इतिहास

प्रथम बाल्कन युद्ध के कारण | प्रथम बाल्कन युद्ध के परिणाम | द्वितीय बाल्कन युद्ध के कारण | द्वितीय बाल्कन युद्ध के परिणाम

प्रथम बाल्कन युद्ध के कारण | प्रथम बाल्कन युद्ध के परिणाम | द्वितीय बाल्कन युद्ध के कारण | द्वितीय बाल्कन युद्ध के परिणाम

प्रथम और द्वितीय बाल्कन युद्धों के कारण और परिणाम

सन् 1912 और 1913 में दो बाल्कन युद्ध हुए। इन युद्धों को सन् 1914 में छिड़े प्रथम विश्व युद्ध की भूमिका कहा जाता है। इसलिए इन युद्धों का महत्व बहुत अधिक है। इन युद्धों के कारण और परिणाम निम्नलिखित थे।

प्रथम बाल्कन युद्ध के कारण

(1) तुर्की साम्राज्य में विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों का निवास- सर चार्ल्स इलियट ने लिखा है कि “पूर्वी समस्या को समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि टर्की यूरोप के अन्य किसी भी देश से बिल्कुल भिन्न है। टर्की में न केवल अनेक जातियां निवास करती हैं, बल्कि वे अनेक जातियां अपने अलग-अलग प्रदेशों में नहीं, बल्कि सभी प्रदेशों में साथ-साथ रहती हैं। एक दूसरे से दस मील के अन्दर बसे तीन गांवों में से एक तुर्की का एक यूनानियों का और बल्गारों का, या सर्वो का या अल्बानियनों का हो सकता है। इन सब लोगों को अपनी भाषा, वेषभूषा और धर्म अलग-अलग हैं। किसी बड़े शहर में आठ अलग-अलग जातियों के लोग पाये जा सकते हैं,

(2) तुर्को का कुशासन- तुर्क लोग अच्छे शास्क नहीं थे। वे केवल कर वसूलते थे और अपना प्रभुत्व जमाये रखना चाहते थे। वे अपने प्रजाजनों के धर्म और रीति-रिवाजों में दखल नहीं देते थे। यूरोपीय टर्की में तुर्कों की संख्या अन्य जातियों के लोगों से बहुत कम थी। परन्तु वे विभिन्न जातियों में फूट डाले रहते थे और उन पर शासन करते थे। इसलिए उनका यत्न रहता था कि जाति, भाषा और धर्म की विविधता बनी रही।

परन्तु इन विभिन्न जातियों में तुकों के विरुद्ध असन्तोष फैलने लगा था। वे तुर्की शासन से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करना चाहती थी। जब तक उनमें एकता का अभाव रहा, तब तक उन्हें टर्की से दब कर रहना पड़ा।

(3) मैसीडोनिया की दुर्दशा- बाल्कन प्रायद्वीप में मैसीडोनिया में जातियों, धर्मों और भाषाओं की विविधता सबसे अधिक थी। ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति का सबसे अधिक प्रयोग भी मैसीडोनिया में ही हुआ। बल्गेरिया, सर्बिया और यूनान तीनों ही मैसीडोनिया को अपना बताते थे। परन्तु कोई भी ऐसा स्पष्ट आधार नहीं था, जिस पर उनका दावा सही माना जा सके। उनके आपसी मतभेद को टर्की और भड़काता था। इसलिए झगड़े की जड़ मैसीडोनिया ही बना।

(4) ‘युवा तुर्क’ आन्दोलन- टर्की का सुल्तान अदुल हमीद द्वितीय एक निरंकुश और निष्क्रिय शासक था। उसके शासन में टका दुबल हाता चला गया। आस्ट्रिया ने उसके बोस्निया और हर्जेगोविना प्रान्तों को हड्प लिया था। इससे क्षुब्ध होकर टों के शिक्षित युवा अफसरों ने सुल्तान अब्दुल हमीद के विरुद्ध विद्रोह करा दिया और उसे विवश किया कि वह निरंकुश शासन के स्थान पर सन् 1876 के संविधान के अनुसार संवैधानिक शासन की स्थापना करे। सुल्तान राजी हो गया और उसने कियामिल पाशा को अपना प्रधानमंत्री बनाया।

