व्यापार एवं प्रशुल्क विषयक सामान्य समझौता | गैट का जन्म | गैट के नियम | गैट के उउद्देश्य | गैट का बुनियादी सिद्धान्त
व्यापार एवं प्रशुल्क विषयक सामान्य समझौता या
गैट का जन्म (Origin of GATT)
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया। दूसरी ओर साम्यवादी देशों में सोवियत संघ एक शक्तिशाली देश समझा जाने लगा। विश्व में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका तथा सोवियत संघ एक दुसरे के आमने-सामने खड़े हो गए। एक समय तो ऐसा लगा मानो सारा विश्व दो खेमों में विभाजित हो गया है, जिसमें एक का प्रमुख संयुक्त राष्ट्र अमेरिका तथा दूसरे का सोवियत संघ। इसी व्यवस्था के अन्तर्गत यह अनुभव किया जाने लगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से झुलसे देशों को पुनः स्थापित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बन्धित नीतियों के निर्धारण एवं इनके कार्यान्वयन के लिए संगठित किया जाना चाहिए। इस विषय पर 1944 में ब्रिटेन वुड्स सम्मेलन में भी चर्चा की गयी लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं निकल सका। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की स्थापना हो जाने के बाद यह तय, किया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं रोजगार को प्रोत्साहन देने हेतु एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन की स्थापना की जानी चाहिए। लेकिन विभिन्न देश इस पर सहमत न हो पाए। अन्ततः सन् 1947 में हवाना सम्मेलन में एक समझौता हुआ जिसे “प्रशुल्क दरों एवं व्यापार पर सामान्य समझौता” (General Agreement on Tariff and Trade) या ‘गैट’ (GATT) कहा गया। प्रारम्भ में यह एक अस्थायी समझौता था लेकिन सन् 1948 से प्रशुल्क दरों एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मामलों में यह एक स्थायी बहुपक्षीय समझौता है जिसकी सफलता केवल इस बात पर निर्भर है कि सभी सदस्य देश इसका ईमानदारी से पालन करें। प्रारम्भ में इसमें केवल 23 देश ही इसके सदस्य थे लेकिन अब इसकी सदस्य संख्या 83 हो गयी है। कोई भी देश, जो ‘गैट’ की आचार संहिता का पालन करने के लिए तैयार हो, इसका सदस्य उसी दशा में हो सकता है जबकि दो-तिहाई सदस्य इसका समर्थन करे। गैट में कुछ समय तक के पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश, पूर्व का सोवियत संघ, चीन आदि देशों को छोड़कर विश्व के प्रमुख देश इसके सदस्य थे।
‘गैट’ एक ऐसा समझौता है जिसके प्रति समस्त सदस्य देशों का समान दायित्व है। यह समझौता निम्न चार समझौतों पर आधारित है-
(1) विभिन्न देशों के बीच बिना भेदभाव के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किया जाए।
(2) विदेशी व्यापार को प्रभावित करने के लिए केवल प्रशुल्क दरों का सहारा लिया जाए।
(3) एक देश दूसरे देश के प्रति यदि कोई क्षतिप्रद नीति अपनाना चाहता है तो ऐसा करने से पूर्व वह सम्बन्धित देश से विचार-विमर्श कर ले।
(4) प्रशुल्क दरों को यथासम्भव कार्य किए जाने के प्रयास किए जाएं।
‘गैट’ को निम्न चार भागों में विभाजित किया गया है-
(i) प्रथम भाग- समझौते से अनुबन्धित देशों के प्रमुख कर्तव्यों का विवरण;
(ii) द्वितीय भाग- न्यायपूर्ण व्यापार हेतु आचार संहिता;
(iii) तृतीय भाग- सदस्य बनने तथा सदस्यता का परित्याग करने की नियमावली; तथा
(iv)चतुर्थ भाग- विकासशील देशों के विदेशी व्यापार के विस्तार हेतु इन देशों को दी जाने वाली रियायतों का विवरण।
