अर्थशास्त्र

सार्वजनिक उपक्रमों की समस्यायें | सार्वजनिक उपक्रमों की समस्या समाधान के लिए सुझाव

सार्वजनिक उपक्रमों की समस्यायें | सार्वजनिक उपक्रमों की समस्या समाधान के लिए सुझाव

सार्वजनिक उपक्रमों की समस्यायें एवं समाधान के लिए सुझाव

(Problems of Public Enterprises and Suggestions for their Solution)

योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्रों का तेजी से विकास होने के साथ ही इस क्षेत्र की कुछ समस्याएँ भी उभर कर सामने आयी हैं, जो सार्वजनिक क्षेत्र के विकास में बाधक बनी हैं। सार्वजनिक उपक्रमों की मुख्य समस्यायें निम्न हैं-

(1) राजकीय उपक्रमों से आवश्यकता से अधिक आशायें-

भारत में एक ओर तो राजकीय उपक्रमों मे जन-साधारण का आस्था का अभाव है और दूसरी और इनसे बड़ी-बड़ी आशायें की गयी हैं। यह स्थिति अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होती है। राजकीय व्यवस्था तथा उद्योग जब जन-साधारण के आशानुकूल परिणाम नहीं दिखा पाते तो जन-साधारण का विश्वास खो देते हैं। निजी उपक्रमों में लाभ प्राप्ति के लिए इन्तजार किया जा सकता है जबकि सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना के साथ ही हम उनसे लाभ चाहते हैं। यह स्थिति विकास को कम करती है।

(2) कर्मचारियों की निष्ठा का अभाव-

भारतीय राजकीय उपक्रमों को प्रारम्भ से ही अपने कर्मचारियों के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। व्यवसाय अथवा उद्योग के राजकीय क्षेत्र में आते ही कर्मचारी वर्ग की मांगों का दायरा बढ़ जाता है तथा कार्यकुशलता का हास्स होने लगता है। इससे एक ओर उत्पादन और लाभ की मात्रा प्रभावित होती है तो दूसरी ओर कर्मचारी वर्ग की मांगों की पूर्ति खर्चों को बढ़ाकर उत्पादन लागत और वस्तु अथवा सेवा मूल्यों को अधिक कर देती है।

(3) औद्योगिक इकाइयों का गलत चुनाव-

सार्वजनिक क्षेत्र में इकाइयों के आकार उत्पादन, क्षमता, मांग तथा स्थान आदि का चुनाव सावधानीपूर्वक नहीं किया गया है, ऐसे स्थान पर भी औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित की गयी हैं जो आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं हैं। तकनीकी सहयोग की दृष्टि से ज्यादा उन्नत नहीं हैं। अतः इकाई का चुनाव आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए जिससे उत्पादन लागत में कमी आ सके।

(4) प्रबन्ध की समस्या-

किसी औद्योगिक इकाई की सफलता उसके प्रबन्ध की कुशलता व योग्यता पर निर्भर करती है। भारत में योग्य प्रबन्ध का अभाव रहा है। निजी क्षेत्र में कुछ योग्य प्रबन्धक जरूर उपलब्ध हुए हैं लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में यह समस्या बनी हुई है। प्रबन्ध की अकुशलता के कारण उद्योगों में गलत निर्णय लेना, विलम्ब, नौकरशाही व लालफीताशाही सिद्ध हुई है। सार्वजनिक क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण भी स्वतन्त्र निर्णय नहीं लिये जा सकते हैं।

(5) सरकार का अत्यधिक नियन्त्रण-

भारत के सार्वजनिक उद्योगों में अत्यधिक सरकारी नियन्त्रण तथा हस्तक्षेप प्रमुख दोष है। यह नियन्त्रण तथा हस्तक्षेप राजकीय उपक्रमों के अधिकारियों की पहल शक्ति एवं अनुप्रेरणा को प्रभावित करती है तथा उनमें उपेक्षा की भावना उत्पन्न हो जाती है जिससे उपक्रम की कार्यक्षमता प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाती।

(6) नैतिक मूल्यों का अभाव-

भारतीय उपक्रम अनेक अनैतिकताओं से ग्रसित देखे गये हैं। अनावश्यक सामग्रियों तथा उपकरणों का जमाव, सामग्री एवं उपकरणों की चोरी और चोरबाजारी, आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों की नियुक्ति आदि अनेक दोष ऐसे हैं जिनके निवारण के बिना न तो उत्पादन की लागत कम की जा सकती है और न ही कार्यकुशलता व लाभों को बढ़ाया जा सकता है।

(7) स्वायत्तता का अभाव-

सार्वजनिक उपक्रम के प्रबन्धकों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान नहीं की जाती। सार्वजनिक उपक्रमों की कार्यप्रणाली सरकारी तन्त्र की कार्यप्रणाली काफी मिलती-जुलती है। इसका प्रमुख कारण सार्वजनिक उपक्रमों में राजकीय पदाधिकारियों की बाहुल्यता का होना है। सार्वजनिक उपक्रमों में लालफीताशाही का बोलबाला बना रहता है। सरकारी नियन्त्रणव हिसाब-देयता के कारण भी प्रबन्धकों की स्वायत्तता सीमित हो जाती है।