युवा तुर्क आन्दोलन ने तुर्क राष्ट्रीयता को भड़काया। इसमें तुर्की साम्राज्य की गैर-तुर्की जातियाँ शंकित हो उठीं। वैसे उनमें एकता न होती, किन्तु ‘युवा तुकों की उप नीति ने उसे परस्पर संगठित कर दिया।

(5) बाल्कन लीग की स्थापना-शुरू में युवा तुर्क आन्दोलन की सफलता से यह आशा बंधी थी कि जातीय तथा धार्मिक घृणाएँ समाप्त हो जायेंगी। हेजन ने लिखा है कि सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय के निरंकुश शासन की, “असहनीय परिस्थितियों से मुक्त होने के उपलक्ष्य में हुए भेदपूर्ण उत्सव में मुसलमान, ईसाई, यूनानी, सर्व, बलार और अल्बानियन आर्मीनियम और तुर्क सभी ने एक साथ भाग लिया।” पुरन्तु शीघ्र ही पता चल गया कि “तुर्की कभी बदलता नहीं है। उसके पड़ोसी, उसकी सीमाएँ और उसकी विधान पुस्तकें भले ही बदल जायें, परन्तु उसके विचार और आचार ज्यों के त्यों बने रहते हैं । वह किसी का हस्तक्षेप सहन करने को तैयार नहीं वह किसी तरह सुधरने को तैयार नहीं।” युवा तुर्की ने भी अधीन जातियों पर अत्याचार करने की नीति छोड़ी नहीं। हेजेन के शब्दों, “उनकी नीति तुर्कीकरण की थी, जिस प्रकार पोलैण्ड में रूसियों को रूसीकरण की और जर्मनों की जर्मनीकरण की रही थी” आर्मीनिया और मैसीडोनिया में बड़े पैमान पर ईसाईयों की हत्याएं की गई। इन कारण से बल्गेरिया, सर्बिया और यूनान एक दूसरे के प्रबल विरोधी होते हुए भी टर्की के विरुद्ध परस्पर मिल कर एक हो गये। उन्होंने एक “बाल्कन लीग’ (Balcun Lague) का गठन कर लिया। मांटेनीयो भी उसमें सम्मिलित हो गया। 15 अक्टूबर सन् 1921 को इस लोग ने टर्की के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।

(6) तुर्की साम्राज्य में विदेशों के हित- टर्की का साम्राज्य विशाल था, पर उसे संभालने की शक्ति उस्में नहीं रही थी। रूस, आस्ट्रिया, इटली और फ्रांस उसके विभिन्न प्रदेशों पर ललचाई निगाहें गड़ाये हुए थे। जर्मनी आस्ट्रिया का समर्थक था और रूस सर्बिया का । इंगलैण्ड रूम का प्रभाव तुर्की साम्राज्य में बढ़ने नहीं देना चाहता था। इन कारणों से तुर्की साम्राज्य में होने वाली हर एक घटना में यूरोप की बड़ी शक्तियों की दिलचस्पी बनी रहती थी। विदेशों की यह दिलचस्पी प्रथम बाल्कन युद्ध का एक कारण थी।

(7) इटली के साथ युद्ध में टर्की की पराजय सितम्बर 1911 में इटली ने उत्तरी अफ्रीका में तुर्की साम्राज्य के एक भाग ट्रिपोली पर आक्रमण कर दिया। ट्रिपोली में उसे यथेष्ट सफलता नहीं मिली। लड़ाई लम्बी खिचती गई। इन पर इटली ने इंजियन सागर में रोड्स तथा अन्य बारह द्वीपों पर अधिकार कर लिया। अल्बानिया के विद्रोह से टर्की पहले ही पेरशान था। अतः उसने हार कर इटली से सन्धि कर ली। टर्की की इस पराजय से भी बाल्कन लीग को टर्की पर हमला करने के लिए प्रोत्साहन मिला।

