भारत की आयात-निर्यात नीति | भारत की विदेशी व्यापार नीति की प्रमुख विशेषताएं
भारत की आयात-निर्यात नीति
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक वर्षों में व्यापार के पूर्ण ‘नियन्त्रण की नीति अपनाई गयी थी। युद्धोत्तरकाल में भी नियंत्रण जारी रखे गये। अब आयात-निर्यात नियन्त्रण का अधिकार आयात-निर्यात (नियन्त्रण) कानून 1947 के अन्तर्गत प्राप्त है। इसी कानून के अनुसार भारत सरकार समय-समय पर आदेश निकाल कर आयात-निर्यात के माल को नियंत्रण के अंतर्गत लाती है। ऐसा आदेश निकलने के उपरान्त साबद्ध वस्तुओं का लाइसेंस लिए बिना आयात अथवा निर्यात नहीं किया जा सकता। अतः व्यापार नियंत्रण अब हमारी विकास व्यूह-रचना का आवश्यक अंग बन गया है।
नियन्त्रित व्यापार–
नियन्त्रण के चार प्रकार हैं – (क) माल एवं दिशा सम्बन्धी नियंत्रण, (ख) सीमा शुल्क नियंत्रण, (ग) गुण-नियंत्रण एवं (घ) विदेशी विनिमय नियंत्रण।
(क) मात्रा एवं दिशा सम्बन्धी नियंत्रण- माल की मात्रा एवं दिशा सम्बन्धी नियंत्रण लाइसेंस द्वारा लागू किया जाता है। लाइसेंस देने के लिए एक देशव्यापी नियंत्रण संगठन बनाया गया है। नियंत्रण संगठन का सर्वोच्च अधिकारी मुख्य आयात-निर्यात नियंत्रक (Chief Controller of Imports and Exports) नई दिल्ली है जो भारत सरकार की आयात-निर्यात नीति के कार्यान्वित करने के लिए उत्तरदायी हैं। लोहा-इस्पात एवं मिस्र धातु के आयात व निर्यात लाइसेंस देना भी इसी के अधिकार क्षेत्र में (कुछ काल पूर्व इसके लिए एक पृथक् संगठन था) है। मुख्य आयात-निर्यात नियंत्रण की सहायता के लिए देश के 23 मुख्य नगरों में क्षेत्रीय अधीन अधिकारी हैं जो संयुक्त मुख्य आयात-निर्यात नियंत्रक अथवा उप मुख्य आयात-निर्यात नियंत्रक कहलाते हैं। इन क्षेत्रीय अधिकारियों के अधीन बम्बई, मद्रास, कोचीन बन्दरगाह तथा नागपुर और पूना में निर्यात सम्वर्द्धन कार्यालय है।
(ख) सीमा-शुल्क नियन्त्रण– सीमा-शुल्क भारत सरकार की वार्षिक आय का एक मुख्य साधन हैं, जिससे सन् 1984-85 में 7000 करोड़ रुपये से अधिक आय हुई। सभी आयात वस्तुओं पर आयात कर लगता है। निर्यात कर कुछ गिनी-चुनी वस्तुओं पर ही लगाया जाता है। इन करों की दरें समय-समय पर बदलती रहती हैं।
(ग) गुण-नियंत्रण- भारत सरकार ने निर्यात (गुण-नियंत्रण एवं परीक्षण) कानून, 1963 की धारा 3 के अंतर्गत निर्यात निरीक्षण परिषद् स्थापित की है जो निर्यात नियंत्रण एवं लदान पूर्व निरीक्षण द्वारा निर्यात व्यापार के व्यापक विकास की व्यवस्था करती है।
(घ) विदेशी विनिमय नियंत्रण- विदेशी विनिमय नियम कानून, 1947 के अंतर्गत विदेशी विनिमय नियंत्रण की व्यापक एवं स्थायी व्यवस्था की गयी है। इस कानून के अंतर्गत भारत सरकार ने रिजर्व बैंक को समस्त विदेशी विनिमय के लेन-देन के नियमन का एकाधिकार दे दिया। विनिमय नियंत्रणं अब राष्ट्रीय आर्थिक नीति का एक आवश्यक अंग माना जाता है। इसके मुख्य उद्देश्य हैं –(क) विकास सामग्री (मशीनें, आवश्यक कच्चा माल, यन्त्र उपकरण) प्राप्त करना, (ख) विदेशी ऋणों का भुगतान तथा (ग) विदेशी विनिमय का यथासम्भव सदुपयोग।
