सिसमण्डी | सिसमण्डी के प्रमुख आर्थिक विचार | सिसमण्डी का आलोचनात्मक मूल्यांकन | काल्पनिक समाजवाद क्या है | सिसमण्डी एक समाजवादी विचारक के रूप में

सिसमण्डी | सिसमण्डी के प्रमुख आर्थिक विचार | सिसमण्डी का आलोचनात्मक मूल्यांकन | काल्पनिक समाजवाद क्या है | सिसमण्डी एक समाजवादी विचारक के रूप में

सिसमण्डी

समाजवादी विचार लगभग प्रत्येक युग में ही प्रचलित रहे परन्तु समाजवाद विशेष रूप में उन्नीसवीं शताब्दी देन है। इसके अन्तर्गत समाज के वर्गीय भेदभाव को समाप्त करके सामाजिक एवं आर्थिक समानता की स्थापना की गई। प्लेटो की रिपब्लिक और टामस मूर की ‘यूटीफ्यिा’ राजनीतिक उतोपियाओं के शानदार उदाहरण हैं। इसी प्रकार साम्यवादी उतोपियाओं के उदाहरण हमको टामस काम्पानेला के ‘सिटौ आफ दि सन्’ तथा जान वेलण्टीन ऐण्ड्यिाई के ‘क्रिस्तयानो पोल’ में मिलते हैं।

(A) (Sismondi) सिसमण्डी (1773-1842)

सिसमण्डी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “New Principle of Political Economy” के अन्तर्गत प्रमुख आर्थिक विचारों को प्रस्तुत किया। फ्रांस को क्रान्ति, नेपोलियन युद्ध, औद्योगिक क्रान्ति को पराकाष्ठा और कारखाना प्रणालो आदि को उनके आर्थिक विचारों पर स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है।

सिसमण्डी के प्रमुख आर्थिक विचार

सिसमण्डो के प्रमुख आर्थिक विचार निम्न प्रकार थे-

(1) अर्थशास्त्र का उद्देश्य एवं उसकी परिभाषा- एडम स्मिथ ने अर्थशास्त्र को ‘धन का विज्ञान’ कहा और इसलिए उनके विचार उत्पादन से सम्बन्धित रहे। लेकिन सिसमण्डो ने यूरोप भ्रमण के दौरान उद्योग और वाणिज्य के विकास को देखा। वहां उन्होंने लोगों को सुखी नहीं पाया।

अत: उन्होंने कहा कि अर्थशास्त्र को केन्द्रीय समस्या कल्याण को है, धन या धन के उत्पादन की नहीं। धन तो कल्याण की प्राप्ति का एक साधन होने से महत्व प्राप्त करता है। इस प्रकार वे उत्पादन के साथ-साथ उपभोग और वितरण का अध्ययन करने को महत्व देते हैं। उन्होंने अपने इस नवीन दृष्टिकोण के आधार पर अर्थशास्त्र को निम्न प्रकार परिभाषित किया-

“राजनीतिक अर्थशास्त्र एक उदारता का सिद्धान्त है और कोई भी सिद्धान्त जो अपने अन्तिम विश्लेषण में मानव जाति के कल्याण में वृद्धि नहीं करता इस विज्ञान में स्थान नहीं पा सकता।” सरल शब्दों में, वे अर्थशास्त्र को आदर्श विज्ञान (normative science) बनाना चाहते थे। मानव कल्याण को बढ़ाने की दृष्टि से हो वे सरकारी हस्तक्षेप को आवश्यक समझते थे और धन के उचित वितरण के पक्ष में थे।

(2) अध्ययन की रीतियाँ- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए निगमन प्रणाली को अपनाया था। सिसमण्डी उनसे सहमत नहीं थे।