(8) अल्बानिया का विद्रोह- युवा तुर्को ने अपनी उम् नीति से अल्बानियावासी मुसलमानों को भी अपना शत्रु बना लिया था। अल्बानिया के लोग प्रबल योद्धा थे। उन्होंने अपने देश को स्वाधीन कराने के लिए विद्रोह कर दिया। टर्की ने बल प्रयोग करके विद्रोह का दमन कर दिया। परन्तु अल्बानिया में हर साल नया विद्रोह होता रहा और टर्की को अपनी शक्ति दमन में लगानी पड़ी। अल्बानिया के विद्रोह से भी बाल्कन लीग को टर्की के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की प्रेरणा मिली।

प्रथम बाल्कन युद्ध की घटनाएँ

सहबद्ध राष्ट्रों (बलोरिया, युनान, सर्बिया और मौटेनीमो) की सेनाओं ने एक निश्चित योजना के अनुसार एक साथ कई मोर्चों पर युद्ध छेड़ दिया । सब मोचों पर उन्हें आशातीत सफलता मिली। इनमें बड़ी सेना बलोरिया की थी। उसने किर्क किलिसी और लूले बर्गास की लड़ाइयों में तुर्क सेना को बुरी तरह हरा दिया। बलोरिया के सैनिक इतात्ना दुर्ग पंक्ति पहुंच गये। उन्होंने ऐड्रियानोपल पर घेरा डाल दिया और कुस्तुन्तुनिया की ओर बढ़ चले, जो केवल 25 मील दूर रह गया था।

यूनानियों ने मैसीडोनिया पर हमला किया और प्रसिद्ध बन्दरगाह सालोनिका पर कब्जा कर लिया। यूनानी नौसेना ने ईजियन सागर में टर्की के अनेक द्वीपों पर अधिकार कर लिया।

सर्व सेना ने उस्कुब (Uskub) मोनास्तीर और ओचरीदा पर कब्जा कर लिया। अब आगे लड़ाई जारी रखने में कोई लाभ नहीं था, अतः टर्की ने संधि की चर्चा चलाई। 3 दिसम्बर को युद्ध विराम हो गया। लंदन में एक शान्ति सम्मेलन शुरू हुआ। चर्चा लम्बी खिचती रही। इस बीच टर्की में उग्रपन्थी लोगों का प्रभाव बढ़ गया। प्रधानमंत्री कियामिल पाशा को अनवर बे (Enver Bey) ने अपदस्थ पर दिया। लड़ाई फिर शुरू हो गई।

परन्तु तुर्की सेनाओं की फिर हार हुई। शीघ्र ही ऐड्रियानोपल, जैनीना और स्कुटारी के प्रसिद्ध गढ़ उनके हाथ से निकल गये। टर्की को हार कर फिर सन्धि करनी पड़ी।

30 मई 1913 को लंदन में हुई संधि के अनुसार टर्की को अपने यूरोपीय साम्राज्य का अधिक भाग त्याग देना पड़ा। ईजियन सागर पर स्थित ईनोस (Enos) से लेकर काले सागर पर स्थिति मिडिया (Midia) तक की रेखा के पश्चिम का भाग बाल्कन सहबद्ध राष्ट्रों (Allies) को सौंप दिया गया। क्रीट (Crete) का द्वीप समूह यूनान को दे दिया गया। अल्बानिया की सीमाओं का फैसला बड़ी शक्तियों द्वारा किया जाना था।

प्रथम बाल्कन युद्ध के परिणाम

प्रथम बाल्कन युद्ध के परिणाम टर्की के लिए बहुत हानिकारक और बाल्कन सहबद्ध राष्ट्रों के लिए अत्यन्त लाभदायक रहे ।

