अर्थशास्त्र

वर्तमान संदर्भ मं लघु एवं कुटीर उद्योग का औचित्य | Justification of small and cottage industry in the present context in Hindi

वर्तमान संदर्भ मं लघु एवं कुटीर उद्योग का औचित्य | Justification of small and cottage industry in the present context in Hindi

वर्तमान संदर्भ मं लघु एवं कुटीर उद्योग का औचित्य

(1) आर्थिक विकास-

(वर्तमान संदर्भ मं लघु एवं कुटीर उद्योग का औचित्य) लघु एवं कुटीर उद्योग विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के जनक हैं। हमारे देश में बृहत उद्योगों का विकास कुछ ही महानगरों तक सीमित है। देश का विशाल भाग आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है। यदि उद्योगों का केन्द्रीयकरण हो जाता है तो बहुत-सी कठिनाइयाँ आ जाती हैं। इन सब कठिनाइयों से बचने का एकमात्र साधन है विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था जो कि लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से ही सम्भव है। लघु कुटीर उद्योग देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए होते हैं। इसमें देश के सभी भाग औद्योगिक वस्तुओं में आत्म-निर्भर हो सकते हैं। अतः इससे एक विकेन्द्रित आर्थिक समाज की स्थापना होती है। विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के माध्यम से कच्चा माल, निष्क्रिय बचत, स्थनीय प्रतिभा आदि स्थानीय साधनों को गति मिलती है। रोजगार का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है जिसमें थोड़े से औद्योगिक नगरों में पाई जाने वाली भीड़ की समस्या का समाधान करने में सहायता मिलती है। युद्धकाल में शत्रुओं द्वारा बम वर्षा से औद्योगिक विकास प्रभावित नहीं हो पाता तथा विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था में लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ जाती है। जब लोगों को रोजगार मिल जाता है तो उनकी आय भी बढ़ जाती है और साथ ही क्रय-शक्ति भी। फलस्वरूप रहन-सहन का स्तर बढ़ जाता है जो कि आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण लक्षण है।

अतः विकेन्द्रीकृत उद्योगों से प्रति व्यक्ति की आय बढ़ जाती है और यही प्रति व्यक्ति आय ही देश की कुल राष्ट्रीय आय होती है जो कि आर्थिक विकास का एक मापदण्ड है। ये लघु एवं उद्योग-धन्धे देश के आर्थिक विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

(2) रोजगार-

लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, उनमें रोजगार की वृद्धि का तर्क महत्वपूर्ण हैं। बेरोजगारी एक सामाजिक कलंक है, जिसका नैतिक प्रभाव बहुत बुरा पड़ता है। हमारे देश में लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार हैं। अल्प रोजगार एवं मौसमी बेरोजगारी से पीड़ित लोगों की संख्या अत्यधिक है। ग्रामोत्थान या समाज के विकास के लिये यह आवश्यक है कि बेरोजगारी की समस्या को दूर कर, रोजगार के अवसर प्रदान किये जाये। जिस देश में पूँजी की कमी और श्रम की अधिकता हो, वहाँ पर यह लघु एवं कुटीर उद्योग के ही माध्यम से सम्भव है।

गांधीजी के अनुसार, ग्रामोद्योग का अत्यधिक विकास कर, हम राष्ट्र की महान् सेवा कर सकते हैं। इसके पूर्व उन्होंने यह सोचा था कि इसका विकास न करने से हम केवल मानवता को ही नहीं इंकार करते हैं, बल्कि अन्य महत्वपूर्ण बातों को भी, जो भारत में व्याप्त हैं; जैसे अत्यधिक जन-शक्ति, अत्यधिक बेरोजगारी तथा अल्परोजगारी। इनमें सो कोई भी चीज जो श्रम-शक्ति की बरबादी करती है अथवा जो लोगों को रोजगार से बाहर कर देती है, वह बहुत ही बुरी है। प्रत्येक दृष्टिकोण से अत्यधिक श्रम-शक्ति का उपयोग कम विशेषीकृत मशीन में लाभदायक होगा। बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देना अधिक उचित होगा, बजाय अत्यधिक लोगों को बेरोजगार रखने से।

बहुसंख्यक लोगों की बीमारियाँ अत्यधिक रूपये की माँग के कारण नहीं, बल्कि काम की माँग के कारण होती है। श्रम ही रुपया है जो करोड़ों लोगों को उनके घरों में उचित श्रम प्रदान करता है। वह भोजन एवं कपड़ा भी प्रदान करता है जो रुपये की ही भोते है। इस प्रकार का श्रम चरखा ही प्रदान कर सकता है।

