अर्थशास्त्र

गुणक की अवधारणा | गुणक की धारण का विकास | गुणक का अर्थ | गुणक तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति का सम्बन्ध | गुणक की सीमाएं

गुणक की अवधारणा | गुणक की धारण का विकास | गुणक का अर्थ | गुणक तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति का सम्बन्ध | गुणक की सीमाएं

गुणक की अवधारणा-

प्रो० केन्ज के आय, उत्पादन तथा रोजगार सिद्धान्त में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। यह व्यापार चक्र विश्लेषण तथा आय विस्तार का महत्त्वपूर्ण यन्त्र है। केन्ज के अनुसार रोजगार प्रभाव पूर्ण मांग पर निर्भर करता है। प्रभावपूर्ण मांग उपभोग मांग व निवेश मांग पर निर्भर करती है। जैसा कि हम जानते हैं उपभोग प्रवृत्ति अल्पकाल में स्थिर रहती है। (क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक एवं संस्थागत तत्वों पर निर्भर करती है जो कि अल्पकाल में स्थिर रहते हैं) तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति इकाई से कम होती है। इसलिए जिस अनुपात में आय में वृद्धि होती है उपभोग में उस अनुपात में वृद्धि नहीं होती जिसके कारण आय और उपभोग में अन्तराल उत्पन हो जाता है और यह अन्तराल निवेश में वृद्धि करके पूरा किया जा सकता है। केन्ज का यह विश्वास था कि “निवेश में प्रारम्भिक रूप से वृद्धि करने पर आय में अंतिम रूप से कई गुना अधिक वृद्धि होती हैं।” निवेश में प्रारम्भिक वृद्धि और कुल आय में अंतिम वृद्धि के सम्बन्ध को केन्ज ने “निवेश गुणक” (Investment multiplier) की संज्ञा दी है जबकि अन्य अर्थशास्त्री इसे आय गुणक multiplier) कहकर भी पुकारते हैं।

गुणक की धारण का विकास

(Development of the Concept of multiplier)-

यह धारणा, कि प्रभावपूर्ण मांग में होने वाले परिवर्तनों के आय व रोजगार पर गुणक प्रभाव (Multiplier Effects) पड़ते हैं, आर्थिक जगत में सर्वप्रथम उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विकसित हुई। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विक्सल (Wicksell) द्वारा अपनी पुस्तक ‘Interest and prices” में विकसित मुद्रा प्रसार का सिद्धान्त; गुणक सिद्धान्त ही है। यद्यपि विक्सल ने अपने इस सिद्धान्त में स्पष्ट रूप से गुणक शब्द का प्रयोग नहीं किया है। जर्मन अर्थशास्त्री एन० जोहान्सेन (N. Johannsen) 1903 में प्रकाशित अपने आर्थिक मंदी के सिद्धान्त में विस्फोतिक अवस्था (deflationary case) की व्याख्या हेतु स्पष्ट अर्थों में गुण्क के सिद्धान्त की व्याख्या की एवं 1913 में पुन: अपने सिद्धान्त को संशोधित किया।

जोहान्सेन के अनुसार- “यह सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि बचत-प्रक्रियाओं द्वारा व्यक्तियों की आयों में कमी आती है जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यय घट जाते हैं और व्यय घटने से उनकी कुल मांग कम होती हैं।” परन्तु सर्वप्रथम 1931 में कैम्ब्रिज अर्थशास्त्री आर० एफ० काहन (R.F. Kahn) ने अपने लेख “The Relation of home Investment of Unemployment” में गुणक प्रकिया का सविस्तार विश्लेषण प्रस्तुत किया। प्रो० काहन द्वारा प्रतिपादित गुणक की धारणा को रोजगार गुणक (Employment multiplier) कहते हैं। इस धारणा का विकसित रूप जिसका आज अध्ययन करते हैं, का प्रतिपादन प्रो० केन्ज ने अपनी पुस्तक “The General theory of Employment, interest and money” (1936) में किया। प्रो० केन्ज द्वारा प्रतिपादित गुणक की धारणा को निवेश गुणक (Investment Multiplier) कहते हैं। केन्ज का निवेश गुणक आर० एफ० काहन के रोजगार गुणक का सुधरा हुआ रूप ही है।

गुणक का अर्थ

(Meaning of Multiplier)