टर्की- टर्की का यूरोपीय क्षेत्र लगभग सब का सब छिन गया। उसकी दुर्बलता सारी दुनिया के सम्मुख प्रकट हो गई। उसकी प्रतिष्ठा घूल में मिल गई। उसके लगभग 1 ½ लाख सैनिक हताहत हुए। यूरोपीय टर्की का क्षेत्रफल बहुत ही थोड़ा रह गया।

बल्गेरिया- प्रथम बाल्कन युद्ध के बाद वल्गेरिया की स्थिति बहुत अच्छी हो गई। उसका क्षेत्रफल बढ़ कर दुगुना हो गया था। मैसीडोनिया का बड़ा भाग और थ्रेस उसे मिला था। यह उचित भी था, क्योंकि युद्ध का बड़ा बोझ बल्गेरिया पर ही पड़ा था। उसके लगभग 1 1/2 लाख सैनिक हताहत हुए थे। उसे काफी बड़ा समुद्र तट प्राप्त हो गया था, जिसमें को अच्छे बन्दरगाह थे। प्रथम बाल्कन युद्ध के फलस्वरूप बल्गेरिया सबसे महत्वपूर्ण बाल्कन राष्ट्र बन गया था।

ग्रीस (यूनान), सर्बिया और मौटेनीयो को भी काफी बड़े प्रदेश प्राप्त हो गये।

दूसरा बाल्कन युद्ध

कारण-(1) बाल्कन राष्ट्रों में फूट- बल्गेरिया, यूनान, सुर्बिया और मौटेनीग्रो टर्की से लड़ने के लिए एक अवश्य हो गये थे किन्तु उनमें आपस में बहुत विरोध था। लड़ाई में जीते गये प्रदेशों का बंटवारा करते समय यह विरोध प्रबल रूप में प्रकट हुआ। बल्गेरिया का कहना था कि टर्की के विरुद्ध युद्ध में सबस अधिक भाग उसने लिया है। विजय मुख्य रूप से उसी के कारण मिली है; जन-धन की हानि भी उसकी ही सबसे अधिक हुई है, इसलिए विजय का अधिक लाभ उसे मिलना चाहिए। इसके विपरीत, यूनान, सर्बिया और मंटिनीग्रो का कथन था कि विजय चारों सहबद्ध राष्ट्रों के सम्मिलित प्रयल से मिली है, अतः उसका लाभ सबको बराबर मिलना चाहिए।

(2) अल्बानिया का निर्माण- हेजन ने लिखा है कि विजयी बाल्कन’ राष्ट्रों में लूट के विभाजन पर जो आपसी विरोध उत्पन्न हुआ, उसका उत्तरदायित्व अंशतः बड़ी शक्तियों, विशेष रूप से आस्ट्रिया-हंगरी पर है। “इन बड़ी शक्तियों का आग्रह था कि तूर्की द्वारा दिये गये भू भाग में से एक नया स्वाधीन राज्य अल्बानिया बनाया जाये ।” इस नये राज्य अल्बानिया के बन जाने से सर्बिया समुद्र तट तक नहीं पहुंच सकेगा, जो उसकी एक बड़ी अभिलाषा थी।

टर्की के साथ युद्ध छेड़ने से पहले सर्बिया और बल्गेरिया में यह स्पष्ट समझौता हो गया था कि मैसीडोनिया का बड़ा भाग बल्गेरिया को मिलेगा और सर्विया को मुख्यतः पश्चिम का क्षेत्र मिलेगा जिसमें ऐड्रियाटिक का समुद्र तट भी सम्मिलित था। अब अल्बानिया राज्य के निर्माण से ऐड्रियाटिक का समुद्र तट सर्विया को नहीं मिल सकता था। प्रो० हेजन के शब्दों में, “सर्बिया के समुद्र के मार्ग के अवरोध के कारण सहबद्ध राष्ट्रों के मध्य दूसरा बाल्कन युद्ध हुआ।” लिप्सन ने भी इसके लिए आस्ट्रिया और इटली को दोषी ठहराया है।

