अर्थशास्त्र

रॉडबर्टस का समाजवाद | रॉडबर्टस के प्रमुख आर्थिक विचार | रॉडबर्टस के विचारों की आलोचना

रॉडबर्टस का समाजवाद | रॉडबर्टस के प्रमुख आर्थिक विचार | रॉडबर्टस के विचारों की आलोचना

रॉडबर्टस का समाजवा

रॉडबर्टस: समाजवाद का रिकार्डो

(Rodbertus : Ricardo of Socialism)

मार्क्स के अतिरिक्त रॉडबर्टस ही एक ऐसा समाजवादी लेखक हुआ जिसका आर्थिक विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपने स्पष्ट तर्को, व्यवस्थित ढंग और अर्थशास्त्र से व्यापक ज्ञान के लिए प्रसिद्ध है। बेजनर तो उससे इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसे “समाजवाद के रिकार्डो” (Ricardo of Socialism) की उपाधि दी, क्योंकि कार्य रिकार्डो ने माल्थस और स्मिथ के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में किया था वही कार्य रॉडबर्टस ने अपने पूर्ववर्तियों के सिद्धान्तों के लिए किया।” यह बात निम्न विवेचन से भली प्रकार स्पष्ट हो जायेगी-

रिकार्डो का कार्य- यद्यपि रिकार्डो ने आर्थिक संसार को कोई नया मौलिक विचार तो नहीं दिया था तथापि आर्थिक विचारों के इतिहास में उसे एक महत्वपूर्ण स्थान मिला क्योंकि-

(1) उसने ही “राजनैतिक अर्थशास्त्र” को अर्थशास्त्र में परिवर्तित किया और आगे आने वाले विचारकों के लिए मार्ग बनाया।

(2) जबकि स्मिथ का कार्य क्षेत्र मुख्यत: उत्पादन था, तब रिकार्डो ने अपना ध्यान वितरण पर केन्द्रित किया। उसने समाज के विभिन्न वर्गों में पाये जाने वाले पारस्परिक संघर्ष का भंडाफोड़ किया और भू-स्वामी, श्रमिक तथा शेष समाज के विरोधी हितों का विश्लेषण किया।

(3) वह एक निराशावादी विद्वान था और उसने स्मिथ के प्रकृति की उदारता सम्बन्धी विचार का खण्डन किया।

(4) जबकि स्मिथ ने अपनी पुस्तक में अपना समकालीन परिस्थिति के अनुभवों का चित्रण किया था तब रिकार्डो ने परिश्रमपूर्वक सिद्धान्तों की खोज की। इस तरह रिकार्डो ने स्मिथ के विचारों को आगे बढ़ाया।

(5) उसने निगमन प्रणाली को अपनाया, व्यावहारिक जीवन के अनुभव पर आधारित होने के कारण उसके विचारों में असंगति नहीं पाई जाती

(6) कार्ल मार्क्स पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसका मूल्य सिद्धान्त समाजवादियों के साध में एक शक्तिशाली हथियार बन गया।

रॉडबर्टस का कार्य-

जिस प्रकार रिकार्डो को परम्परावादी विचारधारा का एक बड़ा प्रतिनिधि माना जाता है उसी प्रकार रॉडबर्टस को समाजवादी विचारधारा का एक बड़ा प्रतिनिधि यूटोपियन समाजवाद एवं समाजवादी आलोचक माना गया है। उसने अपने पूर्ववर्तीय समाजवादी विचारकों के विचारों को पूर्णता प्रदान की। स्मिथ के समय से लेकर 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक लोग यह समझते थे कि सरकारी हस्तक्षेप की नीति व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हानिकारक है तथा अहस्तक्षेप की नीति ही अधिक लाभप्रद है। किन्तु शनै:-शनैः लोगों का विश्वास बदलने लगा और वे सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता का अनुभव करने लगे। फलतः उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जर्मनी में एकnआन्दोलन प्रारम्भ हुआ, जो ‘हस्तक्षेपवाद’ (Interventionism) या अधिकारियों के समाजवाद (Socialism of the Chair) के नाम से प्रसिद्ध है। इसने राज्य-हस्तक्षेप के सिद्धान्तों का प्रचार करना आरम्भ किया।

