समाज शास्‍त्र

कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष का सिद्धान्त | आगबर्न के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त

कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष का सिद्धान्त | आगबर्न के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त

कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष का सिद्धान्त

कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त- मार्क्स 1848 ई. में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘साम्यवादी घोषणापत्र (Communist Manifesto) मेंलिखते है कि “अभी तक का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है।” मार्क्स के अनुसार समाज में हमेशा दो वर्ग रहे है और उनके बीच संघर्ष पाया जाता है उन दोनों के संघर्ष से ही समाज में परिवर्तन होता है। वर्ग के निर्माण का आधार मार्क्स के अनुसार आर्थिक रहा हैं। मार्क्स ने बताया है कि आर्थिक व्यवस्था ही सामाजिक व्यवस्था की आधार शिला है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन तभी आता है जब आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन आता है।

मार्क्स ने संपूर्ण सामाजिक संरचना को दो भागों में विभाजित किया है-समाज के संपूर्ण ढाँचे के ऊपरी भाग को उन्होंने अधि संरचना (Super Structures) कहा है जबकि बुनियादी भाग या निचले भाग की अधोसंरचना (Sub structure) की संज्ञा दी हैं इन दोनों के सम्मिलित रूप से ही समाज की संपूर्ण संरचना का निर्माण होता है।

मार्क्स के अनुसार सामाजिक संरचना मनुष्य के सामाजिक जीवन या अस्तित्व की ही अभिव्यक्ति है। और मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादीबात यह है कि उसकी उन भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे जिनके कारण उसका जीवित रहना संभव होता है। इन चीजों की पूर्ति आत्मा या परमात्मा नहीं करेंगे, इसके लिए तो स्वयं मनुष्य को ही परिश्रम करना होगा। परंतु केवल मनुष्य से ही काम नहीं चलेगा अगर इन भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए आवश्यक उत्पादन के साधन उपलब्ध न हों, दूसरे शब्दों में, इन भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए आवश्यक उत्पादन के साधन उपलब्ध न हों, दूसरे शब्दों में, मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक भोतिक मूल्यों के उत्पादन के लिए उसे उत्पादन उपकरणों की आवश्यकता होगी। परंतु मनुष्य इस उत्पादन के उपकरणों से तब तक भोतिक मूल्यों का सृजन नहीं कर सकता जब तक उसे उत्पादन अनुभव व श्रम-कौशल का ज्ञान न हों इस प्रकार मनुष्य उत्पादन के उपकरणों का प्रयोग अपने वर्तमान-अनुभव तथा श्रम-कौशल के आधार पर ही करके भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करता है। ये तत्व सब एक साथ मिलकर ही समाज विशेष की उत्पादक-शक्ति (Productive force) का निर्माण करते हैं।

इस प्रकार उत्पादक शक्ति = मनुष्य + उत्पादन के उपकरण + उत्पादन अनुभव व श्रम कौशल

यह सच है कि उत्पादन क्रिया मनुष्य करता है परंतु यह सच है कि काम को एक दूसरे से अलग-अलग रहकर नहीं करता हैं मनुष्य न केवल एक सामाजिक प्राणी है वरन् एक वर्ग प्राणी भी है। इसलिए मनुष्य उत्पादन कार्य आपस में मिलजुल कर समूह के रूप में करते है। उत्पादन क्रिया के लिए यह आवश्यक है कि लोग आपस सहयोग करें इस प्रकार उत्पादन क्रिया के दौरान में एक-दूसरे से कुछ निश्चित उतपादन-संबंधों को पनपाते या स्थापित करते हैं। ये आर्थिक संबंध में व्यक्ति की स्वेच्छा पर आश्रित नहीं होते, वरन एक समय विशेष में पायी जाने वाली उत्पादक-शक्ति के अनुरूप होते हैं।

मार्क्स के अनुसार उत्पादक शक्ति और उत्पादन-संबंधों के संपूर्ण योग से ही समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण होता है। इसी को अधो-सरंचना कहा गया है। क्योंकि यही वास्तविक नींव है जिस पर समाज की अधि संरचना खड़ी होती है। अधि-संरचना के अंतर्गत सामाजिक जीवन के अन्य पक्ष जैसे राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक, वैधानिक, सांस्कृतिक आदि आते हैं। मार्क्स के अनुसार अधोसरंचना के अनुरूप ही अधिसंरचना की प्रकृति निश्चित होती है। समाज के विकास का इतिहास वास्तव में प्रणाली के विकास का इतिहास है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का इतिहास वास्तव में समाज की अधोसंरचना में परिवर्तन का इतिहास है।

अधोसंरचाना = आर्थिक संरचना = उत्पादन प्रणाली (Mode of Production) उत्पादन के साधन (Means of Production) + उत्पादक शक्ति (Productive Power) उत्पादन-संबंध (Production Relation)

आगबर्न के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त

आगबर्न ने सामाजिक परिवर्तन के मुख्य स्रोत निम्नलिखित बताते हैं-

(क) अविष्कार (Invention)- विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जगत में मनुष्य के आविष्कार इतने अधिक हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र के आविष्कारों ने मानव समाज में एक युगान्तकारी एवं क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। आज विश्व में शायद ही कोई व्यक्ति या समाज होगा जिसका जीवन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित न हुआ हो। मानव समाज में जितने भी परिवर्तन आये है, उन परिवर्तनों के मुख्य स्रोत भौतिक जगत के आविष्कार रहे है।

(ख) खोज (Discovery)-   मनुष्य ने अपने ज्ञान व अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है। जैसे-शरीर में रक्त संचालन, बहुत सारी बीमारियों के कारणों, खनिजों, खाद्य पदार्थों, पृथ्वी गोल है एवं वह सूर्य की परिक्रम करती है आदि हजारों किस्म के तथ्यों की खोज मानव ने की, जिनसे उनके भौतिक एवं अभौतिक जीवन में काफी परिवर्तन आया। मनुष्य एक खोजी प्रवृत्ति का जीव है और वह आज भी नयी-नयी खोजों में लगा हैं इन खोजों की सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

(ग) प्रसार (Diffusion) – सांस्कृतिक जगतके परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है। पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण एवं भूमंडलीकरण जैसे प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। आधुनिक युग मेंप्रौद्योगिकी का इतना अधिक विकास हुआ है कि प्रसार की गति बहुत तेज हो गयी है। यही कारण है कि आज हम एक विश्व या विश्वव्यापी ग्राम जैसे अवधारणाओं की बात करने लगे है।

(घ) आन्तरिक विभेदीकरण (Internal Differentiation)- समाज में परिवर्तन समाज की स्वाभाविक उद्विकासीय प्रक्रिया से भी संभव होता है। हरेक समाज अपनी आवश्यकताओं के अनुसार धीरे-धीरे विशेष स्थिति में परिवर्तित होता रहता है। प्रारंभिक समाजशासियों, जैसे- स्पेन्सर, हॉबहाउस, दुर्शीम एवं बहुत सारे मानवशास्त्रियों ने अपने उद्विकास सिद्धांत में स्वतः चलने वाली आंतरिक विभेदीकरण की प्रक्रिया पर काफी बल दिया है। इसमें कोई संदेह की बात नहीं है कि इस आंतरिक विभेदीकरण की प्रक्रिया में खोज एवं आविष्कार का अपना एक अलग महत्व है।

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Pankaja Singh

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