भुगतान संतुलन अनुकूल करने के उपाय | भुगतान शेष को अनुकूल बनाने के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उठाये गये कदम
भुगतान संतुलन अनुकूल करने के उपाय
(Measures for Making Favorable B.O.P.)
आज भारत में भुगतान संतुलन की समस्या अधिक जटिल एवं गंभीर हो गयी है। वर्ष 1991 के खाड़ी युद्ध के कारण उत्पन्न संकट से तेल के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि से भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा हैं तथा भविष्य में और अधिक प्रभावित होगा। भुगतान संतुलन की समस्या से छुटकारा पाने या घाटे को कम करने के लिए समय-समय पर सरकार द्वारा विभिन्न प्रयास किये जाते रहे हैं और उन प्रयासों में कुछ सफलता भी मिली है। इन प्रयासों को मुख्य रूप से तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। यथा – आयात व्यय में कमी एवं प्रतिस्थापन, निर्यात सम्वर्धन या प्रोत्साहन तथा विदेशी सहायता। यदि देश के विदेशी मुद्रा भण्डार की स्थिति सबल हो, तो इस समस्या के लिए किसी भी उपाय का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु विकासशील देशों मुख्य रूप से भारत में अब ऐसी स्थिति नहीं है, यद्यपि स्वतन्त्रता के पूर्व विदेशी मुद्रा का कोष पर्याप्त मात्रा में विद्यमान था।
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आयात व्यय में कमी एवं आयात प्रतिस्थापन
(Reduced Import Bill and Import Substitution)
भुगतान संतुलन के घाटे में कमी करने का एक उपाय आयात में कमी करना है और यह कमी तभी सम्भव है जबकि देश के अन्दर आयात की जाने वाली वस्तुओं के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त हो जाये। आयात की जाने वाली वस्तुओं, मुख्यतया पूंजीगत वस्तुओं के स्वदेशी उत्पादन द्वारा हम आयात की जाने वाली वस्तुओं को प्रतिस्थापित करके आयात व्यय में कमी कर सकते हैं। आयात प्रतिस्थापन के माध्यम से हम विदेशी मुद्रा की बचत करते हैं। आयात प्रतिस्थापन केवल किसी संकटकालीन स्थिति के निवारण हेतु अल्पकालीन नीति के रूप में नहीं अपनाया जाना चाहिए, बल्कि अर्थव्यवस्था की दृष्टि से दीर्घकालीन नीति के रूप में अपनाना चाहिए। अतः अब बहुत-सी वस्तुएं जिनका हम 1950- 51 में शत-प्रतिशत आयात करते थे, अब उनका आयात बिल्कुल बन्द हो गया है। कई वस्तुएं जैसे – प्लास्टिक, खनन एवं औजार, सीमेण्ट, अल्मोनियम, विद्युत मशीनें, कृत्रिम रेशे आदि। इसके अतिरिक्त उर्वरक, दवाइयां, रसायन, वनस्पति तेल, इस्पात, पेट्रोलियम तथा खाद्यान्न आदि के आयातों को काफी मात्रा में प्रतिस्थापन किया जा चुका है और किया भी जा रहा है। आयात नीति संशोधन 1993 एवं 1994 के तहत् इस दिशा में और अधिक सफलता प्राप्त होगी जिससे भुगतान संतुलन के घाटे को पूरा करने में मदद मिल सके। इस बिन्दु के विषय में पुस्तक के ‘विदेशी व्यापार नामक अध्याय में विस्तृत वर्णन किया गया है।
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निर्यात संवर्द्धन
(Export Promotion)
भुगतान संतुलन को अनुकूल दिशा में प्रभावित करने के लिए निर्यात प्रोत्साहन या निर्यात संवद्धन (export promotion) बहुत ही अच्छा कदम है। अतः भारत को व्यापार एवं भुगतान संतुलन पक्ष में करने के लिए निर्यात बढ़ाना बहुत ही आवश्यक है। आज विश्व का कुल निर्यात तेजी से बढ़ रहा है तथा भारत का योग लगातार कम होता जा रहा है। कम होने का मतलब यह नहीं है कि हमारे निर्यात की मात्रा में वृद्धि नहीं हुई है, बल्कि इसका मतलब यह है कि हमारे निर्यात में कुल विश्व-निर्यात के अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था को स्वावलम्बी बनाने, व्यापार संतुलन को पक्ष में करने, नये उत्पादों के लिए बाजार खोजने, विकास-योजनाओं को सफल बनाने, विदेशी मुद्रा अर्जित करने एवं औद्योगिकीकरण की गति को तीव्र करने आदि के लिए निर्यात-संवर्द्धन ही एक मात्र उपाय है।
