इतिहास

सातवाहनों का योगदान | भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के प्रति सातवाहनों के योगदान

सातवाहनों का योगदान | भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के प्रति सातवाहनों के योगदान

सातवाहनों का योगदान (परिचय)

दक्षिण भारत के जिन शासकों ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता में योगदान दिया, उसमें सातवाहन भी महत्त्वपूर्ण हैं। सातवाहन कौन थे, उनका आदि स्थान कहाँ था, उनका अभ्युदय किस प्रकार और कब हुआ आदि प्रश्नों के बारे में इतिहासकार एक मत नहीं हैं। इनके शासनकाल के बारे में भी मतभेद हैं। इस वंश में कितने राजा हुए, इस बारे में पूर्ण विवरण प्राप्त नहीं है। कुछ विद्वान इस वंश का प्रारम्भ 220 ई० पूर्व से 230 ई० तक मानते हैं, लेकिन यह निर्विवाद है कि इस वंश के शासनकाल में चहुंमुखी उन्नति हुई, जिसका वर्णन इस प्रकार है-

I. प्रशासन-

  1. राजा- सातवाहनों का शासन राजतन्त्र था। सभी सातवाहन राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे और धर्मशास्त्रों के अनुसार शासन करना उनका कर्त्तव्य था। राजा को विस्तृत अधिकार प्राप्त थे, वह प्रशासन, सेना और न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था, लेकिन वह निरंकुश और स्वेच्छाचारी नहीं होता था। सातवहनों की शासन प्रणाली पर्याप्त मात्रा में मौर्य शासन प्रणाली पर आधारित थी।

राजा के ज्येष्ठ पुत्र को ‘युवराज’ कहा जाता था, परन्तु वह देश के प्रशासन में कोई सक्रिय भाग नहीं लेता था। उसकी तथा अन्य राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध था। प्रायः राजघराने के लोगों को ही प्रान्तों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता था।

  1. मन्त्रिपरिषद्- रुद्रदामन और जूनागढ़ के अभिलेखों से पता चलता है कि सातवाहनों के युग में मन्त्रिपरिषद् व्यवस्था प्रचलित थी। यह व्यवस्था मुख्यतः मौर्य व्यवस्था पर आधारित थी। मन्त्रियों का वर्गीकरण किया गया था और प्रत्येक मन्त्री के पास एक विभाग रहता था। राज्यों के मामलों में राजा प्रायः मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर चलता था, यद्यपि अन्तिम निर्णय उसके हाथ में रहता था। मौर्य युग की भाँति इस युग में भी नगर और ग्रामों में लोकतान्त्रिक स्वायत्त निकाय थे।
  2. प्रान्तीय शासन- सामन्तों के अधीन रहने वाले प्रदेशों को छोड़कर शेष समस्त राज्य को “जनपदों” और “आहारों’ में विभाजित कर दिया गया। समस्त केन्द्रीय तथा प्रान्तीय शासन अमात्यों के द्वारा होता था। महाभोज, महारथी, महासेनापति प्रान्तों के शासक थे।
  3. स्थानीय शासक- नगरों का शासन नगरपालिकाओं तथा गाँवों का प्रशासन ग्राम सभाओं द्वारा संचालित होता था। गाँव का मुखिया ग्रामक होता था तथा उसकी सहायता के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे। गाँवों में ग्राम सभाएं होती थीं जिनके माध्यम से राजाओं और ग्रामवासियों के बीच सहयोग स्थापित होता था। इस युग के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस समय ग्राम, श्रेणी, निगम तथा जनपदों के अपने-अपने निकाय होते थे, जिनके भिन्न-भिन्न और निश्चित कर्त्तव्य तथा अधिकारी होते थे।

