अर्थशास्त्र

आर्थिक सुधार 1991 | देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू होने के बाद भुगतान शेष की स्थिति

आर्थिक सुधार 1991 | देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू होने के बाद भुगतान शेष की स्थिति

भुगतान-शेष और नए आर्थिक सुधार (1991)

(Balance of Payment and New Economic Reforms)

नये आर्थिक सुधार 1991 में आरम्भ किए गए और निर्यात बढ़ाने का प्रयास किया गया ताकि आयात-बिल का मुख्य भाग निर्यात से चुकाया जा सके। दूसरे, तकनालाजीय उन्नयन (Technological upgradation) को प्रोत्साहित करने के लिए आयात का उदारीकरण किया गया। इसके साथ-साथ पूँजी के गैर-ऋण-कायम करने वाले अन्तर्ग्रवाह (Non debt creating inflows) जैसे विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग और पोर्टफोलियो विनियोग को प्रोत्साहित किया गया। इन सभी उपायों के परिणाम तालिका 2 में दिए गए हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि 1997-98 में भुगतान-शेष में गिरावट के लिए अन्तर्राष्ट्रीय एवं देशीय दोनों कारणतत्वों ने योगदान दिया है और इसकी अभिव्यक्ति चालू खाते के घाटे का बढ़कर सकल देशीय उत्पाद के 1.4 प्रतिशत और व्यापार घाटे का 3.8 प्रतिशत हो जाना है। 1998-99 में व्यापार घाटे में और अधिक गिरावट आयी है और यह बढ़कर 9.2 अरब डॉलर हो गया है। इसका कारण यह है कि 1998-99 में निर्यात गिरकर 34.30 अरब डॉलर हो गए जबकि ये 1997-98 में 35.68 अरब डॉलर. थे। चाहे आयात में कुछ गिरावट हुई और ये 47.54 अरब डालर हो गए। इस प्रकार व्यापार घाटा 13.24 अरब डालर हुआ। चूंकि अदृश्य मदों से शुद्ध प्राप्ति 9.20 अरब डॉलर थी, इसलिए चालू खाते पर भुगतान-शेष 4.04 अरब डॉलर तक सीमित हो गयी। यह सकल देशीय उत्पाद का 2.2 प्रतिशत था। अतः भुगतान-शेष की स्थिति को प्रबन्धकीय बताना, जैसा कि आर्थिक समीक्षा (1998-99) ने किया है, इस कठोर सत्य को छुपाना है कि अर्थव्यवस्था के मूलाधार सुदृढ़ नहीं हैं और निर्यात प्रोत्साहन के उपायों के इच्छित परिणाम व्यक्त नहीं हुए हैं। इस भारी घाटे को पाटने के लिए रिसर्जेन्ट इंडिया बॉण्ड (Resurgent India Bond) द्वारा 1998-99 में 4.2 अरब डॉलर प्रवासी भारतीयों से प्राप्त करना या विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग एवं वाणिज्य उधार द्वारा अधिक मात्रा में पूँजी-प्रवाह प्राप्त करना केवल यह जाहिर करता है कि हम अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों पर अधिक निर्भर होते चले जा रहे हैं। अर्थव्यवस्था की आन्तरिक शक्ति कमजोर पड़ गयी है और इसे मजबूत बनाना होगा। यह इस बात से साफ जाहिर है कि यू.एस. डॉलर के प्रति रूपये कामूल्य जो मार्च 1998 में 38.50 रुपए था गिरकर 2001-02 में यह 45.68 रुपए हो गया अर्थात् 15.7 प्रतिशत का मूल्यह्रास। यह स्थिति और खराब हो गयी और 2001-02 में यह 47.49 रुपए प्रति डॉलर पर पहुंच गया। अतः विदेशी वाणिज्य उधार, पोर्टफोलियो विनियोग और प्रवासी भारतीयों द्वारा बाण्डों के रूप में भारी अन्तप्रवाह प्राप्त करने में सावधानी बरतनी होगी।