‘गैट’ की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रशुल्क दरों में पर्याप्त कटौती द्वारा निम्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की गयी है-
(i) सदस्य के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना;
(ii) अर्थव्यवस्था को पूर्ण रोजगार की दिशा में प्रवृत्त करना तथा वास्तविक आय एवं प्रभावी माँग के परिमाण में पर्याप्त वृद्धि करना;
(iii) विश्व व्यापार एवं सकल उत्पादन में वृद्धि करना;
(iv) विश्व में उपलब्ध संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करना;
(v) दो देशों की अपेक्षा अनेक देशों के व्यापार की संवृद्धि हेतु बार्ताएं आयोजित करना ताकि विभिन्न देशों के बीच व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप एवं बाधाओं को न्यूनतम किया जा सके;
(vi) अर्द्ध-विकसित एवं विकासशील देशों को अपना तीव्र विकास करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में विभिन्न प्रकार की प्रशुल्क छूटें प्रदान करना, साथ ही उनसे भी ऐसा किए जाने की अपेक्षा न करना। इसके अतिरिक्त विकासशील देशों को यह भी छूट प्रदान करना कि वे भुगतान सन्तुलन सम्बन्धी कारणों से आयात कोटा निश्चित कर सकते हैं।
गैट के नियम या उद्देश्य (बुनियादी सिद्धान्त)
(Objects or Basic Principles of GATT)
इसके प्रमुख नियम या उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(अ) पाबन्दियों की समाप्ति या परमानुग्रहित राष्ट्र वाक्य (M. F. N. Clause)- यह समझौता परमानुग्रहित राष्ट्र की अवधारणा पर आधारित है। इसका आशय यह है कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दी गई रियायतें अन्य सब राष्ट्र को भी, जो गैट के सदस्य हैं, ‘स्वतः’ (Automatically) प्राप्त हो जाएगी। परिणाम यह हुआ कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भेद-भाव समाप्त हो जाएगा। किन्तु इस सम्बन्ध में अनेक अपवाद भी हैं, जैसे-विदेशों में कम मूल्य पर बेचने की नीति और निर्यात अनुदानों के विरुद्ध क्षति उठाने वाले देश कोई कदम उठा सकते हैं। इसी प्रकार, कस्टम यूनियनों और मुक्त व्यापार क्षेत्रों के रूप में पूर्ण प्रशुल्क प्राथमिकताओं को व्यवस्था को आपत्तिजनक नहीं माना गया है।
(ब) आयात पर परिमाणात्मक नियन्त्रणों के प्रयोग प्रतिबन्ध- सिद्धान्त रूप से समझौते में परिमाणात्मक प्रतिबन्ध लगाने की पूर्णतया मनाही है किन्तु अग्र तीन अपवादभूत स्थितियों में छूट दी गई है-
(1) अत्यधिक प्रतिकूल (Seriously unfavorable) भुगतान सन्तुलन वाली स्थिति में सम्बद्ध देश आयात कोटों (Import quotas) का सहारा ले सकते हैं किन्तु उसी सीमा तक जहाँ वे इनके माध्यम से अपने वंचित कोषों (Reserves) को बचा सकें परन्तु इसके लिए उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की अनुमति भी लेनी होगी।
(2) अल्प-विकसित देश, जब वे घरेलू उद्योगों को प्रशुल्क दरों के माध्यम से संरक्षण देने में असमर्थ हों तब, आयात कोटों के द्वारा संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं। हाँ, प्रतिबन्ध लगाने वाले देश को चाहिए कि प्रतिबन्धित देशों के मध्य अपने व्यापार के वितरण का अनुपात पूर्व के समान ही बनाए रखें। साथ ही, निर्दिष्ट अवधि के लिए आयात कोटे के अन्तर्गत निर्धारित मात्रा की पूर्व घोषणा की जानी चाहिए।
(3) कृषि एवं मत्स्य-वस्तुओं के लिए आयात कोटों का निर्धारण केवल उसी दशा में किया जा सकता है, जबकि इनका उत्पादन देश में उतनी ही पाबन्दियों (Resrictions) के अधीन किया जा रहा हो।
