अर्थशास्त्र

एकाधिकार प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार | एम०आर०टी०पी० अधिनियम 1969 | एम०आर०टी०पी० अधिनियम के उद्देश्य | एम०आर०टी०पी०अधिनियम के मुख्य प्रावधान | एम०आर०टी०पी० अधिनियम की प्रगति एवं समीक्षा

एकाधिकार प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार | एम०आर०टी०पी० अधिनियम 1969 | एम०आर०टी०पी० अधिनियम के उद्देश्य | एम०आर०टी०पी०अधिनियम के मुख्य प्रावधान | एम०आर०टी०पी० अधिनियम की प्रगति एवं समीक्षा

एकाधिकार प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार (एम०आर०टी०पी० अधिनियम 1969)

(Monopolies Restrictive Trade Practices Act 1969)

सरकार ने एकाधिकार जाँच आयोग (M. I. C. 1965) की संस्तुतियों के आधार पर किया। “एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार विधेयक 10 अगस्त, 1967 को संसद में पेस किया। विधेयक का संसद में बहुत अधिक विरोध हुआ। विरोध इस बात पर हुआ कि इसमें आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण को रोकने के ठोस कदम नहीं हैं। अन्ततः यह बिल दिसम्बर, 1969 में पारित हो गया और जून, 1970 से लागू हो गया। यह अधिनियम एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार अधिनियम 1969 कहलाया।

यह अधिनियम आर्थिक शक्ति संकेन्द्रण एवं एकाधिकारी, प्रतिबन्धात्मक एवं अनुचित व्यापार व्यवहार को लेकर 1982 एवं 1984 में संशोधित किया गया।

एम०आर०टी०पी० अधिनियम के उद्देश्य

एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनयम 1969, जो कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर लागू होगा, के उद्देश्य निम्न हैं-

  1. जनहित को ध्यान में रखते हुए आर्थिक ढाँचा इस प्रकार हो जिससे कि आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण न हो सके।
  2. एकाधिकारी को नियन्त्रित करना, एवं
  3. एकाधिकारी, प्रतिबन्धात्मक और अनुचित व्यापार को रोकना।

एम०आर०टी०पी०अधिनियम के मुख्य प्रावधान

  1. ऐसे सभी गैर-सरकारी संस्थानों को जिनकी कुल परिसम्पत्ति (अंतः सम्बद्ध संस्थानों की परिसम्पत्ति सहित) 20 करोड़ रुपये (अप्रैल, 1985 से 100 करोड़ रुपये) से कम की न हो और प्रभावी संस्थानों को जिनकी परिसम्पत्ति एक करोड़ से कम नहीं है, केन्द्र सरकार के साथ पंजीयन आवश्यक है।
  2. ऐसे संस्थानों को अपने विस्तार के लिए, नई इकाइयों की स्थापना के लिए, सम्मेलन के लिए, संविलयन के लिए सरकार की पूर्व अनुमति लेना आवश्यक है।
  3. यह भी आवश्यक है कि प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार से सम्बन्धित सभी समझौते भी पंजीकृत हों।

उपर्युक्त के अतिरिक्त एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम जब तक कि केन्द्र सरकार न कहे निम्न पर लागू नहीं होगा-

(अ) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम,

(ब) सहकारी क्षेत्र के उपक्रम,

(द) वित्तीय संस्थाएँ,

(स) वे संस्थान या उपक्रम जिनका प्रबन्ध सरकार द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया है,

(य) श्रमसंघ या कर्मचारी के अन्य संघ जो कि उनके संरक्षण के लिए बनाये गये हैं।

परिभाषाएँ

अधिनियम में प्रयोग किये गये हैं। महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न हैं-

आर्थिक संकेन्द्रण- आर्थिक संकेन्द्रण को सही रूप में परिभाषित करना सम्भव नहीं है और न ही यह आवश्यक ही है। सामान्यतः संकेन्द्रण दो प्रकार से हो सकता है-