राज्य समाजवाद का प्रचार धीरे-धीरे हुआ। इसके प्रचारकों में रॉडबर्टस और लसाले प्रमुख हैं। ये व्यक्ति उक्त वाद के पूर्ववर्ती कहे जाते हैं। यों इनसे भी पहले अनेक विचारकों ने संसार की अहस्तक्षेप नीति को किसी न किसी रूप में बुरा बताया था। आलोचना का आरम्भ सबसे पहले रिकार्डो और माल्थस ने किया था, किन्तु ये विद्वान् व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को बुरा नहीं समझते थे। तत्पश्चात् सिसमण्डी ने स्वतन्त्र प्रतियोगिता के बारे में आलोचना करते हुए बताया कि उससे गरीबों का शोषण होता है। लिस्ट (जर्मनी) ने कहा कि स्वतन्त्र प्रतियोगिता से केवल थोड़े से व्यक्तियों का हित होता है जबकि सारे राष्ट्र का हित सरकार के द्वारा सम्भव है। मिल (इंग्लैण्ड) ने भी यह विचार प्रकट किया कि जनहित सम्बन्धी कार्य राज्य को करने चाहिए। केवेलियर और कुर्नों (फ्रांस) ने भी सामाजिक उन्नति का दायित्व सरकार पर डाला। सेण्ट साइमोनियन्स, लुई ब्लाँ एवं प्रोदों ने समाजवाद को एक नैतिक आधार प्रदान किया।

रॉडबर्टस ने इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाया और सिसमण्डी व सेण्ट साइमोनियन्स एवं

  शताब्दी के अन्तिम भाग में होने वाले समाजवादी विद्वानों के आर्थिक विचारों को एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य किया। अत: उसके कार्य के महत्व को देखते हुए वैजनर को ठीक ही उसने ‘समाजवाद के रिकार्डो’ की उपाधि दी।

रॉडबर्टस के प्रमुख आर्थिक विचार

(Main Economic Ideas of Rodburtus)

एडम स्मिथ की तरह रॉडबर्टस को भी इस बात में विश्वास था कि समाज का आधार श्रम- विभाजन है और आर्थिक समाज की सदस्यता प्राप्त करते ही मनुष्य को अपने कल्याण के लिए अपनी क्रियाओं के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों की क्रियाओं पर भी निर्भर होना पड़ता है। उसके मतानुसार मानव कल्याण को अधिकतम करने के लिए समाज में तीन प्रकार की क्रियायें आवश्यक हैं- (i) माँग की सन्तुष्टि के लिए पर्याप्त उत्पादन होना चाहिए, (ii) उत्पादन की मात्रा इतनी रखी जाय कि देश के विद्यमान आर्थिक प्रसाधनों का समुचित उपयोजन हो सके और (iii) संयुक्त उत्पत्ति का विभिन्न सहयोगियों में न्यायपूर्वक वितरण होना चाहिए।

ये कर्तव्य किस प्रकार सम्पन्न होते हैं, इस बारे में रॉडबर्टस का मत परम्परावादियों से भिन्न था। परम्परावादियों के मतानुसार ये सब कर्त्तव्य प्राकृतिक नियम की क्रियाशीलता से स्वतः पूरे होते रहेंगे और इस हेतु आर्थिक स्वतन्त्रता एवं स्वतन्त्र प्रतियोगिता को वांछनीय समझते थे। किन्तु रॉडबर्टस का कहना था कि आर्थिक प्रणाली स्वतः ही समन्वित ढंग से कार्य करने में असमर्थ है, क्योंकि समाज में विभिन्न आर्थिक दशाओं वाले विभिन्न वर्ग पाये जाते हैं। यदि इसे स्वतन्त्र छोड़ दिया जाय, तो इससे धनी (या बलशाली) वर्ग निर्धन (या दुर्बल) वर्ग का शोषण करेगा, जिससे श्रमिकों की दशा शोचनीय हो जायेगी तथा आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ेगा, क्योंकि लोग उचित प्रकार से उपभोग न कर सकेंगे। इन सब बुराइयों से बचने के लिए देश की अर्थ व्यवस्था में सरकार का हस्तक्षेप अत्यन्त आवश्यक है। राज्य को चाहिए कि अपने नियम बनाने और अपने संगठन का विकास करे, क्योंकि किसी भी राज्य के अंग स्वयं विकसित नहीं होते, उन्हें विकसित करना पड़ता है। अत: राज्य को चाहिए कि अपने विभिन्न अंगों को प्रोत्साहन दे, दृढ़ बनाये और नियन्त्रण में रखे। वास्तव में राज्य की पूजा जर्मन विचारधारा की एक परम्परागत विशेषता है और रॉडबर्टस के लिए राज्य देवस्वरूप था।