(स) मन्त्रणाओं द्वारा प्रशुल्क दरों में कमी कराना- समझौते के 18वें अनुच्छेद में विभिन्न देशों के बीच आयात व निर्यात सम्बन्धी मन्त्रणाओं (negotiation) के द्वारा प्रशुल्क दरों एवं अन्य करों में पर्याप्त कमी करने के लिए प्रावधान रखा गया है। ऐसी मन्त्रणाएँ परस्पर लाभ की दृष्टि से आयोजित की जानी चाहिए और उनमें सम्मिलित देशों की विशेष परिस्थितियों का ध्यान रखना आवश्यक है। विकासोन्मुख देश के प्रति विशेष ध्यान पर बल दिया गया है। प्रशुल्क मन्त्रणाएँ सामान्यतया निम्नांकित सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए-
(1) आदान-प्रदान और परस्परता- ये मन्त्रणाएँ ‘ले-दे’ (Give and Take) के आधार पर प्रत्येक वस्तु के लिए की जाएं।
(2) प्रशुल्क दरों को सीमित करना- इन मन्त्रणाओं का उद्देश्य ऊँची प्रशुल्क दरों को घटाना और नीची दरों को बनाए रखना हो। इस प्रावधान से उन देशों के हितों की रक्षा का प्रयास किया गया है जिनकी प्रशुल्क दरें पहले से ही कम हैं तथा इसलिए जो अब अधिक छूट देने में असमर्थ हैं।
(3) प्राथमिकता दरें एवं प्राथमिकता मार्जिन- प्राथमिकता मार्जिन को मापने हेतु ‘सबसे अधिक प्रिय देश’ अर्थात् ‘परमानुग्रहित राष्ट्र’ (M.F.N.) के लिए निर्धारित प्रशुल्क दर और उसी वस्तु के लिए प्राथमिकता दर के बीच जो वास्तविक अन्तर विद्यमान है, उस पर ध्यान देना चहिए न कि दोनों के आनुपातिक सम्बन्ध पर।
(4) बँधी हुई ( अथवा निश्चित ) एवं खुली हुई दरें- अनुसूची में सम्मिलित प्रशुल्क दरों को बढ़ाना सम्भव नहीं है। ये साधारणतया बँधी हुई या निश्चित दरें कहलाती हैं। इस रियायत को वापस लेने या न लेने का निर्णय अनुबन्धन से सम्बन्धित देश पर छोड़ दिया गया। प्रायः सम्बन्धित देश अनुचित दरों की अवधि को बढ़ाने के लिए सहमत होते रहे हैं। इस पर भी नई प्रशुल्क अवधि की शुरुआत के पूर्व सम्बन्धित पक्षों को इस बात का अवसर दिया जाता है कि वे प्रशुल्क दरों में छूट या परिवर्तन के लिए परस्पर मन्त्रणा कर सकें।
अन्य उद्देश्य
(i) सदस्य देशों में जीवन स्तर को ऊँचा उठाना; (ii) पूर्ण रोजगार की दिशा में अर्थव्यवस्था को बढ़ाना और वास्तविक आय एवं प्रभावी माँग के परिमाण को बढ़ाना (iii) विश्व के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और उत्पादन में वृद्धि करना तथा (iv) विश्व में उपलब्ध साधनों का इष्टतम उपयोग करना। ये उद्देश्य ‘सामान्य हैं और इनकी पूर्ति के लिए कोई प्रत्यक्ष कार्यवाही नहीं की जाती।
यह मानकर चला गया है कि यदि विश्व के विभिन्न देशों के मध्य व्यापार को बहुमुखी पद्धति (Multilateral system) पर समायोजित करके प्रशुल्क दरों को न्यूनतम स्तर तक घटा दिया जाए, तो उनके आर्थिक विकास की प्रक्रिया को बल मिलेगा व आय व रोजगार के स्तर में पर्याप्त सुधार हो सकेगा। इस प्रकार, समझौते (गैट) में प्रशुल्क दरों और पाबन्दियों को समाप्त करने के बजाय काफी कम करने का विचार किया गया है। यह भी मान्यता की गई है कि किन्हीं परिस्थितियों में व्यापार पर पाबन्दियाँ आवश्यक हैं। साथ ही यह भी माना गया कि प्रशुल्क दरों में कमी और विभेदात्मक व्यापार नीति की समाप्ति दोनों पक्षों की ओर से होनी चाहिए तथा इसका लाभ सभी सम्बद्ध देशों को मिलना चाहिए। किन्तु हाल ही में गैट (समझौते) में जो नया अध्याय जोड़ा गया है उसके अनुसार यह स्पष्ट कर दिया गया है कि विकसित देशों को जो रियायतें वे दें उनके बदले विकासोन्मुख देशों से विशेष रियायत की आशा नहीं रखनी चाहिए।
अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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