जब सर्बिया को ऐड्रियाटिक समुद्र तट प्राप्त होता दिखाई नहीं पड़ा, तब उसने बल्गेरिया से मांग की कि वह उसे मेसीडोनिया में कुछ और अधिक प्रदेश दे। बल्गेरिया इस विषय में कोई रियायत देने को तैयार नहीं हुआ।

(3) बल्गेरिया का समझौता-विरोधी रुख- बल्गेरिया का कहना था कि वह सर्विया के साथ हुए अपने समझौते का पालन करेगा और उससे अधिक कुछ नहीं देगा। सर्बिया का कहना था कि जब समझौता हुआ था, तब से स्थिति अब बदल गई है, क्योंकि अल्वानिया के निर्माण द्वारा वह ऐड्रियाटिक समुद्र तट से वंचित कर दिया गया है। अतः उसे मध्य मैसीडोनिया में विस्तृत प्रदेश मिलना चाहिए। बल्गेरिया ने इस विषय में कोई नया समझौता करना स्वीकार नहीं किया।

प्रो० हेजन का कहना है कि “बलोरिया की सेना अपनी हाल की विजयों के कारण फूली नहीं समाती थी। यूनानियों और सर्बियावासियों से घृणा सी करती थी। वह समझती थी कि आवश्यकता पड़ने पर वह यूनान और सर्बिया दोनों को आसानी से जीत सकती है।

इसलिए लिप्सन के शब्दों में, “बलोरिया ने एक बड़ी गलती यह की कि 29 जून 1913 को उसने अपने साथी राष्ट्रों यूनान और सर्बिया पर आक्रमण कर दिया।”

युद्ध की घटनायें- बल्गेरिया की आशा के ठीक विपरीत यूनान और सर्बिया की सेनाओं ने डट कर लड़ाई की। इस अवसर से लाभ उठाने के लिए रूमानिया ने भी बलोरिया पर चढ़ाई कर दी। उधर टर्की ने भी बल्गेरिया पर हमला करके अपने बहुत से छिने हुए प्रदेशों पर फिर अधिकार कर लिया। ऐड्रियानोपल उसने बुल्गेरिया से वापस ले लिया। इस प्रकार सब ओर से एक साथ शत्रुओं का आक्रमण हो जाने से बलोरिया को हार कर सन्धि करनी पड़ी।

बुखारैस्ट की सन्धि की शर्ते

(1) रूमानिया को बोरिया से सिििस्ट्रया (Silistria) और डोबिच (Dobrich) प्राप्त हुए, जो बल्गार जिले थे और लिप्सन के शब्दों में, जिन्हें रूमानिया को दिये जाने का कोई औचित्य नहीं था।

(2) मैसीडोनिया बल्गेरिया से छिन गया और वह सर्बिया, यूनान तथा मौटेनीग्रो में बांट दिया गया। सर्बिया को मुध्य मैसीडोनिया, मौटेनीयो को पश्चिमी मैसीडोनिया और यूनान को दक्षिणी मैसीडोनिया और यूनान को दक्षिणी मैसीडोनिया, सालोनिका, ऐपिरस और पूर्व में मेस्टा तक का समुद्र तट मिला।

(3) टर्की ने ऐड्रियानोपल डैमोटिका और किर्क किलिसी पर फिर अधिकार कर लिया।

(4) बल्गेरिया को समुद्र तट तक पहुँचने के लिए डैडीगैच (Dedeagatch) बन्दरगाह के पास संकरी सी पट्टी दे दी गई।

दूसरे बाल्कन युद्ध के परिणाम

दूसरे बाल्कन युद्ध से बल्गेरिया को भारी हानि हुई और उसके खर्च पर प्रीस, सर्बिया, रूमानिया, टर्की और मटेिनीयो, सभी को लाभ हुआ।

