राजनीति विज्ञान

स्वतन्त्रता पर जे० एस० मिल के विचार | स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र पर जे० एस० मिल का सिद्धान्त | जे० एस० मिल का स्वतन्त्रता-सिद्धान्त (जॉन स्टुअर्ट मिल)

स्वतन्त्रता पर जे० एस० मिल के विचार | स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र पर जे० एस० मिल का सिद्धान्त | जे० एस० मिल का स्वतन्त्रता-सिद्धान्त (जॉन स्टुअर्ट मिल)

स्वतन्त्रता पर जे० एस० मिल के विचार

(Mill’s Views on Liberty)

स्वतंत्रता पर अब तक जितने विचारक हुए हैं उनमें जे० एस० मिल का नाम अग्रगण्य है। वह व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक था। 19वीं शताब्दी में उपयोगितावादियों द्वारा राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि के समर्थन से व्यक्ति के गौरव तथा मानव-मूल्यों का खतरा उत्पन्न हो गया था। मिल इस खतरे के प्रति पूर्ण रूप से सचेत था। इङ्गलैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप जो आर्थिक परिवर्तन हुए थे उससे व्यक्ति के गौरव पर आघात होने का खतरा था तथा उपयोगितावादियों ने राज्य के कार्य क्षेत्र में विस्तार करके व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित कर दिया था। अत: मिल ने व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना अपना परम कर्त्तव्य समझा उसके स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों का समावेश उसकी प्रसिद्ध पुस्तक “स्वतंत्रता पर निबन्ध” (Essay on Liberty) में है।

मिल भाषण, विचार, अभिव्यक्ति तथा कार्यों की स्वतंत्रता पर विशेष बल देता है। मिल ‘जनमत’ के दबाव के विरुद्ध संसद् द्वारा कोई भी कार्य करने के विरुद्ध था। उसका विश्वास था कि “लोकप्रिय सरकार’ पर भी प्रतिबन्ध लगाये जाने चाहिये क्योंकि किसी भी ‘स्वशासी सरकार’ में जो व्यक्ति सत्ता का प्रयोग करते हैं, उन्हें जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये। मिल का विचार था कि व्यक्ति को मजिस्ट्रेटों की निरंकुशता के विरुद्ध भी संरक्षण मिलना चाहिये। मिल अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘स्वतंत्रता पर निबन्ध’ में एक स्थान पर लिखता है कि “सामान्य रूप से समाज की प्रवृत्ति यह है कि उन लोगों पर जो उसके द्वारा मान्यता प्राप्त आचरणों से नियमों से मतभेद रखते हैं; उन पर अपने विचारों को थोपती हैं तथा यदि सम्भव हो तो स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास को रोकती है तथा लोगों को अपने द्वारा निर्धारित आदर्शों क अनुरूप ढालने के लिए बाध्य करती है।”

मिल का विचार था कि प्रजातंत्र के विकास तथा राज्य की विधायी शक्तियों में वृद्धि के कारण व्यक्ति का महत्व अत्यन्त गौण बन गया है। उसका विश्वास था कि समाज की प्रगति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास का पूरा-पूरा अवसर मिले। प्रो० सैबाइन के शब्दों में, “मिल विचार, भाषण तथा कार्य की स्वतंत्रता का पक्षपाती था। वह विचारों की सहिष्णुता तथा वाद-विवाद की निर्बाध स्वतंत्रता में विश्वास रखता था। उसका यह दृढ़ विश्वास था कि सत्य केवल विचारों के संघर्ष में ही जीवित रह सकता है।” इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का बहुत बड़ा पक्षपाती था।

“Mill favoured freedom of thought, speech and action. He believed in the toleration of opinions and unhampered freedom of discussion. He had confidence that truth would survive in the struggle of ideas.”

-Prof. Sabine.

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के विषय में जे० एस० मिल के विचार-

मिल ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विषय में निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये हैं:-

(1) मिल ने उपयोगितावादी विचारधारा के आधार पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया है। उसका कहना है कि सभ्य समाज के किसी व्यक्ति के ऊपर उसकी इच्छा के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग केवल इसी आधार पर किया जा सकता है कि उससे दूसरों की होने वाली हानि को रोका जाये। केवल व्यक्ति के स्वयं के कल्याण एवं भलाई के आधार पर व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। अपने व्यक्तिगत मामलों में व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिये। मिल ने कहा है कि व्यक्ति के कार्य दो प्रकार के होते हैं। अपने से सम्बन्धित कार्य (Self regarding actions) तथा दूसरों से सम्बधित कार्य (Other regarding actions) | व्यक्ति के अपने से सम्बन्धित कार्यों में राज्य का हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं होना चाहिय तथा जो कार्य दूसरों से सम्बन्धित है उनमें राज्य का हस्तक्षेप उचित ठहराया जा सकता है।

