राजनीति विज्ञान

जान स्टुअर्ट मिल के प्रजातंत्र संबंधी विचार | प्रतिनिध्यात्मक शासन-तत्सम्बन्धी समस्याएँ और सुझाव | प्रतिनिध्यात्मक शासन सम्बन्धी विचारों की आलोचना और मूल्यांकन

जान स्टुअर्ट मिल के प्रजातंत्र संबंधी विचार | प्रतिनिध्यात्मक शासन-तत्सम्बन्धी समस्याएँ और सुझाव | प्रतिनिध्यात्मक शासन सम्बन्धी विचारों की आलोचना और मूल्यांकन

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जान स्टुअर्ट मिल के प्रजातंत्र संबंधी विचार

सर्वश्रेष्ठ सरकार के सम्बन्ध मिल की विचारधारा परम्परागत धारणा से कुछ भिन्न है और उसका कहना है कि सबसे अधिक कार्यकुशल सरकार आवश्यक रूप से सर्वश्रेष्ठ नहीं होती। मिल ऑन लिवर्टी के विचारों को ही शि में रखते हुए कहता है कि शासन का मुख्य उद्देश्य मानवीय क्षमताओं का विकास करना है और वही सरकार सर्वश्रेष्ठ है जिसके द्वारा अपने नागरिकों को राजनीतिक शिक्षण और प्रतिक्षण प्रदान करते हुए नागरिकता की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला के रूप में कार्य किया जाय।

नागरिक स्वयं सरकार के कार्यों में भाग लेकर ही अपना बौद्धिक विकास कर सकता है। इसलिए “आदर्श सरकार वह है जिसमें सम्प्रभुता या अन्तिम नियन्त्रण की शक्ति समुदाय के पूरे समूह में हो। प्रत्येक व्यक्ति द्वारा न केवल सम्प्रभु इच्छा को व्यक्त करने वरन् सार्वजनिक कार्यों के सम्पादन में भी किसी-न-किसी रूप में सक्रिय भाग लिया जाना चाहिए।” अपने मत की पुष्टि में मिल कहता है कि जहाँ केवल एक ही वर्ग के हाथ में सत्ता होती है, वहाँ शासक वर्ग कितना ही विवेकशील क्यों न हो, वह शासितों के हित पूर्णरूप से समझकर उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकता। ब्रोण्टियर ओ ब्रेन (Brontemeo Bein) का समर्थन करते हुए मिल लिखता है, “शठ आपको बतायेंगे कि आपके सम्पत्तिहीन होने के कारण ही आप प्रतिनिधित्वहीन हैं। इसके विपरीत मैं यह कहता हूँ कि आप प्रतिनिधित्वहीन होने के कारण ही सम्पत्तिविहीन हैं।”

प्रजातन्त्र में ही प्रत्येक व्यक्ति को अपने हित सुरक्षित करने का अवसर मिलता है। “प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार और हित उसी समय सुरक्षित रह सकते हैं और उनकी अवहेलना नहीं ह सकती, जब मनुष्य में अपने अधिकारों के लिए खड़े होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो” और यह प्रजातन्त्र से ही सम्भव है। प्रजातन्त्र में काम करते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपना हित तो देखेगा ही, वह दूसरों के साथ रहकर काम करना भी सीखेगा और सामान्य हित को समझकर उसी में अपना हित मानेगा।

इस प्रकार मिल के मतानुसार विभिन्न शासन-व्यवस्थाओं में प्रजातन्त्र ही सर्वश्रेष्ठ शासन- व्यवस्था है, लेकिन यह एक सामान्य सिद्धान्त है और इसके साथ ही उसने यह कह दिया है कि अलग-अलग प्रकार के समाज के लिए विभिन्न प्रकार का शासन उपयुक्त हो सकता है।

