उद्विकास | उद्विकास के लक्षण एवं विशेषताएँ | विकास | प्रगति | प्रगति की विशेषताएँ | सुधार | क्रान्ति
उद्विकास
उद्विकास (Evolution)- उद्विकास की अवधारणा का सीधा संबंध जैवकीय उद्विकास से है। 19वीं शताब्दी के समाजशास्त्रियों ने उद्विकास की अवधारणा का प्रयोग बहुत अधिक किया है। यह सब होते हुए भी इन लेखकों ने उद्विकास में निहित अर्थ को कोई अधिक स्पष्ट नहीं किया है। उद्विकास का जनक डार्विन को माना जाता है। जिन्होंने सर्वप्रथम मानव के उद्विकास का उल्लेख किया उनकी दो पुस्तकें ‘The Origin of Species (1859) और ‘The descent of Man’ (1863) इस दिशा में उल्लेखनीय हैं उद्विकास को समाजशास्त्र में सर्वप्रथम स्पेन्सर ने प्रयोग किया इसलिए स्पेन्सर को सामाजिक उद्विकास का जन्मदाता कहा जाता है। स्पेन्सर का कहना है कि जिस तरह व्यक्ति का विकास होता है उसी तरह समाज का भी विकास होता है। स्पेन्सर ने अपने पुस्तक (Social Statics) में विस्तारपूर्वक समाज को एक सावयव की तरह उसके उद्विकास रूप में रखा है।
डार्विन के अनुसार- उद्विकास की प्रक्रिया में जीवन की संरचना सरलता से जटिलता (Simple to Complex) की ओर बढ़ती हैं। यह प्रक्रिया भारतीय चयन (Natural Selection) के सिद्धान्त पर आधारित है।
– हरबर्ट स्पेन्सर ने जैविक परिवर्तन की भाँति ही सामाजिक परिवर्तन को भी कुछ आंतरिक शक्तियों के कारण संभव माना है और कहा कि उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है।
– स्पेन्सर- “उद्विकास कुछ तत्वों का एकीकरण तथा उसे संबंधित वहगति है जिसके दौरान कोई तत्व एक अनिश्चित तथा असम्बद्ध समानता से निश्चित और सम्बद्ध भित्रता में बदल जाता है।”
– मैकाइवर पेज – “जब परिवर्तन में केवल निरंतरता ही नहीं होती, बल्कि परिवर्तन की एक दिशा भी होती है, तब ऐसे परिवर्तन से हमारा तात्पर्य उद्विकास से होता है।”
– ऑगबर्न व निमकॉफ- “उद्विकास एक निश्चित दिशा में होने वाला परिवर्तन है।”
उद्विकास को सूत्र द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
उद्विकास = निरंतर परिवर्तन + निश्चित दिशा + गुणात्मक अंतर ढांचे व कार्य में भिन्नता
उद्विकास के लक्षण एवं विशेषताएँ
(क) समाज बराबर लम्बवत् नीचे से ऊपर के स्तर की ओर बढ़ता है।
(ख) नीचे के स्तर पर सामाजिक संरचना सरल ओर सजातीय होती है।
(ग) जैसे-जैसे समाज ऊपर के स्तर की ओर बढ़ता है। सामाजिक संरचना की जटिलता और उसकी विजातीयता भी बढ़ती जाती है।
(घ) स्पेन्सर के अनुसार जैविकीय विकास का सिद्धांत भी सभी तरह के विकास पर लागू होता है।
(ड) नीचे के स्तर से ऊपर के स्तर की ओर बढ़ने के पीछे -स्पेन्सर के अनुसार जनसंख्या की वृद्धि और सामाजिक स्तरीकरण ये दो प्रमुख कारक है।
(च) उद्विकास मूल्य निरपेक्ष होता है। इसका समाज के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है।
(छ) उद्विकास निरंतर आगे बढ़ने वाली प्रक्रिया है, इसमें पीछे लौटने की बात नहीं होती अर्थात एक अवस्था के पश्चात् ही दूसरी अवस्था आती है। इसमें चरणों की पुनरावृत्ति नहीं होती है।
(ज) उद्विकास निरंतर एवं धीमी गति से होने वाला परिवर्तन है।
(झ) उद्विकास वस्तु की आंतरिक वृद्धि के कारण होता है।
