अर्थशास्त्र

ओहलिन का सामान्य साम्य सिद्धान्त | हेक्शर-ओहलिन का सिद्धान्त | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त में ओहलिन का योगदान

ओहलिन का सामान्य साम्य सिद्धान्त | हेक्शर-ओहलिन का सिद्धान्त | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त में ओहलिन का योगदान

ओहलिन का सामान्य साम्य सिद्धान्त

तुलनात्मक लागत के प्रतिष्ठित सिद्धान्त के पूरक सिद्धान्त के रूप में हेक्शर-ओहलिन सिद्धान्त विकसित हुआ। उनके अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न वस्तुओं को उत्पादित करने की क्षमता साधनों की उपलब्धता द्वारा प्रभावित होती है, अतः साधनों की मात्रा में अन्तर अन्तरक्षेत्रीय विशिष्टीकरण और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का स्पष्ट कारण है। प्रो० हेक्शर ने स्पष्ट किया कि दो देशों के बीच व्यापार तुलनात्मक लागत के अन्तर के कारण उत्पन्न होता है तथा तुलनात्मक लाभ में  अन्तर निम्न कारणों से उत्पन्न होता है-

(1) दो देशों में उत्पादन के साधनों की सापेक्षिक दुलर्भता में अन्तर होना,

(2) विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में प्रयुक्त साधन-अनुपातों में अन्तर होना।

प्रो० बर्टिल ओहलिन ने इसी विचारधारा को अपनी पुस्तक “International Interregional Trade” के अन्तर्गत परिमार्णित एवं विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया। इसके अनुसार भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का तात्कालिक कारण वस्तु मूल्यों में पाया जाने वाला अन्तर है जो कि उत्पादन के साधनों के मूल्यों में अन्तर के कारण होते हैं तथा साधनों के मूल्यों में अन्तर साधनों की उपलब्धता में अन्तर के कारण होता है। साधन की अन्तिम उत्पादन लागतें (Firrjshed.pgoduct Costs) होती हैं। अत: विभिन्न देशों में लागते तथा वस्तु कीमतें भिन्न होती हैं।

इस सिद्धान्त के अन्तर्गत आधारभूत मॉडल का निर्माण कुछ मान्यताओं के आधार पर किया गया है जिससे दोहरी मॉडल प्रणाली (Double Model System) कहा जाता है। इनमें दो वस्तुएं, दो देश तथा उत्पादन के दो साधनों को शामिल किया गया है। इस सिद्धान्त को साधन अनुपात सिद्धान्त (Factor Proprortion Theory) अथवा साधन उपलब्धता सिद्धान्त (Factor Endowment Theory) भी इसलिए कहा जाता है।

मान्यताएं (Assumptions)

इस सिद्धान्त की उपरोक्त रूपरेखा का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है। यह सिद्धान्त अनेक मान्यताओं पर आधारित है जिसके आधार पर इसकी सत्यता की जांच की जा सकती है। इसकी निम्नांकित मान्यताएं हैं-

(1) दो क्षेत्र दो वस्तुएं तथा दो उत्पादन के साधनों का पाया जाना।

(2) प्रत्येक क्षेत्र (देश) में वस्तु बाजार तथा साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता का होना।

(3) एक देश में साधन की पूर्ण गतिशीलता का होना लेकिन विभिन्न देशों में इसका विद्यमान न होना।

(4) प्रत्येक देश में साधन पूर्ति स्थिर तथा पूर्ण नियोजित होती है।

(5) व्यापार स्वतंत्र तथा लागत रहित होता है अर्थात् व्यापार पर किसी प्रकार के प्रतिबंध नहीं होते हैं तथा यातायात व्यय नहीं होता है।

(6) प्रत्येक देश में विद्यमान उत्पादन साधन की भौतिक मात्रा को मापा जा सकता है।

(7) समान वस्तु के उत्पादन हेतु उत्पादन के तरीके दोनों ही देशों में एक समान होते हैं।

(8) वस्तुओं को उनमें लगे साधनों की मात्रा के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में श्रम गहन तथा पूंजी गहन वस्तुओं का वर्गीकरण किया जा सकता है।

(9) दोनों ही क्षेत्रों (देशों) में उत्पादन के साधन गुणात्मक दृष्टि से एक समान होते हैं।

