए मुकदमा चलाकर उन्हें सजा देने की बात भी वर्साय संधि में की गई, यद्यपि इस प्रयास में मित्रराष्ट्रों को आंशिक सफलता मिली। मित्रराष्ट्र युद्ध की जिम्मेवारी जर्मनी पर थोपते समय अपने विजयी तेवर को नहीं भूले और न उन्होंने न्याय की बात ही की। वास्तव में जिस आधार पर जर्मनी को लोगों पर युद्ध-अपराधी होने का मुकदमा चला उस तरह के कार्य मित्रराष्ट्रों के कुछ नागरिकों ने भी किए थे जिसके लिए उन पर भी मुकदमा चलाना चाहिए था। पुनः प्रथम विश्वयुद्ध के लिए केवल जर्मनी को ही दोषी ठहराना उचित नहीं था। क्योंकि बैंडेनबर्ग के अनुसार मित्रराष्ट्र भी प्रथम विश्वयुद्ध को शुरू करने में उतने ही दोषी थे जितना कि जर्मनी। फिर भी मित्रराष्ट्रों ने विजयी होने की स्थिति का लाभ उठाकर जर्मनी को युद्ध के लिए दोषी करार दिया और उस पर वर्साय की संधि थोपकर उसे पंगु बनाया। वौय की संधि की 231 वीं धारा के अनुसार सारे नुकसान और क्षति के लिए जर्मनी की उत्तरदायी ठहराया गया। हर्जाना की रकम इतनी ऊंची थी कि जर्मनी के लिए देना संभव नहीं था। इसके अतिरिक्त जर्मनी में विविध अंतर्राष्ट्रीय आयोग स्थित थे जो जर्मनी के राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक मामलों में बराबर हस्तक्षेप किया करते थे।

लौगसम (Lalupsam) के अनुसार जर्मनी ने क्षतिपूर्ति के लिए कोरे चेक पर हस्ताक्षर किया था।

बर्साय की संथि का मूल्यांकन

(Evaluation of the Treaty of Versailles)

वर्साय की संधि की तीव्र आलोचना की जाती है और बताया जाता है कि यह संधि ही द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। परास्त राष्ट्रों पर संधि को लाद दिया गया। प्रादेशिक क्षति, निशस्त्रीकरण और आर्थिक उपबंधों का फल जर्मनी को ही भुगतना पड़ा और इसके फलस्वरूप जर्मनी को सार्वभौमिकता विजयी राष्ट्रों के हाथ में चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि संधि राय-मशविरे से की गई होती तो ज्यादा दिन चल सकती थी। इसका पालन तभी संभव था, जब बल के प्रयोग का भय जर्मनी को रहता । वास्तव में वर्साय की संधि घृणा, मक्कारी, प्रतिशोध, खोखले आदर्शवाद और भौतिकवाद का अद्भुत सम्मिश्रण था । संधि की शर्तों को नैतिक शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया गया । लेकिन, इसके द्वारा स्थापित व्यवस्था निश्चित ही उस भाषा के विपरीत थी जो उसमें प्रयुक्त की गई थी।

आरोपित संधि- वर्साय संधि को ‘आरोपित संधि’ की संज्ञा दी जाती है। संधि को तैयार करते समय विजित राष्ट्रों को अलग रखा गया था। यह मित्रराष्ट्रों का आदेश था जिसको स्वीकार करने के अतिरिक्त जर्मनी के समक्ष कोई दूसरा उपाय नहीं था। केवल दो अवसरों को छोड़कर-जब जर्मन प्रतिनिधियों के समक्ष संधि के सुझाव रखे गए और जब उनके हस्ताक्षर लिए गए-जर्मनी के प्रतिनिधियों को मित्रराष्ट्रों के समक्ष नहीं लाया गया। जर्मनी के प्रतिनिधियों को अभियुक्त माना जाता था और उनके साथ अंतर्राष्ट्रीय शिष्टाचार का भी पालन नहीं किया जाता था। अनावश्यक अपमान का जर्मनी के लोगों पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। अगर जर्मनी ने इस आरोपित संधि का उल्लंघन किय तो इसे किसी भी दृष्टिकोण से अनुचित नहीं कहा जा सकता। ब्रिटिश संसद में लार्ड बाइस ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि शांति केवल संतोष से हो सकती है। इन संधियों का परिणाम राष्ट्रों को असंतुष्ट बनाना है और इससे क्रांतियाँ और युद्ध होंगे। भविष्य में ऐसा ही हुआ।