हम जानते हैं कि आय का मुख्य निर्धारक तत्व निवेश है। निवेश में वृद्धि से आय में वृद्धि होती है और निवेश में कमी से आय में कमी होती है। गुणक प्रक्रिया के अन्तर्गत हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि निवेश में निश्चित वृद्धि या कमी के फलस्वरूप आय में कितनी वृद्धि या कमी होती है। प्रो० केन्ज का यह विचार था कि निवेश में प्रारम्भिक वृद्धि से आय में अंतिम रूप से कई गुना वृद्धि होती है। इस कई गुना अधिक वृद्धि को ही “गुणक” (Multiplier) कहा जाता है। अर्थात् निवेश में प्रारम्भिक वृद्धि और कुल आय में अंतिम वृद्धि के सम्बन्ध को “गुणक” की संज्ञा दी जाती है। केन्ज के अनुसार, “जब कुल निवेश में वृद्धि की जायेगी तो आय में जो वृद्धि होगी वह निवेश में होने वाली वृद्धि से K गुणा अधिक होगी।” पीटरसन के अनुसार, “गुणक कुल मांग से हुए स्वतन्त्र परिवर्तन (निवेश द्वारा) से आय में हुए परिवर्तन के सम्बन्ध, का गुणांक है।” हेन्सन के अनुसार, “केन्ज का निवेश में होने वाली वृद्धि के फलस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि से सम्बन्धित है।”

डब्ल्यू० एल० स्मिथ के अनुसार- “आय में परिवर्तन को, निवेश में परिवर्तन से भाग देने पर, जिसके कारण आय में परिवर्तन हुआ है, गुणक ज्ञात होता है।”

एन० एफ० कीजर के अनुसार- “आय में परिवर्तन तथा निवेश में परिवर्तन के अनुपात को गुणक कहा जाता है।”

गुणक = आय में परिवर्तन/ निवेश में परिवर्तन

Multiplier = Change in income/ Change in Investment

or K = ∆ Y/∆Ι

गुणक तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति का सम्बन्ध

(Relation between Multiplier and Marginal propensity to consume)-

गुणक का मूल्य वास्तव में सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति द्वारा निर्धारित होता है। सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति (MPC) के अधिक या कम होने पर गुणक का मूल्य भी अधिक या कम होगा। सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति जितनी अधिक होगी, गुणक भी उतना ही अधिक होगा। इसके विपरीत सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के कम होने पर गुणक भी कम होगा। सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति उपभोग में परिवर्तन (∆C) और आय में परिवर्तन का (∆y) अनुपात हैं अर्थात् सीमान्त–

उपभोग प्रवृत्ति = उपभोग में परिवर्तन/आय में परिवर्तन

अर्थात् MPC = (∆C/ΔY)

जबकि गुणक निवेश में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप आय में होने वाले परिवर्तनों का अनुपात है।

गुणक का मूल्य ज्ञात करने का बीज गणितीय स्पष्टीकरण निम्न प्रकार से है-

y= C+ I       y = आय,

C = उपभोग,  I = निवेश

या ∆y = ∆C+∆I   ‌

∆ = परिवर्तन

या ∆I = ∆y- C……….(I)

गुणक की परिभाषा से हम जानते हैं कि K= (∆y/∆I) या  ∆y = K-∆I (2)

समीकरण (2) से हम प्राप्त करते हैं कि ∆I = (∆y/K)

अब समीकरण (2) का समीकरण (I) में प्रतिस्थापन करने पर हम प्राप्त करते हैं।

(∆y/K) = ∆y – ∆C

इसे ∆y से भाग देने पर हम प्राप्त करते हैं = I/K = I- (∆C/ΔΥ)

या = 1/(1-∆C/∆Y) (क्योंकि (∆C/ΔY) MPC = सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति)

या K = I/I-MPC

या K= (I/MPS) (क्योंक I -MPC = MPS-सीमान्त बचत प्रवृत्ति)

उपरोक्त समीकरण से स्पष्ट होता है कि सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति (MPC) या सीमान्त बचत प्रवृत्ति (MPS) का ज्ञान होने पर गुणक के मूल्य का अनुमान लगाया जा सकता है।

माना कि समाज की सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति (MPC) 50% या ½ है।

अतः MPS (1-1/2)1/2 होगी, इसलिए गुणक का मूल्य होगा-

K=1/1-MPC = (1/1-1)/2=(1/1/2) =2

अत: MPC के 1/2 होने पर गुणक का मूल्य 2 होगा।

हेन्सन के शब्दों में- सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के अधिक या कम होने के अनुसार गुणक बड़ा या छोटा होता है।” गुणक का आकार सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के मूल्य पर निर्भर करता है। सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के अधिक होने पर गुणक का आकार भी अधिक होगा और इसके विपरीत सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति कम होने पर गुणक आकार भी कम होगा। जिससे दो महत्त्वपूर्ण दशाओं का ज्ञान होता है-

