अर्थशास्त्र

एशियाई विकास बैंक के कार्यचलन आलोचनाएँ | एशियाई विकास बैंक की कठिनाइयाँ | भारत और एशियाई विकास बैंक

एशियाई विकास बैंक के कार्यचलन आलोचनाएँ | एशियाई विकास बैंक की कठिनाइयाँ | भारत और एशियाई विकास बैंक

एशियाई विकास बैंक के कार्यचलन आलोचनाएँ

बैंक अब तक के कार्यकलापों का विश्लेषण करने से इसकी निम्नांकित कमियाँ दृष्टिगोचर होती हैं-

  1. बाह्य साधनों को पर्याप्त मात्रा में गतिशील करने में ADB की असमर्थता- पिछले कुछ वर्षों में एशियाई विकास बैंक की उपलब्धियाँ काफी अच्छी रही हैं, जो इस बात से प्रगट हैं कि उसके प्रसाधनों एवं इनके प्रयोग दोनों में ही वृद्धियाँ हुई हैं। किन्तु अपने कम विकसित सदस्यों की सहायता के लिए बाह्य साधन जुटाने में उसकी भूमिका मामूली ही रही है। निःसन्देह एक अल्प योगदान स्वयं में निन्दनीय नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष ने उसी मध्यावधि में गैर तेल विकासोन्मुख देशों को आवश्यक बाह्य सहायता के रूप में उतना ही आनुपातिक योग दिया था। किन्तु जहाँ IMF द्वारा ऋणों की स्वीकृत एक ऐसी विश्वसनीयता उत्पन्न कर देती है जिससे कि देश को ऋण अन्य स्रोतों से भी प्राप्त हो जाते हैं वहाँ ADB द्वारा ऋणों की स्वीकृति से ऐसा नहीं हुआ है। यद्यपि ADB को कार्य करते हुए 113 वर्ष बीत गए हैं, तथापि ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जिसमें एक सम्मिलित सहायता के कार्यक्रम (Package of assistance) का संगठन ADB ने विश्व बैंक की भाँति किया हो।
  2. ADB के व्यक्तित्व पर अमेरिकी और जापानी हितों का अधिक प्रभाव होना- एशियाई विकास बैंक की स्थापना अमेरिका की पहल पर जापान के समर्थन से ऐसे समय पर हुई थी जबकि अमेरिका वियतनाम में अधिकाधिक फँसता जा रहा था। उस समय भारत सरकार ने इन दो देशों के साथ प्रवर्तक होने का निर्णय लिया तथा बैंक की पंजी में उसका योगदान जापान के बाद दूसरे नम्बर का है। किन्तु इसने यह नीति अपनाई कि वह बैंक से सहायता नहीं लेगा। अपने योगदान के बल पर उसे बैंक के प्रबन्ध में महत्त्वपूर्ण आवाज रखने का अधिकार मिला है और एक भारतीय को उसका उपाध्यक्ष बनाया जाता रहा है जबकि एक जापानी उसका अध्यक्ष। इस पर भी ADB के व्यक्तित्व को बनाने में इसके सेवा क्षेत्र में अमेरिका और जापान के जो हित विद्यमान हैं उनका बड़ा हाथ है। अतः स्वभावत: ADB के उधार कार्यकलापों का केन्द्र वे देश बने हुए हैं जिनमें सौभाग्यवश एक उच्च विकास सम्भाव्यता होने के साथ-साथ इन दो प्रमुख देशों से सुदृढ़ राजनैतिक सम्बन्ध भी बने हुए हैं।
  3. कुल उधार-राशि में पर्याप्त वृद्धि न होना- उधार ऋणों के सम्बन्ध में उपर्युक्त परिवर्तन तो ठीक हुआ किन्तु बैंक जो कुल राशि उधार देता है उसकी मात्रा में पर्याप्त तेजी से वृद्धि नहीं हुई है। विशेषतया साधारण स्रोतों से कठोर ऋण दिए जाने की गति की तुलना में वह कोई उल्लेखनीय तेजी से नहीं बढ़ी है। 1972 और 1978 की तुलना करने से पता चलता है कि दोनों प्रकार की वचनबद्धताएं मोटे रूप से उसी अनुपात में बढ़ी हैं। ADB कह सकता है कि उधार ऋणों में वृद्धि की दर उन राशियों पर निर्भर करती हैं जो कि इस आशय के लिए धनी दाताओं (जिनमें कि जापान सबसे बड़ा है जिसने 51% भाग दिया, इन अमेरिका ने 12.6%, प० जमनी ने 9% ब्रिटेन ने 4.3% और आस्ट्रेलिया ने 4.5% दिया है) से उपलब्ध होती है। बैंक यह भी कह सकता है कि वह इन दाताओं से, 1979-82 की मध्यावधि में अधिक मात्राओं में उधार दे सकने हेतु, काफी बड़ी रकमों के वचन पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है।
  4. उधार ऋण देने हेतु कोषों की प्राप्ति के स्रोतों का विविधीकृत करने के प्रयासों का अभाव- उपर्युक्त तर्कों के बावजूद इससे तो इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिन कोषों से उधार ऋण दिए जाते हैं, उनकी प्राप्ति के स्रोतों को विविधीकृत करने की दिशा में नगण्य प्रयास किए गए हैं। एशिया में ही उपलब्ध पैट्रो डालरों की सम्पत्ति का उपयोग करने के लिए कोई बड़े प्रयास नहीं किए गए हैं यद्यपि भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से पश्चिमी एशिया के दाताओं और ADB सदस्यों के बीच जो समानता है उसे देखते हुए यह कोई कठिन बात नहीं थी।
  5. ADB द्वारा गारण्टी व्यापार में प्रवेश करने की अनिच्छा- चौबीस के समूह (The Group of 24) ने, जो मुद्रा कोष विश्व बैंक की कमेटी है जिसे विकासोन्मुख देशों के प्रसाधनों के हस्तान्तरण हेतु बनाया गया है और जिसमें एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका को बराबर- बराबर प्रतिनिधित्व प्राप्त है, विशेष रूप से यह सिफारिश की थी कि ADB जैसी क्षेत्रीय सहायता एजेन्सियों को चाहिए कि अपने सदस्यों की सहायतार्थ अपने साधनों को बढ़ाने के लिए सह-वित्त प्रबन्धन में भाग लें और प्राइवेट पूँजी बाजार से ऋणों के लिए गारण्टियाँ प्रदान करें। इससे उन देशों के लिए जो कि बाजार से परिचित नहीं हैं, स्फूर्तवान, शीघ्र फलदायी प्रयोजनाओं के लिए, जो कि 9 से 10% के लगभग ब्याज व्यय सहन कर सकती हैं उचित लागत पर ऋण उठाना सम्भव हो जाएगा।