इनका कहना था कि व्यावहारिक समस्याओं के अध्ययन के लिए कोई नियम बनाने की आवश्यकता नहीं है, वरन् इतिहास, अनुभव और परीक्षण का आश्रय लेना चाहिए। सम्भवत: स्वयं एक अच्छे इतिहासकार होने के कारण उन्होंने इतिहास पर इतना बल दिया। इस प्रकार वे आगमन प्रणाली के समर्थक थे। अध्ययन के इस तरीके के कारण उन्हें ऐतिहासिक सम्प्रदाय (Historical school) का सतम्भ कहा जाता है। इसके तरीके ने जर्मनी के ऐतिहासिक सम्प्रदाय के लिये मार्ग बना दिया।

(3) अति उत्पादन- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की राय में अति उत्पादन और न्यूनोत्पादन विरल दशायें थीं, सामान्य या व्यापक अति उत्पादन या न्यूनोत्पादन की दशायें विद्यमान नहीं होती। अर्थव्यवस्था स्वतः सन्तुलित (Self Balancing) होती रहती है और पूर्ति स्वयं मूल्य यन्त्र के निर्देशानुसार माँग के साथ समायोजित होती रहती है। अत: उत्पादन पर नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं है। किन्तु सिसमण्डी ने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की इस धारणा को अव्यावहारिक बताया। उसके मतानुसार मांग वृद्धि होने पर पूर्ति को सहज ही बढ़ाया जा सकता है लेकिन माँग में कमी होने पर उसे घटाना सहज नहीं होता, जिससे अति उत्पादन की स्थिति आ जाती है। पूर्ति को घटाने में सर्वप्रमुख बाधा साधनों की गतिहीनता द्वारा प्रस्तुत होती है। उत्पत्ति साधन सहज ही मंदी वाले उद्योग को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। दीर्घकाल में भले ही ऐसा हो जाय किन्तु अल्पकाल में, पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में, अत्युत्पादन की दशा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अत: अर्थव्यवस्था में स्वतः सन्तुलन होने का विचार गलत है। हमें अत्युत्पादन से मुकाबला करने को सदैव तत्पर रहना चाहिये क्योंकि इसके बहुत से दुष्परिणाम होते हैं।

(4) मशीनों के प्रयोग से सम्बन्धित विचार– प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री देश को समृद्धशाली बनाने के लिए उत्पादन बढ़ाना चाहते थे और उत्पादन बढ़ाने के लिये उन्होंने मशीनों वे बड़े पैमाने के उत्पादन पर बल दिया। इनके कारण उत्पादन बढ़ जाता है, लागत व्यय में कमी होती है और फलस्वरूप मूल्य घटते हैं । इससे उपभोक्ताओं को वस्तुयें सस्ती और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने लगती हैं। किन्तु सिसमण्डी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि इतिहास, अनुभव और परीक्षण से इस विचार की पुष्टि नहीं होती है। मशीनों ने श्रमिकों को काम पर हटाया है और उनमें प्रतियोगिता बढ़ा कर उनकी मजदूरी को कम करा दिया है। इस प्रकार श्रमिकों की दशा बिगड़ने से उनकी क्रय शक्ति में कमी आती है, जिससे वस्तुओं की माँग कुप्रभावित होती है। अत: सिसमण्डी ने मशीनों को समाज का दुश्मन’ कहा। किन्तु स्मरण रहे कि उन्होंने मशीनों के प्रयोग को पूर्णतया अनुचित नहीं बताया। कुछ शर्ते पूरी कर देने पर वे लाभप्रद भी हो सकती हैं।

(5) प्रतिस्पर्धा एवं लाभ- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने प्रतिस्पर्धा को समाज के लिए कल्याणकारी बताया, क्योंकि इससे श्रम विभाजन को बढ़ावा मिलता है, वस्तुयें सस्ती होती हैं और उत्पादन भी बढ़ता है। किन्तु सिसमण्डी इस मत से असहमत थे। उनकी राय में प्रतिस्पर्धा तभी लाभदायक होती है, जबकि वस्तु की माँग बढ़ती जाये। स्थिर मांग को दशा में यदि प्रतिस्पर्धा हुई तो उत्पादन में वृद्धि तो हो जायेगी, लेकिन समस्त उत्पादित माल नहीं बिक सकेगा, जिससे उत्पादक दिवालिया तक हो सकते हैं। पुनः उत्पादन बढ़ने से लागत व्ययों में जो कमी आती है उसका लाभ पूँजीपति खुद ले लेते हैं, श्रमिकों एवं उपभोक्ताओं तक नहीं पहुँचने देते। उत्पादन लागत को कम करने के लिए वे मजदूरियों में कटौती करते हैं, स्त्री-बच्चों को काम पर रखते हैं तथा लम्बे घण्टों तक कार्य कराते हैं। इस प्रकार प्रतिस्पर्धा सिसमण्डी की राय में एक दुधारी तलवार है।