(1)उत्पादानुसार, (2) देशानुसार।

प्रथम प्रकार का संकेन्द्रण तब होता है जबकि किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन या वितरण सम्बन्धी प्रतिबन्धात्मक शक्ति, पूँजी के स्वामित्व या किसी अन्य कारणवशं, किसी एक फर्म या अपेक्षाकृत कुछ ही फर्मों के हाथ में हो, चाहे ये बहुत-सी फर्मे किसी एक परिवार या कुछ परिवारों या व्यापार गृहों द्वारा नियन्त्रित की जायँ तो इस प्रकार के संकेन्द्रण को उत्पादानुसार संकेन्द्रण कहते हैं। जिस वस्तु के उत्पादन में सबसे बड़े 3 उत्पादकों का भाग 50 प्रतिशत से अधिक होता है, उसे उत्पादन के अनुसार संकेन्द्रण की श्रेणी में माना जायेगा। देशानुसार संकेन्द्रण या अन्तः प्रयोग संकेन्द्रण के अध्ययन के लिए विभिन्न फर्मों को “व्यापारिक समूहों’ में बाँटा गया है। व्यापारिक समूह से अभिप्राय उन सभी फर्मों से हैं जिनके सम्बन्ध में अन्तिम एवं निश्यात्मक निर्णय का अधिकार समूह-स्वामी में केन्द्रित होता है।

एकाधिकारी व्यापारिक व्यवहार (Monopolies Trade Practices)

एकाधिकारी व्यापारिक व्यवहार वह शक्ति है जिसका प्रयोग किसकी एक उद्यम या कुछ उद्यमों द्वारा, प्रतिद्वन्द्वियों की तुलना में, बाजार के बहुत बड़े भाग पर अधिकार शक्ति रखता हो। इसका अभिप्राय यह है कि एकाधिकारी में कीमतों को प्रभावित और बाजार को नियंत्रित करने की क्षमता है। जब एक फर्म या उनका संयोग इस शक्ति का प्रयोग करता है, तो उसे “एकाधिकारी व्यापारिक व्यवहार” कहा जाता है। परन्तु एम0आर0टी0पी0 अधिनियम 1969 ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-

(1) किसी प्रकार की वस्तु के उत्पादन, संरक्षण या वितरण को अथवा किसी प्रकार की सेवा को सीमित करके, घटा करके या अन्य प्रकार से नियन्त्रित करके उसकी कीमतों का अनुचित स्तर पर बनाये रखना। या

(2) किसी प्रकार की वस्तु के उत्पादन, संभरण या वितरण में और किसी सेवा के संभरण में प्रतियोगिता को अनुचित रूप से रोकना या घटाना।

(3) पूँजी निवेश या तकनीकी विकास जनहित के विरुद्ध सीमित करना और

(4) भारत में उत्पादित, संभरित या वितरित किसी वस्तु के या किसी प्रदत्त सेवा के गुण में गिरावट आने देना।

प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार (Unfair Trade Practices)

वर्ष 1984 के संशोधन से पूर्व एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम  केवल एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार तक ही सीमित था। वर्ष 1984 के संशोधन से इसका क्षेत्र अनुचित व्यापार व्यवहार तक विस्तृत कर दिया गया। अनुचित व्यापार व्यवहार का आशय वस्तु की बिक्री, प्रयोग अथवा पूर्ति बढ़ाने के उद्देश्य से अपनाये गये ऐसे व्यावसायिक आचरण से है जिसके कारण ऐसी वस्तु अथवा सेवा के उपभोक्ता को नुकसान एवं परेशानी हो। अनुचित व्यापार, व्यवहार के अन्तर्गत-

(i) सौदेबाजी के मूल्य पर बेचने वाले विज्ञापन,

(ii) उपहार आदि द्वारा अपनी ओर आकर्षित करना,

(iii) निम्न स्तर के माल की पूर्ति या विक्रय करना, तथा

(iv) माल को जमा करना या बेचने या सेवा प्रदान करने से मना करना।

प्रभावी उपक्रम (Dominant Undertaking)