(2) मिल ने स्वतंत्रता की जो व्याख्या प्रस्तुत की है उसका स्वरूप आध्यात्मिक है। वह कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी चेतना (Conscience) से प्रेरित होकर कार्य करता है। चेतना सत्य पर आधारित है; अतः राज्य को उसे नियन्त्रित करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

(3) मिल कानून को स्वतंत्रता का विरोधी मानता है। उसका विचार है कि कानून स्वतंत्रता को सीमित एवं मर्यादित कर देता है; अतः राज्य को अपने कानूनों से व्यक्ति के मार्ग में बाधा उपस्थित नहीं करनी चाहिए। उसे ऐसे कानून नहीं बनाने चाहिये जिनसे व्यक्ति की स्वतंत्रता में कमी आए। राज्य के व्यक्ति पर प्रतिबन्ध अनुचित हैं।

(4) मिल द्वारा प्रतिपादित स्वतंत्रता का स्वरूप ‘नकारात्मक’ (Negative) है। उसकी स्वतंत्रता का रूप व्यक्तिवादी है। उसके अनुसार समाज का व्यक्ति से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं होता। समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है।

(5) मिल यह मानता है व्यक्ति का सुख उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा उसके व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास में निहित है; अत: व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं स्वतंत्रता के मार्ग में राज्य को बाधक नहीं बनना चाहिए।

(6) मिल बहुमत द्वारा अल्पमत के दबाये जाने का विरोधी है। इसलिए वह प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता प्रदान करने के पक्ष है। उसका कथन है कि बहुमत उतना ही अत्याचारी हो सकता है, जितना कि निरंकुश शासन। कभी-कभी बहुमत अल्पमत अपने आचरणों, रीति- रिवाजों, परम्पराओं एवं व्यवहारों को थोपने का प्रयत्न करता है, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

(7) मिल व्यक्ति के सामान्य कार्यों में राज्य के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करता। उसका विचार है कि राज्य के जितने कम कानून हों व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उतना ही अच्छा है।

जे० एस० मिल द्वारा प्रतिपादित स्वतन्त्रता की आलोचना-

मिल की स्वतंत्रता सम्बन्धी धारणा की तथा उसके व्यक्तिवाद की विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से आलोचनाएँ की गई हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण आलोचनाएँ इस प्रकार हैं-

(1) मिल का कथन है कि व्यक्ति को अपने शरीर तथा मस्तिष्क पर पूरा अधिकार प्राप्त होना चाहिये तथा इसमें राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। लोग मिल की इस धारणा से तो सहमत हो सकते हैं कि राज्य का व्यक्ति पर सीमित नियंत्रण होना चाहिये । परन्तु उसकी इस बात से कोई सहमत नहीं होगा कि उसे पूर्णतया स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए। कभी ऐसी स्थिति भी आ सकती है जबकि राज्य को व्यक्ति के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिये। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति शराब पीता है तो यह उसका व्यक्तिगत कार्य है परन्तु यदि वह शराब पीकर सड़क पर उपद्रव करता है तो इससे दूसरों की स्वतन्त्रता में बाधा पहुंचती है। अत: राज्य उसे उपद्रव करने की अनुमति नहीं दे सकता।

(2) मिल द्वारा व्यक्ति के कार्यों का दो भागों में विभाजन (स्वयं से सम्बन्धित कार्य तथा दूसरों से सम्बन्धित कार्य) तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। व्यक्ति समाज का सदस्य होता है। अत: उसका प्रत्येक कार्य समाज के दूसरे सदस्यों को प्रभावित करता है। अत: यह निश्चित करना कठिन है कि व्यक्ति का कौन-सा कार्य स्वयं से सम्बन्धित कार्य है तथा कौन-सा दूसरों से सम्बन्धित कार्य है।

(3) मिल की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का स्वरूप नकारात्मक है। यह कानूनों तथा बन्धनों के अभाव को ही स्वतन्त्रता मानता है। मिल का यह विचार त्रुटिपूर्ण है। वास्तविकता यह है कि स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए बन्धनों का होना अनिवार्य है। प्रो. बार्कर के शब्दों में, “मिल शून्य स्वतन्त्रता तथा अमूर्त व्यक्तिवाद का मसीहा था। उसके पास अधिकारों का कोई स्पष्ट दर्शन नहीं था जिसके द्वारा ही स्वतन्त्रता की धारणा मूर्त स्वरूप धारण करती है। उसके पास ऐसे किसी सामाजिक पूर्ण की धारणा नहीं थी जिसमें कि व्यक्ति तथा राज्य के मध्य मिथ्या विरोध समाप्त हो जाता है।”

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Pankaja Singh

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