संधि की कठोरता– वर्साय संधि द्वारा जर्मनी को छिन्न-भिन्न कर दिया गया, उसके उपनिवेशों को छीन लिया गया, आर्थिक रूप से उसे पंगु बना दिया गया, उसके आर्थिक संसाधनों पर दूसरे राष्ट्रों के स्वामित्व स्थापित कर दिए गए ओर सेनिक दृष्टि से उसे अपंग बना दिया गया। यह कठोर संधि किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए मान्य नहीं हो सकती थी। यदि संधि की शतों को स्थायी बनाने में मित्रराष्ट्र सफल हो जाते तो जर्मनी का नाम विश्व की महान् शक्तियों में हमेशा के लिए मिट जाता। क्षतिपूर्ति को शर्व अत्यंत ही कठोर और दर्दनाक थी।

प्रतिशोधात्मक संधि- संधि की शर्तों से सष्ट हो जाता है कि ये प्रतिशोध पर आधृत थे। विजेता राष्ट्रों ने प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाकर कठोर शर्तों को जर्मनी पर लदा । फ्रांस की जनता जर्मनी को कुचलने की मांग कर रही थी। इंगलैंड में भी लगभग इसी प्रकार की मांग हो रही थी। फ्रांस के लोग अभी तक राष्ट्रीय अपमान को भूले नहीं थे। जर्मनी पर जिस प्रकार की कठोर शतों को लाद दिया गया, उनसे इंगलैंड और फ्रांस को प्रतिशोधालक प्रवृत्ति का आभास मिलता है।

संधि का आधार विश्वासघात- वर्साय की संधि जर्मनी के साथ एक महान् विश्वासघात था। जर्मनी ने अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन के ‘चौदह सूत्रों के आधार पर आत्मसमर्पण किया था, लेकिन वर्साय-संधि में इन सूत्रों का खुलेआम उल्लंघन हुआ था। जर्मनी के साथ राष्ट्रीयता के सिद्धांत का पालन नहीं हुआ था। उस पर बहुत शर्ते लाद दो गई थी, लेकिन विजेताओं को उनसे मुक्त रखा गया था। जर्मनी के साथ यह घोर अन्याय और विश्वासघात तथा विल्सन के “चौदह सूत्रों के साथ मजाक था। जर्मनी का निःशास्त्रीकरण कर दिया गया था, लेकिन विजयी राष्ट्रों ने अपनी सैन्य-शक्ति में कोई कमी नहीं की थी। मित्रराष्ट्रों ने विल्सन के पौदह सूत्रों का पालन उसी सीमा तक किया जहाँ तक उन्हें लाभ था। अन्यथा इन सूत्रों की अवहेलना होती रही। वर्साय की संधी जर्मनी के लिए प्रतिशोधात्मक कठोर और अपमानजनक थी। इसलिए उसने युद्ध द्वारा इस अपमान को धोने का प्रयास किया।

उद्देश्यों में विरोध- इतिहासकार लौगसम के अनुसार वर्साय संधि की असफलता का सबसे बड़ा कारण फ्रांस और इंगलैंड के उद्देश्यों में भिन्नता थी। इसी तरह अमेरिका की उदारता से फ्रास असंतुष्ट था। क्लीमेंशो व्यग्य में कहा करता था, “ईश्वर ने हजरत मूसा को दस ही निर्देश दिए थे, लेकिन विल्सन ने तो चौदह निर्देश दिए।” लौगसम के अनुसार, विल्सन के आदर्शवाद और सम्मेलन के भौतिकवाद में तीव्र विरोध था और ज्यादातर मामलों में भौतिकवाद विजयी रहा। मित्रराष्ट्रों के उद्देश्यों और संधि के प्रणेताओं में भी मतैक्य नहीं था।

