अर्थशास्त्र

पंचवर्षीय योजनाओं में कुटीर एवं लघु उद्योग | 1977 के बाद से कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास की सरकारी नीति | नई लघु उद्योग नीति 1991

पंचवर्षीय योजनाओं में कुटीर एवं लघु उद्योग | 1977 के बाद से कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास की सरकारी नीति | नई लघु उद्योग नीति 1991

पंचवर्षीय योजनाओं में कुटीर एवं लघु उद्योग-

प्रथम-पंचवर्षीय योजना में कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास के लिए 43 करोड़ रुपये का प्रावधान था, परन्तु खर्च केवल 42 करोड़ रुपये ही किये गये। इसके विकास के बारे में सुझाव देने के लिए कार्य समिति का गठन इसी योजना काल में किया गया। दूसरी पंचववर्षीय योजना में लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर और अधिक ध्यान दिया गया तथा इनके विकास के लिए 200करोड़ रुपये रखे गये परन्तु इसमें भी केवल 180 करोड़ रुपये ही व्यय किये गये। इस योजना काल में कार्वे सामान की सिफारिशों को कार्यान्वित किया गया। औद्योगिक सेवा संस्थानों और उद्योग विस्तार सेवा योजनाओं के साथ-साथ औद्योगिक बस्तियों का भी निर्माण किया गया। सरकार ने लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए स्वयं लघु उद्योगों में उत्पादित माल को खरीदा। तीसरी पंचवर्षीय योजना में भी उत्पादन कार्यों को प्रोत्साहन दिया गया पर 241 करोड़ रु0 व्यय किया गया। तीन एकवर्षीय योजनाओं में भी कुटीर उद्योगों के विकास के लिए काफी काम हुआ। तीन वार्षिक योजनाओं में 126 करोड़ रु० व्यय किया गया।

चौथी पंचवर्षीय योजना में भी कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास पर ध्यान दिया गया। इस योजना में इन श्रेणियों के उद्योग के विकास पर लगभग 250 करोड़ रुपये खर्च किये गये। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में छोटे और बड़े उद्योगों में सामञ्जस्य बैठाने के सरकार के उत्तरदायित्व पर बल दिया गया। इस योजना में कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास के लिए 611 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान था। लेकिन इस योजना की समाप्ति के समय 1978-79 तक 592.5 करोड़ रुपये ही व्यय किये गये। 21 सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत 1.60 लाख उद्योग स्थापित होने थे जिनमें से 1.23 लाख लघु उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किये गये।

छठी पंचवर्षीय योजना में सुनियोजित रूप से रोजगार प्रदान करने के लिए उस क्षेत्र को ऊँची प्राथमिकता दी गयी। नई औद्योगिक नीति के अन्तर्गत अनेक उद्योगों का आरक्षण कर दिया गया। उत्पादन शुल्क में छूट दी गयी। योजना के अन्त तक सभी जिलों में औद्योगिक केन्द्र स्थापित किये गये। पर्याप्त एवं प्रभावी ऋण व्यवस्था की गयी। तकनीकी सहायता, विपणन व्यवस्था और अन्य सुविधायें उपलब्ध करने तथा विकास हेतु योजना काल में 1830 करोड़ रुपये व्यय किये गये।

सातवीं पंचवर्षीय योजना- इस योजना में लघु एवं कुटीर उद्योगों को विशेष महत्त्व दिये जाने से सार्वजनिक क्षेत्र में 2752.74 करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान रखा गया था, जबकि वास्तविक व्यय 3249 करोड़ रुपये हुये। जिसके फलस्वरूप योजना के अन्त तक उत्पादन का मूल्य 1,00, 100 करोड़ रुपये के मुकाबले 1,40,000 करोड़ रुपये रहा। ऐसे उद्योगों से निर्यात भी 7626 करोड़ रुपये के हुए।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-979- इस योजना काल में लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर 6334करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान रखा गया था जिसके फलस्वरूप कुल उत्पादन 1996-97 के अन्त तक बढ़कर वर्तमान मूल्यों के आधार पर 2948 अरब रुपये होने की सम्भावना थी। इस योजना के अन्त तक ऐसे उद्योगों के निर्यात बढ़कर 502 करोड़ रुपये और रोजगार के अवसर 55 करोड़ होने के अनुमान थे। इस योजना के अन्तर्गत संगठनात्मक आधार को सुदृढ़े कर उन्हें परिणामोन्मुख (Result-Oriented) बनाने, लघु उद्योगों का आरक्षण तथा सरकारी खरीद में प्राथमिकता, सहायक उद्योगों को प्रोत्साहन, विशिष्ट निर्माण के लिए उत्पादों का आरक्षण, लघु एवं ग्रामीण उद्योगों के विकास कार्यक्रमों को क्षेत्रीय कार्यक्रमों के साथ समग्र विकास करना आदि प्रमुख बातों पर ध्यान दिया गया।