प्रतिनिध्यात्मक शासन-तत्सम्बन्धी समस्याएँ और सुझाव

मिल के अनुसार सच्चा प्रजातन्त्र तो वह है जिसमें सभी नागरिक प्रत्यक्ष रीति से शासन कार्य में भाग लें, किन्तु क्योंकि यह वर्तमान समय के विशाल राष्ट्रीय राज्यों में सम्भव नहीं है, अतः मिल की दृष्टि में सर्वोत्तम शासन अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र अथवा प्रतिनिध्यात्मक शासन ही हो सकता है। प्रतिनिध्यात्मक शासन वह है जिसमें राज्य के सभी या बहुसंख्यक नागरिक समय- समय पर अपने प्रतिनिधियों को चुनकर उनके द्वारा अपनी नियन्त्रण शक्ति का प्रयोग करते हैं। प्रतिनिध्यात्मक शासन के सम्बन्ध में मिल ने अपने विचार अपनी इसी नाम की रचना ‘प्रतिनिध्यात्मक शासन पर विचार’ में व्यक्त किये हैं। प्रतिनिध्यात्मक शासन का समर्थन करते हुए भी मिल प्रतिनिध्यात्मक शासन के दोषों, उसकी कमियों और तत्सम्बन्धी समस्याओं से परिचित था। प्रतिनिध्यात्मक शासन को एक श्रेष्ठ शासन का रूप दिया जा सके, यह नागरिकों के सर्वांगीण विकास का साधन बन सके, इस बात को दृष्टि में रखते हुए उसने कुछ विचार व्यक्त किये हैं, कुछ सुझाव दिये हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. प्रजातन्त्र और दक्षता का समन्वय-

मिल इस बात से परिचित था कि जनप्रतिनिधि सामान्य योग्यता के व्यक्ति होते हैं और उनके द्वारा स्वयं ही अच्छे कानूनों का निर्माण तथा शासन-व्यवस्था का भली-भाँति संचालन नहीं किया जा सकता, अतः मिल ने प्रजातन्त्रीय और प्रशासनिक दक्षता के तत्वों का समन्वय करने पर बल दिया है।

उसके अनुसार विधि निर्माण का कार्य अधिक योग्यता और अनुभव का कार्य है, इसलिए यह कार्य विधानसभा का न होकर दक्ष और अनुभवी व्यक्तियों की एक छोटी संस्था का होना चाहिए। इस संस्था में राजनीतिक दलों के नेता तथा दक्ष सरकारी कर्मचारी हों। विधानसभा का कार्य इस समिति के कार्यों की आलोचना करना तथा अवसर पड़ने पर उन्हें पद से हटाने तक ही सीमित होना चाहिए।

समाज के लिए नीति निर्धारण तथा विधियाँ बनाने का कार्य करने हेतु जनता के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त शासन में दक्ष और कुशल कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। मिल का सुझाव है कि इन कर्मचारियों की नियुक्ति निर्वाचन के स्थान पर परीक्षा लेकर एक स्वतन्त्र आयोग द्वारा स्थायी रूप से की जानी चाहिए। इन कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखने और इन्हें पदच्युत करने का अधिकार विधानसभा को दिया जा सकता है। जनता के प्रतिनिधियों द्वारा कर्मचारी वर्ग को यह बताया जाना चाहिए कि जनता चाहती क्या है और कर्मचारी वर्ग द्वारा उपर्युक्त कार्य की सिद्धि के लिए आवश्यक प्रयत्न किये जाने चाहिए। इस प्रकार एक श्रेष्ठ शासन में प्रजातन्त्र और कार्यकुशलता के बीच समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

  1. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-

मिल इस बात से परिचित था कि व्यवहार में प्रतिनिध्यात्मक शासन ‘सबके द्वारा और सबके लिए’ न रहकर बहुमत के निरंकुश शासन में परिणत हो सकता है जिनमें अल्पसंख्यकों के हितों का दमन सम्भव है। इसलिए मिल के द्वारा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के उपायों पर विचार किया गया और इस सम्बन्ध में वह दो उपाय अपनाने का सुझाव देता है-(1) विधान सभा में स्वतन्त्र रूप से निर्वाचित सदस्य, और (2) आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली। इनमें उसने प्रथम की अपेक्षा द्वितीय उपाय पर अधिक बल दिया है।

(1) स्वतन्त्र सदस्य किसी दल के सदस्य नहीं होते और मिल के अनुसार उनके उच्च आदर्श होते हैं। ये अपनी स्वतन्त्र प्रकृति के आधार पर विभिन्न वर्गों के बीच सन्तुलन रखते हैं और वर्गहित में विधियाँ नहीं बनने देते। साथ ही विभिन्न वर्गों के साथ सहयोग कर वे विधानसभा का ध्यान स्थायी हित के विषयों की ओर आकर्षित करते हैं। इसलिए विधानसभा में स्वतन्त्र सदस्यों के लिए स्थान होना चाहिए और ये सदस्य विश्वविद्यालय या इसी प्रकार के अन्य श्रेष्ठ वर्गों द्वारा निर्वाचित हो सकते हैं।