भुगतान-शेष की स्थिति की समीक्षा करते हुए आर्थिक समीक्षा (2001-02) ने उल्लेख किया, “भारत के भुगतान-शेष की स्थिति संतोषजनक है और विदेशी क्षेत्र में स्पष्ट उन्नति हुई है। तेल की अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों के वर्ष के पूर्वार्द्ध भाग में महत्त्वपूर्ण रूप में वृद्धि के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय हिस्सा-पूँजी की कीमतों में तीव्र अधोगति और संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में ब्याज-दरों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई, परन्तु इंडिया मिलेनियम जमा (India Millennium Deposits) में राशियाँ गतिमान करने के पश्चात् परिस्थिति में सुधार हुआ, जिससे विदेशी मुद्रा रिजर्व में गिरावट की प्रवृत्ति को पलटने में सहायता मिली और भारत के विदेशी क्षेत्र की शक्ति में विश्वास बढ़ गया।” परिणामस्वरूप भुगतान-शेष की स्थिति 2001-02 के दौरान चालू खाते का घाटा कम होकर सकल देशीय उत्पाद का लगभग 0.8 प्रतिशत हो गया जबकि पिछले वर्ष यह 1.1 प्रतिशत था। चालू खाते के घाटे में यह सुधार बहुत हद तक निर्यात-निष्पादन में अच्छी गति, अदृश्य प्राप्तियों (Invisible receipts) की लगातार वृद्धि जिसमें साफ्टवेयर सेवा-निर्यात की तीव्र वृद्धि भी प्रतिबिम्बित हुई और निजी हस्तांतरण और कुछ हद तक गैर-तेल आयात माँग के निम्न रहने का परिणाम है।

2001-02 में व्यापार घाटा 12.70 अरब डॉलर था परन्तु अदृश्य मदों के रूप में 14.05 अरब डॉलर की भारी प्राप्ति ने चालू खाते पर भुगतान-शेष 1.35 अरब डॉलर तक सकारात्मक बना दिया। यह अधिशेष 2002-03 में और बढ़कर 4.14 अरब डॉलर हो गया। 2003-04 में भी इसी प्रकार की स्थिति बनी रही। अतः भुगतान-शेष में स्थिति में बहुत सुधार हुआ है।

पूँजी खाते पर संकुल कायम करना

(Capital Account Balancing)

पारम्परिक रूप में दो मुख्य स्रोतों अर्थात् द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय स्रोतों से विदेशी सहायता और वाणिज्यिक उधार (Commercial borrowing) द्वारा चालू खाते के घाटे के लिए वित्त- प्रबन्ध किया जाता है। चाहे विदेशी सहायता 1991-92 में 304 करोड़ डॉलर और 1997-98 में 90 करोड़ डॉलर का वित्त जुटाया, विदेशी वाणिज्यिक उधार ने लगभग 400 करोड़ डॉलर का योगदान दिया, जिसका अर्थ यह है कि ऋणशोधन (Amortization) और ब्याज के रूप में वाणिज्यिक उधार पर उत्प्रवाह शुद्ध विदेशी वाणिज्यिक उधारों के अन्तःप्रवाहों (Inflows) से अधिक थे।

एक और कारणतत्व जिसने पूँजी खाते पर नकारात्मक प्रभाव डाला, रूसी ऋण पर रुपया- सेवा भार (Rupee debt service) है। यह 1991-92 में 124 करोड़ डॉलर और 1997-98 में 77 करोड़ डॉलर था, अनिवासी भारतीयों की जमा (Non-resident Indians deposits) 1996-97 में 335 करोड़ डॉलर की वृद्धि हुई, जो आंशिक रूप में भुगतान-शेष की स्थिति में सुधार और एक हद तक एक नयी जमा योजना (Deposit Scheme) को चालू करने का परिणाम थी।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को उधार द्वारा 1992-93 में 128.8 करोड़ डॉलर का योगदान प्राप्त हुआ और यह राशि 1995-96 में 172 करोड़ डॉलर थी। इसका मुख्य उद्देश्य द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय ऋणदाताओं द्वारा भारत को भुगतान-शेष के संकट से मुक्त करना था।