एशियाई विकास बैंक की कठिनाइयाँ एवं समस्याएँ

बैंक अपेक्षाकृत एक नई संस्था है। अतः प्रारम्भिक वर्षों में उसे कुछ समस्याओं एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जैसे-कुछ कठिन निर्णय लेना, राष्ट्रों में विश्वास उत्पन्न करना, कुशलतापूर्वक कार्य-संचालन करना, सभी राष्ट्रों का सहयोग प्राप्त करना। कुछ कठिनाइयाँ और समस्यायें तो आज भी विद्यमान हैं, जैसे-(i) अपर्याप्त पूँजी होने के कारण सदस्य देशों की ऋाण सम्बन्धी माँगें पूरी करने में कठिनाई होना- इस अपर्याप्तता के कारण उसे प्रायोजनाओं को प्राथमिकताएँ देने “कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं, जिससे कभी-कभी तो सदस्य देशों की एकता भग होने का डर पैदा हो जाता है, (ii) द्विपक्षीय सहायता में कमी-विकसित देशों से एशिया के देशों को द्विपक्षीय आधार पर जो सहायता मिलती रही है उसमें कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई है। (iii) स्थानीय करैन्सी में चन्दे की समस्या- यह समस्या सचमुच ही गम्भीर है, क्योंकि स्थानीय करैन्सियों का प्रयोग सीमित मात्रा में होने के कारण बैंक के कार्यकलापों का क्षेत्र भी संकुचित हो जाता है, (iv) क्षेत्रीय प्रतियोगिता एवं आर्थिक दशाओं में अन्तर-एशियाई देश पिछड़े हुए हैं और उसकी आर्थिक दशाओं में बहुत अन्तर होता है। अत: बैंक के सामने यह समस्या नहीं रहती है कि पहले किस देश की मदद करें, क्योंकि उसके साधन इतने पर्याप्त नहीं हैं कि सभी की आवश्यकताओं को एक-एक करके तुरन्त ही पूरा कर सकें, (v) कठिन शर्ते- बैंक विभिन्न योजनाओं के लिये बैंकिंग सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए ऋण स्वीकृत करता है। यदि कोई परियोजना क्षेत्रीय विकास में सहायक नहीं है या राष्ट्र की आवश्यकता में पूरी करने में सहायक नहीं है, तो वह उसे वित्तीय सहायता नहीं देता। इसी प्रकार, यदि सदस्य देश को किसी परियोजना के लिए बैंक से ऋण लेने में आपत्ति हो, तो भी बैंक ऋण नहीं देता।