बल्गेरिया- प्रथम बाल्कन युद्ध से बल्गेरिया को जो लाभ हुए थे, वे सब उससे छिन गये। बाल्कन राष्ट्रों में उसका सबसे महत्वपूर्ण स्थान भी जाता रहा । सारा मैसीडोनिया, थ्रेस और औचरीडा, मोनास्तीर, कवाला, ऐड्रियानोपल जैसे प्रमुख गढ़ उससे छिन् गये। विस्तृत समुद्र तट के बजाय समुद्र तक पहुँचने के लिए एक संकरी सी पट्टी ही उसके पास रही। इससे बल्गार लोगों के मन में भारी कटुता भर गई।

ग्रीस (यूनान)- दूसरे बाल्कन युद्ध से ग्रीस को कवाला, सालोनिका, ऐपिरस, तथा अन्य अनेक द्वाप प्राप्त हुए। बाल्कन युद्धों के फलस्वरूप ग्रीस् का क्षेत्रफल बढ़ कर पहले से दुगुना हो गया। परन्तु प्रीस टर्की, थ्रेस और मैसीडोनिया के उन सब प्रदेशों को पाना चाहता था, जिनमें यूनानी रहते थे। वे प्रदेश उसे न मिले, इसलिए वह असन्तुष्ट रहा ।

सर्बिया- सर्बिया को भी दूसरे बाल्कन युद्ध से बहुत लाभ हुआ। उसे मध्य मैसीडोनिया, आधा नबी बाजार, और पुराना सर्विया मिल गया। दोनों बाल्कन युद्धों में उसका क्षेत्रफल बढ़ कर पहले से दुगुना हो गया। इसके बाद भी सर्विया अधिक असन्तुष्ट राष्ट्र रहा, क्योंकि आस्ट्रिया और इटली के आग्रह पर उसे ऐड्रियाटिक समुद्र तट तक न पहुंचने दिया गया।

रूमानिया- रूमानिया ने दूसरे बाल्कन युद्ध में कूद कर आसानी से बलोरिया के दो जिले सिलिस्ट्रिया औरा डोब्रिच ले लिए जिनके लेने के लिए कोई औचित्य नहीं था। अब रूमानिया सबसे महत्वपूर्ण बाल्कन राष्ट्र बन गया। परन्तु वह अब भी इसलिए असन्तुष्ट रहा कि उसे ट्रांसिल्वानिया, बैसराबिया और बुकोविना के प्रदेश प्राप्त न हुए जिनमें उसके लाखों सजातीय व्यक्ति निवास करते थे।

मौटेनीग्रो- मौटेनीग्रो छोटा सा देश था। उसको नबी बाजार का पश्चिमी भाग मिला, किन्तु स्कुटारी का प्रसिद्ध बन्दरगाह उसे न मिला। इससे वह समुद्र तट की ओर अपना विस्तार करने में असफल रहा और इसलिए असन्तुष्ट रहा।

टर्की- प्रथम बाल्कन युद्ध में टर्की ने सब कुछ गंवाया ही गंवाया था, किन्तु दूसरे बाल्कन युद्ध में उसने उसमें से थोड़ा बहुत वापस पा लिया ऐड्रियानोपल, किर्क किलिसी और डैमोटिका उसे फिर वापस मिल गयें। किन्तु कुल मिलाकर दोनों बाल्कन युद्ध टर्की के लिए अत्यधिक हानिकारक रहे। बाल्कन राष्ट्रों तथा पश्चिमी शक्तियों के विरुद्ध तुर्को के मन में अत्यन्त कटुता भर गई।

