इतिहास

पुष्यमित्र का उत्थान | पुष्यमित्र का धर्म | पुष्यमित्र शुंग का चरित्र | पुष्यमित्र शुंग की उपलब्धि

पुष्यमित्र का उत्थान | पुष्यमित्र का धर्म | पुष्यमित्र शुंग का चरित्र | पुष्यमित्र शुंग की उपलब्धि

पुष्यमित्र का उत्थान

प्रारम्भिक- पुष्यमित्र ‘सेनापति’ के नाम से प्रख्यात था। इस विरुद से विभूषित होने का कारण कदाचित उसका मौर्य सेना का महासेनापति होना था। अयोध्या-अभिलेख, पुराणों, ‘मालविकाग्निमित्रम्’ तथा ‘हर्षचरित’ में उसके लिए ‘सेनापति’ शब्द प्रयुक्त हुआ है।

अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या- पुष्यमित्र, अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ का सेनापति था। जिस समय बृहद्रथ जीवित था, राजसभा में दो विरोधी गुट सक्रिय थे। एक दल का नेता पुष्यमित्र था तो दूसरे का एक अन्य अमात्य । अपनी क्षमता तथा सैनिकों का विश्वासपात्र होने के कारणं उसने सैन्य-निरीक्षण करते समय बृहद्रथ का वध कर दिया तथा स्वयं को सत्ताधारी घोषित कर दिया।

सिंहासनारोहण तथा राजनैतिक परिस्थितियाँ- बृहद्रथ की हत्या तथा अपने शासक होने की घोषणा करने के साथ ही पुष्यमित्र 184 ई० पू० में सिंहासनारूढ़ हुआ। पुराणों के अनुसार भी मौर्य-साम्राज्य का पतन 184 ई०पू० में हुआ था। प्रतीत होता है कि पुष्यमित्र कतिपय निश्चित योजनाओं तथा उद्देश्यों के अनुसार सिंहासनारूढ़ हुआ था। इस समय की राजनैतिक दशा अत्यन्त गम्भीर तथा संघर्षपूर्ण थी। आन्ध्र, महाराष्ट्र तथा कलिंग पहले ही मौर्य आधिपत्य से स्वतंत्र हो चुके थे तथा अन्य राज्य भी यदाकदा विद्रोह करने लगे थे। पश्चिमोत्तर भारत पर विदेशी आक्रमण के बादल छाये हुए थे। इस प्रकार पुष्यमित्र के समक्ष आन्तरिक कलह, संघर्ष तथा विदेशी आक्रमण की आशंका आदि प्रमुख समस्याएँ थीं।

विदर्भ से युद्ध- पुष्यमित्र के शासन-काल की सर्वप्रथम घटना विदर्भ-युद्ध था। मौर्य अमात्य यज्ञसेन ने विदर्भ में अपनी स्वतन्त्र सत्ता की घोषणा करके पुष्यमित्र को चुनौती दी। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने यज्ञसेन के चाचा माधवसेन को अपनी ओर मिलाकर विदर्भ पर विजय प्राप्त की।

यवनों का आक्रमण- पुष्यमित्र के शासन-काल की दूसरी प्रमुख घटना यवनों का आक्रमण था। पातंजलि के अनुसार, ‘अरुणद्यवनः साकेतम्। अरुणाद्यवन मध्यमिकाम्’ अर्थात् ‘यवनों ने अयोध्या पर आक्रमण किया” तथा “माध्यमिका (चित्तौड़ के निकट की नगरी) पर यवनों ने आक्रमण किया।” (अरुणध यवनः साकेत यवेना माध्यमिका) पातंजलि पुष्यमित्र का राजपुरोहित था अतः यह विवरण सत्य प्रतीत होता है। ‘गार्गी संहिता’ तथा ‘युगपुराण’ के आधार पर यह कहा जाता है कि यवनों ने साकेत, पांचाल और मथुरा पर आक्रमण किया। वे ‘कुसुमध्वज’ (पाटलिपुत्र) तक पहुँच गये। परन्तु हमारे पास कोई ऐसा प्रमाण नहीं जिसके आधार पर यवनों के पाटलिपुत्र पर आक्रमण के परिणाम का पता चल सके। उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पुष्यमित्र के शासनकाल में यवनों के दो आक्रमण हुए थे-

यवनों का पहला आक्रमण- कहा जाता है कि प्रथम यूनानी आक्रमण का नेता डेमेट्रियस था। यह आक्रमण पुष्यमित्र के सिंहासनारूढ़ होते ही हुआ। गार्गी संहिता में इस युद्ध के विषय में कहा गया है कि-

