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भाषा के मूल तत्व या लक्षण | भाषा के विभिन्न रूप

भाषा के मूल तत्व या लक्षण | भाषा के विभिन्न रूप

भाषा के मूल तत्व या लक्षण

भाषा को उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं के अध्ययन उपरान्त भाषा के मूल तल या लक्षण निम्नलिखित स्पष्ट होते हैं-

  1. भाषा- विचारविनिमय का है। वहता के विचारों को श्रोता तक पहुंचाती है।
  2. भाषा निश्चित के फलस्वरूप मनुष्य के उच्चारण अवयवों से नि:सृत ध्वनि-समूह है।

इसका अभिप्राय यह है कि ताली बजाना से मेज सपथपाना आदि ध्वनियों से विचार समेश्य तो हो जाता है परन्तु वे ध्वनियां उच्चारण अवयव (मुख) से नि:सृत न होने के कारण भाषा के अन्तर्गत नहीं आतीं।

  1. भाषा में प्रयुक्त-समूह सार्थक तो अवश्य होती है, परन्तु इन ध्वनियों का भावों अथवा विचारों से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं होता। यह सम्बन्ध यादृच्छिक ही होता है अर्थात् ध्वनि – समष्टि का अर्थ किसी तर्क, नियम अथवा कारण पर आधृत न होकर संकल्पनात्मक अथवा रुढ़िगत गलत ही होता है। संसार के सम्बन्धों के प्रायः तीन रुप-भेद माने गये है –

(I) भौतिक सम्बन्ध- जैसे अग्नि के साथ धुएँ का,

(II) भावनात्मक सम्बन्ध जैसे गुरु के प्रति शिष्य का,

(III) यादृच्छिक सम्बन्ध- जैसे आग शब्द में आग की संकल्पना अथवा किसी जलते तत्व की रूढ़ प्रतीति ।

यह ध्वनियों का अर्थ यादृच्छिक न होता (अतीक से निर्धारित) तो सभी भाषाएँ एक समान होतीं। उस स्थिति में सभी भाषाओं में एक पदार्थ के लिए एक ही शब्द प्रयुक्त एवं प्रचलित होता, परन्तु ऐसा न होना इसी तथ्य का सूचक है कि ध्वनि समष्टि का अर्थ के साथ कोई तर्कसंगत सम्बन्ध नहीं है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भाषा के प्रतीक वस्तु का न होकर उसकी मानसिक संकल्पना अर्थात् भाषिक प्रत्यय आदि का ही होता है।

  1. भाषा एक व्यवस्था है। इसी व्यवस्था के कारण ही श्रोता वक्ता के मन्तव्य को उसी रूप में प्रहण करता है, जिस रूप में वक्ता उसे श्रोता तक सम्मेष्य बनाना चाहता है। यदि ऐसा न होता तो प्रयोग में स्वच्छन्दता आ जाती और भावबोध में कठिनता होती उस स्थिति में भाषा का मूल उद्देश्य विचार-विनिमय ही खण्डित हो जाता है।

भाषा में व्यवस्था के दो रूप हैं

(क) आन्तरिक- ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य तथा अर्थ आदि से सम्बन्धित व्यवस्था।

(ख) बाह्य शब्द विशेष का प्रतीक विशेष उदाहरणार्थ पुस्तक शब्द के मुख से उच्चारण करते ही मस्तिष्क में पुस्तक का विम्ब उभर आता है।

  1. भाषा का प्रयोग समाज विशेष में होता है और उसी में यह बोली तथा समझी जाती है। इसी आधार पर भाषाओं के विभिन्न रूप व्यापारियों की भाषा’ ‘बुद्धिजीवियों की भाषा’, ‘प्रामीणों की भाषा’ ‘अर्धशिक्षितों की भाषा आदि सामने आते हैं।
  2. भाषा व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके बौद्धिक स्तर की परिचायक है। किसी भी व्यक्ति के भाषण से उसकी योग्यता का अनुमान सहज ही हो जाता है।
  3. भाषा से अभिप्राय मानव-भाषा है अर्थात् यह मानव समुदाय के पारस्परिक व्यवहार का सर्वाधिक सुनिश्चित साधन है।
  4. भाषा विचारविनिमय का साधन है। भाषा में अभिव्यक्ति विचार लिपि की सहायता से सुरक्षित भी किए जा सकते हैं।

भाषा के विभिन्न रूप

काल-भेद, स्थान-भेद, स्तर-भेद आदि के आधार पर भाषाओं की अनेकरूपता दृष्टिगोचर होती है-

  1. इतिहास के आधार पर- मूल भाषा, प्राचीन भाषा, मध्यकालीन भाषा तथा आधुनिक भाषा।
  2. भूगोल के आधार पर- व्यक्ति बोली, स्थानीय बोली, उपबोली तथा बोली वर्ग ।
  3. प्रयोग के आधार पर- बोलचाल की भाषा, साहित्यिक भाषा, जातीय भाषा, व्यावसायिक भाषा, दफ्तरी भाषा, गुप्त भाषा, राजभाषा तथा राष्ट्र भाषा
  4. निर्माण के आधार पर- सहज भाषा तथा कृत्रिम भाषा
  5. मानकता अथवा शुद्धता के आधार पर- मानक तथा अमानक भाषा।
  6. मिश्रण के आधार पर पिजन तथा क्रियोल।
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Pankaja Singh

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