(6) आर्थिक संकट- सिसमण्डी प्रथम अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के दोषों को स्पष्ट करते हुए आर्थिक संकटों के कारण पता लगाने का प्रयास किया। उनके अनुसार आर्थिक संकट उदय होने के कारण इस प्रकार हैं-आधुनिक औद्योगिक प्रणाली समाज को दो वर्गों में बाँट देती है-पूँजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग। इससे मध्यम वर्ग को समाप्त कर दिया है। लघु उपक्रमी कारखानों में मजदूर के रूप में कार्य करने के लिए विवश हो गये हैं, क्योंकि वे बड़े उद्योगपतियों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं। इन बड़े पूँजीपतियों से रक्षा करना समाज के लिये कठिन हो गया है। विवश श्रमिकों को पूँजीपतियों के इशारे पर नाचना पड़ता है। सम्पत्ति का एक बड़ा भाग पूंजीपतियों के पास केन्द्रित हो जाता है। श्रमिकों की क्रयशक्ति घट जाती है। इससे जीवनयापन की आवश्यक वस्तुएँ बनाने वाले उद्योगों का हास होता है, क्योंकि इन वस्तुओं के लिए माँग में कमी हो गई है किन्तु विलास वस्तुओं वाले उद्योगों का विस्तार होता है, क्योंकि इनके लिये पूँजीपति पहले से अधिक खर्च करने में समर्थ हैं। आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कभी- कभी इतना कम हो जाता है कि इनका आयात करना पड़ जाता है। हासवान उद्योगों में श्रमिकों की छटनी की जाती है, जिससे बेकारी बढ़ती है, माँग और भी कम हो जाती है, जिससे अत्युत्पादन की स्थिति पैदा हो जाती है और समाज आर्थिक संकटों में फँस जाता है।

आर्थिक संकट उत्पन्न होने का एक कारण यह भी है कि बाजार बहुत विस्तृत बन जाने से उत्पादकगण वस्तु की माँग का सही-सही अनुमान नहीं लगा पाते। इसके अतिरिक्त वे वस्तु का उत्पादन उसकी माँग के अनुसार नहीं, वरन् पूँजी की उपलब्ध मात्रा के अनुसार करते हैं। राष्ट्रीय  आय के विषय वितरण को भी उन्होंने आर्थिक संकटों के लिये दायी ठहराया है।

सिसमण्डी का आलोचनात्मक मूल्यांकन

सिसमण्डी का आर्थिक विचारों के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। वह पहले अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने बहु काल से सम्मानित चले आ रहे परम्परावादी सिद्धान्तों पर चोट की। यही नहीं उन्होंने कुछ नये विचार भी दिये, जिनका प्रभाव आगे चलकर बहुत से अर्थशास्त्रियों पर पड़ा।

(1) उन्होंने स्वतंत्र व्यापार के सिद्धान्त का विरोध करते हुए सरकार के हस्तक्षेप का जो सुझाव दिया उससे रोबर्ट ओबन, चार्ल्स फुर्ये और लुईब्ला बहुत प्रभावित हुए तथा इन्होंने भी सरकार को श्रम कानून बनाने की राय दी।

(2) मिल एवं रस्किन भी सिसमण्डी से प्रभावित थे तभी तो उन्हाने भा अर्थशास्त की मानवतावादी परिभाषा दी और अध्ययन हेतु दोनों प्रणालियों (निगमन एवं आगमन) को आवश्यक बताया।

