इतिहास

इटली में फासिस्ट अधिनायक तंत्र की स्थापना | इटली में फासीवाद के उदय के कारण

इटली में फासिस्ट अधिनायक तंत्र की स्थापना | इटली में फासीवाद के उदय के कारण

इटली में फासिस्ट अधिनायक तंत्र की स्थापना

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इटली के नगरों में एक नारा सुनाई पड़ता था, “लेनिन चिरंजीवी हो”। रूस की तरह वहाँ भी मजदूर कारखानों पर स्वामित्व प्राप्त करना चाहते थे और किसान जमीनों को छीन रहे थे परन्तु इटली साम्यवादी नहीं बना। अनुभव शून्यता और कच्चा माल प्राप्त करने में असमर्थता के कारण विवश होकर मजदूरों ने छीने हुए कारखानों को छोड़ दिया। इस समय लोगों के कुछ गिरोहों ने, जो अपने आप को ‘फासिस्ट कहते थे, यह घोषणा की कि वे इटली को साम्यवाद से रक्षा करेंगे। ‘फासिस्ट’ शब्द उस नाम से बना है, जो प्राचीन रोमनों ने रोमन सरकार के प्राधिकार और शक्ति के एक प्रतीक का रखा था। यह प्रत्येक युद्ध के फरसे के चारों ओर लिपटी हुई छड़ों के गट्ठर के रूप में था।

फासिस्ट कौन थे-

इस संगठन में बहुत से तो युद्धे में लड़ चुके सैनिक थे, जिन्होंने युद्ध से लौटकर देखा कि मुनाफाखोर व्यक्ति धनवान हो रहे हैं, कीमतें बढ़ रही हैं, कारखाने बन्द हो रहे हैं, और नौकरियों का मिलना लगभग असम्भव हो गया है । इनमें बहुत से उग्र राष्ट्रवादी और साम्राज्यवादी थे, जो इस बात से नाराज थे कि इटालियन लोगों को शान्ति संधियों में उतना लाभ प्राप्त नहीं हुआ, जितना कि उन्हें युद्ध पूर्व में वचन दिया था। कुछ सैन्यवादी थे जो अपेक्षाकृत बड़ी सेना तथा अधिक राजनीतिक प्रभाव चाहते थे। कुछ लोग इसलिए फासिस्ट बन गये, क्योंकि वे इटली की युद्धोत्तर गड़बड़ियों के लिए घूसखोर, निकम्मी संसदीय सरकार को दोषी ठहराते थे, जिसका अध्यक्ष राजा विक्टर इमेनअल तृतीय था। फासिस्ट आन्दोलन के समर्थकों को अधिकांश धन व्यवसायियों और जमींदारों से प्राप्त होता था क्योंकि वे साम्यवाद् की आशंका से डरे हुए थे। वे इटली के असंतुलित बजट, सस्ती कागजी मुद्रा और घटते हुए विदेशी व्यापार से चिंतित थे। फासिस्टवाद सम्पत्ति के अधिकारों की रक्षा का, प्रवल राष्ट्रवाद, सैन्यवाद और साम्राज्यवाद, का , सब विरोधियों के दमन का और एकदलीय अधिनायक तंत्र का पृष्ठपोषक था।

समाजवादियों से घृणा करने वाले फासिस्टों का नेता, एक समय समाजवादी रहा, बेनिटो मुसोलिनी था । किसी समय उसने हिंसापूर्वक पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए, अंतर्राष्ट्रीयता और लोकतंत्र का प्रचार करने वाले और साम्राज्यवाद, सैन्यवाद् और राष्ट्रवाद की निंदा करने वाले सम्पादकीय लेख लिखे थे। उसने मिलान से ‘पोपोलो डी इटेलिया नामक दैनिक समाचार पत्र में ऐसे उत्तेजक लेख लिखे, जिसके कारण इटली मई, 1915 में मित्रराष्ट्रों की ओर से युद्ध में सम्मिलित हो गया। जेक्सन का मत है कि इस समाचार-पत्र को चलाने के लिए उसे फ्रांस से आर्थिक सहायता मिली थी। 1916 ई० में मुसोलिनी भी एक साधारण सैनिक के रूप में युद्ध क्षेत्र में गया था किन्तु कुछ माह बाद् गम्भीर रूप से घायल हो जाने के कारण उसे युद्ध से वापस भेज दिया गया। स्वस्थ हो जाने के बाद उसने पुन: अपने पत्र का सम्पादन आरम्भ कर दिया। युद्ध काल के अन्त तक वह साम्यवादियों के युद्ध विरोधी प्रचार का खण्डन करता रहा और अपने देशवासियों के मनोबल को ऊंचा बनाये रखने का प्रयल करता रहा।