1977 के बाद से कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास की सरकारी नीति

(Govt. policy of Cottage and Small-Scale Industries for their Development Since 1977)

1977 के बाद से कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास की सरकारी नीति की विवेचना निम्नानुसार की गई है-

जनता सरकार का औद्योगिक नीति 1977- 23 दिसम्बर, 1977 को घोषित जनता सरकार की की नीति के अन्तर्गत रोजगार प्रधान लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास तथा उन्हें बड़े उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए आरक्षित उद्यमों की संख्या 180 से बढ़ाकर 540 कर दी गयी। जिला उद्योग केन्द्रों की स्थापना पर बल दिया गया, जो लघु उद्योगों की सभी आवश्यकताओं को पूरी करने, कच्चे माल की आपूर्ति, मशीनों एवं उपकरणों की उपलब्धता, वित्त व्यवस्था, किस्म नियन्त्रण एवं विपणन की व्यवस्था करते हैं। स्वदेशी टेक्नोलोजी पर विशेष बल दिया गया। बड़े औद्योगिक घरानों पर कठोर नियन्त्रण किया गया।

नई लघु उद्योग (उपक्रम) नीति, 1991

(New Small Enterprise Policy, 1991)

सरकार ने अगस्त 1991 में लघु, अति लघु तथा ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए एक नई नीति की घोषणा की। इस नीति में अति लघु इकाइयों की निवेश सीमा को 2 लाख रुपये से बढ़ाकर 5 लाख रुपये कर दिया गया; इन उद्योगों पर लगे स्थानिक प्रतिबंधों को हटा दिया गया; तथा इनकी परिभाषा का विस्तार करके उसमें उद्योग से जुड़े सभी सेवा व व्यावसायिक उद्यमों (Service and Business Enterprises) को शामिल कर लिया गया। लघु क्षेत्र में आधुनिकीकरण को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से अन्य औद्योगिक इकाइयों को (इनमें देश की अन्य इकाइयां भी हो सकती हैं तथा विदेशी इकाइयां भी हो सकती हैं) यह अनुमति दी गई है कि वे लघु इकाइयों में 24 प्रतिशत तक की इक्विटी का निवेश कर सकती हैं। इस नीति में पहली बार इस बात का आश्वासन दिया गया है कि लघु व अति लघु क्षेत्र की सम्पूर्ण साख मांग को पूरा किया जायेगा। इस उद्देश्य के लिए एक निरीक्षक कक्ष स्थापित करने का प्रस्ताव है ताकि इस संबंध में आने वाली सारी बाधाओं को दूर किया जा सके। सभी कानूनों व नियमों के पुनः अवलोकन की बात भी की गई है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके कारण लघु व ग्रामीण उद्योगों का अहित न हो; उद्यम-क्षमता के विकास व विस्तार के लिए और सुविधाएं उपलब्ध कराने की बात की गई है, तथा राष्ट्रीय इक्विटी फंड एवं एक संस्था से ऋण लेने की योजना’ (Single Window Scheme) का विस्तार किया गया है।

