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लौकिकीकरण | धर्मनिरपेक्षीकरण | ऐहिकीकरण | सांस्कृतिक विलम्बना | लौकिकीकरण का अर्थ | लौकिकीकरण के कारण | लौकिकीकरण का क्षेत्र | लौकिकीकरण का प्रभाव

लौकिकीकरण | धर्मनिरपेक्षीकरण | ऐहिकीकरण | सांस्कृतिक विलम्बना | लौकिकीकरण का अर्थ | लौकिकीकरण के कारण | लौकिकीकरण का क्षेत्र | लौकिकीकरण का प्रभाव

लौकिकीकरण

अथवा

धर्मनिरपेक्षीकरण

अथवा

ऐहिकीकरण

लौकिकीकरण का दूसरा नाम है- ऐहिकीकरण। अंग्रेजी शासन के आगमन पर जहाँ विभित्र सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, व्यावहारिक तथा कर्मकांडीय पक्षों में परिवर्तन परिलक्षित हुआ वहीं भारतीय सामाजिक जीवन एवं संस्कृति के लौकिकीकरण की प्रक्रिया का द्रुतगति से अभ्यदुय हुआ जो स्वतन्त्रता के उपरान्त और भी व्यापक एवं गहन हो गया। जो कुछ ऐसे कार्यों द्वारा प्रकट होता है. जैसे-समस्त नागरिकों की समानता की संवैधानिक मान्यता, भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य होने की घोषणा, योजनाबद्ध विकास के कार्यक्रमों की मान्यता, सार्वजनिक बालिग मताधिकार का प्रारम्भ आदि। सामान्यतया ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक भारत में संस्कृतिकरण एवं लौकिकीकरण के प्रक्रिया साथ-साथ चल रही है। किन्तु इन दोनों की प्रक्रियाओं में मूल एवं वृहद् अन्तर यह है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया किसी ‘नीच’ हिन्दू जाति अथवा जनजाति में ही होती है जबकि लौकिकीकरण की प्रक्रिया समस्त नागरिकों में होती है और इसमें भी शहरी एवं शिक्षित वर्ग में लौगिकीकरण की प्रक्रिया का प्रतिशत उच्च ही रहता है।

यद्यपि यह पक्ष भी सशस्त है कि लौकिकीकरण की प्रक्रिया से भारत के अन्य किसी धार्मिक समूह की अपेक्षा हिन्दू ही अधिक प्रभावित हुए। क्योंकि एक तो पवित्रता- अपवित्रता की धारणायें जो हिन्दू धर्म में केन्द्रीय एवं व्यापक हैं विविध कारणों से अत्यधिक क्षीण हुई तथा इसी के समानान्तर यह सन्दर्भ कि हिन्दू धर्म कोई एक केन्द्रीय देशव्यापी संगठन और उसका कोई एक प्रधान नहीं है वह अपने अस्तित्व के रक्षार्थ जाति, संयुक्त परिवार और ग्रामीण समुदाय जैसी विभिन्न सामाजिक संस्थाओं पर अधिकतर निर्भर है जो महत्वपूर्ण बातों से परिवर्तित हो रही हैं। यह सम्पूर्ण स्थिति हिन्दू धर्म की लौकिकीकरण की शक्तियों को विशेष रूप से बेदम बना देती है।

सांस्कृतिक विलम्बना

सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की सर्वप्रथम व्याख्या हमें आगबर्न (Ogburn) की पुस्तक (Social Change) में मिलती है। आगबर्न संस्कृति को दो भागों में बाँटते हैं . भौतिक (Material) एवं अभौतिक (Non-Material)। भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत आप विभिन्न औजार, यंत्र, मेंज, कुर्सी तथा दिन-प्रतिदिन में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न वस्तुओं को सम्मिलित करते हैं। अभौतिक पक्ष में आप धर्म, न्याय, प्रथा, परम्परा एवं रूढ़ियों आदि को सम्मिलित करते हैं। भौतिक पक्ष तीव्र गति से परिवर्तित होने वाला होता है जबकि अभौतिक पक्ष में रूढ़िवादिता पायी जाती है। किन्तु संस्कृति के दोनों ही पक्ष, भौतिक एवं अभौतिक आपस में निकट रूप से सम्बन्धित होते हैं। इसलिये जब एक पक्ष में किसी प्रकार का परिवर्तन होता है तो कुछ समय पश्चात् वह संस्कृति के दूसरे सम्बन्धित भाग में भी परिवर्तन लाता है। फल यह होता है कि एक भाग आगे निकल जाता है। (प्रायः भौतिक) और दूसरा भाग (प्रायः अभौतिक) रूढ़िवादी होने के कारण पीछे छूट जाता है जिससे दोनों भागों में तनाव पैदा हो जाता है। संस्कृति के भौतिक एवं अभौतिक भागों में पैदा होने वाले इसी तनाव की आगबर्न सांस्कृतिक विलम्बन (Cultural Log) के नाम से सम्बोधित करते हैं।