रॉडबर्टस के पूँजीवादी अर्थव्यवस्था सम्बन्धी अपने विश्लेषण को निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित किया-

(I) उत्पादन का श्रम सिद्धान्त (Labour Theory of Productivity)

रॉडबर्टस के अनुसार श्रम ही सब वस्तुओं का उत्पादन करता है। एडम स्मिथ की भाँति वह कहता है- “प्रत्येक राष्ट्र की वार्षिक श्रम वह कोष है, जो इसे (राष्ट्र को) जीवन की आवश्यकता एवं आरामदायक वस्तुयें, जिनका वह प्रतिवर्ष उपभोग करता है, प्रदान करता है। इन वस्तुओं में या तो इस श्रम द्वारा उत्पन्न वस्तुयें सम्मिलित होती हैं, अथवा वे वस्तुयें सम्मिलित होती हैं जो कि इनके बदले अन्य राष्ट्रों से खरीदी जायें।” श्रमिक वस्तुओं को चाहे प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों द्वारा बनायें और काम या अप्रत्यक्ष रूप से पूँजी (मशीन एवं औजार) द्वारा। उसकी राय में पूँजी संचित श्रम ही है। जिन वस्तुओं का उत्पादन श्रम द्वारा होता है उन्हीं को उसने आर्थिक वस्तुयें माना है और अन्य वस्तुयें ‘प्राकृतिक’ होती हैं । उसने यह भी बताया कि वस्तु को उत्पन्न करने में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के श्रम लगते हैं। मानसिक श्रम को वह भूमि की भाँति ही एक निःशुल्क प्राकृतिक उपहार मानता है उसका विचार था कि मानसिक श्रम कभी भी नाश न होने वाली शक्ति है तथा इसकी कुछ लागत भी नहीं होती, किन्तु शारीरिक श्रम में समय और शक्ति का व्यय होता है। अत: जबकि मानसिक श्रम को आवश्यक मानते हुए वह इसके लिए कोई मूल्य नहीं देना चाहता, तब शारीरिक श्रम के बदले में वह पुरस्कार देने का समर्थन करता है।

यहाँ पर प्रश्न उठता है कि वस्तुओं का मूल्य कैसे तय होना चाहिए? इस सम्बन्ध में रॉडबर्टस के विचार कार्ल मार्क्स के विचारों से कुछ भिन्न हैं। कार्ल मार्क्स ने बताया है कि श्रम’ हो वस्तु का मूल्य है क्योंकि श्रम ने ‘मूल्य’ (Value) उत्पन्न किया। दूसरी ओर, रॉडबर्टस का कहना है कि श्रम उस्तु (Product) का उत्पादन करता है। उसने यह कभी नहीं कहा कि श्रम ने ही ‘मूल्य उत्पन्न किया। यद्यपि उसने यह कभी नहीं कहा कि श्रम मूल्य को उत्पन्न करता है तथापि उसने इसे कभी अस्वीकार भी नहीं किया। उसने बताया कि उत्पादन एक सामाजिक क्रिया है। अतः श्रमिक श्रम की उपज के केवल भाग की मांग कर सकता है जो कि उसके प्रत्यक्ष श्रम का परिणाम है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि सामाजिक प्रगति तब ही कायम रखी जा सकती है जबकि उत्पत्ति के मूल्य और इसके उत्पादन में खर्च की गई श्रम की मात्रा के मध्य एक उच्च अंश समन्वय हो। श्रम ही मूल्य का एक मात्र निर्धारक नहीं हो सकता, किन्तु वह इसका एक महत्वपूर्ण आधार है।

(II) घटते हुए मजदूरी अंश का सिद्धान्त (The Law of Diminishing Wage Share)

रॉडबर्टस ने उत्पादन के श्रम-सिद्धान्त की “घटती हुई मजदूरी के नियम” से सम्बन्धित किया और फिर इन्हीं दोनों सिद्धान्तों को मिलाकर न्यायपूर्ण वितरण की समस्या पर बल दिया तथा आर्थिक संकट सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