ततः साकेतमाक्रम्य पांचालान् माथराँस्तथा।

यवनाः दुष्ट विक्रान्ताः प्राप्स्यन्ति कुसुमध्वजम् ।।

सत्र पुष्यपुरे प्राप्ते कर्दमे प्रथिते हिते।

आकुला विषयाः सर्वे भविष्यन्ति न संशयः।।”

‘युग पुराण’ में भी ऐसी ही बात कही गई है। साकेत, पाँचाल एवं मथुरा को विजित करके यवन कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) तक पहुँच गये। इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि डेमेट्रियस तथा पुष्यमित्र में पारस्परिक संघर्ष हुआ अथवा नहीं। परन्तु यूनानी लेखों से यह पता चलता है कि इसी समय डेमेट्रियस के स्वदेश बैक्ट्रिया में यूक्रेटाइडस ने विद्रोह कर दिया तथा डेमेट्रियस को पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने से पहले ही वापस प्रस्थान करना पड़ा।

यवनों का दूसरा आक्रमण- इस युद्ध का वर्णन ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में मिलता है तथा यह आक्रमण अथवा युद्ध पुष्यमित्र की वृद्धावस्था में हुआ था। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का अश्व स्वतन्त्र विचरण करता हुआ जब सिन्धु के दक्षिण तट पर पहुँचा तो यवनों ने उसे पकड़ लिया। परिणामस्वरूप युद्ध हुआ तथा पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र ने यवनों को पराजित करके अश्व को छुड़ा लिया। इस युद्ध में यवनों का सेनापति मिनेन्डर था। डॉ० स्मिथ के मतानुसार यह संघर्ष 155 ई०पू० तथा 153 ई०पू० के मध्य हुआ था।

यद्यपि यवनों के उपर्युक्त आक्रमणों के विषय में पर्याप्त मतभेद हैं तथापि इतना निश्चित है कि यवन अधिक समय तक अपना अधिकार स्थापित नहीं रख पाये। गार्गी संहिता के अनुसार पारस्परिक कलह तथा गृहयुद्ध के कारण यूनानी अपने ही राज्यों के झंझटों में फंसे रहे।

अश्वमेध यज्ञ- पुष्यमित्र ने यवनों के आक्रमणों को असफल करके अपनी विजय की घोषणास्वरूप अश्वमेध यज्ञ किया। अयोध्या से प्राप्त अभिलेखानुसार पुष्यमित्र ने दोनों आक्रमणों में विजय प्राप्त करके दो अश्वमेध यज्ञ किये। पहला अश्वमेध यज्ञ पुष्यमित्र यवनों के प्रथम आक्रमण में सफलता के उपलक्ष्य में किया गया। दूसरा अश्वमेध यज्ञ पुष्यमित्र की बृद्धावस्था में हुआ था। कालिदास कृत ‘मालविकाग्निमित्रम्’ के अनुसार यह यज्ञ उस समय हुआ था जबकि सम्पूर्ण मध्य भारत में पुष्यमित्र की धाक जम चुकी थी। ‘महाभाष्य’ के “इहं पुष्यमित्रं याजयामः” से स्पष्ट होता है कि इस यज्ञ में स्वयं पातंजलि ने पुरोहिताई की थी। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने अश्वमेध के अश्व के प्रधान रक्षक के रूप में अपने पौत्र वसुमित्र को नियुक्त किया। अश्व स्वतन्त्र विचरण करता हुआ जब सिन्धु नदी के दक्षिणी तट पर पहुँचा तो यवन सेना ने उसे पकड़ लिया। घोर संग्राम के पश्चात् वसुमित्र ने यवनों को मार भगाया तथा अश्व को पुनः प्राप्त कर लिया। इसके बाद अश्व के स्वतन्त्र विचरण के उपरान्त पुष्यमित्र ने अश्वबलि देकर यज्ञ की पूर्णाहुति की।

पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेध यज्ञों के सम्पादन के विषय में डॉ० के०पी० जायसवाल का मत है कि पुष्यमित्र ने दूसरा अश्वमेध यज्ञ कलिंगराज खारवेल से पराजित होने के बाद किया। परन्तु अभी हाल. के शोधकार्यों के परिणामस्वरूप डॉ० जायसवाल का मत अमान्य हो गया है।