इटली की युद्धोत्तर काल की कठिन परिस्थितियों के कारण मुसोलिनी को फासिस्ट संगठन स्थापित करने का अवसर मिला। मुसोलिनी ने स्वयं लिखा था कि “महायुद्ध को समाप्ति के बाद के दो वर्ष (1919 व 1920 ई.) मुझे इटली के जीवन के सर्वाधिक अँधकारपूर्ण एवं कष्टदायक प्रतीत हुए।” पेरिस के शान्ति सम्मेलन के असंतोषजनक निर्णय और उसके साथ देश की लगातार बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी, अशान्ति और अराजकता तथा साम्यवादी क्रान्ति के भय के कारण जनता के विभिन्न वर्ग सरकार के विरोधी हो गये। उन्हें निर्बल एवं अकर्मण्य प्रजातंत्रीय सरकार से किसी भी प्रकार की आशा नहीं रही। ऐसी स्थिति में मुसोलिनी ने, 23 मार्च, 1919 को मिलान् नगर में ‘फासियो डी कम्बेटिमेन्टो’ या फासी (सैन्यदल) की स्थापना की। ‘फासियो’ शब्द लेटिन भाषा के ‘फासेस’ (Fasces) का रूपान्तर था, जिसका अर्थ होता है “गट्टा या समूह ।” इस संगठन के आरम्भिक सदस्यों की संख्या केवल 54 थी और उनमें भूतपूर्व सैनिक तथा उग्र विचारों के राष्ट्रवादी लोग थे। इस दल ने अपना प्रारम्भिक ध्येय युद्ध से लौटकर आये सैनिकों को न्यायोचित अधिकार दिलवाना तथा उनके हितों की रक्षा करना, देश की आंतरिक नीति में कुछ परिवर्तन करना और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में इटली की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए काम करना था। इस दल के स्वयंसेवक काली कमीज पहनते थे, अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे और अनुशासनप्रिय थे । उनका अपना ध्वज था। मुसोलिनी दल का प्रधान कमाण्डर था, जिसे ड्यूस (Duce) कहा जाता था। उसने अपने घोषणा-पत्र में अपने दल का निम्नलिखित कार्यक्रम प्रस्तुत किया-

(1) हथियार बनाने वाले कारखानों का राष्ट्रीयकरण किया जाय।

(2) कुछ उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण स्थापित किया जाय।

(3) मजदूरों से आठ घण्टे से अधिक काम न लिया जाय।

(4) युद्ध काल में पूंजीपतियों ने जो मुनाफा कमाया है, उसका 85 प्रतिशत जब्त कर लिया जाय।

(5) चर्च की सम्पत्ति जब्त कर ली जाय ।

(6) देश का नया संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा गठित की जाय जिसमें आनुपातिक निर्वाचन प्रणाली तथा वयस्क मताधिकार को स्वीकार किया जाय।

(7) फ्यूम तथा डालमेशिया पर इटली का अधिकार स्थापित किया जाय।

(8) आर्थिक कौंसिलों का निर्माण किया जाय और उन्हें कानून बनाने के अधिकार प्रदान किये जायें।

फासिस्ट दल के इस घोषणा पत्र के कारण उसको बहुत लोकप्रियता मिली। फासीवाद की व्याख्या करते हुए मुसोलिनी ने लिखा है- “फासीवाद कोई ऐसा सिद्धान्त नहीं है, जिसकी हर बात को विस्तारपूर्वक पहले से ही स्थिर कर लिया गया हो । फासीवाद का जन्म कार्य किये जाने की आवश्यकता के कारण हुआ है। अतः फासीवाद सैद्धान्तिक होने के स्थान पर आरम्भ से ही व्यावहारिक रहा है।”

