अर्थशास्त्र

कृषि पदार्थों के लिए उचित मूल्य नीति | कृषिगत पदार्थों के मूल्य निर्धारण का महत्त्व | न्यूनतम समर्थन मूल्य | निकास-मूल्य | बाजार मूल्य

कृषि पदार्थों के लिए उचित मूल्य नीति | कृषिगत पदार्थों के मूल्य निर्धारण का महत्त्व | न्यूनतम समर्थन मूल्य | निकास-मूल्य | बाजार मूल्य

कृषि पदार्थों के लिए उचित मूल्य नीति

विभिन्न राज्यों में गत वर्षों में कृषि पदार्थों के वसूली मूल्य (Procurement Prices) तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Pricesको बढ़ाने तथा कृषि इन्पुट्स के मूल्यों को कम करने के लिए समय-समय पर किसान आन्दोलन किये गये हैं। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषिगत पदार्थों एवं इन्पुट्स की कीमतें राजनीति से जुड़ गयी है। कृषिगत पदार्थों के वसूली मूल्य तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य, वे मूल्य होते हैं जिन पर सरकार किसानों से उनके उत्पाद क्रय करती है अथवा बाजार में बिक्री के लिए करउनकी कीमतें निर्धारित करती है। सरकार के द्वारा इन कीमतों के निर्धारित करने का मूल उद्देश्य यह होता है कि भारतीय कृषकों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य मिले, उनका किसी धनी वर्ग के द्वारा शोषण न हो और वे अधिक से अधिक लाभान्वित हों। ये मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य होते हैं, जिन्हें साधारण बोलचाल की भाषा में सरकारी मूल्य भी कहा जाता है। इनसे कम मूल्य पर किसान अपनी फसल को किसी भी दबाव में आकर बेचने को तैयार नहीं होते हैं। इसके साथ ही, किसान इन मूल्यों पर अपनी फसल को बेचने के लिए सरकार को मना भी नहीं कर सकता है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि भारत में पिछले वर्षों में विभिन्न राज्यों में किसान आन्दोलन किये गये हैं। इन आन्दोलनों में कृषिगत पदार्थों के मूल्यों को ऊँचा करने तथा कृषिगत इनपुट्स की कीमतों को कम करवाने के प्रयास समय-समय पर किये गये हैं जिसके कारण सरकार के सामने कृषिगत पदार्थों के मूल्य निर्धारण की समस्या उत्पन्न हुई है जिस पर सही एवं उचित ढंग से विचार किया जाना चाहिए, जिससे कृषकों व उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा की जा सके। 1980 में महाराष्ट्र में किसानों ने गन्ना व प्याज का मूल्य बढ़ाने के लिए आन्दोलन किया था। गुजरात व तमिलनाडु में बिजली की दर को कम करने तथा कपास व तिलहन के मूल्यों को ऊंचा करने की माँग की गयी थी। कर्नाटक में किसानों ने सुधार लेवी को कम करने की बात कही थी। केरल राज्य में खेती से जुड़े श्रमिकों ने अपनी मजदूरी बढ़ाने की बात कही थी तथा पंजाब व हरियाणा राज्यों में डीजल की दर को कम करने तथा कृषि फसलों – गेहूँ, चावल, गन्ना व तिलहन की कीमतों को बढ़ाने की माँग रखी गयी थी। भारत में समय-समय पर गत वर्षों में जितने आंदोलन हुए हैं, उनमें किसानों ने यही तर्क रखा कि कृषिगत इन्पुट्स की कीमतों में वृद्धि होने के कारण कृषि फसलें उन्हें काफी महंगी पड़ती हैं। अतः कृषिगत फसलों की कीमतों में वृद्धि की जानी चाहिए। उन्होंने साथ ही, यह तर्क भी दिया की खेतिहर श्रमिकों की मजदूरी काफी कम है, यह मजदूरी की दर काफी लंबे समय से यथा स्थिर चली आ रही है। इसलिए उन्होंने इस मजदूरी की दर को जीवन सूचकांक से जोड़ने की बात कही है जिससे इन खेतिहर श्रमिकों का भी जीवन-स्तर ऊँचा उठ सके और वे भी अन्य कर्मचारियों के समान महंगाई का सामना कर सकें।

कृषिगत पदार्थों के मूल्य निर्धारण का महत्त्व

(Importance of Price Determination of Agricultural Products)

