इतिहास

सातवाहन कुल का संस्थापक | गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियाँ या विजय | गौतमीपुत्र शातकर्णि का चरित्र और मूल्याँकन

सातवाहन कुल का संस्थापक | गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियाँ या विजय | गौतमीपुत्र शातकर्णि का चरित्र और मूल्याँकन

सातवाहन कुल का संस्थापक-

पुराणों के अनुसार सिमुक या शिशुक अथवा सिन्धुक (60-37 ई०पू०) ने शुंगों और कण्वों की शक्ति का उन्मूलन करके गान्ध्रवंश की स्थापना की। यह सिमुक ही सातवाहन कुल का प्रथम नरेश था। शुंगों और कण्वों से सिमुक के सम्भवतः विदिशा के निकट का प्रदेश हस्तगत किया था। उसका राज्य दक्षिणापथ में ही था। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान अथवा पैठन थी जो उत्तरी गोदावरी-तट पर स्थित थी। डॉ० सरकार की राय में इस बात के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि सातवाहनों का अधिकार मगध या उत्तरी भारत के किसी प्रदेश पर था। मध्य या पश्चिमी भारत के कुछ भाग कदाचित् उनके राज्य में सम्मिलित थे, परन्तु यदि शिमुख के राज्य में पश्चिमी भारत का कोई भी जिला शामिल था तो उसने उसे या तो शुंगों या कण्वों से अथवा यूनानियों से जीता था। शिमुख के विषय में हमें किसी अन्य बात का पता नहीं लगता।

कृष्ण- सिमुक के उपरान्त उसका भाई कृष्ण अथवा कन्ह राज्य का अधिकारी हुआ। उसके शासन-काल में सातवाहनों की साम्राज्य-सीमा के कुछ अधिक विस्तृत हो जाने का प्रमाण मिलता है। नासिक के एक शिलालेख से विदित होता है कि उसके समय वहाँ पर गुफा का निर्माण किया गया था। इससे यह सिद्ध होता है कि उसका अधिकार नासिक तक पहुँच चुका था।

शातकर्णि- सिमुक का पुत्र शातकणि सातवाहन-कुल का तृतीय नरेश था। यह एक महान् विजेता और अपने वंश का प्रतापी राजा था। इसने मगध-राज्य के संस्थापक बिम्बिसार की भाँति सैन्य-विजय और वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने की ओर ध्यान दिया। नायानिका के नानाघाट अभिलेख में शातकणि की सफलताओं और विजयों का वर्णन किया गया है। उसे सिमुक के वंश का धन “सिमुक-सिमुकसातवाहनस वंशवधनस” कहा गया है। उसने महाराष्ट्र के महारथी की कन्या से विवाह करके अपने राजनीतिक प्रभाव में अभिवृद्धि की। इस प्रकार वह लगभग सम्पूर्ण दक्षिणापथ का अधिकारी हो गया। नानाघाट अभिलेख में उसे “अप्रतिहत चक्र-दक्षिणापथपति’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने पूर्वी मालवा पर भी अपना नियन्त्रण स्थापित किया। पुष्यमित्र शुंग की भाँति उसने भी दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया और ब्राह्मण धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की। नानाघाट का अभिलेख ही इस विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करता है जिसमें उसके लिए “अश्वमेध यज्ञ-द्वितीय इष्टः’ कहा गया है। साँची अभिलेख से यह प्रमाण मिलता है कि शातकर्णि ने पूर्वी मालवा पर ही विजय प्राप्त की थी। इस बात की पुष्टि उसके सिक्कों एवं पुराणों के इस कथन से भी होती है कि शुंगभृत्य काण्वायन नरेशों के हाथ से निकल कर ‘यह पृथ्वी’ आन्ध्र जातियों के अधिकार में चली जायगी। “ऐसा प्रतीत होता है कि शातकर्णि प्रथम राजकुमार था जिसने सातवाहनों को विन्ध्य-पार भारत के सर्वसत्ताधारक सम्राटों की स्थिति तक उठाया। इस प्रकार से गोदावरी की घाटी में पहले महान् साम्राज्य का उत्थान हुआ जो विस्तार तथा शक्ति में गंगा की घाटी के शुंग साम्राज्य और पंचनद प्रदेश के यूनानी साम्राज्य की बराबरी करता था।” इस शक्तिशाली नृपति को भी अपने एक समकालीन नरेश से लोहा लेना पड़ा। कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से यह प्रमाण मिलता है कि शातकर्णि की शक्ति को कुछ भी न समझते हुए उसने अपने शासन के द्वितीय वर्ष में मुसिक नगर पर आक्रमण कर दिया और सातवाहन-नरेश से बैर ठान लिया। परन्तु इस बैर से सातवाहन वंश के गौरव को कुछ भी धक्का नहीं लगने पाया। खारवेल की शक्ति स्थायी नहीं होने पाई और शातकर्णि का गौरव पूर्ववत् ही बना रहा। किन्तु शातकर्णि के बाद शातवाहन वंश का इतिहास कुछ अन्धकारमय हो जाता है।