क्या कलिंग-नरेश तथा पुष्यमित्र के बीच संघर्ष हुआ था?- कलिंगराज खारवेल ने हाथीगुम्फा-लेख के आधार पर कतिपय इतिहासकारों की मान्यता है कि पुष्यमित्र तथा खारवेल के बीच युद्ध हुआ था। डॉ० स्मिथ का मत है कि खारवेल ने पुष्यमित्र के शासन काल में ई० पू० 165 तथा ई० पू० 161 में दो बार आक्रमण किया। डॉ० स्मिथ के मत का आधार हाथीगुम्फा का अभिलेख है। श्री एलेन तथा प्रो० आर०पी० चन्दा का मत है कि हाथीगुम्फा-अभिलेख के अनुसार खारवेल ने पुष्यमित्र को नहीं वरन् वृहस्पतिमित्र को पराजित किया था। वृहस्पतिमित्र तथा पुष्यमित्र को एक व्यक्ति नहीं माना जा सकता। क्योंकि पुष्यमित्र का शासनकाल 184 ई०पू० से148 ई०पू० तक रहा जबकि खारवेल का शासनकाल प्रथम शताब्दी ई०पू० में माना जाता है। अतः पुष्यमित्र एवं खारवेल में संघर्ष की बात असंगत तथा निरर्थक है। यह सारी बात एक ही आधार पर है कि इस अभिलेख में याध्येयमित्र अथवा आमित्र का अंकन है, जिसे कुछ लोगों ने पुष्यमित्र भी पढ़ा है जो भ्रामक तथ्यों पर आधारित है।

राज्य-विस्तार- मध्य भारत को अपने अधीन करके पुष्यमित्र ने पश्चिमी प्रदेशों की ओर प्रस्थान किया। दिव्यावदान तथा तारानाथ के अनुसार पंजाब के जालन्धर-स्ल्यालकोट (साकल) पर उसका अधिकार था। दक्षिण-पश्चिम में अवन्ति तथा दक्षिणी सीमा पर विदिशा उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे । दक्षिण-पूर्व में कलिंग पहले ही स्वतन्त्र होकर अब भी मगध- साम्राज्य से बाहर था; अतः इस ओर पुष्यमित्र का विस्तार कलिंग की सीमा तक था। अयोध्या-अभिलेख के अनुसार पूर्व में कोसल पर पुष्यमित्र का अधिकार था।

पुष्यमित्र का धर्म-

एक लेखक के अनुसार, “ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से मौर्यों को अहिंसावादी नीति तथा अन्तिम मौर्य-शासकों को राजनीतिक दुर्बलता के कारण भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्रीयता को गहरा आघात पहुँचा था। जिन आशाओं तथा अभिलाषाओं से चाणक्य ने मौर्य-साम्राज्य के उदय में प्रमुख सहयोग किया, उत्तरकालीन मौर्य-शासकों को धार्मिक नीति के कारण वह निराशा तथा द्विविधा में परिणत हो गई; फलस्वरूप पुष्यमित्र तथा उसके समर्थक ब्राह्मणों के शस्त्र धारण करके सत्ता पर अधिकार जमा लिया।’ तत्कालीन धार्मिक तथा राजनैतिक स्थिति के कारण जो बात प्रमुख रूप से उभर कर सामने आई-वह यह थी कि अब ब्राह्मणों ने अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त किया। बृहद्रथ की हत्या तथा पुष्यमित्र द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों का सम्पादन किया जाना-ब्राह्मण-व्यवस्था के पुनरुत्थान का प्रमाण है।

पुष्यमित्र स्वयं ब्राह्मण था तथा ब्राह्मण-व्यवस्था में उसे घोर आस्था थी। उसने अपने धर्म को प्रगति के मार्ग पर ला खड़ा किया। मनु तथा पातंजलि-जैसे प्रकाण्ड ब्राह्मण उसके समकालीन तो थे ही, साथ ही वे पुष्यमित्र के अति निकट भी थे। मनु ने वेदों तथा ब्राह्मण धर्म की श्रेष्ठता प्रमाणित की तो पातंजलि ने ‘महाभाष्य’ की रचना करके देवभाषा संस्कृत को बोधगम्य बनाया। पुष्यमित्र के समय में महाभारत का परिवर्द्धन भी किया गया। पुष्यमित्र के काल की इन सब विशेषताओं तथा उपलब्धियों के आधार पर यह कहना पूर्णता उचित है कि इस समय ब्राह्मण धर्म ने अपने विस्मृत गौरव को पुनः प्राप्त कर लिया था।