द्वितीय विश्वयुद्ध में वर्साय संधि की जिम्मेवारी- 1939 ई० के द्वितीय विश्वयुद्र के लिए वर्साय की संधि प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार थी। संधि की कठोर और अपमानजनक शर्तें किसी भी राष्ट्र के लिए सहा नहीं हो सकती थीं। फलत, स्वाभाविक रूप से जर्मनी ने इन अपमानजनक शतों को धोने का सफल प्रयोग किया। परिणामत: कुछ ही वर्षों में यूरोप का राजनीतिक वातावरण अत्यंत अशांत हो गया और विश्व को प्रथम महायुद्ध से भी अधिक भयंकर और प्रलयकारी युद्ध देखना पड़ा।

वर्साय संधि को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए जिम्मेवार कहना भी एक विवादास्पद विषय है। कुछ इतिहासकार ऐसा मानते है कि वर्साय संधि की कठोर शर्ते नहीं, बल्कि उनको कार्यान्वित करने की दिलाई द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। लौगसम का विचार है कि मित्रराष्ट्रों, विशेषकर फ्रास और ब्रिटेन के परस्पर विरोध तथा संधि की शर्तों का कठोरतापूर्वक पालन न कर पाने की नीति ही द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। उनका कहना है कि यदि सधि को कठोरतापूर्वक पालन कराया जाता तो जर्मनी को यह अनुभव हो जाता कि भविष्य में युद्ध प्रारभ करना खतरनाक है। लेकिन, मित्रराष्ट्रों की उदासीनता से जर्मनी का हौसला बढ़ गया और उसने पुनः युद्ध शुरू कर दिया।

फिर भी संयमित ढंग से देखने पर ज्ञात होता है कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस इंगलैंड इत्यादि मित्रराष्ट्रों को इतनी क्षति उठानी पड़ी थी कि वे प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहे थे। दूसरी बात यह थी कि फ्रांस की युद्ध के दौरान औद्योगिक केंद्रो की क्षति सहनी पड़ी थी। मित्रराष्ट्र फिर से इस तरह की युद्ध की पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे, फलतः वे तत्कालीन जनमत के अनुसार जर्मनी को इतना कमजोर कर देना चाहते थे कि भविष्य में उन्हें ऐसे युद्धों का सामना नहीं करना पड़े। इसलिए इस तरह की कठोर शर्तों को जर्मनी पर लागू किया गया था। इसके अलावा लायड जॉर्ज और क्लीमें शो स्वार्थी व्यक्ति थे जो भविष्य के विषय में कम और तत्कालीन परिस्थितियों से ज्यादा प्रभावित हुए। विल्सन बहुत उदार राजनीतिज्ञ था और वह जर्मनी पर इतनी कठोर शर्तों को लादने के विपक्ष में था, परन्तु लॉयड जॉर्ज और क्लीमेशों के स्वार्थी भावों के सामने उसे झुकना पड़ा।

वर्साय संघि का औचित्य- वर्साय संधि एक कठोर एवं प्रतिशोधात्मक संधि थी मित्रराष्ट्रों ने प्रथम विश्वयुद्ध यह कहकर लड़ा था कि इसके बाद पुनः युद्ध नहीं होगा। लेकिन संधि करते समय कुछ ऐसी घटनाएँ घटी, ऐसा जनमत तैयार हुआ और ऐसे राजनीतिज्ञों की चलती हुई कि विल्सन के आदर्शवाद कारे कागज पर ही रह गए। अब सवाल उठता है कि वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं जो वर्साय संधि को कठोर बुनाने में जिम्मेवार थीं और क्या उन परिस्थितियों का वैसा होना या तत्कालीन परिस्थितियों और राजनीतिज्ञों को प्रभावित करने का औचित्य था।