इन सभी पूँजी अन्तःप्रवाहों (Capital inflows) के परिणामस्वरूप, विदेशी मुद्रा रिजर्व में 1992-93 में 357.6 करोड़ डॉलर और 1993-94 में 872 करोड़ डॉलर की वृद्धि हुई। लगभग यही परिस्थिति 1997-98 तक बनी रही।

विदेशी मुद्रा रिजर्व में तीव्र वृद्धि अत्यधिक उधार या भारी मात्रा में विदेशी सहायता के अन्तःप्रवाह (Inflow) का परिणाम है। भारत सरकार परिस्थिति पर पर्दा डालने के लिए यह कहती रही है कि वर्तमान संकट को दूर करने के लिए गैर-ऋण कायम करने वाली सहायता का प्रयोग किया जा रहा है। परन्तु ऋण-रूपी एवं गैर-ऋण रूपी अन्तःप्रवाहों (Non-debt inflows) के रूप में भेद विदेशी मुद्रा उत्प्रवाहों के भार को कम नहीं करता। ऋण के रूप में ऋण-शोधन भुगतान एवं ब्याज के रूप में उत्प्रवाह होते हैं और गैर-ऋण कायम करने वाली सहायता द्वारा लाभांश और रायल्टी के रूप में ऋण-शोधन भुगतान एवं ब्याज के रूप में उत्प्रवाह होते हैं और गैर-ऋण कायम करने वाली सहायता द्वारा लाभांश और रायल्टी के रूप में विदेशी मुद्रा का उत्प्रवाह होता है। दोनों परिस्थितियों में देश पर भार बढ़ता है। अतः यह भेद केवल रूप का ही है परन्तु वास्तविक रूप में अर्थहीन है।

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री सी. रंगाराजन ने 22 अगस्त, 1996 को दिल्ली में सी. एन. वकील स्मृति भाषण में भुगतान-शेष की स्थिति के बारे में सावधान रहने का परामर्श दिया। उन्होंने यह चेतावनी दी कि विदेशी मुद्रा रिजर्व 1,700 करोड़ डॉलर के नीचे गिरने नहीं देने चाहिए। उनका मत था कि भुगतान-शेष को दो चलों द्वारा प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए प्रथम, चालू खाते पर भुगतान-शेष सकल देशीय उत्पाद के लगभग 2 प्रतिशत के बराबर रहना चाहिए और द्वितीय, विदेशी मुद्रा रिजर्व में 1996-97 के आरम्भ में पहुँचे स्तर अर्थात् 1,700 करोड़ डॉलर से और गिरावट नहीं आनी चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि विदेशी मुद्रा रिजर्व 1994-95 में 2,520करोड़ डॉलर थे और वे 1995-96 में कम होकर 2,170 करोड़ डॉलर हो गये और 1996-97 के आरम्भ में और गिरकर 1,700 करोड़ डॉलर के स्तर पर पहुँच गए। इस प्रवृत्ति को रोकना चाहिए क्योंकि 1,700 करोड़ डॉलर के रिजर्व द्वारा चार मास के आयात के लिए कवच उपलब्ध कराया जा सकता है और यह अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों के अनुसार एक स्वीकार्य और वांछनीय स्तर है। मई, 2002 में विदेशी मुद्रा रिजर्व का 52.90 करोड़ डॉलर हो जाना संतोषजनक स्थिति का परिचायक है।

मुख्य प्रश्न जिसकी रिजर्व बैंक के गवर्नर ने उपेक्षा की, यह है : क्या हम भारी मात्रा में विदेशी विनियोग के अन्तर्ग्रवाह पर लगातार निर्भर रहें कि वे हमें भुगतान-शेष के संकट से मुक्त करते रहें, या हमें अपने विदेशी व्यापार की नीति में ऐसा परिवर्तन करना होगा कि चालू खाते का घाटा समाप्त हो जाए। केवल उपरोक्त मार्ग ही देश को निर्भरता के गर्त से बचा जा सकता है जिसमें कि हम फंसते चले जा रहे हैं। इसके लिए आयात को कम किया जाए और भुगतान- शेष के घाटे को तीव्र गति से कम किया जाए। दूसरे, आटोमोबाइल उद्योग को कृत्रिम प्रोत्साहन देने की नीति की गति धीमी करनी होगी ताकि पी.ओ.एल. का आयात बिल (Import bill) सीमित किया जा सके। इसके लिए एक ऊर्जा-योजना (Energy Plan) बनाने की जरूरत है, न कि आटोमोबाइल उद्योग के बेलगाम ढंग से विस्तार की। देश अल्पकालीन समाधानों में फँस गया है। आवश्यकता इस बात की है कि भुगतान-शेष की समस्या के समाधान के लिए दीर्घकालीन नीति अपनायी जाए।