उसने घटती हुई मजदूरी का नियम सन् 1837 में प्रस्तुत किया था। इसे प्रस्तुत करने में वहbमुख्य रूप से सिसमण्डी द्वारा प्रभावित हुआ और उसने रिकार्डो के मजदूरी नियम को इसका आधार बताया। उसने बताया कि मजदूरी कभी भी जीवन निर्वाह के स्तर से अधिक नहीं होती, वरन् जीवन निर्वाह के स्तर तक ही सीमित रहती है। लसाले का भी, जिसने बाद में मजदूरी के लौह नियम (Iron Law of Wages) विकसित किया, यही केन्द्रीय विचार था। रॉडबर्टस ने कहा कि समाज की प्रगति के साथ राष्ट्रीय आय बढ़ती जाती है और मजदूरियाँ जीवन निर्वाह स्तर तक ही सीमित रहती हैं । अन्य शब्दों में जबकि कुल सम्पत्ति बढ़ रही है श्रमिकों को दिया जाने वाला सम्पत्ति अंश घटता जा रहा है, किन्तु लाभ, व्याज और लगान का अंश बढ़ता जा रहा है, यह सम्भव है कि राष्ट्रीय आय (या सम्पत्ति) की वृद्धि से श्रमिकों को पहले की अपेक्षा कुछ अधिक रकम मिले, किन्तु कुल उत्पादन के साथ इसका अनुपात घटता ही जाता है। इस प्रकार, दिन भर मेहनत करने वाले श्रमिकों का शोषण होता है और यह शोषण नित्य-प्रति बढ़ता जाता है किन्तु आलसी वर्ग (पूंजीपति आदि) मौज करते हैं। यह शोषण-चक्र निरन्तर चलता रहता है। अत: पूँजीवादी प्रणाली वाले समाज में श्रमिक वर्ग की दशा कभी नहीं सुधर सकती।

(III) लगान का सिद्धान्त (The Theory of Rent)

रॉडबर्टस ने लगान के विरोध में भी विचार प्रस्तुत किये। उसने अपने लगान सम्बन्धी विचार को समझाने के लिए राष्ट्रीय आय को दो भागों में बाँटा-मजदूरी और लगान। आगे चलकर उसने लगान को भी दो भागों में विभाजित किया- (अ) पूँजी का लगान (Capital Rent) अर्थात् ब्याज और (ब) भूमि का लगान (Land Rent)| रॉडबर्टस के मतानुसार समाज में लगान के अस्तित्व के दो कारण हैं-

(1) आर्थिक कारण- प्रत्येक श्रमिक जो कुछ उत्पन्न करता है वह उसके जीवन-निर्वाह से अधिक होता है जबकि उसे उत्पादन में से केवल इतना ही भाग मिलता है जो कि उसके जीवन-निर्वाह के लिए पर्याप्त हो। अत: इस तरह से जो बचत होती है उसे ‘लगान’ के रूप में सेवायोजक अपने पास रख लेते हैं।

(2) कानूनी कारण- भूमि और पूंजी प्राइवेट सम्पत्ति होती है। इस कारण इनके स्वामी श्रमिकों का आसानी से शोषण कर सकते हैं और अतिरिक्त बचत को स्वयं हड़प लेते हैं।

(IV) आर्थिक संकट का सिद्धान्त (Theory of Commercial Crisis)

रॉडबर्टस का आर्थिक संकट सम्बन्धी सिद्धान्त उसके मजदूरी घटने के सिद्धांत पर ही आधारित है। सभ्यता की प्रगति के साथ-साथ पूँजीवादी उद्योगों का विकास होता जाता है, जिससे भूमिपतियों और पूंजीपतियों का भाग (लगान एवं व्याज) बढ़ता है और श्रमिकों का भाग (मजदूरी) कम होता जाता है। इस प्रकार एक ओर तो उत्पादन बढ़ता है किन्तु दूसरी ओर उपभोग कम होता है, क्योंकि क्रय-शक्ति कम होने के कारण श्रमिक कम उपभोग कर पाते हैं। परिणामत: वस्तु को माँग पूर्ति से कम रहती है। उस अत्युत्पत्ति (Over-production) को रोकने के लिए उत्पादन कम किया जायेगा, इस हेतु कुछ कारखाने बन्द करने पड़ेंगे, श्रमिकों को छंटनी होगी, बेकारी बढ़ेगी और फलतः उपभोग और भी कम हो जायेगा तथा आर्थिक संकट पहले से भी अधिक उग्र हो जायेगा। यह उल्लेखनीय है कि सिसमण्डी ने भी इससे मिलता-जुलता आर्थिक संकट का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था लेकिन इससे वह समाजवादी निष्कर्षों पर नहीं पहुंच सका था।