विनिमय नियंत्रण आजकल व्यापार नियंत्रण का पूरक माना जाता है। व्यापार नियंत्रण माल के भौतिक हस्तांतरण से संबंधित है तथा विनिमय नियंत्रण का सम्बन्ध विदेशी व्यवहारों के वित्तीय पहलू से हैं। लाइसेंस द्वारा जिस माल अथवा जिन वस्तुओं के आयात की अनुमति दी जाती है, उसके भुगतान के लिए विदेशी विनिमय भी दिया जाता है। व्यापारिक व्यवहार पूँजी के आदान-प्रदान तथा सेवाओं के लेन-देन सम्बन्धी सभी प्राप्तियाँ और भुगतान विनिमय नियंत्रण के अंतर्गत आते हैं। विदेशी विनिमय के लेन-देन अधिकृत व्यापारियों (बैंकों) के माध्यम से ही किये जा सकते हैं, जिनमें भारतीय अनुसूचित बैंक और विदेशी बैंक भी सम्मिलित हैं। विदेशी विनिमय की आधारभूत दरें अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अन्तर्गत घट-बढ़ सकती हैं। विदेशों से अर्जित सभी विदेशी विनिमय रिजर्व बैंक को समर्पित करना पड़ता है और भुगतान के लिए अनुमति-पत्र द्वारा ही विदेशी विनिमय मिल सकता है।
आयात-निर्यात नीति-
हाल के वर्षों में देश की आयात-निर्यात नीति को निर्यात परक और उत्पादन परक स्वरूप प्रदान किया गया है। आयात नीति के अंतर्गत कच्चे-माल, कल- पुर्जी, पूँजीगत पदार्थों के आयात तथा प्रौद्योगिकी के क्रमिक सुधार सम्बन्धी अनेक उदार प्रावधानों का समावेश किया गया है। सन् 1985 से पूर्व आयात-निर्यात नीति की वर्ष भर के लिए घोषणा की जाती थी। अब इसे बदलकर कर त्रिवर्षीय कर दिया गया है। प्रथम बार अप्रैल, 1985 से मार्च 1988 तक के तीन वर्ष की अवधि के लिए आयात-निर्यात नीति घोषित की गयी है। इससे हमारी व्यापार-नीति को निरन्तरता एवं स्थिरता मिल सकेगी। इस नीति से उद्योगों को अपनी उत्पादन योजना दीर्घकालीन आधार पर बनाने का अवसर मिलेगा और वार्षिक अनिश्चितता का अन्त हो जायेगा। नयी नीति के अंतर्गत व्यापार नीति समिति 1984 की मुख्य सिफारिशों को स्वीकृति दे दी गयी है। ये सिफारिशें निम्नांकित हैं-(1) आयात-निर्यात की तीन वर्ष के लिए घोषणा, (2) स्वचालित लाइसेंस व्यवस्था का अंत, (3) निर्माता निर्यातकों के लिए आयात-निर्यात पास-बुक (Pass-book) योजना लागू करना, (4) जो निर्यातकों तक सम्बन्धित करना, (5) आयात के नियमन में सीमा करों का अधिक महत्व
हमारी वर्तमान आयात-निर्यात नीति के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(1) आयात-निर्यात नीति की स्थिरता और निरन्तरता प्रदान करना।
(2) जो माल अथवा वस्तुएँ आयात करनी पड़ती हैं उनकी शीघ्र एवं सहज उपलब्धि हो ताकि उत्पादन यथाशक्ति बढ़ सकें।
(3) निर्यात वस्तुओं के उत्पादन आधार को सुदृढ़ करना तथा निर्माता को अधिक-से- अधिक बढ़ावा देना।
(4) देशी उत्पादन को समर्थन देने के उद्देश्य से आयातों को अधिक से अधिक बचत।
(5) प्रभावशाली आयात प्रतिस्थापन।
(6) तकनीकी सुधार (technological upgradation) एवं उत्पादन क्रियाओं का आधुनिकीकरण।
(7) क्रिया विधि को सुप्रवाही स्वरूप प्रदान कर लाइसेंस व्यवस्था को कम करना।
(8) निर्यात लेने की क्रिया का विकेंद्रीकरण करना ताकि लागत मूल्य कम से कम हो सके।
आयात नीति
आयात को नितंत्रित करने में देश के उपभोक्ता पदार्थों की मांग तथा विदेशी विनिमय की मितव्ययिता मुख्य उद्देश्य हैं। देश की भुगतान संतुलन सम्बन्धी स्थिति का ध्यान भी रखा जाता है। कुछ वस्तुओं के लिए खुले तौर पर लाइसेंस दिए जाते हैं, कुछ वस्तुओं की परिमाण सीमा (Quota) नियत करके सीमित मात्रा में उनका आयात किया जा सकता है, कुछ के लिए उदार लाइसेंस का कार्य लागू होता है, तथा कुछ के लिए विशेष प्रकार के आयात लाइसेंस दिए जाते हैं। आवश्यकतानुसार इस नीति में परिवर्तन और हेर-फेर होते रहते हैं।