मेरीयन आइरिश के मतानुसार “अपने विकसित रूप में फासीवाद एक दल का शासन है, जिस पर तानाशाह का नियंत्रण रहता है । यह तानाशाह सर्वाधिकार पूर्ण राज्य (Totalitarian State) की स्थापना चाहता है। फासीवाद के अन्तर्गत उन्नीसवीं शताब्दी के राजनीतिक राष्ट्रवाद का, बीसवीं शताब्दी के आर्थिक समष्टिवाद के साथ समन्वय रहता है।” मुसोलिनी ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही कि “हम फासिस्टों में परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्तवादियों की मान्यताओं को तोड़ने का साहुस है। हम कुलीनतंत्रवादी भी हैं, क्रांतिकारी भी हैं और प्रतिक्रियावादी भी; श्रमजीवी भी हैं और श्रमिक विरोधी भी, शान्तिवादी भी हैं। इतना ही काफी है कि हम लोगों का एक दृष्टि बिन्दु है-सर्वप्रथम राष्ट्र और सब बातें बाद की।”

फासीवाद के स्रोत-

फासीवाद का कोई मौलिक दर्शन नहीं है। यह अनेक दार्शनिक विचारधाराओं का मिश्रण है। वास्तव में यह एक विरोधी दार्शनिक विचारधारा है और अनेक दार्शनिक विचाराधाराओं का विरोध करती है। फासीवाद के समर्थक अवसरवादी थे। वे कार्य में विश्वास करते थे, बात में नहीं। मुसोलिनी डार्विन से अधिक प्रभावित था । डार्विन के अनुसार, जो जीवन संघर्ष की प्रतिस्पर्धा में ठहर नहीं सकते, वे नष्ट हो जाते हैं । जीवन संघर्ष से भरा हुआ है। फासीवादी का मुख्य स्रोत बुद्धि विरोधवाद है। फासीवाद में इसको ग्रहण किया गया है क्योंकि सम्पूर्ण मानव जाति पूर्ण रूप से बुद्धिमान नहीं हो सकती । फासीवाद का आधार परम्परावादी भी है। इसी विचारधारा के आधार पर फासीवादियों ने उग्र राष्ट्रवाद का निर्माण किया। फासीवाद हीगल के आदर्शवाद (Idealism) से भी प्रभावित है। इस प्रकार फासीवाद विरोधीवादों का मिला-जुला वाद था।

फासिस्टों के उद्देश्य-

फासीवाद, व्यक्तिवाद, पूँजीवाद, अन्तर्राष्ट्रीय समाजवाद, उदारवाद और लोकतंत्रवाद का कट्टर विरोधी था। वह ‘राज्य (State) को सर्वश्रेष्ठ मानता था। “राज्य के भीतर सब कुछ है, राज्य के बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं है।” फासीवाद् एक दल, एक नेता और एक शासन में विश्वास रखता था। यह युवकों को आह्वान देता था-विश्वास करो, आज्ञा मानो और लड़ो।”

फासिस्टों के मुख्य उद्देश्य थे-

राज्य की शक्ति एवं सत्ता को बढ़ाना, निजी सम्पत्ति की रक्षा, शक्तिशाली सैन्य संगठन, साम्यवाद का विरोध, शक्तिशाली विदेश नीति, व्यापार व उद्योग-धंधों की रक्षा आदि।