अब हम यह देखेंगे कि देश में विभिन्न कृषिगत पदार्थों के मूल्य जो सरकार के द्वारा निर्धारित किये जाते हैं उनका क्या महत्व है? क्या इस प्रकार के मूल्य निर्धारण से कृषकों की आर्थिक स्थिति, उत्पादन व उनके उत्पादों की बिक्री की वसूली पर कोई प्रभाव पड़ता है? भारत के संदर्भ में इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जाता है कि इस प्रकार के मूल्य निर्धारण का कृषिगत पदार्थों के उत्पादन पर कोई अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। गत वर्षों में तिलहन व दालों के मूल्यों में वृद्धि होने के बावजूद इनका उत्पाद अवश्य बढ़ा है। इस प्रकार किसी फसल की कीमत बढ़ने पर यह आवश्यक नहीं है कि उसका उत्पादन भी बढ़े, कीमत बढ़ने पर उत्पादन बढ़ भी सकता है और नहीं भी।

इस प्रकार स्पष्ट है कि कृषिगत उत्पादों के उत्पादन पर बढ़ती हुई कीमतों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन मूल्य निर्धारण नीतियों का अन्य कई दृष्टि से काफी महत्त्व होता है। उदाहरण के लिए उत्पादकों को अधिक और अधिक उत्पादन के लिए प्रेरित करने के लिए तथा उपभोक्ताओं के व्यक्तिगत हितों की रक्षा करने के लिए कृषिगत मूल्य नीति देश की सम्पूर्ण आवश्यकताओं को मध्य नजर रखकर, देश हित में एक सन्तुलित एवं समन्वित मूल्य ढाँचा प्रस्तुत करना चाहती है। जो उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं दोनों के लिए हितकर हो। इस नीति के ततहत सरकार देश में प्रत्येक वर्ष विभिन्न मौसम में प्रमुख कृषिगत पदार्थों के लिए समर्थन मूल् अथवा वसूली मूल्य घोषित करती है तथा विभिन्न सहकारी एवम् सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के माध्यम से (उदाहरण के लिए राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ, भारतीय चाय निगम, भारतीय जूट निगम, भारतीय तम्बाकू बोर्ड, भारतीय कपास निगम, भारतीय खाद्य निगम तथा विभित्र राज्य सरकारो के अन्य प्रतिष्ठान) कृषिगत उत्पादों को उचित मूल्य पर खरीदवाने की व्यवस्था करती है।

देश की सरकार यदि कृषिगत पदार्थों की बिक्री के लिए समर्थन मूल्य अथवा वसूली-मूल्य घोषित नहीं करती है तो अधिक उत्पादन अथवा मन्दी के समय कृषकों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है और उन्हें बड़ी मात्रा में वित्तीय हानि भी उठानी पड़ सकती है जिससे उन्हें अधिक उत्पादन करने की प्रेरणा नहीं मिलेगी। इसके साथ ही, सरकार इस प्रकार के मूल्यों का निर्धारण करते समय उपभोक्ताओं के हितों का भी पूरा ध्यान रखती है जिससे उन्हें उचित मूल्य पर उत्तम कोटि की फसल (गेहूँ, चावल, कपास, तिलहन इत्यादि) प्राप्त हो सकें। यदि कच्चे माल के मूल्य बहुत अधिक ऊँचे निर्धारित कर दिये जाते हैं तो उससे उत्पादकों व श्रमिकों को भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है क्योंकि ऐसा होने से निर्मित माल की उत्पादन लागत बहुत अधिक आती है।

कृषिगत पदार्थों की सरकार की मूल्य निर्धारण नीति में साधारणतया निम्नलिखित मूल्यों एवं उनके निर्धारण को सम्मिलित किया जाता है

(1) न्यूनतम समर्थन-मूल्य (Minimum Support Prices) अथवा. वसूली-मूल्य (Procurement Prices),

(2) निकासी मूल्य (Issue-Prices) तथा

(3) बाजार मूल्य (Market-Prices)

अब हम इनमें से प्रत्येक मूल्य एवं इसके निर्धारण का एक-एक करके अध्ययन करेंगे-

(1) न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Prices) अथवा वसूली मूल्य (Procurement Prices)-