(1) यदि सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति (MPC) शून्य है (यद्यपि उपभोग व्यय कभी शून्य नहीं होता) तो गुणक एक होगा। इसका अभिप्राय यह है कि उपभोक्ता अपनी बढ़ी हुई आय में से कुछ भी उपभोग पर व्यय नहीं करता, बल्कि समस्त वृद्धि की राशि उपभोक्ता द्वारा बचा ली जाती है जिसका परिणाम यह होता है कि गुणक का मूल्य एक के बराबर है। (सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति शून्य से अधिक तथा इकाई से कम होता है। अर्थात् MPC<O>1)।

(2) दूसरी स्थिति में यदि सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति एक है तो गुणक अनन्त (Infinity) होगा। इसका अभिप्राय यह है कि उपभोक्ता अपनी समस्त बढ़ी हुई आय को उपभोग पर व्यय कर देते हैं और कुछ भी बचत नहीं करते। ऐसी स्थिति में गुणक अनन्त होगा।

गुणक की सीमाएं

(Limitations or Assumption of Multiplier)

अर्थशास्त्र के अन्य आर्थिक नियमों की तरह गुणक की धारणा भी कई पूर्व धारणाओं पर आधारित है। गुणक की धारणा का प्रभावं तभी क्रियाशील होता है जबकि निम्नलिखित पूर्व धारणाएं अर्थव्यवस्था में पायी जायें। इन पूर्व धारणाओं को ही गुणक सीमाएं कहा जाता है-

(1) देश में उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धि पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए।

(2) गुणक की क्रियाशीलता हेतु समय-अन्तर (Time-lage) का होना जरूरी है।

(3) अर्थव्यवस्था में अपूर्ण रोजगार स्तर की अवस्था होनी चाहिए।

(4) गुणक के प्रभाव को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि निवेश के क्रम को निरन्तर कायम रखा जाये।

(5) अर्थव्यवस्था में किये जाने वाले विशुद्ध निवेश (Net Investment) का गुणक के मूल्य को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण स्थान है अर्थात् गुणक का मूल्य कुल निवेश में होने वाली वृद्धि पर निर्भर करता है। अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्र में किये गये निवेश का दूसरे क्षेत्र में किये गये निवेश पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।

(6) गुणक केवल मूल निवेश (Original Investment) के उपभोग और इस प्रकार आय पर पड़ने वाले प्रभावों से ही सम्बन्धित है अर्थात् गुणक केवल स्वतंत्र निवेश (Autonomous  Investment) से ही सम्बन्धित होता है क्योंकि इस प्रकार का निवेश लाभ-प्रेरणा से मुक्त होता है। यह निवेश पर बढ़े हुए या प्रेरित उपभोग (Induced Consumption) के पड़ने वाले प्रभावों से सम्बन्धित नहीं है। अर्थात् यह इस मान्यता पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था में प्रेरित निवेश (Induced Investment) नहीं है या त्वरक (Accelerator) क्रियाशील नहीं है।

(7) गुणक की क्रियाशीलता बन्द अर्थव्यवस्था (Close Economy) की मान्यता पर आधारित है। बन्द अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार नहीं होता।

(8) वस्तुओं की कीमतों में स्थिरता पायी जाती है।

(9) सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति समायोजन प्रक्रिया (Adjustment Process) की अवधि में न्यूनाधिक रूप में स्थिर रहती है।

(10) अर्थव्यवस्था में श्रम के अतिरिक्त अन्य साधनों जैसे कच्चा माल, पूंजी, उपकरण आदि की उपलब्धि भी होनी चाहिए।

(11) आय के वितरण में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

(12) आय की प्राप्ति और इसके व्यय में कोई समय अन्तराल नहीं होना चाहिए।

(13) सरकारी क्रियाओं जैसे कराधान या व्यय आदि की पूर्ण अनुपस्थिति होती है।

(14) गुणक की क्रियाशीलता हेतु यह आवश्यक है कि उपभोग सम्बन्धी उद्योगों में अतिरिक्त उत्पादन क्षमता होनी चाहिए।

(15) गुणक का प्रभाव एक कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था पर कम तथा एक औद्योगिक अर्थव्यवस्था पर अधिक क्रियाशील होता है।

अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!