गौतमीपुत्र शातकर्णि- गौतमी पुत्र शातकर्णि अपने वंश का सबसे प्रतापी और पराक्रमी राजा था। उसकी माता गौतमी बलश्री के नासिक गुहालेख से उसकी विजयों, शासन- सम्बन्धिनी उसीक योग्यताओं और सफलताओं तथा उसके प्रभावपूर्ण व्यक्तितत्व के प्रशंसनीय गुणों पर काफी प्रकाश पड़ता है। उसके राजनीतिक कार्यों का सबसे अधिक महत्त्व इस बात में है कि उसने अपने वंश के लुप्त गौरव की पुनः प्रतिष्ठापना की और विदेशी आक्रमणकारी शकों को अपनी मातृभूमि से निर्वासित कर दिया। उसने अनेक समकालीन राज्यों से लोहा लिया और उनको युद्ध में पराजित किया। शक-यवन पहलव-क्षहरातों का नाश करके गौतमीपुत्र ने अपने वंश की मान-मर्यादा को बढ़ाया, इसका विवरण नासिक के अभिलेख में प्राप्त होता है। शहरात सरदार नहपान को उसके द्वारा जो पराभव सहना पड़ा, उसकी पुष्टि मुद्रा-साक्ष्य द्वारा भी होती है। हम यह पीछे देख चुके हैं कि नहपान के सिक्के इस बात को सिद्ध करते हैं कि उसका राज्य नासिक और पूना से लेकर मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा राजपूताने में पुष्कर तक फैला हुआ था। जोगलथम्बी से चाँदी के सिक्कों की जो निधि प्राप्त हुई है उसमें बहुत से ऐसे सिक्के मिले हैं जिन पर नहपान की राजमुद्रा के ऊपर गौतमीपुत्र की राजमुद्रा अंकित है, जिससे स्पष्ट होता है कि क्षहरातराज नहपान को उसने पराजित कर दिया था।

प्रारम्भिक जीवन- गौतमीपुत्र शातकर्णि के प्रारम्भिक जीवन के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। नासिक में उसका एक उत्कीर्ण लेख मिला है, जिसमें उसकी विजयों का वर्णन मिलता है, लेकिन उसके जीवन के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं है। उपलब्ध सामग्री के आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि वह एक महान् और पराक्रमी सम्राट था, जिसने सातवाहनों के खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त कर उसे नवजीवन प्रदान किया। वह सातवाहन वंश का सबसे शक्तिशाली तथा पराक्रमी शासक था। उसने सातवाहन वंश की शक्ति तथा गौरव को चरम सीमा पर पहुंचा दिया। उसने लगभग 24 वर्ष (106 ई० से 130 ई०) तक राज किया।

नासिक के अभिलेख से पता चलता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने शक, यवन व पल्लव राजाओं को पराजित किया। उसने क्षत्रियों का नाश किया और अपने वंश की कीर्ति को पुनः स्थापित किया। उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्षत्रप नपहान को परास्त कर उसे समूल नष्ट करना था। उसे नष्ट कर गौतमीपुत्र ने शकों की क्षहरात शाखा का अन्त कर दिया जो उसके साम्राज्य के लिए सदा एक खतरा थी।

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियाँ या विजय

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

(1) शक-विजय- गौतमीपुत्र शातकर्णि ने शकों को परास्त किया, लेकिन इसके लिए उसने राजा बनने के बाद 18 वर्ष तक अपनी शक्ति को संगठित किया। नासिक अभिलेख में उस भूमिदान का उल्लेख है जो शक राज्य के दक्षिण प्रान्त के राज्यपाल तथा शक शासक नहपान के दामाद ऋषभदत्त के अधिकार में थी। इसी प्रकार कार्ली अभिलेख में पूना जिले के करजिक ग्राम को दान में दिये जाने का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शातकर्णि ने उत्तरी महाराष्ट्र में शकों की शक्ति को समाप्त करके सातवाहनों की सत्ता स्थापित की। इसकी पुष्टि जोगलथम्भी मुद्रा-भाण्ड से भी होती है। इस मुद्रा-भाण्ड में ऐसे सिक्के मिले हैं जिन पर नहपान तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के दोनों के नाम अंकित हैं। इससे प्रकट होता है कि शक-नरेश नहपान को पराजित करने के पश्चात् गौतमीपुत्र शातकणि ने उसके सिक्कों पर अपना नाम अंकित करवाया था। शातकर्णि की यह प्रारंभिक सफलता थी।

नासिक प्रशस्ति के अनुसार, 124 ई० में अपने शासन के 18वें वर्ष में वह शकों के विरुद्ध रणयात्रा को निकला था। इस अभियान के फलस्वरूप सौराष्ट्र, गुजरात, नर्मदा नदी पर स्थित महेश्वर क्षेत्र, उत्तरी, कोंकण, पूर्वी मालवा और पश्चिमी मालवा के प्रान्त उसके अधिकार में आ गए। इस अभिलेख के अनुसार निम्नलिखित क्षेत्र उसके अधिकार में थे-

(1) असिक (गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच का प्रदेश)

(2) अश्मक (गोदावरी का तटीय प्रदेश)