भारत मे गत वर्षों में न्यूनतम समर्थन मूल्यों को ही वसूली मूल्य अथवा खरीद मूल्य बताया गया है। वास्तव में ये मूल्य वे होते हैं जो देश की सरकार के द्वारा कृषकों से उनके उत्पादों को क्रय करने के लिए निर्धारित किये जाते हैं उत्पादों का उचित मूल्य प्राप्त हो सके और उपभोक्ताओं के हितों को भी संरक्षण मिल सके लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सरकार इन मूल्यों पर कृषकों से जोर जबरदस्ती कर उनके उत्पादों को क्रय कर सकती है। ऐसा अनिवार्य लेवी में तो सम्भव होता है लेकिन साधारण तौर पर नहीं। लेकिन इस सम्बन्ध में ध्यान रखने योग्य बात यह है कि सरकार के द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित हो जाने पर भी कोई भी कृषक अपने उत्पादों को बाजार में खुले मूल्य पर बेच सकता है। यदि खुले बाजार के मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे जाने लगे या उनमें साधारण तौर पर गिरने की प्रवृत्ति देखने को मिले तो ऐसी स्थिति में कृषक अपना समस्त उत्पाद सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल्य पर बेचने के प्रयास करेगा और सरकार को उसके समस्त उत्पाद को उन मूल्यों पर क्रय करना होगा। इस तरह सरकार के द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने का मुख्य उद्देश्य उत्पादकों के हितों की रक्षा करना होता है जिससे उन्हें बहुत अधिक उत्पादन होने पर भी हानि नहो। न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करने से उत्पादकों को अनिश्चितता नजर नहीं आती है और वे कृषिगत फसलों के उत्पादन सम्बन्धी सही निर्णय लेने में सक्षम होते हैं। सरकार भी अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषकों से कृषिगत उत्पाद खरीदने में सफल होती है और कृषिगत उत्पादों का बफर स्टॉक रख पाती हैं। जब बाजार में कृषिगत उत्पादों के मूल्य बढ़ने की प्रवृत्ति रखते हैं तो सरकार उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के लिए बफर स्टॉक में से माल निकाल कर बाजार में भेजना शुरू कर देती है, ऐसा करने से मुद्रास्फीति पर स्वतः नियंत्रण लगता है, इस तरह स्पष्ट है कि सरकार बफर स्टॉक के माध्यम से बाजार के मूल्यों एवं मुद्रा स्फीति पर आसानी से नियंत्रण लगा लेती है और उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करती है। बाजार में मूल्य बढ़ने पर सरकार अपने बफर स्टॉक से पूर्ति बढ़ाती है। जिससे कृषिगत पदार्थों के मूल्य कम हो जाते हैं तथा बाजार में मूल्य कम होने पर सरकार खरीद प्रारम्भ कर देती है जिससे कृषिगत उत्पादों के मूल्य स्वतः बढ़ने लगते हैं।

भारत सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य के अंतर्गत वर्तमान में अनेक प्रकार के अनाज, तिलहन व अन्य व्यापारिक फसलें सम्मिलित हैं।

न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण (Determination of Minimum Support Prices)- सरकार के द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषिगत उत्पादों की लागत के आधार पर किया जाता है। इस सम्बन्ध में फॉर्म-प्रबन्ध अध्ययनों में लागत सम्बन्धी चार अवधारणायें काम में लायी जाती हैं। XI, X2, Y तथा XZ। इन चारों लागत सम्बन्धी अवधारणाओं का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार किया गया है।

(क) लागत X1- इस लागत में कृषिगत पदार्थों की निम्नलिखित लागतों को सम्मिलित किया जाता है-(i) खेतिहर मजदूरों को मजदूरी (ii) किराये पर लिये गये बैल का किराया, (iii) काम के लिए गये स्वयं के बैल की लागत, (iv) किराये की मशीन का किराया, (v) काम में ली गयी स्वयं की मशीन की लागत, (vi) समस्त काम में लिये बीजों की लागत, (vii) कीटनाशक रसायन एवम् अन्य औषधियों का मूल्य, (viii) कुल काम में ली गयी खाद का मूल्य, (ix) कुल काम में लिये गये उर्वरकों की लागत, (x) कृषि उत्पादों के दौरान काम में ली गयी स्थायी परिसम्पत्तियाँ-भवन, भूमि, मशीनरी एवं औजार इत्यादि का ह्रास, (xi) सिंचाई की लागत, (xii) वास्तविक कार्यशील पूँजी का ब्याज, (xiii) भू-राजस्व जैसे समस्त कर, (xiv) फसलों के उत्पादन के लिये लिये गये दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज, (xv) अन्य समस्त व्यय- जो उपर्युक्त सूची में सम्मिलित नहीं हुए हों।