(ट) उद्विकास सदैव सरलता से जटिलता की ओर है।
(ठ) यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
(ड) यह एक निरंकुश प्रक्रिया है जो अपने अनुसार निरन्तर चलते रहती है, इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।
विकास
विकास (Development)- जिस भाँति सामाजिक उद्विकास की अवधारणा बहुत अधिक स्पष्ट नहीं हैं, ठीक इसी तरह विकास की अवधारणा भी अस्पष्ट है। बोटोमोर ने विकास के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसके माध्यम से हम वस्तुओं को पूरी तरह से विकसित अवस्था की ओर ले जाते हैं यहाँ इस अर्थ में भी कठिनाई हैं कुछ लोग जिसे विकास कहते हैं दूसरी की दृष्टि में शायद वह पतन है। दुनियाभर में विकास के अवधारणा के अर्थ को लेकर एक बहुत बड़ा विवाद चल रहा है। आज तकनीकी विकास के युग में बड़े-बड़े बाँध बनाये जा रहे हैं, पहाड़ों को भेद कर बड़ी-बड़ी टनेल बनायी जा रही हैं गहरे समुद्र से मछलियाँ पकड़ी जाती है और ऐसे ही अगणित कार्य विकास के नाम पर किये जा रहे हैं। सरकारें भी इसे विकास के नाम से पुकारती हॅलेकिन दूसरी ओर पर्यावरणवादी हैं जो तथाकथित विकास को पतन या प्रदूषण मानते हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि विकास के साथ में समाज के मूल्य जुड़ें होते हैं। यदि कोई परिवर्तन समाज द्वारा निर्धारित लक्ष्यों, मूल्यों या मानदण्डों द्वारा होता है तो इसे विकास कहते हैं।
प्रगति
प्रगति (Progress)- जब किसी परिवर्तन को समाज के हित में अच्छा या लाभकारी माना जाता है तो उसे प्रगति कहा जाता हैं प्रगति सामाजिक परिवर्तन को एक निश्चित दिशा को दर्शाती है। प्रगति में समाज कल्याण और सामूहिक हित की भावना छिपी होती है।’ मैकाइवर व पेज प्रगति की तुलना गिरगिट से करते हैं।
ऑगबर्न व मिकॉफ- प्रगति का अर्थ अच्छाई के लिए होने वाला परिवर्तन है इसलिये प्रगति में मूल्य-निर्धारण होता है।”
वार्ड – “प्रगति वह है जो मानवीय सुख में वृद्धि करती है।”
लुम्ले के अनुसार – “प्रगति एक परिवर्तन है लेकिन वह इच्छित या मान्यता प्राप्त दिशा में होने वाला परिवर्तन है, किसी भी दिशा में होने वाला परिवर्तन नहीं है।”
गुरविच तथा मूर के शब्दों – “प्रगति स्वीकृत मूल्यों के संदर्भ में इच्छित मूल्यों की ओर बढ़ना है।”
गिन्सबर्ग के अनुसार – “प्रगति का अर्थ उस दिशा में होने वाला विकास है जो सामाजिक मूल्यों का विवेकयुक्त हल प्रस्तुत करता है।”
प्रगति की विशेषताएँ-
(1) प्रगति वांछित उद्विकास है :- उद्विकास का अर्थ किसी भी दिशा में होने वाले निरंतर परिवर्तन से हैं, लेकिनक जब यही परिवर्तन सामाजिक मूल्यों और इच्छित लक्ष्यों की ओर होता है तब इसे हम प्रगति कहते है।
(2) प्रगति तुलनात्मक है :- समाज में प्रगति का अर्थ समान नहीं होता हम विचारात्मक उन्नति को प्रगति कह सकते है जबकि पश्चिमी समाज भौतिकता को ही प्रगति का आधार मानते है।
(3) प्रगति सामूहिक जीवन से संबंधित होती है :- किसी एक या कुछ व्यक्तियों की इच्छाओं के अनुसार प्रगति होना जरूरी नहीं हैं प्रगति की संभावना केवल उस स्थिति में ही की जा सकती हैं जबकि समाज में होने वाला परिवर्तन सामूहिक मूल्यों अथवा लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक हो रहा हो।