जब उपर्युक्त बातों का हम विश्लेषणात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि तत्कालीन परिस्थिति और यूरोपीय जनमत को दरकिनार करना वर्साय संधि में शामिल होने वाले राजनीतिज्ञों के लिए संभव नहीं था। मित्रराष्ट्रों के प्रायः सभी राजनीतिज्ञों का मानना था कि यदि जर्मनी जीत जाता तो वह ठीक इसी प्रकार की कठोर संधि मित्रराष्ट्रों पर लादता। रूस से संधि करते समय अपने को विजयी की श्रेणी में रखकर ब्रेस्ट लिटावस्क की संधि करते  समय जर्मनी वैसे ही अमानवीय हो गया जैसे 1919 ई० में वर्साय की संधि करते समय लाड जॉर्ज और क्लीमेंशो। रूस के साथ की गई जर्मनी की संधि वर्साय की संधि से किसी प्रकार कम नहीं थी। इस संधि के द्वारा विजेता जर्मनी ने ठीक उसी प्रकार विजित रूसियों की दुर्दशा की, जिस प्रकार पीछ चलकर विजेता मित्रराष्ट्रों ने विजित जर्मनी का किया। इसी के तरफ इशारा करते हुए लायड जॉर्ज ने ब्रिटिश संसद में कहा कि संधि की कुछ शर्ते कड़ी हो सकती हैं, लेकिन यदि जर्मनी जीतता तो मित्रराष्ट्रों की इससे भी अधिक दुर्दशा होती।

जनमत का आक्रोश- अभी तक के युद्धों से यूरोपीयों को जितनी कठिनाई हुई थी उससे कई गुनी अधिक प्रथम विश्वयुद्ध से कठिनाई हुई। इस परेशानी के लिए यूरोपीय जनता जर्मनी और उसके मित्रों को दोषी समझती थी और प्रतिशोधात्मक रूख अपनाते हुए अपने राजनयिकों को कड़ा-से-कड़ा रुख अपनाकर संधि करने के लिए प्रेरित करती थी। इंगलैंड और फ्रांस के लोग लायड जॉर्ज और क्लीमेंशो से वही अपेक्षा करते थे जो उन्होंने वर्साय संधि करते समय किया, या यों कहें कि अपनी जनता की इच्छा की अवहेलना करना इनके लिए आसान नहीं था, अत: उन्होंने जर्मनी के साथ कड़ी शर्तों के साथ संधि की। अगर सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधि जर्मनी के प्रति थोड़ा भी नरम रुख अपनाते तो संभव था कि कुछ देशों में सरकार के विरुद्ध हो जाता। मित्रराष्ट्रों के प्रतिनिधित्व स्वतंत्र नहीं थे। उन्हें अपने देश की जनता, के तीव्र प्रतिरोध की भावनाओं को ध्यान में रखना था। जनमत की उपेक्षा करना उसके लिए संभव नहीं था।

शांति-सम्मेलन का काल और विविध आयोग- कटुता और घृणा के वातावरण में शांति सम्मेलन की शुरुआत हुई। मार्शल फॉस का मत था कि तत्काल एक अस्थायी संधि कर ली जाए और बाद में स्थायी संधि सोच-समझकर की जाय। लेकिन, यूरोपीय जनता और राजनीतिज्ञों के उतावलेपन के कारण संधि की बात तुरंत शुरू हो गई। अभी तक युद्ध का घाव ताजा था, अत: संधि शुर्ते उसी अनुरूप कडी हुई। संभव था कि कुछ दिनों के बाद संधि होती तो संधि की शर्ते इतनी कड़ी नहीं होती।

इसके अलावा विभिन्न आयोगों के प्रतिवेदनों के आधार पर संधि की शर्ते तय की गई। एक आयोग दूसरे आयोग की कार्यवाहियों से वाकिफि नहीं था और सभी किसी-न-किसी तरह जर्मनी को दंडित करने में विश्वास करते थे। इसके परिणामस्वरूप सभी आयोगों का सम्मिलित दंड जर्मनी के लिए काफी भारी पड़ा। संभव था कि एक आयोग को सारे काम करने होते तो जर्मनी पर इतना कड़ा जुर्माना या संधि की शर्ते इतनी दुखदायी नहीं होती।

विविध आकांक्षाएँ- पेरिस् शांति-सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि विभिन्न आकांक्षाएं लेकर आए थे और वे अपनी आकांक्षाओं को किसी न किसी तरह वर्साय संधि में जुड़वाना चाहते थे। ऐसी स्थिति में शांति सम्मेलन के समक्ष इन विविध विचारों तथा माँगों में समन्वय कराने की समस्या थी। सभी को खुश रखते हुए न्यायपूर्ण समझौता करने की कोशिश में वर्साय संधि ने कूटनीतिज्ञ लोगों को खुश करने पर ज्यादा जोर दिया । यदि वे ऐसा नहीं करते तो विजयी राष्ट्रों में ही फूट पड़ने की संभावना थी। ऐसी हालत में वर्साय की संधि को कठोर होना उचित ही था।