आयात नियंत्रण के उद्देश्य-
प्रारम्भ में आयात नियंत्रण सीमित उद्देश्य के लिए लगाया गया था, किन्तु अब उसनेदेश के आर्थिक विकास और औद्योगिक उन्नति में एक निश्चयात्मक एवं व्यापक महत्व प्राप्त कर लिया है। इसके मुख्य उद्देश्य निम्नांकित हैं- (क) अनावश्यक आयात बन्द करना, (ख) उन वस्तुओं का आयात समाप्त करना जो देश में बनने लगी है, (ग) उन वस्तुओं को आयात सुविधाएं देना जो औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने अथवा विकास गति में सहायक हैं, (घ) उन वस्तुओं का आयात करना जिनकी निर्यात वृद्धि के लिए आवश्यकता है, (ङ) आयात व्यापार में मध्यस्थों की संख्या कम करना तथा सरकारी संगठनों का क्षेत्र एवं कार्य विस्तार, (च) राष्ट्र की आर्थिक नीति के अन्य उद्देश्यों की पूर्ति जैसे लघु उद्योग विकास, पिछड़े क्षेत्रों का विकास, बेकार वैज्ञानिकों व इंजीनियरों को काम देना इत्यादि।
गत वर्षों में व्यापार नीति सम्बन्धी जो सामान्य ढाँचा बन चुका है उसका यथासम्भव निर्वाहन किया गया है। उसमें विशेष परिवर्तन नहीं किये गये। आयात की जाने वाली आगत (Inputs) वस्तुओं की उपलब्धि सहज एवं शीघ्र करने के कारण स्वचालित लाइसेंस वर्ग: समाप्त कर दिया गया है और इस वर्ष की अधिकांश वस्तुएँ खुले सामान्य लाइसेंस (Open General License-OGL) वर्ग में सम्मिलित कर दी गयी हैं। इससे अनावश्यक देरी नहीं हो सकेगी और विशेषतः लघु क्षेत्र के अंतर्गत किया जा सकता है।
इस उदार नीति का उपयोग करने वाले मुख्य क्षेत्र मशीनी औजार, उद्योग, तेल क्षेत्र सेवाएँ, चमड़ा, बिजली का सामान (Electronics), जूट पदार्थ, सिले वस्त्र, मोजा, बनियान, पेन निर्माण (Pen manufacturing) डिब्बा निर्माण इत्यादि हैं।
लाइसेंस व्यवस्था को उदार एवं सरल कर दिया गया है तथा अधिकांश वस्तुओं का आयात सामान्य खुले लाइसेंस (OGL) के अंतर्गत किया जा सकता है विशेषतः विकास परक पदार्थ खुले सामान्य लाइसेंस सूची के अतिरिक्त आयात पदार्थों की अन्य सूचियाँ सीमित अनुज्ञेय सूची (Limited Permissible List) अनुबन्धित सूची (Restricted List), सीरणीबद्ध सूची (Canalised List) इत्यादि। सारणीबद्ध सूची वास्तविक उपभोक्ताओं के और लघु उद्योगों के निमित्त है। इस सूची को सुप्रवाही स्वरूप दिया गया है। इन वस्तुओं का सरकारी संस्थाएं (राजकीय व्यापार निगम आदि) आयात करती हैं और वास्तविक उपभोक्ताओं को देती रहती हैं।
कम्प्यूटर प्रणाली सम्बन्धी नीति अत्यन्त उदार कर दी गयी हैं। दस लाख रुपये से कम मूल्य के कम्प्यूटर खुले सामान्य लाइसेंस के अंतर्गत कोई भी अपने प्रयोग के लिए आयात करने को स्वतंत्र है।
आयात प्रतिस्थापन
स्वतन्त्र भारत को घाटे का व्यापार विरासत में मिला। व्यापारिक घाटा कम करने के विचार से स्वतन्त्र भारत की नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू आयात तो यथासम्भव सीमित करना और निर्यात को बढ़ावा देना रहा है। इस उद्देश्य की पूर्ति में हम सर्वथा विफल रहे हैं। आयात बहुधा निर्यात की अपेक्षा अधिक बढ़ते रहे हैं। प्रतण दो योजनाओं में आयात इतने अधिक हुए हैं कि विदेशी विनिमय का देश में अकाल दिखाई देने लगा। अएव सन् 1957 में आयात पर कड़े नियन्त्रण लगा दिये ये और सभी विलासी वस्तुओं का आयात सर्वथा निषेध घोषित कर दिया गया, तो भी स्थिति में वांछनीय सुधार न हुआ, दो बार (सन् 1949-66) में रुपये