(4) प्रगति स्वाचालित नहीं होती :- प्रगति उद्विकास के समान स्वयं होने वाला परिवर्तन नहीं है बल्कि यह मनुष्य के सक्रिय प्रयत्नों एवं परिश्रम पर आधारित है।
(5) प्रगति की धारणा केवल मनुष्य में संबंधित है।
(6) प्रगति में लाभ अधिक हानि कम होती है।
(7) प्रगति की धारणा परिवर्तनशील है।
सुधार
सुधार (Reforms)- सामाजिक सुधार की अवधारणा वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन का बोध देती है। यह भी एक सामाजिक प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे सामाजिक परिवर्तन की ओर बढ़ती है। जब समाज की परम्परागत व्यवस्था को जान-बूझकर परिवर्तित किया जाता है तो यह सुधार है। यूरोप के इतिहास में एक पूरी शताब्दी धार्मिक सुधारों की रही। ये सुधार 18वीं-19वीं शताब्दी में हुए। कट्टर धर्मावलंबी कैथोलिक धर्म में किसी भी सुधार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इधर दूसरी ओर प्रोस्टेंट धर्मावलम्बी यह आंदोलन उठाए थे कि कैथोलिक धर्म अत्यधिक रूढ़िवादी था और समय के अनुसार उसे बदल जाना चाहिए। धर्म के नाम पर जो भी आडंबर थे उनके खिलाफ यूरोप का यह सुधार आन्दोलन था। हमारे देश में भी सुधार आन्दोलन का सूत्रपात लगभग इन्हीं शताब्दियों में हुआ। विधवा विवाह को सुधार का एक मुद्दा बनाया गया। यह इसलिए कि विधवाओं का जीवन अपने आप में एक त्रासदी था। सुधारवादियों ने सती प्रथ के उन्मूलन के लिए भी आन्दोलन किए। ऊधर गाँधीजी ने अछूतोद्वार के लिए भी आंदोलन किए। इन अर्थों में सामाजिक सुधार भी एक प्रकार की सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया है।
क्रान्ति
क्रांति (Revolution)- तीव्रगति से होने वाले परिवर्तन को क्रांति कहते हैं। जहाँ विकास में क्रमबद्ध और निरंतर परिवर्तन होता हैं, वहाँ क्रांति में तीन और अव्यवस्थित परिवर्तन होता है। समाज में आर्थिक, राजनैतिक तथा धार्मिक समूह होते है। जब किसी एक समूह में क्रांति होती है तो इसका प्रभाव अन्य समूहों पर भी पड़ता है। फ्रांस, रूस की राज्यक्रांतियों ने वहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को झकझोर दिया। औद्योगिक क्रांति ने जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया। लीबॉ ने क्रांति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए कहा है कि जिस देश में सामाजिक संस्थाएँ जितनी अधिक रूढ़िवादी होगी, उतनी ही शीघ्र वहाँ क्रांति भी होगी। क्रांति समाज के किसी भी हिस्से में हो सकती है। विज्ञान के क्षेत्र में डीजल, इंजिन, नायलोन, टेरेलीन, टेलीविजन, सेल्यूलर, पेजर आदि ने जीवन ने अन्य क्षेत्रों में किस तरह शीघ्रता से परिवर्तन कर दिया है वह हमसे छिपा नहीं है।
क्रांति में प्रायः हिंसा का समावेश होता है, लेकिन हमेशा ऐसा होना आवश्यक नहीं है। अहिंसक क्रांति भी होती है और रक्तहीन क्रांति भी होती है। इंगलैण्ड की क्रांति को इतिहासकार रक्तहीन क्रांति कहते है। हमारे देश में भी 1947 ई. में जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए क्रांति हुई थी, वह रक्तहीन क्रांति थी।