(10) विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन फलन (Production Functions) पर पैमाने का समता प्रतिफल (Constant Returns to Scale) लागू होता है तथा उत्पादन संभावना वक्र (Production Possibility Curves) अपने मूलबिन्दु के प्रति नतोदर (Concave to the Origin) होते हैं।

प्रो० ओहलिन का भी यह तर्क है कि यदि प्रत्येक देश में उपलब्ध उत्पादन के साधन की मात्रा ज्ञात हो जाए तो हम यह पता लगा सकते हैं कि प्रत्येक देश में सापेक्षिक-साधन कीमत (Relative Factor Price) की संरचना क्या है। इस प्रकार एक देश में श्रम की प्रचुरता तथा पूँजी की कमी के कारण श्रम की तुलना में पूंजी अधिक उत्पादन करने हेतु मंहगी पड़ेगी।

उपरोक्त मान्यताओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन वस्तुओं की लागत कम होगी जिनके उत्पादन में प्रचुर और सस्ते उत्पादन के साधन काम में लाए जाते हैं। वास्तव में इस सिद्धान्त का आधार प्रचुर और तुलनात्मक रूप से साधनों की उपलब्धि है। इस सिद्धान्त के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के दो आधार स्तम्भ हैं-

(1) भिन्न-भिन्न देशों में उत्पादन के साधनों की सापेक्षिक उपलब्धता भिन्न होती है। इसके परिणामस्वरूप उन साधनों की कीमतों में अन्तर होता है। प्रचुर मात्रा में साधन उपलब्ध होने से उत्पादित वस्तुओं की कीमतें भी कम होंगी।

(2) भिन्न वस्तुओं के उत्पादन में उत्पादन के समस्त साधन एक ही अनुपात में प्रयोग में नहीं लाये जाते हैं। भिन्न-भिन्न वस्तुओं के उत्पादन में भिन्न-भिन्न मात्रा में भिन्न साधनों की आवश्यकता पड़ती है। कहीं श्रम अधिक तो कहीं पूंजी अधिक। जिन देशों में श्रम अधिक है तो श्रम गहन उत्पादन का तरीका अपनाया जायेगा। इसके विपरीत जिस देश में पूंजी अधिक है वहां पूंजी गहन उत्पादन का तरीका अपनाया जायेगा।

जब हेक्शर-ओहलिन मॉडल का अध्ययन किया जाता है तो हम यह मानकर चलते हैं कि सापेक्षिक मात्राओं (Relative Quantities) के अन्तर्गत सभी तुलना सपेक्षिक की जाती है। हम केवल इसी आधार पर नहीं कहते हैं कि एक देश में दूसरे देश की तुलना में श्रम की मात्रा अधिक है बल्कि हम इस आधार पर कहते हैं कि दोनों ही देशों में पूंजी की मात्रा का भी ज्ञात है। यह होने पर ही हम कह सकते हैं कि एक देश में श्रम पूँजी अनुपात (Labour/Capital) दूसरे देश के कम पूंजी

अनुपात से अधिक ( Labour A/Capital A> Labour B/Capital B है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि देश अ में देश ब की तुलना में श्रम अधिक मात्रा में है।

इस प्रकार आदेश में श्रम पूंजी अनुपात (L/K) 10 इकाइयां/5 इकाइयां = 2 है तथा देशों में श्रम पूंजी अनुपात

8 इकाइयां/2 इकाइयां = 4 है। इस उदाहरण में ब देश ने अदेश की तुलना में श्रम की निरपेक्ष मात्रा (Absolute (Absolute Amount of Labour) कम है। हालांकि मजदूरी ब देश में अ देश से अधिक होगी। ब देश में पूंजी पर प्रतिफल भी कम होगा।

“साधनों को सापेक्षिक प्रचुरता” का दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है। जब एक देश में तुलनात्मक रूप से साधनों की कम कीमत होना। दूसरा साधन की मात्रा देश विदेश में अधिक होना। इस अर्थ में साधनों की कीमतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। प्रो० ओहलिन ने अपने सिद्धान्त में साधनों की सापेक्षिक रूप से कम कीमत से ही अर्थ लिया है।