जे0 सी0 सांडेसरा के अनुसार, यह नई नीति लघु क्षेत्र की मूलभूत समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है तथा लघु क्षेत्र के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने में इससे सहायता मिलेगी। विवेचन के दृष्टिकोण से सांडेसरा इस नीति के प्रस्तावों को दो हिस्सों में बांटते हैं- (i) लघु व अति लघु उद्यमों के लिए नीति, तथा (ii) ग्रामीण उद्योगों के लिए नीति। जहां तक लघु व अति लघु उद्यमों के लिए नीति का संबंध है, सांडेसरा इसके चार ऐसे तत्वों की चर्चा करते हैं जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है और जिनके दूरगामी परिणामी हो सकते हैं-

  1. पहली बात तो यह है कि अति लघु इकाई की परिभाषा में परिवर्तन किया गया है। अब अति लघु इकाई की निवेश सीमा 5 लाख रुपये होगी (पहले यह 2 लाख रुपये थी)। अब स्थानिक प्रतिबन्ध भी नहीं होंगे (पहले यह प्रतिबन्ध था कि इस प्रकार इकाइयां 50,000 से कम जनसंख्या वाले स्थानों में ही स्थापित की जा सकती हैं)। जहां पहले उद्योग का अर्थ मुख्यतया विनिर्माण क्षेत्र माना जाता था अब इसके अन्तर्गत उद्योग से जुड़े सेवा व व्यावसायिक उद्यमों को भी शामिल कर लिया गया है। यह अधिक वास्तविक है। इस प्रकार अब हमारे देश में लघु उद्योग नीति’ न होकर ‘लघु व्यवसाय नीति’ होगी जो अधिक तर्कसंगत है (अन्य देशों में भी लघु व्यवसाय नीति ही है)।
  2. दूसरी मुख्य बात यह है कि अति लघु क्षेत्र की इकाइयों के विकास के लिए कुछ विशिष्ट कदम उठाये गये हैं। जहां अन्य लघु इकाइयों को केवल एक बार प्राथमिकता के आधार पर सहायता मिलेगी (जैसी भूमि प्राप्ति के लिए, बिजली के लिए तथा तकनीकी रूप से आधुनिकीकरण के लिए) वहां अति लघु इकाइयों को इस प्रकार की सहायता लगातार प्रदान की जाती रहेगी। इस व्यवस्था के पीछे तर्क यह है कि अति लघु क्षेत्र की इकाइयों को सहायता देकर तेजी से विकास करने योग्य बनाया जाए ताकि ये जल्द अपने पांव पर खड़ी हो सकें और इन्हें भविष्य में कम सहायता की जरूरत पड़े।
  3. मुख्य परिवर्तन, इक्विटी में हिस्सेदारी से संबंधित है। नई नीति में यह व्यवस्था है कि अन्य औद्योगिक इकाइयां लघु इकाइयों में 24 प्रतिशत तक की इक्विटी का निवेश कर सकती है। इससे बड़ी व छोटी सभी इकाइयों को (खास तौर पर सहायक औद्योगिक इकाइयों को) काफी लाभ मिल सकता है तथा औद्योगिक क्षेत्र के इन दोनों ‘हिस्सों’ को एक-दूसरे के और समीप आने का अवसर मिल सकता है। अब लघु इकाइयों को पूरी इक्विटी की व्यवस्था स्वयं नहीं करनी पड़ेगी। इसके अलावा, बड़ी औद्योगिक इकाइयां भी लघु इकाइयों के अस्तित्व व विकास में रुचि लेगी।
  4. चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवसाय संगठन का नया कानूनी ढांचा आरंभ किया गया है जिसे सीमित साझेदारी (Limited partnership) की संज्ञा दी गई है। इस व्यवस्था में कम से कम एक साझेदार का दायित्व असीमित है जबकि अन्य साझेदारों का दायित्व उनके द्वारा निवेशित पूंजी तक ही सीमित है। यह परिवर्तन बहु उपयोगी सिद्ध होगा। इसके परिणामस्वरूप अब लघु उद्योगपतियों के रिश्तेदार व मित्र उन्हें पूंजी देने में हिचकिचाएंगे नहीं क्योंकि उनका अपना दायित्व उनके द्वारा नियंत्रित पूंजी तक ही सीमित रहेगा।
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Pankaja Singh

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