कुटीर एवं लघु उद्योग ही कम पूँजी के साथ अधिक श्रमिकों को रोजगार में लगा सकते हैं, क्योंकि ये श्रम-प्रधान उद्योग हैं। बड़े पैमाने के उद्योग इस सन्दर्भ में इतने सहायक नहीं हो सकते, क्योकि उनमें पूँजी प्रधान और श्रम-बचत तकनीकों का प्रयोग होता है। प्रच्छन्न बेरोजगारी और मौसमी बेरोजगारी के समाधान में लघु एवं कुटीर उद्योग, विशेष रूप से कुटीर उद्योग अधिक योगदान दे सकते हैं। इन उद्योगों को श्रमिकों के घरों पर खोला जा सकता है और आवश्यकतानुसार पाराम य अन्त भी किया जा सकता है। अतः वे मुख्य कार्य में बाधक हुए बिना चलाये जा सकते हैं। इस प्रकार ये प्रच्छन व मौसमी बेरोजगारी दूर करने के बहुत अच्छे साधन है। यदि हम कुटीर उयोग के दियासलाई, मधुमक्खी पालन, साबुन एवं ऐसे ही उद्योगों को लें तो हम पाते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में ये तिरस्कृत करने योग्य नहीं है। उदाहरणार्थ, कुटीर माचिस उयोग 1968 से जो कि देश के कुल माचिस उत्पादन का 0.02% उत्पादित करता था, उसमें 2,000 से कम लोग नियोजित नहीं है, जबकि बृहत् स्तरीय माचिस उद्योग में कुल उत्पादन का 55% भाग उत्पादित किया जाता है, उसमें कुल 6,000 व्यक्ति नियोजित थे।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कुटीर उद्योगों में रोजगार-क्षमता बृहत् उद्योगों की तुलना में अधिक होती है। अतः भारत-जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में, जहाँ पर पूंजी की दुर्लभता और श्रम की बहुलता है, वहाँ पर लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा ही बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर सकते हैं।

(3) आय-वितरण-

बृहत् उद्योगों के विकास से राष्ट्रीय आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा कुछ इने-गिने उद्योगपतियों के हाथ में केन्द्रित हो जाता है। इसका कारण आर्थिक असमानता को बढ़ावा मिलना होता है और यह आर्थिक असमानता राजनैतिक, सामाजिक तथा नैतिक दृष्टियों से हानिकारक है। आज देश में अमीर और गरीब के बीच एक बहुत बड़ी खाई है जो वृहत् उद्योगों के बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जा रही है। इसी को रोकने के लिये हमारी योजनाओं में गरीबी और बेरोजगारी दूर करने के साथ-साथ आर्थिक शक्ति अथवा आय के समान वितरण को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है। इस ओर लघु एवं कुटीर उद्योग ही उपयोगी हो सकते हैं जो कि समानता का वातावरण तैयार करते हैं।

आर्थिक विकास का उद्देश्य अन्त्योदय होना चाहिये, अर्थात् समाज के सबसे गरीब एवं पिछड़े हुए व्यक्ति का विकास होना चाहिये। आर्थिक विकास सामाजिक न्याय के लिये, न कि सामाजिक विकास के साथ-साथ। आर्थिक विकास के धनात्मक परिणाम समाज में थोड़े से व्यक्तियों को नहीं, बल्कि सभी व्यक्तियों को मिलने चाहिये। इससे पूँजी का केन्द्रीयकरण नहीं होगा। उत्पादक रोजगार आय-प्राप्ति का स्रोत है। यदि पूँजी-प्रधान बड़े उद्योगों की स्थापना होगी जिसमें थोड़े से लोग रोजगार प्राप्त करेंगे और दूसरी ओर अन्य लोग बेरोजगार रहेंगे तो आय केवल उन्हें प्राप्त होगी जिसके पास रोजगार है। अतः दोनों वर्गों की आय में गम्भीर असमानता उत्पन्न हो जायेगी। यही कारण है कि हमारे देश में अधिकांश धन थोड़े से औद्योगिक समूहों में केन्द्रित है और दूसरी ओर लगभग 32 करोड़ जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बिता रही है। इनमें से अधिकांश लोग दो वक्त भोजन पाने में असमर्थ हैं इसका उपचार यही है कि सभी लोगों को उत्पादक रोजगार मिले जिसके लिये आवश्यक है कि भारी मात्रा में उत्पादन अधिकाधिक लोगों द्वारा किया जाये तथा ऐसी वस्तुओं का उत्पादन हो जिनका प्रयोग एक वर्ग विशेष नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समुदाय करता हो। गांधीजी भी यह नहीं चाहते थे कि धन का केन्द्रीयकरण बहुत से हाथों में हो, लेकिन यह अवश्य चाहते थे कि धन का वितरण सभी के हाथों में हो। मशीनरी कुछ लोगों की सहायता करोड़ों लोगों के ऊपर सवार होने में कर सकती है।