इसका अर्थ यह है कि दी हुई वस्तु का समोत्पत्ति नक्शा (Isoquant Map) दोनों ही देशों में एक सा होगा। इससे स्पष्ट है कि दोनों देशों में सापेक्षिक साधन कीमतें एक सी हैं तो प्रत्येक देश दोनों वस्तुओं के उत्पादन से समरूप साधन अनुपातों का प्रयोग करेंगे। चित्र में IP वस्तु A के उत्पादन की एक इकाई समोत्पत्ति प्रदर्शित करता है। AB रेखा किसी एक देश में  सापेक्षिक साधन-कीमत संरचना को प्रदर्शित करती है। A वस्तु का उत्पादन करने हेतु श्रम की OL मात्रा तथा पूंजी को OZ मात्रा का अनुपात काम में लगाया जाता है। यदि दूसरे देश में भी वस्तुओं की उत्पादन समान विधि की मान्यता है तो दूसरी वस्तु की साधन कीमत संरचना भी समान होगी तथा समोत्पत्ति वक्र समान ही होगा और साधनों का अनुपात भी (श्रम व पूंजी) एक सी ही होगा।

लेकिन प्रो० ओहलिन के अनुसार दोनों देशों में साधन-कीमत संरचना एकसी तभी होगी जबकि सापेक्षिक साधन उपलब्धता समान है अर्थात् अ देश में श्रम पूंजी का अनुपात ब देश के श्रम पूंजी अनुपात के बराबर (if L/k in Country A=L/ K in Country B) होता है। अन्यथा विभित्र देशों के बीच साधन-कीमत संरचना भिन्न होगी और इसलिए प्रत्येक देश में साधनों का संयोजन विभिन्न अनुपातों में किया जायेगा। जिस देश में श्रम की प्रचुरता है वहां श्रम गहन उत्पादन विधि (Labour Intensive Technique) तथा पूंजी की प्रचुरता वाले देश में पूंजी प्रधान उत्पादन (Capital Intensive Production) किया जायेगा।

वस्तुओं को उनकी साधन प्रधानता (Factor Intensity) के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्न वस्तुओं के लिए समोत्पत्ति नक्शे भिन्न-भिन्न होंगे, यद्यपि एक दी हुई वस्तु का समोत्पत्ति नक्शा बिना किसी राष्ट्रीयता के अन्तर के एकसा ही होगा। यदि किसी एक वस्तु को पूंजी प्रधान वर्गीकृत किया जाता है तो यह सभी साधन-कीमत अनुपातों (Factor Price Ratio) में एक सी रहेगी। इसका अर्थ यह है कि दो विभिन्न वस्तुओं के समोत्पत्ति वक्र एक-दूसरे को केवल एक बार काट सकते हैं। इसे चित्र में दर्शाया जा सकता है-

इस चित्र में साधन-कीमत अनुपात AB रेखा के ढाल से प्रदर्शित किये गये हैं। I P वक्र वाली वस्तु श्रमगहन होगी जबकि IP1 वक्र वाली वस्तु पूंजीगहन होगी। दूसरी वस्तुओं की तुलना में एक वस्तु श्रमगहन है अथवा पूंजी गहन जानने हेतु हमें सापेक्षिक उत्पादन आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा। जहां तक A तथा B वस्तुओं का प्रत्येक देश में समान उत्पादन विधि द्वारा उत्पादन किया जाता है लेकिन दोनों वस्तुओं को उत्पादन में व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर उत्पादन विधि अलग-अलग हो सकती है।

प्रो० ओहलिन ने अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त के अन्तर्गत आस्ट्रेलिया तथा इंग्लैण्ड के बीच व्यापार का उदाहरण प्रस्तुत किया है। आस्ट्रेलिया में भूमि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है जबकि श्रम और पूंजी की कमी है। अतः यहां भूमि सस्ती तथा अन्य साधन महंगे हैं। इनके परिणामस्वरूप जिन वस्तुओं के उत्पादन में भूमि अधिक काम में आती है वहां पर वैसी ही वस्तुओं का अधिक उत्पादन किया जाता है जैसे गेहूं, ऊन आदि। इसके विपरीत इंग्लैण्ड में पूँजी की प्रचुरता तथा भूमि की दुर्लभता के कारण पूंजीगत वस्तुओं का अधिक उत्पादन किया जाता है जैसे निर्मित वस्तुयें (Manufactured gooms)। इस प्रकार दोनों ही देशों में इस वस्तुओं की सापेक्षिक कीमतों में भिन्नताएं होंगी। इस स्थिति में इंग्लैण्ड द्वारा आस्ट्रेलिया से गेहूं और ऊन का आयात किया जायेगा तथा निर्मित वस्तुओं का आस्ट्रेलिया तथा इंग्लैण्ड से आयात किया जायेगा। इस प्रकार जिस देश द्वारा जिन वस्तुओं का निर्यात किया जाता है, परोक्ष रूप से वह देश उन साधनों का निर्यात करता है जो कि इन वस्तुओं के उत्पादन में प्रयुक्त किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विभिन्न देशों के बीच में आनुपातिक साधनों की अगतिशीलता का आर्थिक हाल हैं।