निर्यात संवर्द्धन के लिए दोनों ही प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीकों का प्रयोग किया जाता रहा है जिसके अन्तर्गत निर्यात सम्वर्द्धन परिषदों की स्थापना, व्यापार बोर्ड, व्यापार विभाग, किस्म नियंत्रण योजना, विदेशी व्यापार संस्था, व्यापार विकास संस्था, राष्ट्रीय पुरस्कार योजना, निर्यात साख तथा व्यापार विकास अधिकरण मुख्य हैं। मार्च, 1992 से 1997 तक की गयी आयात- निर्यात नीति एवं जुलाई, 1991 की औद्योगिक नीति में निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त उदारीकरण की नीति अपनायी गयी है। इसका विस्तृत विवरण वर्णन ‘विदेशी व्यापार’ अध्याय में किया गया है।
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विदेशी सहायता
(Foreign Aid)
देश के भुगतान संतुलन के घाटे को पूरा करने के लिए विदेशी सहायता का सहारा लिया जाता है। विदेशी सहायता के माध्यम से भुगतान संतुलन के घाटे को तो ठीक कर लिया जाता है, परन्तु दीर्घकाल में यह विदेशी सहायता भी भुगतान संतुलन को प्रतिकूल दिशा में प्रभावित करने लगती है। यद्यपि भारत ने विभिन्न देशों एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं, यथा – अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, सोवियत रूस तथा सहायता संघ के देशों एवं विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहायता संगठन से विपुल मात्रा मे सहायता ली है जिसके भयावह परिणाम आज अर्थव्यवस्था में दिखाई पड़ने लगे हैं। एक निश्चित सीमा से ज्यादा विदेशी सहायता आर्थिक स्वतंत्रता को विपरीत दिशा में प्रभावित करती है। सहायता देने वाले देश समझौता करते समय विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के सम्बन्ध में ऐसे समझौते करते हैं, जो कि हमारे लिए लाभदायक नहीं होते हैं। विदेशी सहायता देने वाले देशों द्वारा उन देशों पर अनुचित प्रभाव डाला जाता है जो कि सहायता प्राप्त किये हैं, या प्राप्त कर रहे हैं। ये प्रभाव राजनीतिक एवं नीतिगत भी होते हैं जो कि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। वर्ष 1991 का तृतीय मुद्रा अवमूल्यन अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रोकोष का अनुचित प्रभाव कहा जा सकता है। वास्तव में यह अनुचित प्रभाव हमारी व्यापार नीतियों को भी समय-समय पर प्रभावित करता है।
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अवमूल्यन
(Devolution)
भुगतान संतुलन के घाटे को कम करने एवं अपने पक्ष में संतुलन को करने के लिए मुद्रा का अवमूल्यन भी एक उपाय माना जाता है। अवमूल्यन का आशय है, विदेशी मुद्रा के रूप में स्वदेशी मुद्रा का मूल्य कम करना या दूसरे शब्दों में देशी मुद्रा का मूल्य कम एवं विदेशी मुद्रा का मूल्य अधिक हो जाता है। जब स्वदेशी या भारतीय रुपये का मूल्य कम हो गया हो और विदेशी मुद्रा का मूल्य बढ़ गया हो तो दूसरे देशों के लोग भारत से अधिक माल खरीदेंगे क्योंकि अब उन्हें कम कीमत देनी पड़ेगी। इस प्रकार हमारा निर्यात बढ़ेगा और व्यापार संतुलन तथा भुगतान संतुलन अनुकूल दिशा में प्रभावित होगा।
इस श्रृंखला में स्वतंत्र भारत में तीन बार रुपये का अवमूल्यन किया जा चुका है। प्रथम अवमूल्यन 1949 में, द्वितीय अवमूल्यन 1966 में तथा तीसरी बार 1991 में किया गया। यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि 1949 1966 दोनों ही अवमूल्यनों का भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। इसका मतलब यह नहीं है कि निर्यातों में वृद्धि नहीं हुई, परन्तु जिसका संकल्पना से अवमूल्यन किया गया था, उसके आशानुकूल नहीं हुई। अब तीसरी बार 1991 का अवमूल्यन हुआ तो भुगतान संतुलन की आड़ में किया ही गया है। देखिए इसमें कितनी सफलता मिलती है, क्योंकि इस अवमूल्यन की आवश्यकता वास्तविक रूप से नहीं थी। आलोचक का मत है कि वह 1991 का अवमूल्यन I.M.F. के दबाव में किया गया है।
अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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