लौकिकीकरण का अर्थ एवं कारण बताइए

लौकिकीकरण सांस्कृतिक परिवर्तन की वृहत्तम कोटि के अन्तर्गत परिवर्तन के एक विशिष्ट वर्ग को निरूपित करता है। इसका मतलब यह नहीं है कि इसमें (लौकिकीकरण में) धर्म के स्थापित विश्वास के प्रति अस्वीकृति अथवा इसकी साख समाप्त करने जैसी कोई बात है। यह विचारों में धार्मिक प्रभुत्व, विश्वास एवं व्यवहार से एक प्रकार की मुक्ति की क्रिया अवश्य है। लौकिकीकरण धर्म का प्रतिस्थापन (अलौकिक में विश्वास जो मानवीय विचार एवं क्रिया को संचालित करता है) तर्क अथवा दलील द्वारा करता है। लौकिकता धार्मिक सहिष्णुता को एक ऐहिक अथवा लौकिक नीति की भाँति समाविष्ट करती है, गोरे (Gore) कहता है -“लौकिकीकरण स्वयं अधार्मिक नहीं भी हो किन्तु यह ऐसी नीति अवश्य है जो अधार्मिक है। लौकिकीकरण व्यवहार अथवा क्रिया के निदेशक की भाँति बौद्धिकता अथवा तार्किकता की दृढ़ स्वीकृति पर निर्भर करता है।” श्रीनिवास (Srinivas) धार्मिक प्रथाओं को समाप्त करने, समाज के विभिन्न पक्षों में बढ़ते विभेदीकरण उसके इस परिणाम के साथ जो कि समाज के आर्थिक, राजनैतिक, वैधानिक एवं नैतिक पक्षों की एक-दूसरे से पृथकता बढ़ा रहा है और बौद्धिकता जिसमें आधुनिक परम्परागत विश्वास एवं विचार का स्थान लिया जाता है, की तरह लौकिकीकरण को रेखांकित करते हैं। लोमिस (Lomis) (1971 : 303-11) लौकिकीकरण का सन्दभ भारतीय परिप्रेक्ष्य में जाति-व्यवस्था एवं पवित्रता से समबन्धित मानक से विचलन की भाँति है।

कारण- लौकिकीकरण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

(1) आधुनिक शिक्षा प्रणाली।

(2) समाज सुधार आन्दोलन।

(3) यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का विकास

(4) सामाजिक विधान।

(5) आद्योगीकरण।

(6) नगरीकरण।

(7) पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता हुआ प्रभाव।

(8) राजनैतिक संगठनों का योगदान।

लौकिकीकरण के प्रभाव या क्षेत्र

(1) पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा- पवित्रता तथा अपवित्रता के सन्दर्भ में परिवर्तित हो रहे दृष्टिकोणों का एक ज्वलन्त उदाहरण स्त्रियों में मिलता है। प्राचीन काल में स्त्रियाँ अपवित्रता के सन्दर्भ में अत्यधिक सजग रहती थीं और उनकी पवित्रता व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु रसोईघर था। रसोईघर में प्रवेश से पूर्व स्नान एवं शुद्ध सूती धोती धारण करना आवश्यक था परन्तु यह स्थिति परिवर्तित हो गयी है। अब स्त्रियों में पवित्रता की धारणा के स्थान पर स्वास्थ्य तथा पौष्टिकता की धारणा प्रमुख हो गयी है। अधिकांश स्त्रियाँ अपवित्रता सम्बन्धी नियम अपने माता-पिता या सास-ससुर के साथ रहने पर ही निभाती हैं वैसे एक प्रमुख बात यह भी हे कि औद्योगीकरण, नगरीकरण आदि प्रक्रियाओं के फलस्वरूप परिवार टूट रहे हैं तथा केन्द्रीय परिवार (Central family) जिसे हम एकाकी परिवार भी कहते हैं, का अभ्युदय हो रहा है और इन एकाकी परिवारों में मुख्यतः पति-पत्नी तथा बच्चे ही होते हैं और इन नवीन एकाकी परिवारों में अत्यधिक व्यस्तता एवं प्रत्येक कार्य हेतु निर्धारित समय होता है, फलस्वरूप यदि पति दफ्तर से वापस आया और पत्नी भी उसी समय आयी तो वह सीधे उन्हीं कपड़ों में बिना स्थान किये रसोईघर में नाश्ता यह भोजन बनाने चली जाती है और यही सन्दर्भ विशेष के अनुरूप आचरण लौकिकीकरण का आधार है।