(2) मिल इंग्लैण्ड में प्रजातन्त्र के संचालन को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि निर्वाचन की बहुमत पद्धति बहुत अधिक अन्यायपूर्ण है। इस पद्धति में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार निर्वाचित हो जाता है और उन व्यक्तियों को कोई प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता, जिन्होंने पराजित उम्मीदवारों को मत दिया था। अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसा होने पर बहुत बड़ा वर्ग प्रतिनिधित्वहीन ही रह जाता है। इस सम्बन्ध में मिल लिखते हैं कि “विद्यमान शासन सभी व्यक्तियों का समान रूप से प्रतिनिधित्व करने वाला शासन नहीं है, वरन् यह तो केवल बहसंख्यकों का प्रतिनिधि शासन है। एक वास्तविक लोकतन्त्र में प्रत्येक वर्ग को उसकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए।” मिल ने अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता अनुभव की और व्यवस्थापिका में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके, इसके लिए उसने ‘हेयर प्रणाली (| Hare System) या आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का समर्थन किया। मिल के अनुसार आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धति ही एकमात्र ऐसी पद्धति है जिसके आधार पर अल्पसंख्यकों को उनकी संख्या के अनुपात में विधानसभा में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सकता है।

  1. मताधिकार के लिए आवश्यक योग्यताएँ-

मिल प्रतिनिधित्यात्मक शासन का समर्थन करता है और वह स्त्रियों सहित सभी व्यक्तियों को मताधिकार प्रदान करने के पक्ष में है। लेकिन उसका विचार है कि मतदाताओं को कुछ योग्यताएँ प्राप्त होनी ही चाहिए। सर्वप्रथम, वह मतदाताओं की शैक्षणिक योग्यता पर बल देता है और कहता है कि जो व्यक्ति साधारण रूप से पढ़ने-लिखने और गणित के प्रश्न करने की योग्यता नहीं रखते, उन्हें मताधिकार कैसे दिया जा सकता है? मिल का कथन है कि “मैं इस बात को नितान्त अनुचित मानता हूँ कि कोई व्यक्ति लिखने-पढ़ने की योग्यता प्राप्त करने के पूर्व ही मतदान में भाग ले। मताधिकार को सार्वभौम बनाने के सभी को शिक्षा प्रदान करना नितान्त आवश्यक है।” इस सम्बन्ध में उसका सुझाव है कि राज्य के द्वारा निःशुल्क या बहुत ही कम शुल्क पर जिसे निर्धन व्यक्ति भी वहन कर सके, शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

शैक्षणिक योग्यता के साथ मिल मतदाताओं की सम्पत्ति विषयक योग्यता पर भी बल देता है। उसका विचार है कि वे व्यक्ति जिनके पास सम्पत्ति होती है, सम्पत्ति हीन व्यक्तियों की तुलना में अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से आचरण करते हैं। सम्पत्ति की उचित रूप से रक्षा नहीं कर पाते।

  1. बहुल या गुणात्मक मतदान-

मिल अनुभव करता है कि सभी व्यक्तियों के मत का मूल्य समान नहीं होता और अज्ञानी, मूर्ख तथा उदासीन प्रवृत्ति के व्यक्तियों की तुलना में बुद्धिमान, शिक्षित तथा उच्च गुणों वाले व्यक्तियों को मताधिकार की अधिक शक्ति प्राप्त होनी चाहिए। कम शिक्षित और मूर्ख व्यक्ति देश के सार्वजनिक जीवन पर हावी न हो जायें इसके लिए मिल उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को एक से अधिक मत देने की बात का प्रतिपादन करता है। किन व्यक्तियों को अधिक मत प्राप्त होने चाहिए, यह स्पष्ट करने के लिए उसके द्वारा नागरिकों को वर्गीकृत किया गया है और इस वर्गीकरण का आधार मानसिक, सांस्कृतिक और नैतिक गुण हैं। मिल अपनी इस पद्धति को ‘गुणात्मक मतदान’ (Weighted Voting) के नाम से पुकारता है।

  1. खुला या सार्वजनिक मतदान-

मिल गुप्त मतदान का विरोध करते हुए खुले या सार्वजनिक मतदान को उचित समझता है। उसके मतानुसार मत देने का अधिकार एक पवित्र अधिकार है जिसका प्रयोग बुद्धिमत्ता, समझ और ईमानदारी के साथ सार्वजनिक रूप में किया जाना चाहिए। इस अधिकार के प्रयोग में गोपनीयता रखना गुप-चुप किये जाने वाले अनुचित एवं अनैतिक कार्य के समान है। मिल के समान प्रो० ट्रीश्चे ने भी गुप्त मतदान को “कुत्सित चाल” (Shabbiest trick) कहा है।