पुष्यमित्र तथा बौद्ध धर्म-

बौद्ध धर्म के ग्रन्थकारों ने प्रायः अपने विरोधी या उस व्यक्ति को, जिसे वे पसन्द नहीं करते, अनेक अतिरंजित रूप दिये हैं। उदाहरण के लिए; दिव्यावदान के अनुसार पुष्यमित्र ने कहा था-‘यो में श्रमणशिरो दास्यति तस्याहं दीरशतांदास्यमि’ अर्थात् “जो व्यक्ति मुझे श्रमण का सिर देगा उसे मैं सौ दीनार दूंगा।” तिब्बती लेखक तारानाथ के अनुसार, ‘पुष्यमित्र शुंग ने मध्य प्रदेश से लेकर जालन्धर तक बहुसंख्यक बौद्धों की हत्या की तथा उनके स्तूपों और विहारों को नष्ट-भ्रष्ट किया।” यह सत्य है कि पुष्यमित्र कट्टर ब्राह्मण था। परन्तु उसने बौद्ध-विहारों या बौद्ध-अनुयायियों को जो क्षति पहुँचायी थी उसका कारण बौद्धों की राजनैतिक चालें थीं। ऐसा कहा जाता है कि पुष्यमित्र की ब्राह्मणवादी नीति से असन्तुष्ट होकर अनेक बौद्ध-मतानुयायी तथा भिक्षु यवनों के साथ मिलकर उसका विरोध कर रहे थे। इस विषय में श्री ई०पी० हेवेल ने कहा है कि पुष्यमित्र शुंग के केवल उन्हीं बौद्धों का दमन किया जो अपने संघों तथा विहारों में उसके विरुद्ध राजनैतिक षड्यंत्र रच रहे थे।

पुष्यमित्र को बौद्ध-विरोधी बताने वाले समस्त उल्लेख केवल बौद्ध-ग्रंथ में ही मिलते हैं। अन्य कोई ऐसा साक्ष्य प्राप्त नहीं है जो उसे बौद्ध-विरोधी प्रमाणित कर सके। इसके विपरीत विदिशा के निकट भरहुत में अनेक बौद्ध-स्तूपों के निर्माण में उसके द्वारा दान दिया जाना, यह प्रमाणित करता है कि वह धर्म सहिष्णु था। इस विषय में डॉ० रायचौधरी ने वास्तविकता को स्पष्ट करते हुए लिखा है-

“Though staunch adherent of Orthodox Hinduism, the Sungas do not appear to have been so intolerant as some writers represent them to be.”

पुष्यमित्र की धार्मिक सहिष्णुता-

यह कहना तथा मानना सही है कि पुष्यमित्र ब्राह्मण धर्म का संरक्षक तथा समर्थक था, परन्तु वह मतान्ध नहीं था। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया था। उसकी सहिष्णुता को प्रमाणित करने के लिए हम निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत कर सकते हैं-

(1) उसके राज्य में अनेक स्तूप थे, तथा उसके समय में भरहुत, साँची एवं बोध गया के स्तूपों का विस्तार किया गया।

(2) दिव्यावदान के अनुसार पुष्यमित्र के अनेक मन्त्री बौद्ध थे।

(3) पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र (जो विदिशा का प्रान्तीय शासक था), की प्रान्तीय राजसभा में कौशिकी नामक बौद्ध मतावलम्बी नारी को उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यदि पुष्यमित्र बौद्ध विरोधी होता तो इसकी अनुभूति न देता।

इस प्रकार हमें यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि पुष्यमित्र धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास रखता था।

पुष्यमित्र का मूल्यांकन-

संकटापन्न परिस्थितियों में सफलता प्राप्त करके, पुष्यमित्र ने न केवल आन्तरिक सुव्यवस्था स्थापित की वरन् उसने विदेशी आक्रमणों से भी भारत की रक्षा की। वह कुशल, दूरदर्शी तथा महत्वाकांक्षी शासक था। अपनी योग्यता, चारित्रिक बल तथा सैनिक गुणों के कारण उसने मौर्य सेना के समक्ष मौर्य शासक की हत्या करके भारत की राजनीतिक दशा को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। अपने शासनकाल में वह विपदाओं तथा आपत्तियों से लड़ते हुए सफलता प्राप्त करता डा। विशाल साम्राज्य का निर्माण करके भी उसने सम्राट की उपाधि को त्याज्य समझा तथा ‘सेनापति’ के नाम से सम्बोधित किया जाना ही स्वीकार किया। यह उसकी निस्वार्थ प्रवृत्तियों तथा लगन का प्रमाण है। वह केवल वीर तथा पराक्रमी ही नहीं, वरन् साहित्य तथा कला का भी प्रेमी था। उसके समय की साहित्यिक कृतियों में ‘मनुस्मृति’ तथा ‘महाभाष्य’ विशेष उल्लेखनीय हैं। ब्राह्मण व्यवस्था का अनुयायी होकर भी उसने धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग अपनाया। डा० राय चौधरी ने उसका मूल्यांकन करते हुए लिखा-‘पुष्यमित्र भारत के इतिहास में और विशेष रूप से मध्य भारत के राज्य में एक महत्त्वशाली युग का प्रवर्तक था।”

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Pankaja Singh

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