मार्च, 1919 में मिलान में अपने दल के गठन के पश्चात मुसोलिनी ने इस दल के संगठन पर जोर दिया। प्रारम्भ में इस संगठन की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। 1919 ई. के संसदीय चुनावों में फासिस्टों को कोई भी स्थान प्राप्त नहीं हुआ। किन्तु मुसोलिनी इससे निराश नहीं हुआ। वह साहस के साथ अपने संगठन में लगा रहा। फासिस्टों ने देश के समक्ष जो प्रथम कार्यक्रम, रखा, उसमें कुछ समाजवादी सुधारों की मांग की गई। इनमें आनुपातिक निर्वाचन प्रणाली, सार्वलौकिक मताधिकार, मजदूरों के लिए काम को आठ घण्टे की सीमा, पूँजीपतियों. पर अधिक कर, चर्च की सम्पत्ति को जब्त करना, सीनेट की समाप्ति, नयी शासन प्रणाली अपनाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय संविधान सभा आमंत्रित करना, शस्त्रास्त्र बनाने वाले कारखानों का राष्ट्रीयकरण तथा फ्यूम और डालमेशिया का तुरन्त अधिग्रहण करना आदि बातों का उल्लेख था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य, विशेष रूप से युद्ध से अवकाश प्राप्त सैनिकों को अपनी ओर आकर्षित करना था।

मुसोलिनी ने बड़े जोश से अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। वह कहता था-“आज फासिज्म एक पार्टी है, एक फौज है, एक संस्था है। किन्तु यह काफी नहीं है। इसे इटली की आत्मा बनकर रहना चाहिए।” वह नवयुवकों को कहा करता था-“तुम खतरनाक बनकर जीवन बिताओ । अगर मै आगे बढ़ता हूँ, तो मेरा अनुसरण करो और यदि मैं पीछे हटता हूँ, तो मुझे गोली मार दो। मैं शान्ति में विश्वास नहीं करता।”

मुसोलिनी के शक्तिशाली नेतृत्व में फासिस्ट दल की शक्ति निरंतर बढ़ती गयी। 1919 ई० में इटली में केवल 22 फासिस्ट सभाएँ थीं, जिनमें 17,000 सदस्य थे। 1920 ई० में फासिस्ट सभाओं की संख्या 118 हो गयी और इसके सदस्य 30,000 हो गये। 1921 ई० में 1200 फासिस्ट सभाएँ थीं और 3,07,000 सदस्य थे। मुसोलिनी के अद्भुत साहस और संगठन का ही यह परिणाम था कि तीन साल के थोड़े से समय में उसकी पार्टी इटली की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी। अब समय आ गया था, जबकि लोक निर्मित सरकार, रोम स्थित सरकार को चुनौती देने वाली थी। फासिस्ट दल के सदस्य काली कमीज पहनते थे, इनकी सैनिक ढंग पर कार्यशील टोलियाँ बनाई गई थीं।

फासिस्ट सिद्धान्त-

मार्क्स तथा लेनिन की भाँति मुसोलिनी ने फासिस्टवाद के आधारभूत सिद्धान्त निर्धारित नहीं किये थे। उसने राजनीतिक तथा नागरिक जीवन से सम्बन्धित कोई घोषण-पत्र प्रकाशित नहीं किया था। इसलिए सेवाइन नामक विद्वान ने कहा है कि “फासिज्म अस्पष्ट है क्योंकि यह विभिन्न स्रोतों से प्राप्त विभिन्न विचारों का संकलन मात्र है। इन सिद्धांतों को परिस्थिति आवश्यकतानुसार संग्रहित किया गया है। तथापि उसकी कुछ सैद्धान्तिक मान्यताएँ थीं और कुछ रचनात्मक, सामाजिक एवं राजनीतिक उद्देश्य भी थे, जिनको मुसोलिनी ने अपने भाषणों, वक्तव्यों एवं लेखों में व्यक्त किया था।

गियोवानी जेन्टाइन ने लिखा है कि “फासिज्म मेजिनी के आदर्शवाद तथा उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य के इटली के ‘रिसाजिमेन्टों’ के युग की ओर प्रत्यागमन है। इस विचार के अनुसार उसकी प्रवृत्ति एक महान् धर्म-युद्ध की है। उसका ध्येय इटली तथा उसके शासन को शक्तिशाली एवं गौरवपूर्ण बनाना है ; आर्थिक सामाजिक पुनरुत्थान हेतु उसकी समस्त नीतियाँ उसके ध्येय की प्राप्ति के लिए साधन मात्र है। एल्फ्रेडो रोको ने फासिज्म को “नागरिक जीवन की एक नूतन कल्पना” एक शक्तिशाली परिवर्तनकारी आन्दोलन” एवं “नवीन संस्कृति का उन्नायक के रूप में प्रस्तुत किया । उसकी नवीनता मुख्य रूप में इस बात में थी कि उसने संसदीय प्रजातंत्र, उदारवाद, समाजवाद एवं साम्यवाद के सिद्धान्तों एवं आदर्शों का खण्डन किया और उनकी कटु आलोचना की।