(2) कर्मकाण्डों में परिवर्तन की प्रक्रिया- ब्राह्मणों, पुरुषों एवं स्त्रियों के दैनिक कर्मकाण्ड में व्यय होने वाले समय में निरन्तर कमी हो रही है। इस सन्दर्भ में इंगोल्स का कथन है कि, “परिवार का मुखिया धार्मिक कृत्यों में संध्या में स्नान में, पूजा में, अग्नि कृत्य में, वेदपाठ में दिन में पाँच घण्टे या उससे भी अधिक समय लगाता है। ब्राह्मण की पत्नी अथवा उसके परिवार की कोई अन्य स्त्री घर में स्थापित देव मूर्तियों के पूजा-पाठ में रोज एक घण्टा लगाती है।” परन्तु यह तभी सम्भव है जब यह तो उसकी कोई स्वतन्त्र आमदनी का स्रोत हो या उसका पुरोहिती का ही धन्धा हो किन्तु कालचक्र के साथ ही नवीन सामाजिक व्यवस्था में वे दोनों ही बाते अत्याधिक अल्प प्रतिशत में ही हैं। अतः दैनिक कर्मकारण्ड में व्यतीत होने वाले प्रतिदिन के एक बड़े-हिस्से में ह्रास हुआ।

परम्परा से विवाह के पूर्व ब्राह्मण कन्या से यह अपेक्षा की जाती थी कि उसे लड़कियों द्वारा किये जाने वाले कर्मकाण्ड का तथा जाति और अपवित्रता सम्बन्धी नियमों का ज्ञान हो। साथ ही, रसोई बनाने एवं घरेलू काम-काज का ज्ञान हो तथा विवाह के उपरान्त वह अपने पति, सास-ससुर तथा ससुराल के अन्य सदस्योंका सम्मान करे। परन्तु वर्तमान नवीन परिवेश में शिक्षा ने लड़कियों के दृष्टिकोणों, सोचने के ढंग एवं जीवन-शैली में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया।आज की अधिकांश शिक्षित नारी समानता का दर्जा देना चाहती है तथा स्वयं भी विभिन्न नौकरियों एवं रोजगार में सहभागी बन रही है। इस सन्दर्भ में एलीन रौस का बंगलूर के एक नगरीय परिवार के अध्ययन के उपरान्त यह कथन है कि, “कुल मिलाकर इस अध्ययन से प्रकट है कि मध्य और उच्च वर्गो की हिन्दू लड़कियों को शिक्षा अभी तक विवाह के उद्देश्य से दी जाती है, आजीविका के लिए नहीं। किन्तु बहुत से माँ-बाप अपनी लड़कियों को विश्वविद्यालयों में पढ़ाने को उत्सुक थे। शायद, इस नयी प्रवृत्ति का एक मुख्य कारण यह है कि बाल-विवाह के बजाय वयस्क विकास प्रारम्भ होने से अन्नीस अथवा पच्चीस वर्ष तक की लड़कियों के अवकाश के समय को भरना आवश्यक है और विवाह तक उन्हें व्यवस्था रखने का उपाय कॉलेज है। एक अन्य कारण कई लोगों ने यह बताया कि अपनी लड़कियों के लिए उपयुक्त वर मिलने में कठिनाई के कारण कभी-कभी माँ-बाप उनकी शिक्षा जितना चाहते थे उसके बाद पढ़ाये जाते हैं।”

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Pankaja Singh

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