इस प्रकार विनिमय दर के आधार पर दो देशों के बीच साधनों के सापेक्षिक सस्ते तथा मंहगेपन का ज्ञान होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक देश द्वारा सस्ते साधन वाली वस्तुओं (Cheap Factor Producsts) का निर्यात तथा मंहगे साधन वाली वस्तुओं (Dear Factor Products) का आयात किया जायेगा।

इस सिद्धान्त को रेखा चित्र की सहायता से प्रमाणित किया जा सकता है। यहां भी सापेक्षिक साधन प्रचुरता का तात्पर्य तुलनात्मक कीमतों से लेते हैं न कि तुलनात्मक मात्राओं से। प्रथम देश सापेक्षिक रूप से पूंजी गहन (Capital Intensive) है तथा दूसरा श्रम गहन (Labour Intensive)। वस्तु a पूंजीगहन है तथा b वस्तु श्रम गहन है। जब दोनों देशों में समान तकनीकी ज्ञान एवं स्थिर लागत के अनुसार उत्पादन हो रहा है तो दोनों देशों की aa तथा bb समोत्पत्ति वक्र (Iso Product Curves) रेखायें चित्र के अनुसार आपस में एक दूसरे को एक बार ही काटेगी।

उपरोक्त चित्र में एक देश पूंजी गहन है तथा दूसरा श्रम गहन। वस्तु ए (aa) पूंजी गहन है तथा वस्तु बी (bb) श्रम गहन। जब दोनों देशों में उत्पादन होता है तो यह समोत्पत्ति वक्रों से स्पष्ट किया गया है। प्रथम देश की समोत्पत्ति वक्र को AB रेखा R पर स्पर्श करती है। यही रेखा AB दूसरे देश के समोत्पत्ति (Isoquant) वक्र bb को S बिन्दु पर स्पर्श करती हुई जाती है। AB का ढाल साधनों की सापेक्षिक कीमतों को प्रथम देश में दर्शाता है। उसी प्रकार दूसरे देश के समोत्पत्ति वक्र bb को रेखा A1B1 बिन्दु पर स्पर्श करती हुई जाती है। A1B1 का ढाल दूसरे देश में साधनों की सापेक्षिक कीमतों को दर्शाता है। AB तथा A1B1 के ढालों की तुलना करने से ज्ञात होता है कि A1B1 का ढाल AB से कम है। इसका कारण यह है कि दूसरे देश में तुलनात्मक रूप से श्रम सस्ता और पूंजी महंगी है। अब A1B1 के समानान्तर एक रेखा LT खींची गई है जो aa को E बिन्दु पर स्पर्श करती है। चित्रानुसार LT, A1B1 के ऊपर की ओर है अत: 0LOA1 से अधिक (OL>OA1) है।

प्रथम देश में A वस्तु के लिए साधनों के अनुपात का सन्तुलन OR है तथा B वस्तु के लिए OS है। इस वस्तुओं के उत्पन्न करने में कितनी पूंजी की आवश्यकता है यह AB रेखा दोनों समोत्पत्ति वक्रों को स्पर्श R और S बिन्दुओं पर करती है। AB रेखा पूंजी दर्शाने वाली रेखा को A बिन्दु पर मिलती है। अतः सिद्ध हुआ कि प्रथम देश में बनी दी हुई वस्तुओं को उत्पन्न करने में समान रूप से पूंजी लगाई गई है। दूसरे देश में OEA के लिए तथा OK,B के लिए साधनों के अनुपात का सन्तुलन है। दूसरे देश में A और B वस्तु को उत्पन्न करने के लिए पूंजी के रूप में लागत क्रमशः OL तथा OA1 है। स्पष्ट है कि दूसरे देश में A वस्तु को उत्पन्न करने में लगी पूंजी लागत खर्च, B वस्तु को उत्पन्न करने की तुलना में अधिक है।