(i) सर्वसत्तात्मक राज्य का समर्थन- मुसोलिनी सामूहिक कल्याण के लिए एक दल, एक नेता की सत्ता में विश्वास करता था। अत: वह समस्त राष्ट्र का प्रधान कमाण्डर (Duce) बन गया । वह कहा करता था कि राज्य में प्रमुख अधिकारी एक से अधिक नहीं हो सकते हैं क्योंकि राज्य के समस्त कार्यों में एकता लाने और उनका निर्देशन एवं निगमन करने के लिए एक प्रमुख होना आवश्यक है। उसके अनुसार राज्य सत्ता अपनी प्रकृति के कारण ही केन्द्रीभूत तथा दमनकारी होती है। मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में स्थान-स्थान पर ‘मेरा आदेश मेरा पथ-प्रदर्शन, ‘मेरी निर्णय वुद्धि’ आदि शब्दों का प्रयोग किया है, जो शासन में उसकी सर्वोच्च शक्ति का द्योतक था।

(ii) व्यक्तिवाद के विरुद्ध- फासिस्टवाद व्यक्तिवाद का विरोधी है। राज्य व्यक्ति के लिए नहीं, अपितु व्यक्ति राज्य के लिए है। मुसोलिनी कहा करता था, “सब चीजें राज्य में हैं, कोई चीज राज्य के बाहर नहीं हैं, कोई चीज़ या सत्ता राज्य के विरुद्ध नहीं हो सकती।” फासिज्म का दावा है कि राष्ट्र का स्वरूप सर्वव्यापक है। अत: व्यक्तियों के लिए समूहों के लिए स्वतंत्र काम करने को इसमें कोई गुंजाइश नहीं है। व्यक्ति का उसी हद तक राष्ट्र में स्थान है, जब तक उसका हित और राष्ट्र का हित एक हो और जब तक वह राष्ट्र के अनुकूल काम करता रहे।

(iii) लोकतंत्र के विद्ध-फासिस्टवाद् लोकतंत्र का भी विरोधी है। लोकतंत्र को वह पश्चिमी यूरोप के धनी देशों के आमोद-प्रमोद का एक साधन मात्र मानता था। मुसोलिनी ने लिखा है कि लोकतंत्र की शताब्दी संख्या की शताब्दी थी और बहुमत तथा परिमाण की शताब्दी थी। लेकिन अब वर्तमान संसार में हम एक नया सिद्धान्त मानते हैं। इस लोकतंत्र के संसार का घोर विरोध करते हैं-ऐसे संसार का, जो 1789 ई. के मौलिक सिद्धान्तों से अभी चिपके रहना चाहता है। फासिस्ट राजनैतिक दर्शन यह नहीं मानता है कि बहुमत को शासन करने का अधिकार होना चाहिये । लोकतंत्र में संख्या को बहुत ऊंचा माना जाता है और जनता को एक विचित्र देवत्व का स्थान दे दिया जाता है। इसके स्थान पर फासिज्म ड्यूस या फ्यूहरर को लोगों के सामने खड़ा करता है। वह इनका देवता है तथा संख्या के स्थान पर गुण की प्रतिष्ठा करता है।