वर्ष 1982 के संशोधन से पूर्व प्रभावी उपक्रम वे थे जो स्वयं या अपने अन्तः सम्बद्ध उपक्रम के साथ कुल माल या सभी प्रकार की सेवाओं का कम से कम 1/3 भाग उत्पादित, वितरित या नियन्त्रित करते थे। परन्तु 1982 के संशोधन के पश्चात् परिभाषा में परिवतन कर दिया गया और प्रभावी उपक्रम की परिभाषा में निम्न सम्मिलित किये गये हैं-

  1. उद्योग विकास एवं नियमन अधिनियम के लाइसेंसिंग प्रावधान के अन्तर्गत आने वाले उपक्रम स्वयं अथवा अपने अन्तः सम्बद्ध अन्य इकाइयों के साथ मिलकर किसी वस्तु की भारत में स्थापित कुल उत्पादन क्षमता के 1/4 भाग से कम उत्पादन क्षमता रखते हों।
  2. ऐसे उपक्रम जो उद्योग विकास एवं नियमन अधिनियम के अन्तर्गत आते हैं एवं लाइसेंसिंग क्षमता न रखते हों, प्रभावी उपक्रम कहलायेगे यदि वे भारत में कुल उत्पादित, वितरित एवं सप्लाई का कम से कम 1/4 भाग नियन्त्रित करते हों।
  3. ऐसे उपक्रम जो उद्योग विकास एवं नियमन अधिनियम के अन्तर्गत न आते हों, प्रभावी उपक्रम कहलायेंगे। यदि वे भारत मे कुल प्रदान की जाने वाली किसी सेवा का कम से कम 1/4 भाग प्रदान करते हों या किसी अन्य प्रकार से नियंत्रित करते हों।
  4. कोई उपक्रम जो भारत में कम से कम 1/4 भाग की सेवा या उत्पादन नियंत्रित करता हो, प्रभावी उपक्रम कहलायेगा।

एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार

एम०आर०टी०पी० अधिनियम की प्रगति एवं समीक्षा

(1) एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार आयोग की स्थापनाजून 1970 में इस आयोग को स्थापित कर दिया गया था तथा इसका कार्यालय नयी दिल्ली में है। इस आयोग को अधिकार है कि वह किसी भी उद्योग व्यवसाय के प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहारों के सम्बन्ध में (i) उपभोक्ता या व्यापारिक संघ, (ii) केन्द्रीय या प्रान्तीय सरकार, या (iii) रजिस्ट्रार की शिकायत पर, स्वयं अपने ज्ञान के आधार पर जांच-पड़ताल कर सकता है।

इस सम्बन्ध में आयोग ने अब तक सैकड़ों शिकायतों का निपटारा किया है और कई महत्वपूर्ण कम्पनियों को इन व्यवहारों को रोकने के आदेश दिये गये हैं, जैसे ग्लैक्सो लेबोरेट्रीज (इण्डिया) लिमिटेड को आयोग ने आदेश दिया है कि वह अपनी मूल्य-सूची में लिखे कि उसके स्टॉकिस्ट मूल्य-सूची में दिये गये मूल्यों से कम पर बेच सकते हैं। अभी तक स्टॉकिस्ट को कम मूल्य पर बेचने की अनुमति नहीं थी।

(2) प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहारों सम्बन्धी समझौतों का पंजीकरणवे समझौतें जो प्रतिबन्धात्मक व्यवहारों के अन्तर्गत आते हैं उसे रजिस्ट्रार ऑफ एग्रीमेण्ट्स के पास पंजीकरण कराना अनिवार्य है।

(3) आर्थिक शक्ति के केन्द्रीयकरण यदि कोई उद्योग सत्ता के केन्द्रीयकरण की परिभाषा में आता है और उसका विस्तार करना चाहता है (धारा 21) या नया उद्योग स्थापित करना चाहता है (धारा 22) या सम्मिश्रण या मिलना चाहता है (धारा 23) तो ऐसे उद्योग को केन्द्रीय सरकार से अनुमति लेनी होगी। अब इसमें संशोधन कर इन धाराओं को प्रभावहीन बनाया जा रहा है।

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Pankaja Singh

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