अब हम प्रथम तथा द्वितीय देश में समान मात्रा में उत्पादित वस्तुओं की लागत की तुलना कर सकते हैं। हम देखेंगे कि प्रथम देश में जो पूँजी गहन है, A वस्तु तथा दूसरे देश में जो श्रम गहन है, B वस्तु सापेक्षिक रूप से कम लागत पर उत्पादित की जाती है। A वस्तु में पूंजी की मात्रा श्रम की तुलना में अधिक लगी है और प्रथम देश पूंजी गहन होने के कारण A वस्तु कम लागत पर उत्पन्न की जाती है जबकि —B वस्तु श्रम गहन है तथा दूसरे देश में B वस्तु की सापेक्षिक लागत कम होगी। इस प्रकार दी हुई मान्यताओं पर यह प्रमाणित किया जा सकता है जो देश जिस साधन विशेष में गहन होता है, वह देश उस प्रचुर साधन विशेष की सहायता से उस वस्तु का उत्पादन बढ़ाता है और उसी वस्तु का निर्यात भी करता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यदि एक देश तुलनात्मक रूप से श्रम गहन वस्तु का निर्यात करता है तो वह देश श्रम गहन होगा और वह पूंजी गहन वस्तुओं का आयात करेगा।

इस सिद्धान्त में सापेक्षिक रूप से साधन प्रचुरता (Relative Factor abundance) के संबंध में दो विचार प्रकट किये गये हैं-

(1) मूल्य आधार, तथा (2) भौतिक आधार।

(1) मूल्य आधार (Price Criterian)-  इसके अनुसार एक देश में सापेक्षिक रूप से पूंजी सस्ती तथा श्रम मंहगा है तो सापेक्षिक रूप से यह देश पूंजी प्रचुर (Capital Abundant) देश कहलायेगा। यहां किसी देश के श्रम के साथ उसकी पूंजी की कुल मात्राओं के अनुपात की अन्य देश के साथ तुलना नहीं की जाती। मूल्य के आधार पर एक देश A उस समय सापेक्षक रूप से पूंजी गहन (Capital Intensive) माना जायेगा जबकि (Pc/LP) A<(Pc/P)CB होगा।

इस सूत्र में-

P= साधन की कीमत

C=पूंजी

I=श्रम

तथा A & B दो देशों को व्यक्त करते हैं।

(2) भौतिक आधार (Physical Criterian)-  इसके अनुसार एक देश पूंजी प्रधान उस समय माना जायेगा जबकि अन्य देश की अपेक्षा उसमें श्रम की तुलना में पूंजी अधिक अनुपात में हो। यह साधनों की भौतिक मात्रा को दर्शाता है। इसे निम्न सूत्र से प्रदर्शित किया जा सकता है-

(C/B) A> (C/L) B

इस सूत्र के अनुसार A देश सापेक्षिक रूप से पूंजी प्रचुर माना जायेगा चाहे, श्रम की तुलना में पूंजी की कीमतों का अनुपात B देश की अपेक्षा कम हो अथवा कम न हो।

यदि दो देशों में साधनों की सापेक्षिक मात्राएं एक-सी हों तथा वस्तु-साधन प्रधानता (Commodity Factor Intensities) भी समान हों तो इस स्थिति में तुलनात्मक मूल्य अन्तर (Comparative Price Differentiation) नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में यदि (Pc/PL) A =(Pc/PL) B

तो इस दशा में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार उत्पन्न होने के लिए कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं होगा।

साधनों की मात्रात्मक प्रचुरता

साधनों की प्रचुरता का अर्थ दूसरे रूप में इनकी मात्राओं से लिया जाता है। प्रथम देश A में पूंजी की मात्रा दूसरे देश B से सापेक्षिक रूप से अधिक है तथा दूसरा देश (B) पहले देश (A) की तुलना में श्रम प्रधान है। गणितीय रूप में इसे (C/L) A> (C/L) B कहा जा सकता है। इन्हें रेखा-