II. आर्थिक स्थिति-

  1. कृषि- सातवाहन काल में भी आजीविका का मुख्य साधन कृषि ही था और इसके साथ पशु-पालन भी व्यापक रूप से किया जाता था। कृषि प्रायः वर्षा पर निर्भर थी। राज्य द्वारा नहरों, तालाबों आदि द्वारा सिंचाई की व्यवस्था थी।
  2. उद्योग-धन्धे- सातवाहन युग में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे प्रचलित थे। जिनके लिए अनेक श्रेणियाँ या सामूहिक संस्थायें संगठित कर ली गई थीं। जुलाहों, तेलियों, बर्तन बनाने वालों, लोहारों, बाँस की वस्तुएँ बनाने वालों, मछुओं, बुनकरों आदि ने अपने-अपने संगठन या समितियाँ बना ली थीं। ये श्रेणियाँ लोगों का रुपया जमा करती थीं तथा अपने धन का विनियोग अनेक कार्यों में करती थीं। इस प्रकार ये श्रेणियाँ आधुनिक बैंकों का कार्य करती थीं। लोग उनमें धन जमा कराकर ब्याज वसूल करते थे।
  3. व्यापार- सातवाहन युग में आन्तरिक और विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में थे। भड़ौच, कल्याण और सोपारा व्यापारिक बन्दरगाह थे। भारत का विदेशी व्यापार अरब देशों, मिस्त्र, रोम आदि से होता था। भारत के विभिन्न भागों में उस समय के रोम के सिक्के प्राप्त होना सिद्ध करता है कि उसके साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध थे। रोम को मसाले, वस्त्र, सुगन्धियाँ, हाथी दाँत का सामान, मोती, औषधियाँ आदि निर्यात की जाती थीं। बर्मा, सुमात्रा, जावा, चम्पा, चीन आदि के साथ भी भारत का घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था।
  4. देश के अन्दर नासिक, जुनार, प्रतिष्ठान, घनकट, करहाटक आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे। इन व्यापारिक मण्डियों में कच्चे और निर्मित माल का क्रय-विक्रय होता था। रुपया उधार लेने-देने की प्रथा प्रचलित थी। ब्याज लेने-देने का प्रचलन था। ब्याज की दरें आजकल की अपेक्षा अधिक थीं।
  5. यातायात के साधन- देश के प्रमुख नगरों और व्यापारिक मण्डियों को मिलाने वाली सड़कें बनी हुई थीं। इन सड़कों से वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। आवागमन के लिए नदियों के उपयोग के सम्बन्ध में प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन विदेशी व्यापार में जहाजों का प्रयोग होता था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि नावों का भी देश के अन्दर प्रयोग अवश्य होता होगा।
  6. मुद्रा- सातवाहन काल में सिक्कों का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। इस काल में यहाँ विभिन्न प्रकार की मुद्रायें प्रचलित थीं। जिनमें सोने (स्वर्ण) की मुद्रा सबसे अधिक बहुमूल्य होती थी। चाँदी के सिक्के को ‘कुषण’ कहा जाता था। चाँदी और ताम्बे के छोटे-छोटे सिक्के दैनिक व्यवहार के लिए थे।

III. सामाजिक स्थिति-

  1. वर्ण व्यवस्था- समाज में वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी। समाज चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित था। समाज में ब्राह्मणों का सबसे अधिक सम्मान था। इन चार वर्षों के अतिरिक्त अन्य अनेक जातियों का भी उदय हो चुका था। निम्न वर्ग के लोगों की दशा भी सन्तोषजनक,थी।
  2. वर्ग विभाजन- सातवाहन युग में समस्त समाज चार वर्गों में विभक्त हो गया था जो वर्गों के ही विस्तृत रूप थे। उच्च श्रेणी में “महारथी”, ‘महाभोजन” और “महासेनापति’ आते थे, सामन्त भी इसी वर्ग के थे। दूसरी श्रेणी में “अमात्य” “महामात्र” और “भण्डारागारिक’ आदि कर्मचारी आते थे, व्यापारी (श्रेष्ठिन) इसी वर्ग के थे। तीसरे वर्ग लेखक, वैद्य, कृषक, गन्ध-द्रव्य के व्यापारी आदि थे। अन्तिम वर्ग में बढ़ई, लोहार, माली, मछुए आदि आते थे।
  3. स्त्रियों की दशा- सातवाहन काल में समाज में स्त्रियों का आदर था। आवश्यकता पडने पर शासन की बागडोर भी वे सम्भाल लेती थीं। माता के स्थान पर आधारित नाम जैसे गौतमीपुत्र शातकर्णि, वासिष्ठिपुत्र पुल भावों आदि स्त्रियों की गौरवपूर्ण स्थिति का संकेत करते हैं। स्त्रियों की शिक्षा का प्रबन्ध था और वे धार्मिक कृत्यों में भाग लेती थीं। पर्दा-प्रथा के प्रमाण नहीं मिलते हैं। विधवाओं का जीवन कष्टपूर्ण नहीं था। अन्तर्जातीय विवाहों को अच्छा नहीं समझा जाता था, यद्यपि ऐसे कई विवाहों के उल्लेख मिलते हैं।
  4. व्यापक दृष्टिकोण- इस युग के सामाजिक जीवन में संकीर्णता नहीं थी। वर्ण-व्यवस्था लचीली थी। अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित थे। डॉ० विमलचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि ऐसा प्रतीत होता है कि विदेशी जातियों का अधिकाधिक भारतीयकरण हो रहा था और वे भारतीय नाम और संस्कृति को ग्रहण कर भारतीय समाज में घुल-मिल रहे थे।”

IV. धार्मिक स्थित-

  1. ब्राह्मण धर्म- शुंग काल की तरह सातवाहन काल में भी ब्राह्मण धर्म की प्रगति हुई। इस युग में कई प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे। कहा जाता है कि शातकर्णि प्रथम ने दो अश्वमेध व एक राजसूय यज्ञ किये थे। इस काल में कर्मकाण्ड बहुत बढ़ गया था, दान (दक्षिणा) का बहुत प्रचलन था।