राष्ट्रीयता के सिद्धांत का बहुत हद तक पालन- यह ठीक है कि वर्साय की संधि के समय उदारवादी आदर्शों की अवहेलना की गई, लेकिन राष्ट्रीयता और आत्मनिर्णय के अधिकार को वर्साय की संधि करते समय जर्मनी को छोड़कर बाको जगह लागू किया गया। कुछ जगहों पर राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों का उल्लंघन अवश्य हुआ, परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश मामलों में इस सिद्धान्त का पालन हुआ और राष्ट्रीयता की दृष्टि से 1919 ई० के बाद का यूरोप का मानचित्र 1914 ई० के पहले के यूरोप से कहीं अधिक संतोषजनक था। जर्मनी से भी जो क्षेत्र लिए गए उनमें आत्मनिर्णय के अधिकार का उपयोग कर वहां की जनता को अपने भाग्य का निर्णय करने का अधिकार दिया गया। श्लेश्वग और सार के क्षेत्र में आत्मनिर्णय के अधिकार से ही निर्णय हुआ कि वहाँ के लोग किस देश के साथ रहना चाहते हैं।

रूस की क्रांति- रूस की साम्यवादी क्रांति एक नई व्यवस्था विश्व के समक्ष लेकर आई जिससे पाश्चात्य देश भयभीत थे। पश्चिमी देशों को भय था कि यदि संधि की शर्ते नरम रहेंगी और संघि जल्दी नहीं होगी तो जर्मनी साम्यवादी रूस तरफ झुक जाएगा यूरोप को रूसी साम्यवाद से बचाने के लिए जरूरी था कि युद्ध के चलते उत्पन्न गरीबी को जल्दी से जल्दी मिटा दिया जाए जिससे साम्यवादी विचारों का प्रभाव यूरोपीय जनता पर नहीं हो सके और ऐसा जर्मनी से हर्जाना वसूल कर क्षतिग्रस्त राज्यों की क्षतिपूर्ति की जाए। इसके कारण भी वर्साय संधि की शर्ते कड़ी हो गई।

संधिकर्ताओं के चरित्र और उनपर दबाव- पेरिस शांति-सम्मेलन के नेता अधिकांशतः प्रजातांत्रिक सरकारों के नेता थे और उनके सामने आगामी चुनावों का भय था। अपने आदर्शों के लिए अपने पदों को खतरे में डालने के लिए वे तैयार नहीं थे। विजेताओं की विजय की खुशी, परेशानी के समय के क्षोभ और आक्रोश विवेक से काम करने में बाधक थे। लायड जॉर्ज एक उदरवादी नेता था, लेकिन युद्ध के बाद के चुनाव में जर्मनी से पाई-पाई वसूल करो, ‘कैसर को फाँसी दो’, ‘शिलिंग के लिए शिलिंग’ और ‘टन के लिए टन’ जैसे नारों ने उसे कड़ा रूख अपनाने के लिए बाध्य किया।

राष्ट्रसंघ की स्थापना- वर्साय संधि में ही राष्ट्रसंघ की स्थापना का भी प्रावधान था। विल्सन का आदर्शवादी रूख राष्ट्रसंघ की स्थापना पर अधिक केंद्रित था और लालची क्लीमेंशो इससे अच्छी तरह समझकर उसको भुनाता था। फिर भी राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई जिससे साबित होता है कि युद्ध से आक्रांत राष्ट्र शांति की खोज में राष्ट्रसंघ से शांति की अपेक्षा करते थे और उसे सहयोग देने को तैयार थे। फ्रांसीसी राष्ट्रपति पोंकारे ने राष्ट्रसंघ के सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा, “आपके हाथों में विश्व का भविष्य है।” और, यह सच भी था कि राष्ट्रसंघ से लोगों को बड़ी आशाएँ थी। उसकी उपयोगिता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि असहाय होने के बावजूद द्वितिय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रसंघ के भाग्नावशेष पर ही संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना करनी पड़ी।

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Pankaja Singh

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