(4) स्थानीय संसाधनों का विदोहन-

लघु एवं कुटीर उद्योग अन्तर्निहित संसाधनों का शोषण करने में पूर्णतया समर्थ होते हैं। इन उद्योगों के माध्यम से जमा धन, उद्यम-योग्यता, पारिवारिक श्रम, कला-कौशल आदि संसाधनों का उपयोग किया जा सकता है। छोटी-छोटी मात्रा में विभिन्न स्थानों पर बिखरे होने के कारण ये सभी संसाधन वृहतस्तरीय उद्योगों में नहीं प्रयोग हो पाते। इसके अतिरिक्त कुछ संसाधन आधुनिक बृहतस्तरीय उद्योगों के लिये प्रयुक्त भी नहीं हो पाते। इस प्रकार भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में जहाँ पर संसाधनों के विदोहन करने की आवश्यकता है, जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, लघु एवं कुटीर उद्योग ही देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

कुछ आलोचकों का यह मत है कि जमा धन से तो एक बार लाभ उठाया जा सकता है, बार-बार नहीं। आलोचक लघु उद्योग के इस प्रभाव को प्रतिकूल ठहराते हैं, लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि कठिनाई तो किसी प्रक्रिया को आरम्भ करने में होती है, उसके बाद तो वह अपने आप गतिशील हो जाती है। आलोचकों का यह भी कहना है कि देश में लघु उद्यमों की कोई कमी नहीं है और परिणामस्वरूप साधन की खोज करने की कोई विशेष जरूरत नहीं है। लेकिन यह बात ठीक नहीं है, यदि हमारे देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों का अभाव न होता तो लघु उद्योगों का विकास क्यों सीमित होता? जापान और स्विट्जरलैण्ड में छोटे उद्योगों के माध्यम से अनेक आधुनिक वस्तुओं का भारी मात्रा में निर्माण हुआ है।

(5) सहायक व्यवसाय के रूप में उपयोग वस्तुओं का निर्माण-

हमारे देश में कृषि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। प्रतिवर्ष लगभग 30 लाख व्यक्ति खेती पर आश्रित होने के लिये बढ़ जाते हैं जिससे अनार्थिक जोतों का निर्माण होता है जो विकास के लिये एक समस्या है। इस समस्या के समाधान की दृष्टि से लघु एवं कुटीर उद्योग बहुत ही उपयोगी हैं। ये उद्योग-धन्धे सहायक उद्योग-धन्धों के रूप में पूर्णकालिक एवं अंशकालिक चलाये जाते हैं। ये कृषि के ऊपर आश्रितों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सहायक व्यवसाय के रूप में देश के आर्थिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं। चरखे के विषय में गांधीजी ने बहुत ही जोरदार शब्दों में कहा था- “चरखा बहुसंख्यक लोगों की आशा का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन बहुसंख्यक लोग अपनी आर्थिक स्वतन्त्रता चरखे के विनाश के साथ ही साथ खो चुके हैं। चरखा गाँवों की कृषि का पूरक है, उनकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है, यह विधवाओं का मित्र है और कृषकों को आलस्य से दूर रखने का साधन है।”

देश के आर्थिक विकास आत्मनिर्भरता के लिए पूँजीगत वस्तुओं के उद्योगों का विकास आवश्यक है। लेकिन उपभोक्ताओं की आवश्यकताएँ इनसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं पूरी की जा सकतीं। यद्यपि दीर्घकाल में पूँजीगत वस्तु उपभोक्ता की पूर्ति करने में सहायक हो सकती हैं, लेकिन उस समय तक उपभोग वस्तुओं की माँग में इतनी वृद्धि हो जायेगी कि उसे पूरा करना कठिन होगा। इसके परिणामस्वरूप लोगों के जीवन-स्तर में ही सुधार नहीं होगा, बल्कि वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होगी। आज देश में तेजी से मूल्य-वृद्धि का यह भी एक प्रमुख कारण है। इस ओर सिर्फ लघु एवं कुटीर उद्योग ही सहायक हो सकते हैं। लघु एवं कुटीर उद्योग अल्प समय में अल्प पूँजी की मदद से वृहत् समुदाय की उपभोग वस्तुओं की पूर्ति करने में सफल हो सकते हैं।

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Pankaja Singh

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