का अवमूल्यन भी निर्यात वृद्धि के निमित्त किया गया। अतएव तृतीय योजनाकाल में आयात का प्रतिस्थापन की नीति अपनायी गयी अर्थात् आयात माल से जिस माँग की पूर्ति की जाती थी अब देशी माल से उसकी पूर्ति करने का निश्चय किया गया। भारत सरकार ने यह घोषणा कर दी कि विकास सम्बन्धी कोई भी सामान (मशीनें, कच्चा माल, यन्त्र, उपकरण इत्यादि) जो देश में मिल सकता है, भले ही वह विदेशी माल की तुलना में न्यून कोटि का क्यों न हो, उसके लिए आयात की अनुमति नहीं दी जायेगी अर्थात् आयात माल का स्थान देशी माल लेने लगेगा। इसी नीति को आयात-प्रतिस्थापन (Import Substitution) कहा जाता है यह नीति हमारे राष्ट्रीय उद्देश्य आत्म निर्भरता का एक आवश्यक अंग है।
इसके कई लाभ हैं-
(1) भुगतान सन्तुलन का दबाव कम होता है,
(2) माँग में वृद्धि होकर देशी उद्योग को अपने विस्तार एवं विविधीकरण का अवसर मिलता है,
(3) देश के उद्योगपतियों को नवीन उपादन करने और नूतन तकनीक के उपयोग एवं विकास का अवसर मिलता है,
(4) देश के उद्योगों को अपना क्षेत्र बढ़ाने और उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकास करने का अवसर मिलता है,
(5) अनुभव प्रपात करके देश के उद्योगों को विदेश में अपना माल बेचने की प्रेरणा मिलती है जिससे निर्यात वृद्धि होती है,
(6) देश के औद्योगिक एवं आर्थिक विकास का उत्तम साधन है,
(7) आत्म-निर्भरता का लक्ष्य प्राप्त करने का यह महत्वपूर्ण मार्ग है,
(8) देश के साधनों के अधिकाधिक उपयोग में सहायक है,
(9) विदेशी तकनीक रूपांकरण उपकरणों के अनुरूप तकनीक का विकास होता है।
हम सन् 1950-51 में 78% मशीनी औजार आयात करते थे, 1970-71 में आयात 30% रह गया तथा 1974-75 में आयात सर्वथा बन्द हो गया। सन् 1950-51 में साइकिलों का आयात 62.5 था, सन् 1960-61 में नगण्य रह गया और अब बड़ी मात्रा में साइकिलों का निर्यात किया जाता है। एल्यूमिनियम का 1950-51 में 72.8% आयात किया जाता था, सन् 1970-71 में 3.7% रह गया और अब सर्वथा बन्द हो गया है। कास्टिक सोडा का 1950- 51 में 64.7% आयात होता था, सन् 1970-71 तक आयात नगय रह गया। सिलाई मशीनों का 1950-51 में आयात 41.1% था, सन् 1960-61 तक नगण्य रह गया और अब निर्यात होने लगा है। चीनी मिल मशीनों का आयात 1950-51 और 1970-71 की अवधि में 95.5% से केवल 0.6% रह गया। अनेक अन्य वस्तुओं का आयात प्रतिस्थापन भी हुआ।
आयात प्रतिस्थापन कार्यक्रम को भारत सरकार पूर्ण बढ़ावा दे रही है। भारत सरकार के तकनीकी विकास महादेशक (DGTD) मूल क्षेत्रों के लिए दीर्घकालीन विकास योजनाएँ बनाते रहते हैं और उन्हें कार्यान्वित करते रहते हैं। सरकरा ने एक तकनीकी आधार-सामग्री बैंक (Data Bank) भी स्थापित किया है। सन् 1966 में ही सरकार ने एक आयात प्रतिस्थापन पुरस्कार बोर्ड स्थापित कर दिया था जो प्रतिवर्ष उन व्यक्तियों एवं संगठनों को पुरस्कार देता है जो आयात प्रतिस्थापन की कोई नयी युक्ति अथवा वस्तु निकालते अथवा बनाते हैं। पुरस्कार वर्ष में दो बार दिये जाते हैं।
निर्यात नीति