चाहे सरकार ने यह दावा किया है कि 2001-02 के दौरान चालू खाते (Currrent Account) पर अतिरेक प्राप्त हो गया है, परन्तु आर्थिक समीक्षा (2002-03) ने सरकार को इस उपलब्धि के लिए अत्यधिक खुश होने से सावधान रहने की सलाह दी गई है। “2001-02 के दौरान निर्यात वृद्धि में अवरोध 2000-01 में 19.6 प्रतिशत वृद्धि की तुलना में अंशतः कमजोर विदेशी माँग के कारण हुआ, जिसके परिणामस्वरूप हमारे निर्यात-निष्पादन पर दुष्प्रभाव पड़ा। (देखिए तालिका 3)। आयात में गिरावट का मुख्य कारण पेट्रोलियम आयात में कमी था……. परिणामतः व्यापार-घाटा जो 2000-01 में 14.37 अरब डॉलर था, कम होकर 2001-02 में 12.70 अरब डॉलर हो गया अर्थात् सकल देशीय उत्पाद का 2.6 प्रतिशत। अदृश्य मदों (Invisibles) का शुद्ध अन्तर्ग्रवाह जो 14.06 अरब डॉलर था, ने न केवल समग्र व्यापार घाटे को साफ कर दिया अपितु इसके परिणामस्वरूप चालू खाते में 1.35 अरब डॉलर का अतिरेक पैदा कर दिया अर्थात् सकल देशीय उत्पाद का 0.3 प्रतिशत। किन्तु अवरुद्ध निर्यात और आयात की नकारात्मक वृद्धि के आधार पर प्राप्त किया गया चालू खाते का अतिरेक अर्थव्यवस्था का अस्थायी लक्षण ही हो सकता है। एक आत्मपोषणीय चालू खाते के अतिरेक का आधार उचित निर्यात एवं आयात वृद्धि पर टिका होना चाहिए जो विकास की बढ़ती हुई आवश्यकताओं और भारतीय निर्यात को विदेशों में स्पर्द्धाशक्ति के साथ युक्तिसंगत हो।’

भुगतान-शेष पर खतरे का संकेत

भारत ने अदृश्य मदों से प्राप्तियों के बारे में सराहनीय सफलता प्राप्त की है। इसके परिणामस्वरूप, न केवल व्यापार-घाटे को समाप्त किया गया बल्कि अदृश्य मदों के अतिरेक (Invisibles Surplus) ने चालू खाते पर व्यापार-शेष को भी सकारात्मक बना दिया। उदाहरणार्थ 2003-04 में व्यापार घाटा 15.45 अरब डॉलर था परन्तु अदृश्य मदों का अतिरेक तेजी से बढ़कर 26.01 अरब डॉलर हो गया। इसके नतीजे के तौर पर चालू खाते पर भुगतान- शेष 10.56 अरब डॉलर तक सकारात्मक हो गया।