रॉडबर्टस के विचारों की आलोचना

(Criticism of Rodburtus)

रॉडबर्टस के उक्त विचारों की अनेक आलोचनाएँ हुई हैं, जिनको संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है-

(1) सामाजिक माँग का अनुमान लगाना कठिन है- उसका यह कहना कि सामाजिक माँग को मालूम किया जा सकता है, अव्यावहारिक है। वास्तविक व्यवहार में सभी व्यक्तियों की माँग समान नहीं होती। इसके अतिरिक्त, यदि उत्पादन इस मांग के आधार पर किया गया, तो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता कम हो जायेगी। रॉडबर्टस ने इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर ध्यान नहीं दिया।

(2) वर्तमान तथा भविष्य समाजों के सम्मिश्रण का विचित्र विचार- उसने वर्तमान समाज और भविष्य के समाजवादी समाज के बीच एक विचित्र तरीके से समन्वय करने का प्रयास किया है। वह एक ओर प्राइवेट सम्पत्ति और अनुपार्जित आय का कटु विरोध करता है, जिसका प्रत्यक्ष उपाय है राष्ट्रीयकरण, किन्तु दूसरी ओर राष्ट्रीयकरण की अवस्था शताब्दियों दूर बताकर उक्त बुराइयों के सुधार का महान कार्य सरकार पर छोड़ देता है, जो नियम बनाकर कुछ सुधार करे। इस प्रकार वह एक समाजवादी न होकर ‘राज्य समाजवादही’ बन जाता है। (कुछ लोगों का कहना है कि रॉडबर्टस जर्मनी का एक बड़ा जमींदार और विशिष्ट पुरुष था, जिससे वह अपने निर्णय से पीछे हट गया।)

(3) सरकार द्वारा सब कामों को उचित रूप से कर पाने का गलत विचार- उसने यह भी गलत रूप से मान लिया है कि सरकार सब कामों को उचित प्रकार से कर सकती है; क्योंकि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एक बहुत बड़ी प्रेरणा है।

(4) वितरण का ढंग मात्र सैद्धान्तिक- उसका वितरण करने का ढंग कि ‘प्रत्येक को उसके उत्पादन के अनुसार हिस्सा दिया जाय’ भी केवल सैद्धान्तिक है। इसे कार्य रूप में परिणित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें आर्थिक संकटों की सम्भावना रहती है।

उक्त आलोचनाओं के उपरान्त भी यह स्वीकार करना होगा कि उसने राज्य समाजवाद को एक पर्याप्त रूपरेखा हमारे सामने प्रस्तुत कर दी थी। उसके सुझावों में राज्य समाजवाद के बीज निहित कहे जा सकते हैं। तभी तो उसे ‘समाजवाद का रिकार्डो’ कहा गया। फ्रांसीसी समाजवादी विचार के मौलिक पहलू पर बल देकर तथा इसके सुपरिणामों पर ध्यान केन्द्रित करके उसने वह आधार प्रदान किया, जिस पर बाद में ‘जर्मन राज्य-समाजवाद’ का निर्माण हुआ। वह वास्तव में एक ऐसा माध्यम बना जिसके द्वारा सिसमण्डी, सेण्ट साइमन और प्रोदों के विचार जर्मन समाजवादी आन्दोलन को प्राप्त हुए। हैने की सम्मति में, “उसने किसी भी अन्य समाजवादो लेखक को अपेक्षा (मार्क्स को छोड़कर) आर्थिक विचार पर मन से अधिक प्रत्यक्ष प्रभाव डाला है। किन्तु जर्मनी में उसके प्रशंसकों का कहना है कि उसके विचार कार्ल मार्क्स के विचारों को अपेक्षा अधिक गहरे थे।

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Pankaja Singh

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