  1. महिला मताधिकार-

महिलाओं के मताधिकार का समर्थन करने की दिशा में मिल के द्वारा ब्रिटिश संसद के बाहर और भीतर दोनों स्थानों पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया। सम्भवतया उसके द्वारा यह कार्य अपनी मित्र और पत्नी श्रीमती टेलर के प्रभाव के कारण किया गया।

मिल के जीवनकाल में विक्टोरिया के युग का मध्यान्त चल रहा था। इस काल में महिलाओं को उच्च शिक्षा एवं उच्च पदों से वंचित रखा जा रहा था और सार्वजनिक जीवन में भी उनका प्रवेश निषिद्ध था। महिलाओं के लिए कोई द्वार खुला था तो केवल विवाहित जीवन बिताने का। जब कभी उनकी दशा सुधारने के लिए कोई आन्दोलन किया जाता, विरोधी हमेशा महिलाओं की अयोग्यता का आश्रय लेकर उस आन्दोलन को समाप्त कर देते थे। मिल ने बताया कि महिलाओं का पिछड़ापन किसी भी प्रकार उनकी बौद्धिक प्रतिभा की कमी का परिणाम नहीं है वरन् यह उनकी सदियों की दासता का परिणाम है। यदि दासता के बन्धन से महिलाओं को मुक्त कर दिया जाय और उन्हें पुरुषों के समान ही उन्नति और विकास के अवसर दिये जायें तो कोई कारण नहीं कि वे पुरुषों के समान ही सिद्ध न हो सकें।

वह महिलाओं की स्वतन्त्रता का इतना पक्षपाती था कि उसने ब्रिटिश संसद में इस प्रश्न पर सबसे पहले आवाज उठायी। उसका कहना था कि महिलाओं की दासता का अन्त कर उन्हें उच्च शिक्षा एवं राजकीय नौकरियाँ दी जानी चाहिए। उसके मतानुसार स्त्री-पुरुष की असमानता दूर करने का एक सबसे अच्छा उपाय यह है कि उन्हें पुरुषों के समान ही मताधिकार दिया जाय। सिजविक के समान ही उसका विचार था कि महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखने का कोई औचित्य नहीं है। इस सम्बन्ध में उसका कथन था-“राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में मैं लिंग के आधार पर भेद करना वैसा ही अप्रासंगिक मानता हूँ जैसे कि बालों के रंग के आधार पर भेद करना। अगर कोई भेद ही करना हो तो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में मताधिकार की अधिक आवश्यकता है क्योंकि शारीरिक दृष्टि से निर्बल होने के कारण वे अपनी रक्षा के लिए विधि और समाज पर अधिक निर्भर हैं।”

मिल के उपर्युक्त तर्क अकाट्य थे और इसी कारण उनका पर्याप्त असर भी हुआ।

  1. प्रतिनिधि के सम्बन्ध में धारणा-

संसद में प्रतिनिधि के स्थान या स्थिति के सम्बन्ध में मिल के विचार बर्क के समान हैं। वह प्रतिनिधि को जनता का प्रत्यायुक्त (Delegate) मात्र ही नहीं मानता। उसके अनुसार प्रतिनिधि तो एक स्वतन्त्र पथ-प्रदर्शक होता है, जिसके द्वारा स्थानीय हितों के स्थान पर राष्ट्रीय हितों के अनुसार कार्य किया जाना चाहिए। यदि अधिक महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर विजय प्राप्त करने के लिए किन्हीं छोटी-छोटी समस्याओं पर अपने विचारों को छोड़कर समझौता करना पड़े, तो उसके द्वारा निर्भीकता के साथ किया जाना चाहिए।

प्रतिनिध्यात्मक शासन सम्बन्धी विचारों की आलोचना और मूल्यांकन

मिल के प्रतिनिध्यात्मक शासन सम्बन्धी विचार अपने आप में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इसमें कुछ त्रुटियाँ हैं, जिनका उल्लेख निम्न प्रकार किया जा सकता है-