अदृश्य मदों के घटकों का अध्ययन करना उचित होगा ताकि विभिन्न मदों के महत्त्व को समझा जा सके। तालिका 1 में 2002-03 और 2003-04 के दौरान आंकड़ें उपलब्ध कराए गए हैं। यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि प्राप्तिपक्ष में, सेवाओं में सबसे महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर सेवाएं हैं परन्तु प्रेषण के रूप में अन्तरण जो विदेश में रहने वाले भारतीयों द्वारा किए जाते हैं, प्राप्तियों में सबसे अधिक योगदान देते हैं। इन दो मदों के अतिरिक्त यात्रा, परिवहन, निवेश सम्बन्धी आय और विविध मदों द्वारा मर्यादित योगदान उपलब्ध कराया जाता है। इस सम्बन्ध में आर्थिक समीक्षा (2004-05) में उल्लेख किया गया, “चालू खाते के पीछे मुख्य ड्राइवर अदृश्य मदों के बढ़ते हुए प्रवाह हैं, विशेषकर निजी अन्तरण जिनमें प्रेषण शामिल हैं, और इनके साथ सॉफ्टवेयर सेवाएं भारत में चालू खाते पर अधिशेष कायम करने और इसे बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं।” परिणामतः अदृश्य मदों पर अधिशेष जो 2001-02 में सकल देशीय उत्पाद का 3.1 प्रतिशत था, बढ़कर 2003-04 में 3.4 प्रतिशत हो गया। यह एक अभिनन्दनीय प्रवृत्ति है।

भुगतान के पक्ष में दो भेद महत्वपूर्ण हैं – विविध सेवाएं और निवेश सम्बन्धी आय। इन मदें द्वारा 2003-04 में कुल अदृश्य मदों के भुगतान का 75 प्रतिशत भुगतान किया गया। इन दो मदों में भारत ने अदृश्य मदों में शुद्ध घाटा दिखाया। इस सम्बन्ध में सावधान रहने की जरूरत है, विशेष कर विदेशी निवेश के लगातार, अप्रतिबन्धित और तीव्र वृद्धि के कारण जिससे निवेश आय के रूप में उलटा प्रवाह जनित होता है।

यदि हम 2003-04 में अदृश्य मदों पर शुद्ध अधिशेष का अध्ययन करें, तो सेवाएं कुल प्राप्ति का 25 प्रतिशत हैं, अन्तरण का भाग 90 प्रतिशत है और निवेश से प्राप्त शुद्ध आय का योगदान 15 प्रतिशत तक नकारात्मक है। जहाँ साफ्टवेयर सेवाओं ने 45 प्रतिशत का भारी अधिशेष उपलब्ध कराया और इसने विविध सेवाओं से 2003-04 में शुद्ध पाटे को एक हद तक समाप्त कर दिया।

2004-05 में प्राप्त संकेत यह चेतावनी देते हैं कि अप्रैल-दिसम्बर, 2004 (9 महीनों की अवधि) में, जिसके लिए अस्थायी आंकड़े उपलब्ध हैं (भारतीय रिजर्व बैंक बुलेटिन, जून, 2005) व्यापार घाटा बढ़कर 28.35 अरब डॉलर हो गया है, जबकि अदृश्य मदों का अधिशेष 21.0 अरब डॉलर था। अतः 2004-05 में चालू खाते में भुगतान-शेष में फिर घाटा व्यक्त हुआ है। 2002-03 और 2003-04 के दौरान में चालू खाते में प्राप्त अधिशेष सम्बन्धी खुशी का एहसास सूख गया है और भारत के फिर पारम्परिक चालू खाते में शुद्ध घाटा उत्पन्न हो गया है जबकि वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्यात में प्राप्त उच्च वृद्धि दरों की उपलब्धि के लिए गर्व महसूस कर रहे थे, उनके द्वारा इस बात की पूर्णतया अनदेखी की गयी कि उनके पैरों तले की जमीन खिसक रही है और इसका कारण आयात में भारी वृद्धि है और 2004-05 के पहले 9 महीनों व्यापार घाटा अभूतपूर्व रूप से बढ़कर 28.4 अरब डॉलर हो गया।

इसमें सन्देह नहीं कि सॉफ्टवेयर निर्यात सेवाएं जो 1995-96 सेवाओं के कुल निर्यात का 10.2 प्रतिशत थी बढ़कर 2003-04 में लगभग 49 प्रतिशत हो गयी है, परन्तु यह प्रवृत्ति धीरे- धीरे मन्द हो सकती है जैसे ही चीन विश्व के सॉफ्टवेयर बाजार में प्रवेश करता है। इसी प्रकार, भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाले प्रेषणों में वृद्धि की गति भविष्य में धीमी पड़ सकती है क्योंकि ये शिखर स्तर पर पहुंच गए हैं।