वैष्णव और शैव मतों की भी इस काल में उन्नति हुई। इस युग के अभिलेखों में “विष्णुपालिव’, ‘विष्णुदत्त’, ‘गोपाल” आदि वैष्ण धर्म की प्रतिष्ठा सिद्ध करते हैं। इसी प्रकार “शिव मूर्ति”, ‘स्कन्ध” आदि शैव मत का व्यापक प्रचलन सिद्ध करते हैं। नदी, नाग आदि देवताओं को भी पूजा जाता था। तीर्थ स्थानों पर स्नान करना और ब्राह्मणों को दान देना आदि पवित्र कार्य माने जाते थे।

  1. धार्मिक सहिष्णुता- सातवाहन राजा ब्राह्मण धर्म के कट्टर अनुयायी और पोषक अवश्य थे लेकिन अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं थे। बौद्ध धर्म भी उस काल में पनपता रहा। कई सातवाहन राजा इस धर्म के प्रति अति उदार थे और इसे राजकीय सहायता भी दी गई। इस काल की बौद्ध गुफाओं तथा नासिक, विदिशा, कुदा आदि के अभिलेख और अमरावती घण्टाशाला आदि के स्तूप इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। बौद्ध धर्मानुयायी अपने धर्म का प्रचार करने के लिए स्वतन्त्र थे। बौद्ध मठ सम्पन्न थे। सातवाहन नरेशों की इस सहिष्णुता की नीति बौद्ध धर्म भारत से लुप्त नहीं हुआ, बल्कि ठोस रूप में पनपता रहा। ब्राह्मण, बौद्ध, जैन सभी मिल-जुलकर रहते थे। इस समय अनेक विदेशियों ने हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया था। ‘कोल अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि सिद्धध्वज तथा धर्म नामक दो यवनों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी का कथन है कि ”सातवाहनों के सहिष्णु शासन काल में ब्राह्मण और बौद्ध दोनों धर्मों की उन्नति हुई। विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी परस्पर सहिष्णुतापूर्वक रहते थे। विदेशी ब्राह्मण अथवा बौद्ध धर्म में दीक्षित हो जाते थे और वे धीरे- धीरे हिन्दू समाज में घुलते-मिलते जा रहे थे।”

V.कला-

सातवाहन युग की स्थापत्य, मूर्ति और चित्रकलायें पर्याप्त विकसित थीं। देश में कई विशाल और सुन्दर भवनों का निर्माण हुआ, जिन पर उच्चकोटि की पॉलिश की गई। इससे भवन काफी चमकीले हो जाते थे। पर्वतों को काटकर गुफाओं का निर्माण इस काल की स्थापत्य कला की विशेषता है। नासिक, कार्ले और भाजा के गुहा विहार तथा गुहा चैत्य इस युग की स्थापत्य कला के सुन्दर उदाहरण हैं। डॉ० पी० एल० भार्गव का कथन है कि ‘सातवाहन-युग की कलाकृतियों में उड़ीसा की उदयगिरि और खण्डगिरि नामक पहाड़ियों के गुहाभवन भी उल्लेखनीय हैं। इन गुहाओं की संख्या 35 से ऊपर है, परन्तु इनमें आकार और अलंकरण की दृष्टि से अधिक उल्लेखनीय खण्डगिरि की अनन्त गुफा और उदयगिरि की रानी गुम्फा, गणेश गुम्फा, हाथी गुम्फा आदि गुहाएँ हैं। इनमें रानी गुम्फा समस्त गुहाओं में बड़ी और अधिक अलंकृत हैं।”

VI. साहित्य

साहित्यिक दृष्टि से यह काल प्राकृत भाषा व उसके साहित्य के विकास का काल था। सातवाहन शासकों के समस्त अभिलेख इसी भाषा में प्राप्त हुए हैं। इस वंश का हाल नामक राजा उच्च कोटि का कवि और साहित्यकार था। उसने प्राकृत भाषा में “गाथा सप्तशती” नामक एक काव्य ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमें शृंगार रस की प्रधानता है। राजदरबार द्वारा लेखकों, कवियों और विद्वानों को संरक्षण दिया जाता था। इसी युग में गुणाढ्य ने “वृहत् कथा’ की रचना की। “सर्व-वर्मन” नामक एक विद्वान् के द्वारा एक व्याकरण ग्रन्थ “कातन्त्र’ की रचना भी इस युग में हुई। महाभारत के कुछ अंश और व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक आदि के कुछ ग्रन्थ इसी युग में लिखे गये।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सातवाहन युग में सभ्यता और संस्कृति का पर्याप्त विकास हुआ। इस युग के बारे में अधिक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी प्राप्त प्रमाणों के आधार पर इसे एक उन्नत युग कहा जायेगा।

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Pankaja Singh

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