चित्रों की सहायता से भी प्रदर्शित किया जा सकता है। इन चित्रों में P1P1 तथा P2P2 क्रमशः प्रथम (A) तथा द्वितीय (B) देशों की उत्पादन संभावनाएं रेखाएं (Production Possibility Curves) है। A वस्तु पूंजी प्रधान तथा B वस्तु श्रम प्रधान है। चित्र में इस मान्यता से चलते हैं कि दोनों देश एक ही अनुपात (OE) से वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं। इस दिशा में प्रथम देश S तथा द्वितीय देश S1 बिन्दु पर अपनी 2 उत्पादन संभावना रेखाओं पर उत्पादन करेंगे।

P2P2 का S1 बिन्दु पर ढाल अधिक है और P1P1 का S बिन्दु पर कम ढाल है। इसका अर्थ यह है कि A वस्तु प्रथम देश में सस्ती होगी तथा B वस्तु दूसरे देश में प्रथम देश की तुलना में सस्ती होगी। यदि ये दोनों देश इन बिन्दुओं (S1S1) पर उत्पादन करते हैं। प्रथम देश में A वस्तु के उत्पादन बढ़ाने की अवसर लागत (Opportunity Cost) द्वितीय देश की अपेक्षा अधिक है। इसी प्रकार दूसरे देश में B वस्तु का उत्पादन बढ़ाने की अवसर लागत प्रथम देश की अपेक्षा अधिक होगी। इससे यह प्रश्न उठता है कि क्या पूंजी प्रधान देश सदैव पूंजी प्रधान वस्तु का ही निर्यात करेंगे? इसका उत्तर यह है कि यह सदैव सभी परिस्थितियों में सही नहीं है। इसका निश्चय मांग की दशाओं को देखकर भी किया जा सकता है।

यदि प्रथम देश में पूंजी प्रधान वस्तु की मांग अधिक हो और द्वितीय देश में श्रम प्रधान वस्तु की माँग अधिक हो यह चित्र द्वारा दर्शाया गया है। यह तटस्थता वक्र रेखाओं के उत्पादन संभावना रेखाओं के स्पर्श बिन्दुओं से ज्ञात होता है। यदि यह दशा व्यापार खुलने से पूर्व हो तो प्रथम देश में A वस्तु दूसरे देश की तुलना में अधिक महंगी होगी। इसी प्रकार दूसरे देश में B वस्तु प्रथम देश की तुलना में अधिक महंगी है। यह प्रथम देश की कीमत रेखा C1C1 तथा द्वितीय देश की कीमत रेखा C2C2 से अधिक ढालू है। व्यापार शुरू होने पर प्रथम देश जो पूंजी प्रधान है वस्तु B ( श्रम प्रधान वस्तु) का निर्यात करेगा तथा दूसरा देश जो श्रम प्रधान है वस्तु A (पूंजी प्रधान वस्तु) का निर्यात करेगा। यह स्थिति हेक्शर-ओहलिन सिद्धान्त के अनुरूप नहीं है। अतः निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि जब साधन अनुपातों का आशय अधिक मात्रात्मक रूप में उपलब्धि से लिया जाता है तो हेक्शर-ओहलिन सिद्धान्त उसी स्थिति में लागू होगा जबकि मांग की दशाएं विशेष अवस्था की हो।

ओहलिन के सिद्धान्त का सारांश

ओहलिन के सिद्धान्त का अध्ययन करने से निम्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है-

(1) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अन्तक्षेत्रीय व्यापार की एक विशेष स्थिति है।

(2) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार दो देशों या क्षेत्रों में सापेक्षक वस्तु-कीमतों में अन्तर का परिणाम हैं।

(3) सापेक्षक वस्तु-कीमतों में अन्तर विभिन्न क्षेत्रों अथवा देशों में उत्पादन साधनों की पूर्ति में अन्तर के कारण उत्पन्न होता है।

(4) साधन-कीमतों में अन्तर साधन मात्राओं तथा उनकी सीमितता के कारण होता है।

(5) विनिमय दर में होने वाले परिवर्तन का प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर पड़ता हैं।

(6) दो देशों में तुलनात्मक लागतें और कीमतें समान होने पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार उत्पन्न नहीं होगा।

(7) किसी एक देश के लिए पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय विशिष्टीकरण (Perfect Internationall Specialisation) लाभदायक नहीं होगा।

(8) व्यवहार में परिवहन लागत तथा बाधाओं (Obstacles) के कारण पूर्ण साधन-कौमत समानता संभव नहीं होती है।

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Pankaja Singh

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