हमारा उद्देश्य एक निराशापूर्ण तस्वीर दिखाना नहीं है परन्तु विदेशी क्षेत्र में उभरते हुए खतरों के बारे में सतर्क रहने की चेतावनी देना है, क्योंकि भारत विदेशी क्षेत्र में एक टांग पर चलने की नीति को बढ़ावा देता रहा है।

भुगतान-शेष के घाटे की समस्या समाधान

चाहे सरकार किसी एक वर्ष के दौरान भुगतान-शेष के घाटे को पूरा करने के लिए संचित विदेशी मुद्रा रिजर्व का प्रयोग कर ले, या अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त कर ले या विदेशी ऋण या अनुदान प्राप्त कर ले, परन्तु देश इस प्रकार अपने लगातार बने हुए भुगतान-शेष की समस्या का समाधान नहीं कर सकता। जब तक भुगतान-शेष में निरन्तर घाटा उत्पन्न करने वाले मूल कारणतत्व कायम रहते हैं, देश भुगतान-शेष में प्रतिकूलता अनुभव करता रहेगा। देश धीरे- धीरे ऐसी अवस्था में पहुंच सकता है जहाँ (i) इसके पास कोई विदेशी मुद्रा रिजर्व बाकी न रहे, (ii) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सामान्य और विशेष सुविधाओं के अधीन सब ऋण प्राप्त कर लिए जाएं, (iii) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से प्राप्त विशेष ऋण भी समाप्त हो चुका हो और (iv) अन्य देश इसे और उधार देने के लिए राजी न हों। इसके अतिरिक्त ब्याज और ऋण-शोधन (Amortisation) के रूप में इन पुराने ऋणों पर भारी राशि का भुगतान करने के लिए अतिरिक्त ऋण प्राप्त करने पड़े। भारत में अभी ऐसी स्थिति में नहीं पहुंचा है, जिसमें कि मैक्सिको, अर्जेन्टाइना और कुछ अन्य देश पहुँच चुके थे, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने बाद में बचाया। अतः भारत को समय रहते अपनी भुगतान-शेष की स्थिति को सुधारने के लिए उपाय करने होंगे।

मूल रूप में यह बात स्वीकार करनी होगी कि भारत के भुगतान-शेष में प्रतिकूलता की समस्या अनिवार्यतः भारी व्यापार घाटे से उत्पन्न होती है जिसका कारण तेजी से बढ़ते हुए आयात के विरुद्ध निर्यात का अपेक्षाकृत धीमी गति से बढ़ना है। इसका अंतिम हल तो इस नीति में है कि आयात सीमित कर न्यूनतम आवश्यक स्तर पर लाया जाए और निर्यात प्रोत्साहित कर अधिकतम संभव सीमा तक बढ़ाए जाएँ।

आयात संरचना में परिवर्तन- इसमें सन्देह नहीं और यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि आयात में कमी की काफी गुंजाइश है। खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि द्वारा इनका आयात पूर्णतया समाप्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि अमेरिकी गेहूँ के लिए ऊँची कीमतें देने की अपेक्षा अपने देश के किसानों को ऊंची वसूली कीमतें (Procurement Prices) देना कहीं अधिक लाभदायक है। इसी प्रकार विलासी तथा अर्द्ध-विलासी वस्तुएँ अर्थात् वीडियो, रंगीन टीवी. के आयात पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए, भले ही इन वस्तुओं की माँग उच्च वर्गों द्वारा आवश्यक मानी जाती है। इनके आयात को किसी भी आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। केवल लौह एवं इस्पात के आयात में कमी करके 1,000 से 1,300 करोड़ रुपये तक विदेशी मुद्रा बचायी जा सकती है और देश में इस्पात कारखानों में क्षमता-उपयोग बढ़ाकर ऐसा परिणाम प्राप्त करना सम्भव है। इसी प्रकार सीमेंट, कागज आदि का आयात घटाया जा सकता है। उर्वरकों के सम्बन्ध में देश में अतिरिक्त क्षमता कायम करके, आयात कम किया जा सकता है। जहाँ तक विकास के लिए मशीनरी के आयात का प्रश्न है जिसे बिल्कुल अनिवार्य समझा जाता है, इसमें भी स्थानीय उत्पादन और स्थानीय तकनालॉजी (Local technology) को प्रोत्साहित कर काफी बचत प्राप्त की जा सकती है। पेट्रोलियम, तेल एवं स्नेहकों (Petroleum, oil and lubricants) के आयात में देशी उत्पादन में वृद्धि द्वारा कम-से-कम 25 से 33 प्रतिशत की कटौती की जा सकती है। इसके अतिरिक्त इनका देश में व्यर्थ उपभोग भी काटना होगा। अतः ऊपर बताए गए सभी उपायों के समूचे प्रभाव के फलस्वरूप आयात कम किए जा सकते हैं। आयात में कटौती एवं आयात-प्रतिस्थापन के लिए बहुत कड़ी सरकार की आवश्यकता नहीं बल्कि केवल ऐसी सरकार की आवश्यकता है जो देश के हित को सर्वोच्च महत्त्व देती हो।