अल्बानिया- अल्बानिया पर आस्ट्रिया, इटली, सर्बिया और यूनान, सभी की लोलुप दृष्टि थी। वे उसके विभिन्न भागों पर अधिकार करने के लिए लालायित थे। परन्तु प्रो. मैरियट के शब्दों में, “बड़ी शक्तियां अल्बानिया को एक स्वाधीन राज्य बनाने के लिए कटिवद्ध थीं, क्योंकि इसमें कई लाभ थे। इससे आस्ट्रिया, हंगरी और इटली की महत्वाकांक्षाओं को रोका जा सकता था; उत्तरी ऐपिरस पर यूनानियों के दावे को टाला जा सकता था; यह राज्य (अल्बानिया) दक्षिणी स्लाबों को ऐड्रियाटिक समुह तट तक पहुंचने से रोक सकता था। सबसे बड़ी बात यह कि पूर्वी यूरोप के लिए जर्मनी की योजनाओं में बाल्कन लीग के बनने से जो अड़चन पैदा हो गई थी, उसे यह कुछ अंश तक दूर कर सकता था” परन्तु अल्बानिया के निर्माण से सर्बिया अत्यन्त रुष्ट था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बाल्कन युद्धों ने और विशेष रूप से उनके अन्त में हुई सन्धियों ने पूर्वी यूरोप में असन्तोष और कुटुता भर दी। सर्विया आस्ट्रिया से रूष्ट था कि उसने उसे ऐड्रियाटिक समुद्र तट प्राप्त नहीं करने दिया । बलोरिया इसलिए क्षुब्ध था कि प्रथम बाल्कन युद्ध के लाभ उससे छिन गये। टर्की इसलिए रुष्ट था कि उसका लगभग सारा यूरोपीय प्रदेश उससे छीन लिया गया। सालोनिका को लेकर आस्ट्रिया और यूनान एक दूसरे के शत्रु बने हुए थे। इस प्रकार पूर्वी यूरोप असन्तोष के बारूद का एक ढेर बना हुआ था, जो विस्फोट के लिए एक चिनगारी की प्रतीक्षा कर रहा था।

बाल्कन युद्ध प्रथम विश्वयुद्ध की भूमिका थे- इन आपसी कुटुताओं के कारण ही प्रथम विश्व युद्ध हुआ। प्रो० हेजन ने लिखा है कि “सन् 1912 और 1913 के युद्ध सन् 1914 के यूरोपीय युद्ध की भूमिका थे। जुलाई 1908 की तुर्की क्रान्ति से शुरू करके जुलाई 1914 में सर्विया के विरुद्ध आस्ट्रिया की युद्ध घोषणा तक घटनाओं का अनुक्रम बिल्कुल सीधा, भ्रान्तिरहित और विपत्तिकर है। प्रत्येक लम्बी होती हुई लोहे की जंजीर में एक नई कड़ी और जुड़ती गई।” प्रांट और टैम्परले ने भी लिखा है कि ‘सन् 1914 के विश्व युद्ध के लिए अन्य कोई भी घटना इतनी उत्तरदायी नहीं है जितनी कि बाल्कन युद्ध ने टर्की की पराजय द्वारा तात्कालिक संकट उत्पन्न कर दिया, क्योंकि इससे शक्ति-संतुलन बिगड़ गया। बाल्कन युद्धों के पश्चात् आस्ट्रिया और टर्की के अधीन अन्य जातियाँ अपनी स्वाधीनता के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन चलाने लगी।”

इसके अतिरिक्त बाल्कन युद्धों में जन-धन की भारी क्षति हुई। टर्की और बल्गेरिया के डेढ़-दो लाख, यूनान और सर्बिया के सत्तर-सत्तर हजार और मौटेनीग्रो के दस हजार सैनिक हताहत हुए।

नृशंस हत्याकांड- इन युद्धों में ईसाई सैनिकों ने ईसाइयों पर ही भीषण अत्याचार किये बड़े-बड़े हत्याकांड हुए, जिनके विषय में लिप्सन ने लिखा है कि “इस् भ्रातृघाती संघर्ष में इस प्रायद्वीप की ईसाई जनता ने दिखला दिया कि हत्याकांडों के बारे में उन्हें तुर्कों से कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है।”

बाल्कन युद्धों के विषय में ब्रिटेन के विदेश मंत्री सर ऐडवर्ड ग्रे के ये शब्द बिल्कुल सही हैं कि “बाल्कन युद्ध स्वाधीनता संग्राम के रूप में शुरू हुआ, परन्तु वह शीघ्र ही प्रदेश हथियाने का युद्ध बन गया और यदि सारे आरोप सत्य हों तो उसका अन्त एक युद्ध के रूप में हुआ।

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Pankaja Singh

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