(3) मूलक (पैठन के आस-पास का प्रदेश)

(4) सुराष्ट्र (दक्षिणी काठियावाड़)

(5) कुकुर (उत्तरी काठियावाड़)

(6) अपरान्त (उत्तरी कोंकण)

(7) अनूप (नर्मदा नदी के तट पर माहिष्मती का प्रदेश)

(8) आकर (पूर्वी भालवा)

(9) अवन्ति (पश्चिमी मालवा)

(10) विदर्भ (बरार)।

(2) अन्य विजयें- नासिक प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने न केवल शकों पर विजय प्राप्त की अपितु उसने अन्य प्रदेशों को जीतकर सातवाहन राज्य में सम्मिलित कर लिया। ये प्रदेश थे-

(1) ऋषिक (कृष्णा तट पर स्थित ऋषिक के समीप का क्षेत्र)

(2) अश्मक (बोधन के समीप महाराष्ट्र का गोदावरी क्षेत्र)

(3) मूलक (प्रतिष्ठान क्षेत्र-आधुनिक पैथान)

(4) विदर्भ-बरार आदि।

(3) साम्राज्य विस्तार- उपर्युक्त विजयों के परिणामस्वरूप उसके समय में सातवाहन राज्य कृष्णा नदी से लेकर उत्तर में सौराष्ट्र एवं मालवा तक और पूर्व में विदर्भ से लेकर दक्षिण कोंकण तक फैल गया था। त्रावनकोर, पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट तक उसका राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था।

गौतमीपुत्र शातकर्णि का चरित्र और मूल्याँकन

(1) महान् और उदार शासक- शातकर्णि एक महान् विजेता ही नहीं, बल्कि एक महान व्यक्ति भी था। नासिक के अभिलेख में उसके गुणों की विस्तृत चर्चा की गयी है। वह एक बलिष्ठ, सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व वाला अत्यन्त मृदु स्वभाव का व्यक्ति था। वह छोटे- बड़े सबकी सहायता करने को उद्यत रहता था। वह अपनी माता का आज्ञाकारी पुत्र था। वह विद्वानों का आदर करता था और उनका आश्रयदाता था। वह करुणामय था, लेकिन अपने राज्य के शत्रुओं को समूल नष्ट करने में संकोच नहीं करता था।

(2) वीर योद्धा तथा महान् विजेता- गौतमीपुत्र शातकर्णि एक वीर योद्धा और महान् विजेता था। उसने अपने समय के अनेक राजवंशों को परास्त किया और अपने युद्ध-कौशल का परिचय दिया। “नासिक अभिलेख” में उसे “क्षत्रियों के घमण्ड और मान को चूर करने वाला”, “शक, यवन और पहलव का नाश करने वाला”; “युद्ध में अनेक शत्रुओं को जीतने वाला’ कहा जाता है। इस उपाधियों से ज्ञात होता है गौतमीपुत्र शातकर्णि एक पराक्रमी शासक था।

(3) प्रजा वत्सल शासक- शातकर्णि अपनी प्रजा के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख के समान समझता था। उसने जनता पर अधिक कर नहीं लगाये थे। राजद्रोह के अपराधियों के अतिरिक्त वह अन्य अपराधियों से दया का व्यवहार करता था। उसने ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया। उसके शासन-काल में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च हो गया और शातकर्णि ने उनके शत्रुओं का नाश करना अपना पहला कर्त्तव्य समझा। वैदिक धर्म के अनुष्ठानों को उसने स्वीकार कर प्रधानता दी। बौद्ध धर्म और विदेशियों के सम्पर्क के कारण चारों वर्गों में पारस्परिक विवाह होने लगे थे, उन्हें शातकर्णि ने वर्जित कर दिया। समाज में स्त्रियों का उच्च स्थान था, जो इस बात से सिद्ध होता है कि स्वयं शातकर्णि ने अपनी माता गौतमी का पुत्र कहलाने में गौरव का अनुभव किया।

निष्कर्ष-

इस प्रकार हम देखते हैं कि गौतमीपुत्र शातकर्णि एक महान् सम्राट था। ब्राह्मण धर्म का अनन्य उपासक और रक्षक होकर उसने अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं, बल्कि उदारता की नीति अपनाई। उसने बौन्द्रों को चैत्यगृह और विहारों का निर्माण करने के लिए सहायता दी। इतने विशाल साम्राज्य को नियन्त्रित रखना उसकी महान् उपलब्धि है। उसके शासन काल की आर्थिक दशा के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है, फिर भी शातकर्णि के उदार स्वभाव और कुशल प्रशासन के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यापार और उद्योग-धन्धे उन्नत अवस्था में रहे होंगे। उसका विद्वानों को आश्रय देना और उसके काल की साहित्य की रचनायें और उसके शासन काल में हुई कलात्मक उन्नति उसके महान् शासक होने के कारण हैं। डॉ० विमल चन्द्र पाण्डेय ने ठीक ही कहा है, “गौतमीपुत्र शातकर्णि सातवाहन वंश का सबसे बड़ा और सबसे पराक्रमी राजा था।

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Pankaja Singh

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