(8) अप्रयोजित उत्पादन क्षमता-

भारतीय उद्योगों में अप्रयोजित उत्पादन क्षमता की समस्या बनी रहती है। कच्चे माल का अभाव, बिजल की कमी व औद्योगिक अशांति के कारण कारखानों की उत्पादन क्षमता का पूर्ण प्रयोग नहीं हो पा रहा है। 1965-66 में रांची हैवी मशीन विल्डिंग प्लान्ट की क्षमता का केवल 15% ही उपयोग हो पाया। 1969 में हिन्दुस्तान मशीन टूल्स की क्षमता का 45 से.48%, हिन्दुस्तान स्टील का 60% व भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स की क्षमता का 29% भाग ही प्रयोग में लाया गया। इस अप्रयोगिक क्षमता के कारण उद्योग के स्थायी खर्चें अधिक रहते हैं जिससे प्रति इकाई उत्पादन लागत बढ़ जाती है।

(9) निर्माण में अधिक समय-

सामान्य रूप से यह देखा गया है कि सार्वजनिक इकाइयों का आकार बड़ा होने से इनके निर्माण में एक लम्बा समय लग जाता है। औसत रूप से एक इकाई के निर्माण में एक लम्बा समय लग जाता है। इतने लम्बे समय बाद यह इकाई उत्पादन चालू करती है। इस निर्माण अवधि में इकाई पर अधिक विनियोग का कोई उपयोग नहीं हो पाता।

(10) नीति सम्बन्धी समस्या-

सार्वजनिक उपक्रमों के संचालन के लिए अलग-अलग संगठन व्यवस्था है, जैसे- बोर्ड, निगम व कम्पनियाँ इत्यादि संगठन सम्बन्ध भित्रता के कारम विभिन्न उपक्रमों के लिए अपनायी जाने वाली नीतियाँ समन्वित नहीं हो पायी हैं। समन्वित नीतियों के अभाव में उपक्रमों की सफलता संदिग्ध रहती है।

(11) उचित मूल्य निर्धारण की समस्या-

कुल आवश्यक वस्तुओं के उत्पाद में सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार होता है। ऐसी एकाधिकारी स्थिति में मूल्यों के निर्धारण के समस्या आती है। सरकारी उपक्रमों का उद्देश्य लाभ न होकर सेवा करना है। इसलिए ऐसे मूल्य निर्धारित किये जायें जिनसे न तो उपक्रम को हानि हो और न ही उपभोक्ता को कठिनाई

(12) कुशल अंकेक्षण का अभाव-

सार्वजनिक उपक्रमों का अंकेक्षण ऑडिटर एण्ड कन्ट्रोलर जनरल द्वारा किया जाता है। आधुनिक अंकेक्षण केवल वित्तीय अंकेक्षण होता है, जिसमें केवल यह बात देखी जाती है कि व्यय नियमों के अनुसार हो रहा है या नहीं। उपक्रमों की कार्यकुशलता के सम्बन्ध में कोई अंकेक्षण व्यवस्था नहीं है।

(13) घाटे की समस्या-

सामान्य रूप से यह देखने में आया है कि अधिकांश सरकारी उपक्रम घाटे पर चलते हैं। इस कारण उनके वित्तीय साधनों में कमी आती है और उपक्रम शिथिल हो जाते हैं। हिन्दुस्तान स्टील लि0 भारत सरकार का सबसे बड़ा उपक्रम है, उसमें लगभग 1,400 करोड़ रु0 की पूँजी लगी हुई है, अब तक उसमें 200 करोड़ रु0 का घाटा हो चुका है।

(14) राजनीतिक अखाड़ेबाजी-

सार्वजनिक उपक्रम के माध्यम से राजनितिक दल भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में नहीं चूकते। सत्तारूढ़ दल, सार्वजनिक उपक्रमों के स्थान के चयन, संचालक मण्डल के संगठन, पूँजीगत सम्पत्तियों के क्रय, ठेका प्रदान करने आदि में कभी-कभी आर्थिक एवं व्यावसायिक हितों की अनदेखी करते हैं। दूसरी ओर विरोधी दल, लोक उपक्रम की असफलता के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, उनकी दृष्टि में लोक उपक्रम को असफल बनाकर सरकार को सुगमता से नीचा दिखा सकते हैं।

(15) अधिक श्रम-शक्ति-

सार्वजनिक उपक्रमों में अधिक श्रम-शक्ति की समस्या बनी रहती है। यह अतिरिक्त श्रम-शक्ति उत्पादन कार्यों में सहयोग देने की बजाय बाधा पहुँचाती है।

(16) उत्पादन आधिक्य की समस्या-

उचित उत्पादन नीति के अभाव में इन उद्योगों को कई बार उत्पादन आधिक्य की समस्या का सामना करना पड़ा है जिससे उपक्रमों को बन्द करने की समस्या सामने आयी है।

(17) उत्तरदायित्वहीनता-

सार्वजनिक उपक्रमों में नौकरी की अधिक सुरक्षा परन्तु प्रेरणाओं के अभाव में श्रमिकों व प्रबन्धकों में उत्तरदायित्व की कमी पाई गई है।

सार्वजनिक उपक्रम को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव उपोगी हो सकते हैं-

  1. औद्योगिक इकाइयों के आकार, स्थान, तकनीक आदि का चुनाव सावधानी से किया जाना चाहिए।
  2. इन उपक्रमों को पहले ही नियम आदि बनाने के बाद अधिकतम स्वतन्त्रता से कार्य करने दिया जाना चाहिए।
  3. इसके संचालन मण्डलों में योग्य व अनुभवी व्यक्ति नियुक्त किये जाने चाहिए।
  4. इन उपक्रमों के संचालन में कम से कम सरकारी या संसदीय हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।
  5. उपक्रम के कर्मचारियों की कुशलता में वृद्धि करने हेतु पुरस्कार, उन्नति आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  6. उपक्रम की प्रगति का पता लगाने हेतु सही आंकड़ों की प्राप्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  7. सार्वजनिक उपक्रमों में अपव्यय रोकने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिए।
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