भारत और एशियाई विकास बैंक

भारत ADB के संस्थापक देशों में एक मुख्य देश है। पूँजी विनियोग की दृष्टि से उसका स्थान बैंक में द्वितीय एवं विकासोन्मुख देशों में प्रथम है। भारत का प्रतिनिधि अपने चन्दे के आधार पर ही संचालक मण्डल में शामिल है। यद्यपि भारत प्रारम्भ से ही बैंक का सदस्य है तथापि एक नीति के रूप में नई दिल्ली ने इससे कोई सहायता न लेने का निर्णय किया। किन्तु वह अन्य सब प्रकार से बैंक के कार्यकलापों में सहयोग देता रहता है। उदाहरणार्थ, वह अपनी तकनीकी सलाहकारिता सेवायें बैंक को अर्पित करता रहता है। भारतीय सलाहकार फर्मों के लिए, उद्योग व्यापार, सड़क एवं जल आपूर्ति के विकास के सम्बन्ध में एशियाई विकास बैंक द्वारा फाइनेन्स की जा रही अनेक प्रायोजनाओं (Projects) के लिए सेवायें प्रदान करने के बहुत से अवसर विद्यमान हैं। यह बात बैंक की सलाहकार सेवा डिवीजन के प्रोजेक्ट मैनेजर श्री इरक्की आई० जुसलन (Erqqi I. Juslen) ने भारतीय निर्यात संगठनों के फेडरेशन (FIEO) द्वारा आयोजित एक सभा में बताई। उन्होंने इस बात को गलत बताया कि भारत को ADB के अनुबन्धों का उचित हिस्सा नहीं दिया जा रहा है। उनका कहना था कि भारतीय सलाहकार फर्मे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में केवल 5 वर्ष पूर्व से ही सक्रिय हुई हैं और यह समय इतना कम है कि इसके आधार पर उनकी कुशलता को परखना कठिन है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बताया कि ऐसी ADB प्रायोजनायें, जहाँ कि सलाहकारिता की आवश्यकता थी, संख्या में आखिर को सीमित ही थीं और प्रतिवर्ष लगभग 13 से 15 होती थीं। भारतीय सलाहकार फर्मों के प्रतिनिधियों ने कहा कि जिन दशाओं में भारतीय फर्मों को आवश्यक अनुभव या स्तर से कुछ ही कम’ पाया जाए उनमें उनको ‘रियायत’ की जानी चाहिए। प्रतिनधियों ने यह भी सुझाव दिया कि एशियाई विकास बैंक को ‘अन्तर्राष्ट्रीय सलाहकारिता का अनुभव’ होने की शर्त पर अधिक बल नहीं देना चाहिए। कारण, भारतीय फळं देश के विभिन्न भागों में कार्य कर रही हैं, जहाँ जलवायु एवं सामाजिक दशायें बहुत विभिन्न होती हैं। अत: उनके ‘देशव्यापी अनुभव’ को ‘अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव’ जैसा समझा जाना चाहिए। प्रतिनिधियों ने ‘अनुभव की अवधि’ (length of experience) पर जोर देना भी अनावश्यक बताया, क्योंकि सभी फर्मों के लिए यह सम्भव नहीं था कि प्रयोजनाओं को सम्भालने का अवसर मिले बिना अनुभव प्राप्त कर लें। प्रोजेक्ट मैनेजर ने प्रतिनिधियों को यह स्पष्ट किया कि बैंक विभिन्न एशियाई देशों में प्रायोजनाओं का न्यायसंगत वितरण करने के लिए प्रयलशील है और यह बात गलत है कि कुछ विकसित देशों को ही अनुबन्ध दे रहा था। हाँ, बैंक प्रायोजनाओं के लिए आवेदन (Bid) करने के पूर्व भारतीय फर्मों को चाहिए कि अपने कार्यकलापों और अनुभव के विवरण भेजें।

उच्च स्तर पर ऐसे कदमों पर विचार किया जा रहा है जिनसे कि भारत को अपनी जानी-मानी क्षमता के अनुरूप ही एशियाई विकास बैंक की प्रायोजनाओं के अन्तर्गत अनुबन्धों का एक बड़ा भाग प्राप्त हो सके। ये कदम इस प्रकार हैं-