(1) सताधिकार पर शैक्षणिक और सम्पत्ति सम्बन्धी प्रतिबन्ध उचित नहीं-  

मिल के द्वारा मताधिकार पर जो शैक्षणिक और सम्पत्ति सम्बन्धी प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, न तो वे सैद्धान्तिक दृष्टि से औचित्यपूर्ण हैं और न ही व्यावहारिक। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि शिक्षा योग्यता के विकास का एक श्रेष्ठ माध्यम है, किन्तु यह भी उचित नहीं है कि अनुभवजन्य योग्यता को कोई उचित महत्त्व नहीं दिया जाय। व्यवहार में यह बात प्रत्यक्षतः देखी गयी है कि अनेक बार किताबी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की अपेक्षा निरक्षर किन्तु व्यावहारिक ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति अपने मताधिकार का भली प्रकार प्रयोग कर सकते हैं। मताधिकार के लिए सम्पत्ति की योग्यता तो किसी प्रकार से उचित नहीं कही जा सकती। इसके अतिरिक्त यदि शिक्षा और सम्पत्ति के आधार पर मताधिकार को सीमित करने का प्रयत्न किया जाय, तो मताधिकार के निर्धारण में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जायेंगी।

(2) आनुपातिक प्रतिनिधित्व जटिल और अनुपयोगी-

अल्पसंख्यकों की उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो, इसके लिए मिल के आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अपनाने का सुझाव दिया। आनुपातिक प्रणाली के इस गुण के बावजूद यह निश्चित रूप से अधिक उचित है और सर्वसाधारण इसे नहीं समझ सकते। इसके अतिरिक्त यह पद्धति छोटे-छोटे अनेक राजनीतिक दलों के निर्माण को प्रोत्साहित कर प्रतिनिध्यात्मक शासन के लिए संकट का कारण बन सकती है। डॉ० फाइनर, लास्की, स्ट्रोंग और प्रो० एस्मिन आदि सभी व्यक्तियों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की आलोचना की गयी है। प्रो० स्टोंग के शब्दों में कहा जा सकता है कि, “सैद्धान्तिक दृष्टि से आनुपातिक प्रतिनिधित्व सभी प्रकार से श्रेष्ठ प्रतीत होता है किन्तु व्यवहार में स्थिति ऐसी नहीं है।’

(3) सार्वजनिक मतदान उचित नहीं-  

मिल ने जिस खुले या सार्वजनिक मतदान का प्रतिपादन किया है, उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। सार्वजनिक मतदान को अपना लेने पर प्रजातन्त्र, प्रजातन्त्र न रहकर एक आतंकवादी और वर्गतन्त्रीय व्यवस्था के रूप में परिणत हो जायेगा।

(4) गुणात्मक या बहुल मतदान अव्यावहारिक- 

मिल द्वारा प्रतिपादित गुणात्मक या बहुत मतदान सैद्धान्तिक दृष्टि से भले ही उचित प्रतीत हो, किन्तु व्यवहार में इसे अपनाने मे अधिक कठिनाइयाँ हैं। कम और अधिक राजनीतिक योग्यता की बात करना तो सरल है, लेकिन इसका कोई औचित्यपूर्ण आधार ढूँढ़ लेना अपने आप में निश्चित रूप से एक समस्या है।

इस प्रकार मिल के प्रतिनिध्यात्मक शासन सम्बन्धी विचारों में कुछ दोष हैं और इनमें अव्यावहारिक भी है, लेकिन इसके बावजूद उसके विचारों अनेक प्रजातान्त्रिक सुधारों का समावेश है। उसके द्वारा प्रजातन्त्रीय और प्रशासनिक दक्षता के तत्वों के समन्वय का जो सुझाव दिया गया है वह उसकी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचायक है और उसके द्वारा किया गया महिला मताधिकार का समर्थन भी नितान्त औचित्यपूर्ण है। उसके द्वारा बहुमत की निरंकुशता के सम्बन्ध में जो ध्यान आकृष्ट किया गया है, वह भी अपने आप में प्रशंसनीय है। वस्तुतः वह प्रतिनिधि शासन के दोषों और उसकी कमियों से परिचित तथा उन्हें दूर करने के प्रति जागरूक था। बेपर ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “मिल प्रजातन्त्र की बुराई से प्रजातन्त्र की रक्षा करना चाहता था क्योंकि वह तत्कालीन आवश्यकता थी और ऐसा करने में वह सफल रहा है। उसका महत्त्व चिरंजीवी तथा चिस्मरणीय है।”

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Pankaja Singh

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