एबेम्स ने बताया है कि विश्व में अधिकांश क्रांतियाँ मौलिक सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए हुई है। हेना अरेण्ड ने बताया है कि क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य परंपरागत व्यवस्था से अपने आपको अलग करना एवं नये समाज का निर्माण करना है। पर इसका अपवाद भी देखने को मिलता है जिसमें क्रांति द्वारा समाज को और भी पुरातन व्यवस्था में ले जाने की कोशिश की गयी है। ईरान के अंतर्गत खुमैनी के नेतृत्व में जो क्रांति हुई, उसका मुख्य उद्देश्य बदलते हुए ईरानी समाज पर इस्लाम को पुनः अधिक से अधिक स्थापित करने की कोशिश की गयी थी।
क्रांति के लिए एंथनी गिडेन्स तीन बातों को सम्मिलित करते हैं :-
(क) क्रांति एक प्रक्रिया है, क्योंकि इस प्रक्रिया के अंतर्गत सत्ता का हस्तांतरा होता है।
(ख) क्रांति का माध्यम एक हिंसक आन्दोलन होता है, और
(ग) क्रांति का उद्देश्य मौलिक समाजिक परिवर्तन होता है।
क्रांति का जनक भी मार्क्स को ही माना जाता है। मार्क्स समाज में परिवर्तन के लिए क्रांति को अवश्यंभावी मानते हैं उनका कहना है कि जिस प्रकार बगैर प्रसव-पीड़ा के शिशु का जन्म नहीं होता, उसी प्रकार बगैर क्रांति के सामाजिक व्यवस्था नहीं बदल सकती। मार्क्स का कहना है कि क्रांति से आम आदमी को डरने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह पूँजीपतियों के अधिनायकत्व को समाप्त कर मजदूर वर्ग की अधिसत्ता को स्थापित करती है।
सामाजिक क्रांति के संबंध में सोरोकिन का गहन अध्ययन उनकी पुस्तक (The Sociology of Revolution, 1925) में मिलता है। सोरोकिन के मतानुसार क्रांतियाँ तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और न ही समाज का कोई हित होने की संभावना है। सामाजिक क्रांति वह व्याधिकीय अवस्था है जिसमें एक ओर लोगों के व्यवहार में और दूसरी ओर उनके मस्तिष्क, विचारधारा, विश्वासों और मूल्यांकन में परिवर्तन हो जाता है। इतना ही नहीं क्रांति में जनसंख्या की जैविकीय रचना तथा जन्म एवं मृत्यु दर में भी उल्लेखनीय परिवर्तन होता है। क्रांति के अनेक गंभीर परिणाम होते हैं, जिनमें समाज की सामाजिक संरचना की विकृति सबसे महत्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में क्रांति के परिणास्वरूप सामाजिक ढाँचे अत्यधिक अव्यवस्थित हो जाता है।
क्रांति के दौरान ऐसे लोगों का ही बोलबाला होता है जो कि सारे समाज को विषाक्त करते हैं यह विष समाज के सदस्यों की मनोदशा, विश्वासों, भावनाओं तथा धारणाओं में भी क्रियाशील हो जाता है और समाज का समस्त वातावरण भ्रष्ट एवं कलुषित हो जाता है।
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि क्रांति में कुछ बुराइयाँ अवश्य है पर यह सामाजिक परिवर्तन की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है।
सामाजिक उद्विकास, प्रगत विकास और क्रांति को निम्न रेखाचित्र से स्पष्ट कर सकते हैं –
उद्विकास, किसी भी दिशा में होने वाला क्रमबद्ध परिवर्तन
प्रगति, समाज स्वीकृत मूल्यों की ओर परिवर्तन
विकास, सदैव ऊपर की ओर होने वाला परिवर्तन
क्रांति, अचानक होने वाला परिवर्तन जिसमें कोई क्रम न हो।
समाज शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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