(3) सिसमण्डी से प्रभावित होकर रोश्चर, हिल्डेब्रांड, श्मोलर आदि ने निगमन प्रणाली की अपेक्षा आगमन प्रणाली पर बल दिया।

(4) नवपरम्परावादी सम्प्रदाय के जन्मदाता मार्शल भी सिसमण्डी से प्रभावित हुए और उन्होंने मानव कल्याण पर आधारित अर्थशास्त्र की परिभाषा दी।

(5) राज्य समाजवादियों ने सिसमण्डी से प्रेरणा लेते हुए जनहित सम्बन्धी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की मांग की।

(6) मार्क्स एवं ऐंजिल के विचारों पर सिसमण्डी का स्पष्ट प्रभाव है। सिसमण्डी के अनेक विचारों ने उनके सिद्धान्तों के लिये आधारशिला का काम किया।

(7) राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी सिसमण्डी से प्रेरणा ली और लघु उद्योगों का समर्थन किया तथा मशीनीकरण का विरोध किया।

इस प्रकार आर्थिक विचारों के समुद्र में सिसमण्डी का स्थान उस लाइट हाऊस की भाँति है, जो कि समुद्र में आने-जाने वाले जहाजों का मार्गदर्शन करता है।

सिसमण्डी एक समाजवादी विचारक के रूप में

(Sismondi as a Socialist Thinker)

कुछ आलोचकों का कहना है कि सिसमण्डी ने जो विचार प्रकट किये उनसे ऐसा प्रकट होता है कि वह एक समाजवादी विचारक था। कई स्थलों पर हम उसे रोबर्ट ओवन, सेन्ट साइमोनियन्स और मार्क्स के समान विचारक प्रस्तुत करते हुए पाते हैं। उदाहरण के लिए Non veaux  Principles में एक स्थान पर उसने लिखा है कि “आधुनिक समाज श्रमिकों को लूट कर जिन्दा रहता है, क्योंकि वह उनके श्रम का कम प्रतिफल देता है।” वह आगे कहता है कि, वास्तव में यह एक ‘लूट’ ही तो है। क्या हम धनिकों को निर्धनों का शोषण करते हुए नहीं देखते? वे स्वयं तो उपजाऊ खेतों से अपनी आय बढ़ाते रहते हैं, लेकिन बिचारे कृषक, जो कि उस आय के वास्तविक उत्पादन हैं, भूखों मरते हैं।”

क्या ये तर्क उस समाजवादी जैसे प्रतीत नहीं होते, जो कि बुर्जुआओं को निन्दा कर रहा हो? क्या इन तर्कों से मार्क्स के आधिक्य-श्रम और आधिक्य मूल्य सिद्धान्तों (Theories of Surplus Labour and Surplus Value) के लिए पर्याप्त आधार-सामग्री नहीं मिलती है? परम्परावादी सिद्धान्तों की व्यावहारिकता व्यर्थता से असन्तुष्ट होकर सिसमण्डी सरकार को हस्तक्षेप करने का परामर्श देते हैं और इस तरह एक दृष्टि से वे अपने बाद में आने वाले हस्तक्षेपवादियों (interventionists) के प्रसिद्ध वर्ग के अग्रणी (pioner) बन जाते हैं। श्रमिकों की दशा सुधारने हेतु उन्होंने जो सुझाव दिये उनमें निम्न का समावेश है-बाल श्रम पर रोक लगाना, रविवार को काम कराने का निषेध, कार्यशील घण्टों में कमी करना, कृषक भूस्वामित्व प्रणाली (peasant proprietorship) का पुनरोद्धार करना। वह एक ऐसे स्वर्णिम युग की पुनःस्थापना के लिए इच्छा रखता है, जिसमें छोटा कृषक भी उस भूमि का मालिक होगा, जिस पर वह परिश्रम करता है और कारीगर भी अपने ही घर में सुखपूर्ण परिस्थितियों के अन्तर्गत कार्य करेगा। वे मजदूरों को संगठित होने की सलाह देते हैं और मशीनों व आविष्कारों का विरोध करते हैं।

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