(1) मूल्यांकन अवस्था से आगे एक एकीकृत व्यवस्था (Integrated appraoch) के अंग के रूप में यह अति महत्वपूर्ण है कि निविदाओं (Tenders) के बन्द होने की तिथि से पहले ही भारतीय फर्मे आवेदनों (bids) को ठीक प्रकार से दे दें। विगत काल में कई उदाहरण ऐसे हुए जिनमें कि आवेदन जल्दी-जल्दी तैयार करके अन्तिम क्षणों पर अर्पित किए गए। इस परिस्थिति का सामना करने हेतु व्यापार एवं वित्त मन्त्रालयों ने यह निर्णय किया है (i) भारतीय व्यापारिक प्रतिनिधियों के पास कुछ कोष इस काम के लिए रखा जाए कि उपलब्ध होते ही वे निविदा प्रपत्रों का एक सैट खरीद कर सम्बन्धित निर्यात-सम्बर्द्धन संगठन को भेज दें। इससे भारतीय फर्मों को उनका विस्तृत अध्ययन करने निविदाओं में अपने भाग लेने या न लेने का निर्णय करने तथा यह सुनिश्चित करने, का भी अवसर मिलेगा। निविदा आवेदन निविदा माँगें और इक्विपमेंट एवं मशीनरी की सन्तुष्टि कर सकेगा या नहीं। (ii) वित्त मन्त्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग पर यह जिम्मदोरी डाली गई है कि उन क्षेत्रों में, जिनमें कि भारत की स्थिति मजबूत है, भारतीय फर्मों के बारे में विस्तृत विवरण विदेश-स्थित भारतीय प्रतिनिधियों को प्रदान करें जो फिर इनमें से जिम्मेदार एवं योग्य फर्मों के प्रायोजना-सूचना प्रदान किया करेंगे तथा उनके आवेदनों का सक्रिय समर्थन देंगे।

(2) सिंगापुर सम्मेलन में यह सुझाव दिया गया था कि भारतीय फर्मों को पूर्व-औचित्य अध्ययनों (pre-feasibility studies) में भाग लेने का अवसर उन्हें अपनी कुशलता बढ़ाने तथा सम्बन्धित अधिकारियों से निकट सम्पर्क रखने में सहायक होगा।

(3) सरकार यह अनुभव करती है कि भारतीय फर्मों की एक प्रमुख समस्या है ऊंचे मूल्य के निविदा आवेदन/बाँण्ड्स/निष्पादन गारण्टियाँ प्रदान करने की। इस विषय में वित्त मन्त्रालय सहायता की विस्तृत योजना बना रहा है।

(4) केन्द्रीय सरकार का विचार एक ऐसी उच्चस्तरीय संस्था (super body) की स्थापना करने का है जो कि बैंक प्रायोजनाओं के अन्तर्गत अनुबन्ध प्राप्त करने वाली भारतीय फर्मों के कार्य निष्पादन पर निगाह रखे।

बैंक प्रायोजनाओं के अन्तर्गत अनुबन्धों में भारत का भाग कुल का 5% और अब तक के कुल अनुबन्धों का 2.5% रहा है। भारत ने उपलब्ध अवसरों के केवल 12% के लिए ही आवेदन करे तथा अर्पित किए गए निविदा-आवेदनों का भी 12% ही स्वीकार हुआ। 1986 में एशियाई विकास बैंक द्वारा 100 मिलियन अमरीकी डालर ऋण स्वीकृत किया गया।

एशियाई विकास बैंक ने भारत को वर्ष 1986-87, वर्ष 1987-88 तथा वर्ष 1988-89 में चक्रमश: 321.5 करोड़ रुपये, 592.4 करोड़ रुपये तथा 889.6 करोड़ रुपये के ऋण स्वीकृत किए जबकि भारत इन वर्षों में क्रमशः शून्य, 21.5 करोड़ रुपये तथा 103.7 करोड़ रुपये के ऋणों का ही उपभोग कर सका। वर्ष 1990-91 में ADB से भारत को 801.9 करोड़ रुपये का ऋण स्वीकृत किया गया जबकि वर्ष 1989-90 में स्वीकृत किए गए ऋण की राशि 631.9 करोड़ रुपये थी। लेकिन इन वर्षों में भी भारत द्वारा स्वीकृत ऋण में उपभोग की गयी राशि काफी कम थी। वर्ष 1989-90 में 108.3 करोड़ रुपये तथा वर्ष 1990-91381.1 करोड़ रुपये के ऋणों का उपभोग किया जा सका। वर्ष 1992,93 एवं 94 में भारत को एशियाई बैंक से क्रमश: 25 करोड़, 300 करोड़  एवं 57 करोड़ के ऋण विद्युत परियोजनाओं, पर्यावरण परियोजनाओं, असाधारण वित्तीय अंतरों की पूर्ति एवं ग्राम्य विकास कार्यक्रमों के परिचालन हेतु दिए गए। भारत त्वरित वितरण सहायता के अन्तर्गत ऋण में 15 प्रतिशत की पात्रता रखता है कि निवेदन करने पर इसे स्वीकार नहीं किया गया। भारत इस संस्था का दूसरा सबसे बड़ा सदस्य है परन्तु भारतीय उद्देश्यों की पूर्ति इन आत्मराशि ऋणों से सम्भव नहीं है। भारत की आर्थिक संरचना में सुधार के लिए जिनमें परिवहन, संचार तथा तकनीकी प्रमुख हैं दीर्घकालिक ऋणों की आवश्यकता है जिसे हम ऋणों की मात्रा में वृद्धि करवा कर प्राप्त कर सकते हैं।

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Pankaja Singh

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