निर्यात नीति में ऐसे अनेक सुधार किये गये हैं जिनसे निर्यात वांछनीय गति से बढ़ सकें। माल बनाने वाले निर्यातकों (Manufacturer Exporters) के लिए एक नयी योजना, जनवरी, 1986 से प्रारम्भ की गयी है जिसे आयात-निर्यात पास बुक योजना (Import-Export Pass book Scheme) नाम दिया गया है। इसका महत्व निर्यात के लिए बनाये जाने वाले माल के निमित्त आगम वस्तुओं (Inputs) को सीमा कर मुक्त कर प्राप्त किया जा सकता है। इस योजना का कार्यक्षेत्र वर्तमान अग्रिम लाइसेंस (Advance Licensing) योजना से अधिक व्यापक हैं और इसका एक लाशभ यह है कि बार-बार अग्रिम लाइसेंस लेने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अग्रिम लाइसेंस के अन्तर्गत सीमा कर मुक्त योजना का कार्यक्षेत्र बढ़ा दिया गया है।
सन् 1984-85 में चालू की गयी अतिरिक्त लाइसेंस योजना जिसका आधार विदेशी विनिमय का अर्जन है का सिद्धान्त अब निर्यात व्यापार गृहों के सर्टिफिकेट पर भी लागू माना जायेगा। निर्यात व्यापार गृह (Export Trading Houses) यदि निर्धारित अवधि में निर्धारित निर्यात करने में असमर्थ रहते हैं उनके प्रमाणपत्र का नवीनीकरण नहीं किया जा सकता है।
उद्यमी वणिक निर्यातक (Entrepreneur Merchant Exporters) के लिए निर्यात वृद्धि दर 50% निर्धारित की गयी थी जिसे अब घटाकर 20% कर दिया गया है। हस्तशिल्प एवं हथकरघा निर्यात निगम के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी अब स्वर्ण आभूषण निर्यात कर सकते हैं। जिन व्यापार गृहों अथवा निर्यात गृहों का वर्ष भर का निर्यात कम-से-कम एक करोड़ रुपया है उन्हें तकनीकी रूपांकरण रेखाचित्र व अन्य प्रलेख आयात करने का अधिकार दिया गया है।
पंजीकृत निर्यातकों के लिए उनकी निर्यात मात्रा के विचार छोड़कर पुनर्पूर्ति लाइसेंस (REP License) के अन्तर्गत पूँजीगत माल का आयात करने की न्यूनतम सीमा एक लाख रुपये से बढ़कर दो लाख रुपये कर दी गयी है। पुनर्पूति लाइसेंस के अन्तर्गत पूँजीगत माल आयात करने का लघु उद्योगों को भी अधिकार दे दिया गया है। विदेशों में रहने वाले भारीय यदि भातर में उद्योग स्थापित करने अथवा उद्योगों में विनियोग करने के विचार से स्थायी रूप से भारत में रहने को भारत आते हैं तो उन्हें पूंजीगत पदार्थ आयात करने के लिए सुविधाएँ दी जायेंगी।
प्रत्येक स्तर के लाइसेंस अधिकारियों के अधिकार बड़ा दिये गये हैं ताकि लाइसेंस सम्बन्धी निर्णय शीघ्र लिए जा सकें। क्षेत्रीय लाइसेंस अधिकारियों को अनुपूरक लाइसेंस (Supplementary Licences) सम्बन्धी प्रार्थना-पत्रों पर निर्णय लेने का अधिकार दे दिया गया जो छोटे उद्योगों को 5 लाख रुपये तक और बड़े उद्योगों को 50 लाख रुपये तक लाइसेंस दे सकते हैं। अग्रिम लाइसेंस योजना के अन्तर्गत शीघ्रता से लाइसेंस देने के लिए कलकत्ता, नई दिल्ली, मद्रास और बम्बई में अग्रिम लाइसेंस समितियाँ नियुक्त की गई हैं।
इस भाँति आयात व निर्यात दोनों के लिए उदार, सरल एवं सुविधाजनक व्याख्या की गयी है।
अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
- कृषि पदार्थों के लिए उचित मूल्य नीति | कृषिगत पदार्थों के मूल्य निर्धारण का महत्त्व | न्यूनतम समर्थन मूल्य | निकास-मूल्य | बाजार मूल्य
- भुगतान शेष से आशय | विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में भुगतान शेष की स्थिति की विवेचना
- भुगतान संतुलन अनुकूल करने के उपाय | भुगतान शेष को अनुकूल बनाने के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उठाये गये कदम
- आर्थिक सुधार 1991 | देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू होने के बाद भुगतान शेष की स्थिति
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