(iv) साम्यवाद के विरुद्ध- फासिज्म लोकतंत्र की संस्थाओं का जितना विरोध करता है, उतना ही विरोध वह मार्क्स के समूहवाद् का भी करता है। सर्वप्रथम तो वह ऐतिहासिक भौतिकवाद को नहीं मानता। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य जाति का सारा विकास केवल आर्थिक आधार पर हुआ है। फासिज्म का कहना है कि आर्थिक तत्वों से नहीं बल्कि राजनीतिक तत्वों से इतिहास बना है। दूसरी बात यह है कि फासिज्म मार्क्स के वर्ग संघर्ष को भी नहीं मानता। यदि इतिहास को केवल आर्थिक दृष्टि से देखा जाय, तो उसमें से वर्ग संघर्ष ही निकलता है। इसको फासिज्म स्वीकार नहीं करता। विशेषतः इस बात को स्वीकार नहीं करता कि वर्ग संघर्ष से ही समाज में परिवर्तन हो जाते हैं। फासिज्म का सिद्धान्त तो यह है कि सम्पूर्ण वर्ग मिलकर एक नैतिक और आर्थिक तत्व उत्पन्न करें। यदि सब लोक परस्पर मिलकर राष्ट्रीय उन्नति के लिए प्रयल करेंगे, तो उससे सबको समान रूप में लाभ पहुँचेगा और गरीव से गरीब आद्मी भी समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा। फासिज्म यह भी नहीं चाहता कि लोगों को आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण आजादी मिले क्योंकि इससे तो पूँजीपतियों को गरीबों का शोषण करने की छूट मिल जायेगी। इसके विपरीत फासिस्ट लोग यह मानते थे कि व्यक्तियों की आर्थिक स्वतंत्रता पूरी तरह राज्य के नियंत्रण में होनी चाहिये।

(v) शान्ति के विरुद्ध- फासिज्म शान्ति के भी विरुद्ध था। महायुद्ध के बाद चिरशान्ति की स्थापना के लिए जो प्रयल किये जा रहे थे, फासिस्ट लोग उन्हें पसन्द नहीं करते थे। वे कहते थे कि शान्ति एक ऐसे जलाशय के समान है, जहां पानी ठहरा रहता है। उन्नति का अभिप्राय है, आगे बढ़ना और आगे बढ़ने का मतलब है, दूसरों को अपने पैरों के नीचे रौंदना। बिना लड़ाई के कोई जाति, समाज या देश अपना उत्कर्ष नहीं कर सकता। इटली कितनी ही शताब्दियों तक पहले तो ऊसर भूमि की भाँति पड़ा रहा विदेशी की दासता को सहन करता रहा परन्तु अब वह करवट बदल कर जागृत हो रहा है। अब इटली के लोगों में यह विश्वास उत्पन्न हो जायेगा कि उनको साम्राज्य बनाना है तो उनमें आत्मिक बल जागृत होना आवश्यक है। वे विलासमय जीवन के प्रतिकूल थे। बस यही उनके राजनीतिक दर्शन का मूलमंत्र था।

(vi) स्वतंत्र व्यापार का विरोध- फासिस्ट स्वतंत्र व्यापार के विरोधी हैं। उनका यह मानना है कि “स्वतंत्र व्यापार का युग अब समाप्त हो गया है। इस सिद्धान्त को लोग पहले ही छोड़ चुके हैं। पहले इसने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक प्रकार की नास्तिकता का प्रचार किया, इसलिए लोग इससे अलग हो गये। उसके बाद आर्थिक मंदी भी इसी के द्वारा उत्पन्न हुई, जिसके कारण कई सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो गयीं। इसीलिये समस्त देशों की सरकार इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करती हैं। फासिज्म का मानना है कि सरकार का स्वरूप चाहे जैसा हो परन्तु प्रत्येक देश में आर्थिक व्यवस्था अधिकाधिक सरकार के हाथ में आ ही जाती है।

(vii) बुद्धिवाद का विरोध- फासिज्म बुद्धिवाद का भी विरोधी है। तर्क द्वारा खोज करने के सिद्धान्त में उसका विश्वास नहीं है। उसके अनुसार राज्य जो कहे वही ठीक है। राजनीतिक क्षेत्र में फासिज्म अज्ञान का समर्थक है। फासिज्म शासन के अन्तर्गत जनता को अपने नेता की आज्ञाओं का आँख बन्द करके उसकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए। नेता तर्क के आधार पर नहीं अपितु भावना के आधार पर जनता का सहयोग प्राप्त करे।

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Pankaja Singh

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