निर्यात प्रोत्साहन (Export promotion)-  आयात परिसीमन व्यापार-घाटे को कम करने का केवल एक पहलू है, निर्यात का विस्तार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। गैर-पारम्परिक निर्यात (Non-traditional exports) में भी वृद्धि की काफी गुंजाइश है, इसमें हल्की इंजीनियरिंग वस्तुएँ, हस्तशिल्प, सॉफ्टवेयर आयात आदि शामिल हैं। पारम्परिक वस्तुओं के सम्बन्ध में कम-से कम यह प्रयास अवश्य करना चाहिए कि कुल निर्यात में उनका वर्तमान अनुपात बना रहे। निर्यात को बढ़ावा देने के लिए बहुत से प्रोत्साहनों के अलावा, कुछ ऐसी वस्तुओं के देशी उपभोग को सीमित करने का भी प्रयास करना चाहिए जिनमें अधिक निर्यात क्षमता है ताकि निर्यात-अतिरेक में वृद्धि हो। इस सन्दर्भ में निर्यात-वस्तुओं की लागतों एवं कीमतों की वृद्धि को भी काबू में रखना होगा ताकि भारतीय वस्तुएँ अन्तर्राष्ट्रीय मंडियों में ऊँची कीमतों के कारण बाहर न धकेल दी जाएँ। चाहे भारत सरकार और औद्योगिक व्यापारिक घराने प्रोत्साहन पर दिन-रात बल देते हैं परन्तु इस बात पर बल देना आवश्यक है कि उन्नत देशों में  संरक्षणवादी नीतियों (Protectionist policies) को समाप्त करने से भी निर्यात का एक सीमा तक विस्तार किया जा सकता है।

अदृश्य मदों से शुद्ध प्राप्तियों को बढ़ावा– भारत में 2001-02 से 2003-04 के दौरान अदृश्य मदों से शुद्ध प्राप्तियों में अत्यन्त सराहनीय सफलता प्राप्त की है। अदृश्य मदों के तीन मुख्य अंग हैं – सेवाएं, हस्तांतरण और आय। सेवाएं जिनमें यात्रा, परिवहन, बीमा, सॉफ्टवेयर सेवाएं आदि शामिल हैं। हाल ही के वर्षों में सॉफ्टवेयर सेवाओं से प्राप्ति जो 2001- 02 में 6.88 अरब डॉलर थी बढ़कर 2003-04 में 26.1 अरब डॉलर हो गयी। यह एक अत्यन्त सराहनीय उपलब्धि है। इसी प्रकार, गैर-सरकारी हस्तांतरणों (Private Transfer) से भी 2003-04 में 23.39 अरब डॉलर प्राप्त किए गए। निवेश सम्बन्धी आय से 4.0 अरब क्षयडॉलर का घाटा अनुभव किया गया है। जाहिर है भुगतान-शेष की स्थिति सुधारने के लिए ने केवल व्यापार घाटे को कम करना होगा बल्कि अदृश्य मदों से शुद्ध प्राप्ति बढ़ाने के लिए भी प्रयास करने होंगे।

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