(ख) लागत X2- कृषिगत पदार्थों को इस लागत में लागत X1 तथा किराये पर ली गयी कृषि भूमि का किराय सम्मिलित होता है।

(ग) लागत Y-  कृषिगत उत्पादों की इस लागत में लागत X2+ अपनी स्वयं भूमि का अनुमानित किराया, भू-राजस्व की रकम को घटाकर + अपनी स्वयं की स्थायी पूँजी पर अनुमानितं ब्याज (भूमि के अलावा) का योग सम्मिलित होता है।

(घ)लागत Z कृषिगत उत्पादों की इस लागत में लागतY+ कृषकों के अपने परिवार के द्वारा लगाये गये श्रम का अनुमानित पारिश्रमिक जोड़ दिया जाता है। इस तरह लागत Z सबसे अधिक होती है जिससे स्वयं की भूमि का किराया तथा स्थायी पूँजी पर ब्याज सम्मिलित होता है।

वर्तमान में भारत में कृषिगत उत्पादों की लागत सम्बन्धी समंक विभिन्न राज्य सरकारों तथा कृषिगत विश्वविद्यालयों के माध्यम से एकत्रित किये जाते हैं तथा कृषिगत लागत और मूल्य आयोग (CACP) इन्हीं लागत सम्बन्धी समंकों के आधार पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं जब कृषिगत उत्पादों की लागत का क्षेत्र काफी व्यापक एवम् विस्तृत हो जाता है तो औसत लागत के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करना सम्भव नहीं होता है। CACP के द्वारा इस सम्बन्ध में यह सुझाव रखा गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करना सम्भव नहीं होता है। CACP के द्वारा इस सम्बन्ध में यह सुझाव रखा गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने के लिए सबसे कम कार्यकुशल कृषक श्रमिक की मजदूरी को भी मध्य नजर रखा जाना चाहिए जिससे कृषिगत उत्पादों की कीमत में उसको भी सम्मिलित किया जा सके।

(2) निकासी मूल्य (Issue Prices)-

निकासी मूल्य का अभिप्राय ऐसे मूल्यों से लिया जाता है, जिन पर केन्द्रीय सरकार अपने केन्द्रीय भण्डारों से सार्वजनिक वितरण प्रणाली या रोलर आटा मिलों के लिए अनाज निर्गमित करती है। निकासी मूल्य भारतीय खाद्य निगम (FCI) द्वारा विभिन्न तथा अन्य संस्थानों को अनाज देते समय वसूल किये जाते हैं। साधारणतया ये मूल्य बाजार मूल्य से कम होते हैं। ये मूल्य राशन की दुकानों पर उपभोक्ताओं से लिये जाने वाले मूल्यों पर भी प्रभाव डालते हैं। राशन की दुकानों के मूल्य निकासी मूल्यों से कुछ अधिक होते हैं। सरकार को अनाज के संग्रहण एवम् वितरण सम्बन्धी व्ययों को भी पूरी तरह ध्यान में रखना चाहिए जिससे खाद्यान्नों पर, जो बड़ी मात्रा में सरकारी सहायता (सब्सिडी) प्राप्त होती है, उस पर नियन्त्रण रखा जा सके। यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तो निरन्तर बढ़ाती रहे और निकासी मूल्यों को यथास्थिर रखा जावे तो सरकारी सहायता की राशि को बढ़ाना होगा। सरकार को इस सम्बन्ध में यह भी सोचना पड़ता है कि यदि उसके द्वारा सरकारी सहायता की रकम कम की जाती है, तो इससे निर्धन वर्ग को हानि होगी और उन्हें अनाज क्रय करने के लिए ऊँचे मूल्य देने होंगे। इसलिए व्यावहारिक जीवन में निकासी मूल्य तथा राशन की दुकानों के खुदरा मूल्यों को बढ़ाना भी सम्भव नहीं होता है।

(3) बाजार मूल्य (Market Prices)-

बाजार मूल्य, वे मूल्य होते हैं जो साधारणतया बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता हैं। जब बाजार मूल्य काफी बढ़ने लगते हैं तो सरकार इन मूल्यों को कम करने के लिए बफर स्टॉक से माल निकाल कर बाजार में भेजती है, जिससे बाजार मूल्य कम हो जाते हैं। इसके विपरीत जब बाजार मूल्य कम होने लगते हैं तो सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषकों से उनके उत्पादों को क्रय करके बाजार मूल्यों को कम होने से रोकती है तथा कृषकों से हितों की रक्षा करती है।

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Pankaja Singh

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